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Vir Vinod Chhabra
01-11-2015
समकालीन कविता - कविता फूल खिलने की तरह है
-वीर विनोद छाबड़ा
३१ अक्टूबर से लखनऊ में समकालीन कविता पर केंद्रित एक कार्यक्रम हुआ। आयोजन जनवादी लेखक संघ ने किया।
उद्घाटन सत्र में सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका सुशीला पुरी ने अपने स्वागत भाषण में कहा - कविता के बिना जीवन संभव नहीं है। मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं। संस्कृति के केंद्र लखनऊ में।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए बताया - १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में प्रेमचंद ने कहा था, साहित्य का मयार बदलना है। जो समझ में आने से पहले पहुंच जाए वो कविता है। कविता को किसान-मज़दूर के बीच जाना चाहिए, भले उसे समझ में न आये। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए। आज की स्थिति में हस्तक्षेप ज़रूरी है। प्रतिरोध का एक ढंग है, पुरुस्कार लौटना। सरकार को मैसेज देना है। और यह निष्फल नहीं हुआ। सरकार परेशान है। मैं भी आक्रोशित हूं। एक पुरुस्कार मेरे पास भी है। मैंने इसे बचा कर रखा है। किसी सही मौके पर विरोध दर्ज कराऊंगा। भीड़ का हिस्सा नहीं बनूंगा। कितना अच्छा हुआ कि बुद्ध पांच हज़ार साल पहले पैदा हुए। आज पैदा होते तो उनका वही हश्र होता जो आज कुलबुर्गी का हुआ है। बहुत सारे लोग हैं जो कविता को इग्नोर करते हैं, लेकिन कविता भी बहुत लोगों को इग्नोर करती है। इस माहौल में कविता होना बहुत मुश्किल है। बेहतर होगा कि पॉपुलर भाषा में लिखी जाये। लोकगीतों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाई जाए। कविता वही होती है जो आसानी से लोगों तक पहुंच जाये। आज डिमांड बहुत बड़ी है। बहुत बड़ा दौर है। पिछले पचास साल से समकालीन कविता का अंदाज़, भाषा, और विषयवस्तु में काफ़ी बदलाव आया है। ज़रूरत है समकालीन कविता का नाम भी बदला जाए। नामकरण हो। आज बोलने में भी डर लगता है। पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर कहते हैं मैं पहली पंक्ति लिखता हूं और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से.…पंक्ति लिखता हूं काट देता हूं.… कितनी पंक्तियों की हत्या करता हूं.… उनकी आत्मायें मंडराती हैं.… आप कवि हैं या कविताओं के हत्यारे?
उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि राजेश जोशी बताते हैं - बौद्धिक संपदा आमतौर पर वाम या डेमोक्रेट्स के हाथ में रही है। कांग्रेस के राज्य में कोई दिक्कत नहीं रही क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा ही नहीं थी। आज बीजेपी सत्ता में है। उसके पास बौद्धिक संपदा संभालने के लिये बौद्धिक गुण नहीं हैं। कोई अनुभव भी नहीं है। अहम जगह पर मिडियाकर किस्म के लोग बैठाये गए हैं। क़ाबिल लोग हैं ही नहीं। सर्जरी करके हाथी के सिर लगाने की बात करते हैं। कोई उनसे पूछे, हमेशा जानवरों के सर ही क्यों लगाये गए? सीनियर मंत्री जी कहते हैं जेएनयू में नक्सली भरे पड़े हैं। वहां बीएसएफ बैठा देनी चाहिए। धर्म की सत्ता लाने की कोशिश चल रही है। लोकतंत्र का अंत हो, धर्मनिरपेक्षता का अंत हो। जागरूक लोग प्रतीक्षा नहीं करते। जनजागृति करते हैं। टकराव की स्थिति बेहतरी के लिए है। हमें हमारी कविता को नया नाम देने की ज़रूरत है। मुश्किल है काम, लेकिन करना ज़रूरी है।
कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध कवि और लेखक नलिन रंजन सिंह ने किया।
उद्घाटन सत्र के पश्चात एक परिचर्चा हुई - समकालीन कविता, संवेदना और दृष्टि। इसकी अध्यक्षता इब्बार रब्बी ने की।
सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका प्रीति चौधरी कहती हैं - जब भी कविता की बात होती है तो लगता है मनुष्य ही कविता है। जिसमें मनुष्यता है, वही कविता करता है और समझता है। बौद्धिक संपदा कभी ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में रही। लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसीलिए प्रतिरोध हो रहा है। ज्ञान संवेदना की और ले जाता है और संवेदना ज्ञान की ओर ले जाती है। आज जब समय की विभीषिका की बात होती है तो मुझे लगता है गहरी रात है। भूमंडलीकरण की रात है। संकट है, लेकिन मैं निराश नहीं हूं। संकट मित्र के भेष में है। पता नहीं चलता कि नायक कब खलनायक में बदल जाता है। चौंका देता है। हम सब एक बिंदु पर रुक जाते हैं। मैं मनुष्य हूं लेकिन स्त्री होना ज्यादा संवेदनशील है। स्त्रियां आज स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। कविता ने सांप्रदायिकता को छोड़ा है, बहुत सारी ऐसी जगह हैं जहां कविता नहीं पहुंची है। जब किसी कविता से प्रेम करते हैं तो उसे जादू बना देते हैं, इबादत करने लगते हैं। लेकिन जब उस कवि से मिलते हैं तो लगता है यह तो बहुत कमजोर आदमी है, घृणा योग्य है। रह वही जाता है जो रचा जाता है। संप्रेषणीयता बहुत सीमित क्यों है? प्रभावशाली लोग इससे अपरिचित क्यों हैं? साहित्य नीति नहीं बना सकता। हमें ही किसानों के बीच जाना होगा। भूमंडलीकरण की रात है। कविता लिखना कठिन है लेकिन आज की पीढ़ी ने उसे स्वीकार किया है। अंधेरा कितना घना क्यों न हो, कविता कभी ख़त्म नहीं होती है।
समालोचक, चिंतक और कवि जीतेंद्र श्रीवास्तव ने कहा - आज़ादी के बाद से सब समकालीन है। १९८० के बाद की कविता भी समकालीन है। लेकिन १९९० के बाद के समय ने कविता को बहुत प्रभावित किया है। मंडल और कमंडल इसी काल में आया। भूमंडलीकरण का परिवारों पर प्रभाव पड़ा। एकल परिवारों का चलन बढ़ा। बाबरी मस्जिद विध्वंस भी इस दौर की बड़ी घटना है। धर्मवाद और जातिवाद गहरा हुआ। दलितों के विरुद्ध हिंसा को याद रखना होगा। इन्हीं के बीच से कविता निकल कर आई है। मुख्य धारा की कविता। आज की स्थिति यह है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है और जनता की ही चीज़ों को और उनके अधिकारों को छीन रही है। समकालीन तभी होंगे जब समकालीन लोगों के साथ खड़े होंगे, उनके लिए लड़ रहे होंगे। कवियों के सरोकार का विस्तार हो रहा है। समय को परिभाषित किया जा रहा है और समय से परिभाषित हो रहे हैं। यह स्वांता-सुखाय का दौर नहीं है। पैसे के लिए लिखा जा रहा है। लेकिन बहुत से लोग सर्व-कल्याण से जुड़े हैं। यह पहले भी था और अब भी है। वृहत्तर चिंताओं से जुड़ रही है आज की कविता। दलित व स्त्री विमर्श की कविता आई है। बहुत मुखर हो कर सामने आई है। इसे उसी वर्ग ने लिखा है। सांप्रदायिकता के विरुद्ध कविता आई है। यही संवेदना की दृष्टि है। आज जो लोग भारतीय दर्शन की बात करते हैं वो भारतीयता को जानते ही नहीं। परस्पर विरोधों के साथ चली है भारतीयता। यदि एक दृष्टि हावी होगी तो वो भारतीयता नहीं होगी। समकालीन कविता समझ रही है। सहचर्य व सौंदर्यबोध बड़ी उपलब्धियां हैं। दाम्पत्य जीवन को कविता में खूबसूरती रखा गया है। भविष्य का जीवन द्रव्य है। आत्महत्या बढ़ी हैं। परिवार विघठित हुए हैं। एकल परिवार बढे हैं। कविता के पास मध्यवर्गीय परिवार है। लेकिन गांव नहीं है। लेकिन कविता की विश्वसनीयता बढ़ी है।
