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Tuesday, 15 May 2018

बिहार में भाजपा रुक जाएगी लेकिन उत्तर प्रदेश में ? ------ प्रशांत कनौजिया


 * बिहार में तेजस्वी बूथ और गांव लेवल पर  
* *   कांशीराम वाले बसपा की तरह काम नहीं  
* * *   अखिलेश सिर्फ फैंसी रैली करते हैं


Prashant Kanojiya
 बिहार में तेजस्वी बूथ और गांव लेवल पर : 
2019 में होने वाले चुनाव से पहले ही भाजपा 30 फीसदी काम पूरा कर चुकी है. उसने बूथ तक पहुँचने के लिए हर संभव प्रयास किया है. भाजपा जिस प्रकार चुनाव लड़ती है ये कबीले तारीफ है. नैतिकता की बात करने की जरूरत नहीं, क्योंकि राजनीति इसी का नाम है. 2019 लोकसभा चुनाव पर सबसे ज्यादा प्रभाव उत्तर प्रदेश और बिहार डालेंगे. बिहार में तेजस्वी जिस प्रकार गांव स्तर पर काम कर रहे हैं, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि भाजपा के अलावा अगर कोई दल बूथ और गांव लेवल पर काम कर रहा है, तो वो राजद है.

 कांशीराम वाले बसपा की तरह काम नहीं : 
अब रही बात उत्तर प्रदेश की. मायावती का अपना काडर और वोटबैंक हैं, उसे मेहनत अपने वोटबैंक को बढ़ाने के लिए करना होगा. लेकिन बसपा अब कांशीराम वाले बसपा की तरह काम नहीं कर रही तो ज्यादा कोई फर्क नहीं आपयेगा.

अखिलेश सिर्फ फैंसी रैली करते हैं  : 
अब आते हैं अखिलेश यादव पर. युवा मुख्यमंत्री होने के नाते युवा वर्ग में लोकप्रियता है पर उसे वोट में तब्दील करवाने की क्षमता नहीं है. 2019 का चुनाव नज़दीक है, लकिन पार्टी का बूथ तो छोड़ो विधानसभा पर कोई ठोस काम नहीं हो रहा है. 90 फीसदी जिला अध्यक्ष (सभी इकाई) के लखनऊ में पड़े रहते हैं. उन्हें अभी तक पता नहीं है कि भाजपा की सरकार में वो ठेकेदारी दिलाने या लेने का काम नहीं कर पाएंगे. पार्टी के 90 फीसदी लोग न लोहिया को जानते हैं और न ही समाजवाद का स.


अखिलेश के पास ख़राब सलाहाकारों की फौज है, जिसने डूबने में कोई कसर नहीं छोड़ा. अखिलेश कान के कच्चे हैं और खुद से परखने से ज्यादा सलाहकार कान में बताते हैं उसपर विश्वास करते हैं. शिवपाल की नाराजगी के बाद बूथ लेवल ध्वस्त है. अखिलेश सिर्फ फैंसी रैली करते हैं, गांव स्तर पर नहीं जाते. बूथ से ज्यादा ट्विटर पर भरोसा करते हैं. अखिलेश से कार्यकर्ताओं को मिलने के लिए बड़ा फ़िल्टर पार करना होता है. सामाजिक न्याय पर कंफ्यूज हैं. खुद को कोर वोटर नहीं है, वही वोटर है जो भाजपा और कांग्रेस के पास है.

मुलायम ग्राउंड के आदमी का सुझाव नकार कर चुनाव लड़ कर न जीत पाने वाले रामगोपाल यादव पर ज्यादा भरोसा है, जो ग्राउंड का 1 फीसदी काम भी नहीं जानते. बिहार में भाजपा रुक जाएगी लेकिन उत्तर प्रदेश में अभी हालात के हिसाब से नामुमकिन है.

