लखनऊ,02 नवंबर 2015 : कल साँय क़ैसर बाग स्थित राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में डॉ सादिया सिद्दीकी की पुस्तक ' डॉ राही मासूम रज़ा और उनके उपन्यास ' का विमोचन व एक परिचर्चा का आयोजन डॉ राही मासूम रज़ा साहित्य एकेडमी के तत्वावधान में किया गया। कार्यक्रम का संचालन प्रज्ञा पांडे जी ने कुशलतापूर्वक सम्पन्न किया।
मंचस्थ विद्वानों में डॉ श्रद्धा सिंह,नरेश सक्सेना और वंदना मिश्र जी शामिल रहे ।
प्रारम्भ में डॉ सादिया सिद्दीकी ने पुस्तक का परिचय देते हुये बताया कि, भारतीय मुसलमानों की संवेदनाओं का वर्णन डॉ राही के उपन्यासों में मिलता है । मुस्लिम समाज राष्ट्रीय धारा से कट कर सिमटता जा रहा था उसे डॉ राही ने अपनी मृत्यु ( 15 मार्च 1992 ) पर्यंत अपने उपन्यासों का केंद्र बनाया है। उनके उपन्यासों पर प्रकाश डालना और उनका मूल्यांकन समाज के समक्ष करना ही उनकी पुस्तक का उद्देश्य रहा है।
अखिलेश श्रीवास्तव'चमन' का कहना था कि कबीर दास जी की आत्मा ने मानों डॉ राही में पुनर्जन्म ले लिया था। इस पुस्तक में नई दृष्टि से राही का मूल्यांकन किया गया है। प्रेमचंद,वृन्दावन लाल वर्मा और जेनेन्द्र से तुलना कर राही को उनसे आगे इस पुस्तक के माध्यम से बताया गया है। उनका कहना था कि राही के साहित्य में तत्कालीन समाज का इतिहास भी उपलब्ध है और उनका साहित्य जन-भाषा का साहित्य है। समाज में मुस्लिम वर्ग की स्थिति 'अधर ' में थी राही ने इसे ही रेखांकित किया है।
नरेश सक्सेना जी ने कहा की राही का उपन्यास ' आधा गाँव ' आधे हिंदुस्तान की कथा है। देश के बँटवारे को राही ने 'इंसानियत का बंटवारा' कहा है। आज इस खाई को और चौड़ा किया जा रहा है। आज भाषा को सरकारी स्तर पर बर्बाद किया जा रहा है। विलोम को वे परिवार कहते हैं। साहित्य व संस्कृति को गड्ढे में डालने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में राही की प्रासांगिकता बढ़ जाती है और इस पुस्तक के माध्यम इस ओर प्रयास किया गया है।
नसीम साकेती साहब ने कहा कि सादिया ने राही के अनछुये रहे पहलुओं पर प्रकाश डाला है। राही द्वारा मुस्लिम त्रासदी पर लिखा हुआ आज मील का पत्थर साबित हो रहा है। यह पुस्तक विवेचनापूर्ण व सार्थक है। आधा गाँव में बताया गया है कि दंगे स्वतः स्फूर्त नहीं उकसाने से होते हैं और आज भी यही हो रहा है।
डॉ रेश्मा ने कहा कि सादिया ने राही-साहित्य पर जो कड़ी मेहनत की है वह इस पुस्तक के जरिये कामयाब रही है। उन्होने पुस्तक को ज़रूरी बताया। लेकिन पुस्तक में संदर्भों के आभाव की ओर भी उन्होने इंगित किया।
डॉ लारी ने सादिया की माता के साथ अपने सम्बन्धों की चर्चा करते हुये कहा कि सादिया को 'सच्चाई' का एहसास हुआ तभी उन्होने कलम उठाई । यह अच्छा कदम है वह चाहती थीं कि सच्छाई को सामने लाने के लिए और भी लोग आगे आयें।
