Mahesh Rathi with Ameeque Jamei and 10 others.
27 june 2016 at 5:33pm ·
ब्राहमणवाद को लेकर कईं भ्रम पैदा करने वाली परिभाषाएं फैलाईं जाती हैं। जब ब्राहमणवादियों अथवा ब्राहमणवाद पर चोट की जाती है तो विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े कईं साथी और मित्र विभिन्न दलित और पिछड़े वर्ग के स्थापित नेताओं को भी निशाना बनाकर उन्हें भी ब्राहमणवादी बताकर ब्राहमणवाद को एक सामान्य अवधारणा अथवा सामान्य मानसिकता बताने की कोशिश करते हैं कि इस ब्राहमणवाद का शिकार कोई भी हो सकता है।
परंतु भारतीय संदर्भों में ब्राहमणवाद वर्ण व्यवस्था पर आधारित अगड़ी जातियों के वर्चस्व को बनाये रखने की ऐसी शोषणकारी व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों एवं उत्पादन और वितरण को नियत्रित करने का अनौपचारिक अधिकार भारतीय समाज की अगड़ी जातियों के पास रहता है और बाकी निम्न मध्य और निम्न जातियां सेवा कार्यो में संलग्न रहती हैं। अब जहां तक सवाल पिछड़े और दलित नेताओं के तथाकथित ब्राहमणवादी होने का है वह ब्राहमणवाद द्वारा गढ़ा गया एक नया मिथक है। अग्रणी पिछड़े और दलित नेताओं का व्यवहार सामंती प्रवृति तो कहा जा सकता है, ब्राहमणवादी नही। परंतु उनके सामंती और निरंकुश व्यवहार को ब्राहमणवादी घोषित करना ब्राहमणवाद की ही एक ऐसी चाल है जो एक तरफ तो पिछड़ी और दलित राजनीति को लांछित कर देती है और दूसरी तरफ अपनी भयावह भेदभाव की शोषणकारी प्रणाली को स्वाभाविक मानसिक अवस्था बताकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश करती है। यहां दो उदाहरण देकर मैं इस अंतर को स्पष्ट करना चाहंूगा।
भाकपा के पूर्व महासचिव ए बी बर्धन द्वारा 2008-09 में मायावती को प्रधानमंत्री पद का योग्य उम्मीदवार कहे जाने पर रेणुका चैधरी सहित सभी अगड़े नेताओं ने जिस प्रकार की कटु और अवांछित प्रतिक्रिया दी थी उससे उनके जातीय दुराग्रह साफ जाहिर हो रहे थे और उस एक घटना से यह सिद्ध होता है कि मायावती बेशक बड़े जनाधार वाली और मजबूत नेता हों वे ब्राहमणवादी नेता कभी नही हो सकती क्योंकि वे अगड़ी जाति से नही आती हैं और अगड़ी जतियों में उनके प्रति हमेशा दुराग्रह बना रहेगा।
इसी प्रकार अन्ना आंदोलन के समय रामलीला मैदान में एक ब्राहमण मंचीय कवि ने अपना दर्द जाहिर करते हुए कहा था कि देखिए देश का क्या हाल हो गया है भैंस चराने वाले राज चला रहे हैं। जाहिर है भैंस चराने वाले पिछड़े नेता कितने ही ताकतवर और जनाधार वाले नेता हो जायें मगर वो अगड़े नही हो सकते हैं और ब्राहमणवादी जातिगत कारणों से उनकी योग्यता पर सवाल उठाते ही रहेंगे। दो अलग अलग समयों पर ब्राहमणवादियों की यह प्रतिक्रिया बताती है कि पिछड़े और दलित नेता दबंग सामंती व्यवहार वाले नेता तो हो सकते हैं वो ब्राहमणवादी नही हो सकते हैं क्योंकि वो अगड़ी जातियों से नही आते हैं और वो हमेशा जातिगत कारणों से अगड़ों के निशाने पर रहने वाले पिछड़े और दलित नेता ही रहेंगे।
यही कारण है कि जब कभी भी ब्राहमणवाद की बात की जाती है तो उसका अर्थ भारतीय समाज की अगड़ी जातियों की जातिगत श्रेष्ठता आधारित वर्चस्व की पुरातन शोषण व्यवस्था से जोड़कर ही समझा जाना चाहिए।
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