प्रशांत कनौजिया

साभार : 
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=2044759595553106&set=a.196023523760065.53567.100000572560879&type=3

Sunday, 12 March 2017

मरणासन्न भाजपा को संजीवनी देने का काम भी मायावती ने ही किया था ------ कँवल भारती

Kanwal Bharti
मायावती की हार के कारण 

(कँवल भारती)

मायावती की यह आखिरी पारी थी, जिसमें उनकी शर्मनाक हार हुई है. 19 सीटों पर सिमट कर उन्होंने अपनी पार्टी का अस्तित्व तो बचा लिया है, परन्तु अब उनका खेल खत्म ही समझो. मायावती ने अपनी यह स्थिति अपने आप पैदा की है. मुसलमानों को सौ टिकट देकर एक तरह से उन्होंने भाजपा की झोली में ही सौ सीटें डाल दी थीं. रही-सही कसर उन्होंने चुनाव रैलियों में पूरी कर दी, जिनमें उनका सारा फोकस मुसलमानों को ही अपनी ओर मोड़ने में लगा रहा था. उन्होंने जनहित के किसी मुद्दे पर कभी कोई फोकस नहीं किया. तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह आज तक जननेता नहीं बन सकीं. आज भी वह लिखा हुआ भाषण ही पढ़ती हैं. जनता से सीधे संवाद करने का जो जरूरी गुण एक नेता में होना चाहिए, वह उनमें नहीं है. हारने के बाद भी उन्होंने अपनी कमियां नहीं देखीं, बल्कि अपनी हार का ठीकरा वोटिंग मशीन पर फोड़ दिया. ऐसी नेता को क्या समझाया जाय! अगर वोटिंग मशीन पर उनके आरोप को मान भी लिया जाए, तो उनकी 19 सीटें कैसे आ गयीं, और सपा-कांग्रेस को 54 सीटें कैसे मिल गयीं? अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आसान है, पर अपनी कमियों को पहिचानना उतना ही मुश्किल. 
अब इसे क्या कहा जाए कि वह केवल टिकट बांटने की रणनीति को ही सोशल इंजिनियरिंग कहती हैं. यह कितनी हास्यास्पद व्याख्या है सोशल इंजिनियरिंग की. उनके दिमाग से यह फितूर अभी तक नहीं निकला है कि 2007 के चुनाव में इसी सोशल इंजिनियरिंग ने उन्हें बहुमत दिलाया था. जबकि वास्तविकता यह थी कि उस समय कांग्रेस और भाजपा के हाशिए पर चले जाने के कारण सवर्ण वर्ग को सत्ता में आने के लिए किसी क्षेत्रीय दल के सहारे की जरूरत थी, और यह सहारा उसे बसपा में दिखाई दिया था. यह शुद्ध राजनीतिक अवसरवादिता थी, सोशल इंजिनियरिंग नहीं थी. अब जब भाजपा हाशिए से बाहर आ गयी है और 2014 में शानदार तरीके से उसकी केन्द्र में वापसी हो गयी है, तो सवर्ण वर्ग को किसी अन्य सहारे की जरूरत नहीं रह गयी, बल्कि कांग्रेस का सवर्ण वोट भी भाजपा में शामिल हो गया. लेकिन मायावती हैं कि अभी तक तथाकथित सोशल इंजिनियरिंग की ही गफलत में जी रही हैं, जबकि सच्चाई यह भी है कि मरणासन्न भाजपा को संजीवनी देने का काम भी मायावती ने ही किया था. उसी 2007 की सोशल इंजिनियरिंग की बसपा सरकार में भाजपा ने अपनी संभावनाओं का आधार मजबूत किया था.