सुप्रसिद्ध कवि अनिल कुमार सिंह ने कहा समकालीन कविता को लेकर भ्रम है। समकालीन का एक्सटेंशन हो रहा है। युवा शब्द का भी एक्सटेंशन हो रहा है। आज जो फासिस्ट उभार है वो चिंतित कर रहा। यह नया नहीं है। ऐसा पिछले २५-३० साल से चल रहा। मंडल-कमंडल और बाबरी मस्जिद विध्वसं भी फासीवादी था। इसने कविता को बहुत प्रभावित किया। बौद्धिक संपदा पर वाम का प्रभाव रहा है। इसी के बीच में रहे हैं ऐसे तत्व जो फासिस्ट रहे हैं। गंभीर प्रयास होना चाहिए। बने-बनाये फ्रेम में नहीं बैठे रहना चाहिए।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि और प्रोफ़ेसर सदानंद शाही ने कहा - लगता है कबीर भी हमारे समकालीन हैं। समकालीनता नाम बहुत लंबा खिंच गया है। कुछ नया होना चाहिए। अब तक हमने काम चलाऊ नाम रखे हैं। पचास का दशक, साठ का दशक.…नब्बे का दशक। सोवियत संघ के विघटन से प्रतिबद्धता का दबाव कम हुआ है। यह शुभ है। कवि का दायरा बढ़ा है। आदिवासी कविता ने हमें झिंझोड़ा है। उसके सपनों में रहा है - एक जोड़ी बैल और खेत। पेड़ की जगह पेड़ हो और समुंद्र की जगह समुंद्र। विकास का रोड-रोलर चीज़ों को एक जगह नहीं रहने देता। यह मिथक भी टूट रहा है कि भारत कृषि प्रधान देश है। भारत एक धर्म प्रधान देश है, ये मिथक भी नहीं रहा। भारत एक पाखंड प्रधान देश है। जीवन के हर हिस्से में पाखंड है। देखना होगा कि समकालीन कविता में प्रतिरोध कितना है और पाखंड कितना। राजेश जोशी ग़लत नहीं कहते हैं कि जो अपराधी नहीं होगा, वो मारा जायेगा। यह सच्चाई है। समकालीन कविता की उपलब्धि है। कलजुग के चौथे चरण में आदमी इतना छोटा हो जायेगा कि लग्घी से घंटा तोड़ेगा। आज वही समय है। कविता आज एक फूल के खिलने की तरह है, जिससे अंधरे के पहाड़ दरक जाएं।
प्रथम पंक्ति के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा - हमारे सामने संकट है और उससे निपटना भी है। फासीवाद की चुनौती है। हो सकता है सब ख़त्म भी हो जाए। पुरुस्कार वापसी से सरकार बौखलाई हुई है। जवाब साहित्य अकादेमी नहीं दे रही है राजनेता दे रहे हैं। आरएसएस द्वारा दिया जा रहा है। कहते हैं लेखक राजनीति कर रहे हैं। अगर राजनीति इतनी ही ख़राब है आप क्यों राजनीति में हैं? कांग्रेसी होने का आरोप लगाते हैं। अगर तुम्हें आएसएस का होने में गर्व है तो दूसरों को भी वाम और कांग्रेसी होने का गर्व क्यों नहीं हो सकता? अगर मैं कुछ लौटा रहा हूं बौखलाहट क्यों है। यह कविता का विषय है कि मैं प्रेम नहीं कर रहा हूं। यह लोग कहते हैं पुरुस्कार लौटाने से देश की छवि ख़राब होती है। लेकिन क्या हत्याएं करने से शर्म नहीं आती? नाक नहीं कटती? प्रेमचंद ने कहा था साहित्य मशाल है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मश्री लौटाई थी। लेखक इमरजेंसी के विरोध में जेल भी गए। सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने साहित्य अकादेमी पुरुस्कार लेने से ही मना कर दिया था। जिसको कुछ ख़राब लगता है वही क़लम उठाता है। मीरा को भी विरोध का सामना करना पड़ा। ज़हर का प्याला भेजा गया था उसको। बीफ़ का विरोध करने वाले ही उसके सबसे बड़े निर्यातक व्यापारी हैं। मौजूदा सरकार ने उन्हें सब्सिडी दी है। निर्यात बढ़ाया जा रहा। सच्चाई से लोगों को रूबरू कराने की सख़्त ज़रूरत है।