उन्नाव से पधारे दिनेश जी चाहते थे कि कानपुर, उन्नाव और लखनऊ के साहित्यकार और संस्कृति कर्मी मिल कर डॉ राही के अभियान को आगे बढ़ाने की पहल करें। लेखक बंदिश नहीं मानता है और डॉ राही मासूम रज़ा केवल मुस्लिमों के ही लेखक नहीं थे उन्होने समग्र रूप से साहित्य -सृजन किया है। सिलसिलेवार रूप से सारी चिंताओं को इस पुस्तक में उठाया गया है।
रामविलास शर्मा शताब्दी वर्ष 2012 में डॉ श्रद्धा सिंह जी को उन्नाव में सम्मानित किया गया था किन्तु तब वह अपना पुरस्कार ग्रहण न कर पाईं थी। इस कार्यक्रम के दौरान दिनेश जी ने उनको प्रतीक चिन्ह भेंट किया व सादिया सिद्दीकी जी द्वारा श्रद्धा सिंह जी को शाल ओढ़वाया।
डॉ भारती सिंह जी ने ज़ोर देकर कहा कि राही ने इंसानियत की बात उठाई थी और उसकी आज भी ज़रूरत है।
शकील सिद्धीकी साहब का कहना था कि सादिया ने अहम काम किया है। राही की समवेदनाओं को जनता तक संप्रेषित करने का काम पहले भी हुआ है लेकिन जितना होना चाहिए था उतना नहीं हुआ है। इस दिशा में यह पुस्तक अच्छी पहल है। उनका कहना था कि आधा गाँव के माध्यम से मुस्लिम समाज में भी सम्पन्न व विपन्न की खाई को उजागर किया गया है। इस उपन्यास में वर्ग-विभाजन की स्पष्ट झलक मिलती है। राही ने ज़्यादा से ज़्यादा चिंताओं को समेटा है। सादिया ने बड़े करीने से हिन्दी में उर्दू साहित्य का विवेचन डॉ राही के बहाने से किया है जो तारीफ की बात है। उनका साफ कहना था कि कुछ बातों के छूट जाने के बाद भी सादिया की यह किताब प्रासांगिक होगी।
शकील सिद्दीकी साहब ने ध्यान दिलाया कि लखनऊ वासी 'राम लाल' साहब का भी उर्दू साहित्य में काफी योगदान रहा है। वह चाहते थे कि , नगरवासियों को ऐसे साहित्यकारों की जन्मतिथि व पुण्यतिथि पर स्मरण करना चाहिए।
डॉ श्रद्धा सिंह का कहना था कि जो खुशी एक किसान को अपना लहलहाता खेत देख कर होती है वैसी ही खुशी सादिया की पुस्तक - विमोचन के अवसर पर उनको हुई है। उनका कहना था कि स्वाधीनता संघर्ष सामूहिक था लेकिन आज़ादी त्रासदी रही और इसी बात को राही ने अपने उपन्यासों के माध्यम से उठाया है जिनकी मीमांसा इस पुस्तक में की गई है। 1857 के संघर्ष के समय हम भारतीय थे किन्तु साम्राज्यवादियों की साजिश से सांप्रदायिक त्रासदी सामने आई। उन्होने कहा कि किसी भी समुदाय की हैसियत सत्ता में भागीदारी और आर्थिक स्थिति से निर्धारित होती है । मुस्लिम समुदाय इन दोनों से ही वंचित है। उनका कहना था कि भारत का मुसलमान भारतीय है और उसकी तुलना विदेश के मुसलमानों से करना गलत है और आज यही गलत हो रहा है। राही ने इसी बात को अपने उपन्यासों द्वारा उठाया है। आज जब जाने-अनजाने साहित्य को हिन्दू-मुस्लिम,स्त्री,दलित,जनवादी और जनवादी में भी जलेस, प्रलेस, जसम में बाँट दिया गया है ; ऐसे में सादिया ने शोध में मुस्लिम पक्ष को उठाया तो कुछ गलत नहीं किया है। इसे सामाजिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है।