मुझे तो यह विडम्बना ही लगती है कि जो बहुजन राजनीति कभी खड़ी ही नहीं हुई, कांशीराम और मायावती को उसका नायक बताया जाता है. केवल बहुजन नाम रख देने से बहुजन राजनीति नहीं हो जाती. उत्तर भारत में बहुजन आंदोलन और वैचारिकी का जो उद्भव और विकास साठ और सत्तर के दशक में हुआ था, उसे राजनीति में रिपब्लिकन पार्टी ने आगे बढ़ाया था. उससे कांग्रेस इतनी भयभीत हो गयी थी कि उसने अपनी शातिर चालों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और वह खत्म हो गयी. उसके बाद कांशीराम आये, जिन्होंने बहुजन के नाम पर जाति की राजनीति का माडल खड़ा किया. वह डा. आंबेडकर की उस चेतावनी को भूल गए कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता. बसपा की राजनीति कभी भी बहुजन की राजनीति नहीं रही. बहुजन की राजनीति के केन्द्र में शोषित समाज होता है, उसकी सामाजिक और आर्थिक नीतियां समाजवादी होती हैं, पर, मायावती ने अपने तीनों शासन काल में सार्वजानिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचा और निजी इकाइयों को प्रोत्साहित किया. उत्पीडन के मुद्दों पर कभी कोई आन्दोलन नहीं चलाया, यहाँ तक कि रोहित वेमुला, कन्हैया कुमार और जिग्नेश कुमार के प्रकरण में भी पूरी उपेक्षा बरती, जबकि ये ऐसे मुद्दे थे, जो उत्तर प्रदेश में बहुजन वैचारिकी को मजबूत कर सकते थे. 
इन चुनावों में मायावती को मुसलमानों पर भरोसा था, पर मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया, जिसका कारण भाजपा के साथ उनके तीन-तीन गठबंधनों का अतीत है. उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मात्र 4 और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मात्र 2 सीटें मिली हैं, जिसका मतलब है कि उनके जाटव वोट में भी सेंध लगी है. मायावती की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह जमीन की राजनीति से दूर रहती हैं. न वह जमीन से जुड़ती हैं और न उनकी पार्टी में जमीनी नेता हैं. एक सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन का कोई मंच भी उन्होंने अपनी पार्टी के साथ नहीं बनाया है. यह इसी का परिणाम है कि वह बहुजन समाज के हिन्दूकरण को नहीं रोक सकीं. इसी हिन्दूकरण ने लोकसभा में उनका सफाया किया और यही हिन्दूकरण उनकी वर्तमान हार का भी बड़ा कारण है. 
मायावती की इससे भी बड़ी कमी यह है कि वह नेतृत्व नहीं उभारतीं. हाशिए के लोगों की राजनीतिक भागीदारी जरूरी है, पर उससे ज्यादा जरूरी है उनमें नेतृत्व पैदा करना, जो वह नहीं करतीं. इसलिए उनके पास एक भी स्टार नेता नहीं है. इस मामले में वह सपा से भी फिसड्डी हैं.
मायावती के भक्तों को यह बात बुरी लग सकती है, पर मैं जरूर कहूँगा कि अगर उन्होंने नयी लीडरशिप पैदा नहीं की, वर्गीय बहुजन राजनीति का माडल खड़ा नहीं किया और देश के प्रखर बहुजन बुद्धिजीवियों और आन्दोलन से जुड़े लोगों से संवाद कायम करके उनको अपने साथ नहीं लिया, तो वे 11 मार्च 2017 की तारीख को बसपा के अंत के रूप में अपनी डायरी में दर्ज कर लें.
(11 मार्च 2017)