इस सत्र का संचालन सुप्रसिद्ध अजीत प्रियदर्शी ने किया।
समारोह में वीरेंद्र यादव, रविंद्र वर्मा, नवीन जोशी, तद्भव के अखिलेश, शक़ील सिद्दीक़ी, केके चतुर्वेदी, अशोक गर्ग, रामकिशोर, दीपक कबीर आदि अनेक जाने-माने लेखक, कवि और साहित्य से सरोकार रखने वाली हस्तियां मौजूद थीं।
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०१-११-२०१५
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1690240527876236
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
सुशीला पूरी जी उदघाटन भाषण देते हुये |
इस रिपोरताज के लेखक वीर विनोद छाबड़ा साहब दूसरी पंक्ति में सबसे दायें ध्यान मग्न |
Vir Vinod Chhabra
01-11-2015
समकालीन कविता - कविता फूल खिलने की तरह है
-वीर विनोद छाबड़ा
३१ अक्टूबर से लखनऊ में समकालीन कविता पर केंद्रित एक कार्यक्रम हुआ। आयोजन जनवादी लेखक संघ ने किया।
उद्घाटन सत्र में सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका सुशीला पुरी ने अपने स्वागत भाषण में कहा - कविता के बिना जीवन संभव नहीं है। मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं। संस्कृति के केंद्र लखनऊ में।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए बताया - १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में प्रेमचंद ने कहा था, साहित्य का मयार बदलना है। जो समझ में आने से पहले पहुंच जाए वो कविता है। कविता को किसान-मज़दूर के बीच जाना चाहिए, भले उसे समझ में न आये। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए। आज की स्थिति में हस्तक्षेप ज़रूरी है। प्रतिरोध का एक ढंग है, पुरुस्कार लौटना। सरकार को मैसेज देना है। और यह निष्फल नहीं हुआ। सरकार परेशान है। मैं भी आक्रोशित हूं। एक पुरुस्कार मेरे पास भी है। मैंने इसे बचा कर रखा है। किसी सही मौके पर विरोध दर्ज कराऊंगा। भीड़ का हिस्सा नहीं बनूंगा। कितना अच्छा हुआ कि बुद्ध पांच हज़ार साल पहले पैदा हुए। आज पैदा होते तो उनका वही हश्र होता जो आज कुलबुर्गी का हुआ है। बहुत सारे लोग हैं जो कविता को इग्नोर करते हैं, लेकिन कविता भी बहुत लोगों को इग्नोर करती है। इस माहौल में कविता होना बहुत मुश्किल है। बेहतर होगा कि पॉपुलर भाषा में लिखी जाये। लोकगीतों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाई जाए। कविता वही होती है जो आसानी से लोगों तक पहुंच जाये। आज डिमांड बहुत बड़ी है। बहुत बड़ा दौर है। पिछले पचास साल से समकालीन कविता का अंदाज़, भाषा, और विषयवस्तु में काफ़ी बदलाव आया है। ज़रूरत है समकालीन कविता का नाम भी बदला जाए। नामकरण हो। आज बोलने में भी डर लगता है। पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर कहते हैं मैं पहली पंक्ति लिखता हूं और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से.…पंक्ति लिखता हूं काट देता हूं.… कितनी पंक्तियों की हत्या करता हूं.… उनकी आत्मायें मंडराती हैं.… आप कवि हैं या कविताओं के हत्यारे?
उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि राजेश जोशी बताते हैं - बौद्धिक संपदा आमतौर पर वाम या डेमोक्रेट्स के हाथ में रही है। कांग्रेस के राज्य में कोई दिक्कत नहीं रही क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा ही नहीं थी। आज बीजेपी सत्ता में है। उसके पास बौद्धिक संपदा संभालने के लिये बौद्धिक गुण नहीं हैं। कोई अनुभव भी नहीं है। अहम जगह पर मिडियाकर किस्म के लोग बैठाये गए हैं। क़ाबिल लोग हैं ही नहीं। सर्जरी करके हाथी के सिर लगाने की बात करते हैं। कोई उनसे पूछे, हमेशा जानवरों के सर ही क्यों लगाये गए? सीनियर मंत्री जी कहते हैं जेएनयू में नक्सली भरे पड़े हैं। वहां बीएसएफ बैठा देनी चाहिए। धर्म की सत्ता लाने की कोशिश चल रही है। लोकतंत्र का अंत हो, धर्मनिरपेक्षता का अंत हो। जागरूक लोग प्रतीक्षा नहीं करते। जनजागृति करते हैं। टकराव की स्थिति बेहतरी के लिए है। हमें हमारी कविता को नया नाम देने की ज़रूरत है। मुश्किल है काम, लेकिन करना ज़रूरी है।
कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध कवि और लेखक नलिन रंजन सिंह ने किया।
उद्घाटन सत्र के पश्चात एक परिचर्चा हुई - समकालीन कविता, संवेदना और दृष्टि। इसकी अध्यक्षता इब्बार रब्बी ने की।
सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका प्रीति चौधरी कहती हैं - जब भी कविता की बात होती है तो लगता है मनुष्य ही कविता है। जिसमें मनुष्यता है, वही कविता करता है और समझता है। बौद्धिक संपदा कभी ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में रही। लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसीलिए प्रतिरोध हो रहा है। ज्ञान संवेदना की और ले जाता है और संवेदना ज्ञान की ओर ले जाती है। आज जब समय की विभीषिका की बात होती है तो मुझे लगता है गहरी रात है। भूमंडलीकरण की रात है। संकट है, लेकिन मैं निराश नहीं हूं। संकट मित्र के भेष में है। पता नहीं चलता कि नायक कब खलनायक में बदल जाता है। चौंका देता है। हम सब एक बिंदु पर रुक जाते हैं। मैं मनुष्य हूं लेकिन स्त्री होना ज्यादा संवेदनशील है। स्त्रियां आज स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। कविता ने सांप्रदायिकता को छोड़ा है, बहुत सारी ऐसी जगह हैं जहां कविता नहीं पहुंची है। जब किसी कविता से प्रेम करते हैं तो उसे जादू बना देते हैं, इबादत करने लगते हैं। लेकिन जब उस कवि से मिलते हैं तो लगता है यह तो बहुत कमजोर आदमी है, घृणा योग्य है। रह वही जाता है जो रचा जाता है। संप्रेषणीयता बहुत सीमित क्यों है? प्रभावशाली लोग इससे अपरिचित क्यों हैं? साहित्य नीति नहीं बना सकता। हमें ही किसानों के बीच जाना होगा। भूमंडलीकरण की रात है। कविता लिखना कठिन है लेकिन आज की पीढ़ी ने उसे स्वीकार किया है। अंधेरा कितना घना क्यों न हो, कविता कभी ख़त्म नहीं होती है।