उनका मत था कि 'टोपी शुक्ला' में राही ने त्रासदी के कारणों का वर्णन नहीं किया बल्कि लोगों के मानवीय रिश्तों पर उसका क्या प्रभाव पड़ा था उसका वर्णन है। लेखक के मूल मन्तव्य को शोधकर्ता को पकड़ना चाहिए और सादिया ने यही किया है। राही के अनुसार विभाजन की त्रासदी ने नफरत, शक और डर को पैदा किया है जिस पर उनके उपन्यास रोशनी डालते हैं। टोपी शुक्ला में दर्शाया गया है कि 1) दादा-दादी की पीढ़ी में साझापन है जबकि, 2) विभाजन के बाद नफरत, शक और डर पनपा साथ ही साथ सामूहिक प्रभाव भी रहा है। 3 ) राजनीति के धर्म में घालमेल से सांप्रदायिकता पनपी और बढ़ी है और 4 ) सियासतदारी ने समझौता न कर पाने वालों के लिए 'आत्म-हत्या' की स्थिति उत्पन्न कर दी है और इसी सब को टोपी शुक्ला में समेटा गया है।
डॉ श्रद्धा सिंह का कहना था कि, उपन्यासों के अतिरिक्त भी राही का वैचारिक लेखन है, वह इंसानियत के पक्षधर थे। आगे के क्रम में सादिया को राही की पाँच कहानियों पर भी समीक्षा लिखवा कर प्रकाशित कराना चाहिए । उनका आशीर्वाद साथ है।
एकेडमी की अध्यक्ष वंदना मिश्र ने डॉ श्रद्धा से असहमति व्यक्त करते हुये कहा कि 1857 में हिन्दू और मुस्लिम मिल कर लड़े थे तब धर्म-निरपेक्षता का आविर्भाव नहीं हुआ था। उनका कहना था कि मुस्लिम समाज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तौर पर पिछड़ने के बावजूद मुस्लिम साहित्यकार पूर्ण रूप से सम्मानित रहे हैं। रसखान, जायसी, रहीम तब भी सम्मानित थे आज भी हैं। राही तो मुस्लिम नहीं 'इंसान' थे। उन्होने सादिया की पुस्तक से उद्धृत करते हुये कहा कि, त्रुटियाँ किसी कार्य की शर्त होती हैं । भावक तथा भावुक यदि इस ओर ध्यान दिलाएँ तो सादिया के प्रति उनका अतिरिक्त स्नेह होगा। इस संदर्भ में उन्होने पुस्तक में 'प्रूफ' की गलतियों की ओर इंगित करते हुये कहा कि अगले संस्करण के प्रकाशन से पूर्व सादिया इन अशुद्धियों को ठीक करा लें। राही के मशहूर उपन्यास 'कटरा बी आरजू' जो कि, एक राजनीतिक उपन्यास है का ज़िक्र करते हुये उन्होने कहा कि इस पुस्तक जो शोध का एक हिस्सा है में अनदेखी हुई है। इसके राजनीतिक महत्व को आगे रेखांकित किया जाना चाहिए। 'दिल एक सादा कागज' उपन्यास भी शोध की अपेक्षा रखता है । इसमें आज की अप-संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम प्रयास के लिए उन्होने सादिया को अपना आशीर्वाद दिया और आगे और कुछ करने की उम्मीद भी ज़ाहिर की।
धन्यवाद ज्ञापन शबनम जी ने किया। उन्होने आगंतुकों के अतिरिक्त विशेष रूप से सादिया जी के पति महोदय के अपनी पत्नी को सहयोग देने के लिए आभार भी व्यक्त किया। वंदना मिश्र, रामकिशोर जी, अनीता श्रीवास्तव, प्रज्ञा पांडे, कौशल किशोर, जन संदेश टाईम्स के प्रधान संपादक सुभाष राय, ओ पी सिन्हा, के के शुक्ला जी के नाम भी उन्होने विशेष रूप से लिए।
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