https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/10202653799143390

ईवीएम मैनैज कर चुनाव में धांधली हुई ------ मायावती, पूर्व मुख्यमंत्री

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http://www.rediff.com/news/report/up-election-alleging-evm-tampering-mayawati-calls-for-fresh-polls/20170311.htm





http://www.nationaldastak.com/story/view/opinion-on-up-election-result



उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती जी ने स्पष्ट कहा है कि, EVM मशीनों को मैनैज किया गया है और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को यू पी में बहुमत दिलवाया गया है। जैसी की उम्मीद थी चुनाव आयोग ने इन आरोपों को गलत बताया है। चुनावों में पीठासीन अधिकारी रहे लोगों ने EVM मशीनों से छेड़ - छाड़ किए जाने से इंकार किया है। अति जोशीले लोग मायावती जी के ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहे हैं। 
1991  सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया उस  घटना को भुला दिया गया है। 
आगरा पूर्वी  ( वर्तमान उत्तरी ) विधान सभा क्षेत्र मे 1985 में मतगणना क्लर्क कालरा ने हाथ का पंजा मोहर लगे मत पत्रों को ऊपर व नीचे गड्डी में कमल मोहर लगे मत पत्रों के बीच छिपा कर गणना करके भाजपा प्रत्याशी सत्यप्रकाश विकल को विजयी घोषित करवा दिया था। पराजित कांग्रेस प्रत्याशी सतीश चंद्र गुप्ता ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। हाई कोर्ट ने अपनी निगरानी में पुनः मत गणना करवाई और गलती पकड़ने पर भाजपा के सत्य प्रकाश विकल का चुनाव रद्द करके कांग्रेस के सतीश चंद्र गुप्ता को विजयी घोषित कर दिया था। 2014 के लोकसभा चुनावों में बनारस में EVM हेरा फेरी का मामला प्रकाश में आया था किन्तु भाजपा के केंद्र में सरकार बना लेने के बाद मामला दब गया था। अतः सभी राजनीतिक दलों को मायावती जी का सहयोग व समर्थन करना चाहिए।

लेकिन यह भी बिलकुल सच है कि, कांशीराम - मुलायम समझौते के बाद सत्तारूढ़ 'सपा - बसपा गठबंधन' की सरकार को मायावती जी ने भाजपा के सहयोग से तोड़ कर और भाजपा के ही समर्थन से खुद मुख्यमंत्री पद ग्रहण किया था। दो बार और भाजपा के ही समर्थन से सरकार बनाई थी तथा गुजरात चुनावों में मोदी के लिए अटल जी के साथ चुनाव प्रचार भी किया था। भाजपा की नीति व नीयत साफ थी कि, मायावती जी के जरिये मुलायम सिंह जी व सपा को खत्म कर दिया जाये और बाद में मायावती जी व बसपा को यह सब जानते हुये भी मायावती जी भाजपा की सहयोगी रहीं थीं। यदि वह 'सपा - बसपा गठबंधन' मायावती जी ने भाजपा के फायदे के लिए न तोड़ा होता तो आज 2017 में भाजपा द्वारा न तो सपा को और न ही बसपा को हानी पहुंचाने का अवसर मिलता वह केंद्र की सत्ता तक पहुँच ही न पाती। 

Monday, 16 January 2017

चुनाव की अग्नि परीक्षा ------ शशि शेखर

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 9 August 2016

क्या ऐसा होगा? ------ विजय राजबली माथुर

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 क्या ऐसा होगा?
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अयोध्या के बाबरी प्रकरण के बाद उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार का अस्तित्व आया था। काशीराम जी को अपने गृह जनपद इटावा से मुलायम सिंह जी ने सांसद तक बनवाया था। यदि यह गठबंधन कायम रहता तो सदा-सर्वदा के लिए उत्तर प्रदेश से भाजपा का अस्तित्व समाप्त हो जाता। अतः संघप्रिय गौतम के माध्यम से मायावती जी को मुलायम सिंह जी के विरुद्ध करके वह सरकार गिरा दी गई। भाजपा के समर्थन से कई बार मायावती जी मुख्यमंत्री बनीं किन्तु उनकी सरकार भाजपा द्वारा ही हर बार गिरा दी गई। इसके बावजूद गुजरात नर-संहार के बाद 2002 में मायावती जी ने अटल व मोदी के साथ भाजपा का वहाँ प्रचार किया था।