समालोचक, चिंतक और कवि जीतेंद्र श्रीवास्तव ने कहा - आज़ादी के बाद से सब समकालीन है। १९८० के बाद की कविता भी समकालीन है। लेकिन १९९० के बाद के समय ने कविता को बहुत प्रभावित किया है। मंडल और कमंडल इसी काल में आया। भूमंडलीकरण का परिवारों पर प्रभाव पड़ा। एकल परिवारों का चलन बढ़ा। बाबरी मस्जिद विध्वंस भी इस दौर की बड़ी घटना है। धर्मवाद और जातिवाद गहरा हुआ। दलितों के विरुद्ध हिंसा को याद रखना होगा। इन्हीं के बीच से कविता निकल कर आई है। मुख्य धारा की कविता। आज की स्थिति यह है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है और जनता की ही चीज़ों को और उनके अधिकारों को छीन रही है। समकालीन तभी होंगे जब समकालीन लोगों के साथ खड़े होंगे, उनके लिए लड़ रहे होंगे। कवियों के सरोकार का विस्तार हो रहा है। समय को परिभाषित किया जा रहा है और समय से परिभाषित हो रहे हैं। यह स्वांता-सुखाय का दौर नहीं है। पैसे के लिए लिखा जा रहा है। लेकिन बहुत से लोग सर्व-कल्याण से जुड़े हैं। यह पहले भी था और अब भी है। वृहत्तर चिंताओं से जुड़ रही है आज की कविता। दलित व स्त्री विमर्श की कविता आई है। बहुत मुखर हो कर सामने आई है। इसे उसी वर्ग ने लिखा है। सांप्रदायिकता के विरुद्ध कविता आई है। यही संवेदना की दृष्टि है। आज जो लोग भारतीय दर्शन की बात करते हैं वो भारतीयता को जानते ही नहीं। परस्पर विरोधों के साथ चली है भारतीयता। यदि एक दृष्टि हावी होगी तो वो भारतीयता नहीं होगी। समकालीन कविता समझ रही है। सहचर्य व सौंदर्यबोध बड़ी उपलब्धियां हैं। दाम्पत्य जीवन को कविता में खूबसूरती रखा गया है। भविष्य का जीवन द्रव्य है। आत्महत्या बढ़ी हैं। परिवार विघठित हुए हैं। एकल परिवार बढे हैं। कविता के पास मध्यवर्गीय परिवार है। लेकिन गांव नहीं है। लेकिन कविता की विश्वसनीयता बढ़ी है।
सुप्रसिद्ध कवि अनिल कुमार सिंह ने कहा समकालीन कविता को लेकर भ्रम है। समकालीन का एक्सटेंशन हो रहा है। युवा शब्द का भी एक्सटेंशन हो रहा है। आज जो फासिस्ट उभार है वो चिंतित कर रहा। यह नया नहीं है। ऐसा पिछले २५-३० साल से चल रहा। मंडल-कमंडल और बाबरी मस्जिद विध्वसं भी फासीवादी था। इसने कविता को बहुत प्रभावित किया। बौद्धिक संपदा पर वाम का प्रभाव रहा है। इसी के बीच में रहे हैं ऐसे तत्व जो फासिस्ट रहे हैं। गंभीर प्रयास होना चाहिए। बने-बनाये फ्रेम में नहीं बैठे रहना चाहिए।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि और प्रोफ़ेसर सदानंद शाही ने कहा - लगता है कबीर भी हमारे समकालीन हैं। समकालीनता नाम बहुत लंबा खिंच गया है। कुछ नया होना चाहिए। अब तक हमने काम चलाऊ नाम रखे हैं। पचास का दशक, साठ का दशक.