देशरत्न
बिहार के गौरव, भारत के प्रथम राष्ट्रपति, जिनका परिचय देना उनकी महानता
का अपमान है, उस महापुरुष को उनके जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें।
डॉ० राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को हुआ था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने सर्चलाईट और देश जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।"
सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
Admin : Shivi Snigdh
https://www.facebook.com/hamara.Bihar.in/photos/a.344549205685795.1073741835.337059089768140/462021613938553/?type=1&theater
******************************************************************************
डॉ० राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को हुआ था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने सर्चलाईट और देश जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।"
सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
Admin : Shivi Snigdh
https://www.facebook.com/hamara.Bihar.in/photos/a.344549205685795.1073741835.337059089768140/462021613938553/?type=1&theater
******************************************************************************
विधवा की हाय मत लो - डॉ राजेंद्र प्रसाद।
प्रस्तुति - वीर विनोद छाबड़ा
डॉ राजेंद्र प्रसाद (०३ दिसंबर १८८४ से २८ फरवरी १९६३ तक) का जन्म बिहार के जिला सारन के एक छोटे से गांव जिरादेई में हुआ था।
वो भारत के प्रथम राष्ट्रपति (१९५० से १९६२) रहे। १९६२ में उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उच्च श्रेणी में वक़ालत पास की। पहले कलकत्ता और फिर पटना हाई कोर्ट में वक़ालत करने लगे। ईमानदारी और निष्ठा में उनका कोई सानी नहीं था। सदैव सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखे। बड़ा नाम था उनका।
एक दिन एक व्यक्ति किसी परिचित के हवाले से राजेंद्र बाबू से मिलने आया। किसी विधवा महिला से ज़मीन का मामला था। बोला - मुंहमांगी फीस देने का लिए तैयार हूं। बस किसी तरह केस मेरे पक्ष में करा दें। मुझे मालूम है यह काम बड़ी आसानी से आप कर सकते हैं।
राजेंद्र बाबू ने कागज़ात देखे। उनकी माथे बल पड़ गए। फिर उस व्यक्ति से मुख़ातिब हुए - यह कागज़ात बता तो रहे हैं कि इस ज़मीन के मालिक तुम हो। यह बात अदालत में साबित भी हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। असली मालकिन विधवा महिला है, तुम नहीं हो। यह कागज़ात नकली हैं। मेरा सिद्धांत और मेरा ज़मीर यह केस लेने का लिए इजाज़त नहीं देता। और मेरा मश्विरा है कि किसी विधवा की 'हाय' मत लो। पाप लगेगा। सुख-शांति नहीं मिलेगी।
राजेंद्र बाबू की बातें और सलाह सुन कर वो व्यक्ति इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने वो सारे नकली कागज़ात उनके सामने ही फाड़ दिए।
राजेंद्र बाबू ने अनेक लोगों अपने विचारों से प्रभावित किया। बिना मुक़दमा के कई मामले सुलटा दिए। इस तरह समय, ऊर्जा और धन तीनों की बचत। भले उनका अपना आर्थिक नुकसान हुआ।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए महात्मा गांधी कहा करते थे - अमृत पीने वाले तो बहुत हैं मगर विष पीने वाला सिर्फ़ एक है।
---
२१-१०-२०१५
प्रस्तुति - वीर विनोद छाबड़ा
डॉ राजेंद्र प्रसाद (०३ दिसंबर १८८४ से २८ फरवरी १९६३ तक) का जन्म बिहार के जिला सारन के एक छोटे से गांव जिरादेई में हुआ था।
वो भारत के प्रथम राष्ट्रपति (१९५० से १९६२) रहे। १९६२ में उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उच्च श्रेणी में वक़ालत पास की। पहले कलकत्ता और फिर पटना हाई कोर्ट में वक़ालत करने लगे। ईमानदारी और निष्ठा में उनका कोई सानी नहीं था। सदैव सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखे। बड़ा नाम था उनका।
एक दिन एक व्यक्ति किसी परिचित के हवाले से राजेंद्र बाबू से मिलने आया। किसी विधवा महिला से ज़मीन का मामला था। बोला - मुंहमांगी फीस देने का लिए तैयार हूं। बस किसी तरह केस मेरे पक्ष में करा दें। मुझे मालूम है यह काम बड़ी आसानी से आप कर सकते हैं।
राजेंद्र बाबू ने कागज़ात देखे। उनकी माथे बल पड़ गए। फिर उस व्यक्ति से मुख़ातिब हुए - यह कागज़ात बता तो रहे हैं कि इस ज़मीन के मालिक तुम हो। यह बात अदालत में साबित भी हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। असली मालकिन विधवा महिला है, तुम नहीं हो। यह कागज़ात नकली हैं। मेरा सिद्धांत और मेरा ज़मीर यह केस लेने का लिए इजाज़त नहीं देता। और मेरा मश्विरा है कि किसी विधवा की 'हाय' मत लो। पाप लगेगा। सुख-शांति नहीं मिलेगी।
राजेंद्र बाबू की बातें और सलाह सुन कर वो व्यक्ति इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने वो सारे नकली कागज़ात उनके सामने ही फाड़ दिए।
राजेंद्र बाबू ने अनेक लोगों अपने विचारों से प्रभावित किया। बिना मुक़दमा के कई मामले सुलटा दिए। इस तरह समय, ऊर्जा और धन तीनों की बचत। भले उनका अपना आर्थिक नुकसान हुआ।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए महात्मा गांधी कहा करते थे - अमृत पीने वाले तो बहुत हैं मगर विष पीने वाला सिर्फ़ एक है।
---
२१-१०-२०१५
No comments:
Post a Comment
कुछ अनर्गल टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम है.असुविधा के लिए खेद है.