…नब्बे का दशक। सोवियत संघ के विघटन से प्रतिबद्धता का दबाव कम हुआ है। यह शुभ है। कवि का दायरा बढ़ा है। आदिवासी कविता ने हमें झिंझोड़ा है। उसके सपनों में रहा है - एक जोड़ी बैल और खेत। पेड़ की जगह पेड़ हो और समुंद्र की जगह समुंद्र। विकास का रोड-रोलर चीज़ों को एक जगह नहीं रहने देता। यह मिथक भी टूट रहा है कि भारत कृषि प्रधान देश है। भारत एक धर्म प्रधान देश है, ये मिथक भी नहीं रहा। भारत एक पाखंड प्रधान देश है। जीवन के हर हिस्से में पाखंड है। देखना होगा कि समकालीन कविता में प्रतिरोध कितना है और पाखंड कितना। राजेश जोशी ग़लत नहीं कहते हैं कि जो अपराधी नहीं होगा, वो मारा जायेगा। यह सच्चाई है। समकालीन कविता की उपलब्धि है। कलजुग के चौथे चरण में आदमी इतना छोटा हो जायेगा कि लग्घी से घंटा तोड़ेगा। आज वही समय है। कविता आज एक फूल के खिलने की तरह है, जिससे अंधरे के पहाड़ दरक जाएं।
प्रथम पंक्ति के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा - हमारे सामने संकट है और उससे निपटना भी है। फासीवाद की चुनौती है। हो सकता है सब ख़त्म भी हो जाए। पुरुस्कार वापसी से सरकार बौखलाई हुई है। जवाब साहित्य अकादेमी नहीं दे रही है राजनेता दे रहे हैं। आरएसएस द्वारा दिया जा रहा है। कहते हैं लेखक राजनीति कर रहे हैं। अगर राजनीति इतनी ही ख़राब है आप क्यों राजनीति में हैं? कांग्रेसी होने का आरोप लगाते हैं। अगर तुम्हें आएसएस का होने में गर्व है तो दूसरों को भी वाम और कांग्रेसी होने का गर्व क्यों नहीं हो सकता? अगर मैं कुछ लौटा रहा हूं बौखलाहट क्यों है। यह कविता का विषय है कि मैं प्रेम नहीं कर रहा हूं। यह लोग कहते हैं पुरुस्कार लौटाने से देश की छवि ख़राब होती है। लेकिन क्या हत्याएं करने से शर्म नहीं आती? नाक नहीं कटती? प्रेमचंद ने कहा था साहित्य मशाल है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मश्री लौटाई थी। लेखक इमरजेंसी के विरोध में जेल भी गए। सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने साहित्य अकादेमी पुरुस्कार लेने से ही मना कर दिया था। जिसको कुछ ख़राब लगता है वही क़लम उठाता है। मीरा को भी विरोध का सामना करना पड़ा। ज़हर का प्याला भेजा गया था उसको। बीफ़ का विरोध करने वाले ही उसके सबसे बड़े निर्यातक व्यापारी हैं। मौजूदा सरकार ने उन्हें सब्सिडी दी है। निर्यात बढ़ाया जा रहा। सच्चाई से लोगों को रूबरू कराने की सख़्त ज़रूरत है।
इस सत्र का संचालन सुप्रसिद्ध अजीत प्रियदर्शी ने किया।
समारोह में वीरेंद्र यादव, रविंद्र वर्मा, नवीन जोशी, तद्भव के अखिलेश, शक़ील सिद्दीक़ी, केके चतुर्वेदी, अशोक गर्ग, रामकिशोर, दीपक कबीर आदि अनेक जाने-माने लेखक, कवि और साहित्य से सरोकार रखने वाली हस्तियां मौजूद थीं।
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०१-११-२०१५
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1690240527876236
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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