2014 के लोकसभा चुनावों से काफी पहले  व्हाईट हाउस में बराक हुसैन ओबामा द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय गोपनीय बैठक की गई थी जिसमें भारत से भी कई दलित कहे जाने वाले चिंतक शामिल हुये थे जिनमें से एक लखनऊ के विद्वान भी थे। वहीं पर मुस्लिमों के विरुद्ध विश्व व्यापी मुहिम चलाये जाने और उसमें प्रत्येक देश के दलित माने जाने वाले लोगों का सहयोग लेने की रूप रेखा तय की गई थी। उसी अनुसार 2014 के लोकसभा चुनावों में समस्त दलित कहे जाने वाले वर्ग का वोट बसपा के बजाए भाजपा को गया था और बसपा का एक भी सांसद न जीत सका था। उसी मुहिम का परिणाम है बसपा से हाल ही में हुई टूटन। मायावती जी को उनके खास लोगों ने उसी अंदाज़ में उनको झटका दिया है जिस अंदाज़ में 1995 में उन्होने खुद मुलायम सिंह जी को झटका दिया था तब उनको भी भाजपा का समर्थन हासिल था जिस प्रकार अब उनको झटका देने वालों को हासिल हुआ है।
2017 के आसन्न चुनावों में यदि बसपा-सपा गठबंधन बना कर चुनाव लड़ा जाये तो अब भी भाजपा के मंसूबों को ध्वस्त किया जा सकता है वरना अभी तो भाजपा बसपा को ध्वस्त करने के लिए गोपनीय समर्थन देकर सपा सरकार फिर से बनवा देगी लेकिन उसके बाद सपा को उसी प्रकार तोड़ेगी जिस प्रकार अभी बसपा को तोड़ा है। मायावती जी व मुलायम सिंह जी दूरदर्शिता का परिचय दें तो दीर्घकालीन मजबूत गठबंधन बना कर न केवल उत्तर प्रदेश में वरन सम्पूर्ण देश में भाजपा को परास्त कर सकते हैं। लेकिन क्या ऐसा होगा?
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1137504919644816
 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 23 July 2016

मीडिया मायावती को मोदी समझ रही:/सवर्ण और दलितों का अलगाव ------ अकील अहमद / लालाजी निर्मल

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****** जिसके एक आह्वान पर UP ही नहीं देश के दलित सड़क पर उतर आने को आतुर हो , उसी ताकतवर दलित महिला नेत्री के विरूद्ध आक्रमक तेवर में फरार दयाशंकर की पत्नी को उसके समकक्ष दिखाने का पर्यास जिसमे स्वाति सिंह कह रही है की भाजपा के सारे कार्यकर्ता मेरे साथ
.....क्या संदेश है ? ******
***उत्तर प्रदेश की राजनीती में सवर्ण और दलितों का अलगाव और अपने अपने खेमे में जुड़ाव साफ़ नजर आने लगा है | सोसल मिडिया में तो यह अलगाव शीशे की तरह साफ़ नजर आ रहा है | स्वाभाविक मित्रों को छोड़ कर वैचारिक विरोधियों के साथ दोस्ती और जातीय प्रबंधन निष्फल दिखने लगा है |***
***  दलितों - सवर्णों का यह अलगाव 'नास्तिकता'- एथीज़्म का दावा करने वाले साम्यवादी दल  के भीतर भी उतना ही मजबूत है जितना सोशल मीडिया और समाज में क्योंकि ये दल भी ब्राह्मण वादियों के ही नियंत्रण में हैं। बस फर्क सिर्फ इतना है कि, इन दलों में दलितों का समर्थन करने वाले मुखर लोग खुद दलित नहीं हैं बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर प्रभावशाली कामरेड्स हैं । ब्राह्मण वादी /कार्पोरेटी/मोदीईस्ट कामरेड्स प्रभावशाली और दलित विरोधी मानसिकता के हैं जिनके लिए मार्क्स वाद सिर्फ सत्ता नियंत्रण का मंत्र भर है और वे अपनी कारगुजारियों से मार्क्स वाद को जनता से दूर रखने में निरंतर सफल रहे हैं । ***



Aquil Ahmed
मायावती v/s स्वाति 
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जैसे ही हजरतगंज थाने से मायावती जी सहित बसपा के दो अन्य नेतावो सतिस्चन्द्र मिश्र और नसीमुद्दीन सिद्दीकी और कर्य्कर्तावो के खिलाफ FIR दर्ज करा बाहर निकलते ही मीडियाकर्मियों से घिरी स्वाति सिंह (पत्नी भाजपा से निष्कासित नेता दयाशंकरसिंह) ने सहयोग के लिए कैमरे पर ही media का धन्यवाद दिया ,..........मुझे आजतक का वो समाचार याद आ गया मायावती जी के संसद में दयाशंकर जी के विरूद्ध प्रतिरोधस्वरूप उठाईगयी थी जिसमे उन्होंने कहा था ..'' मै देश की बेटी हू ,दया शंकर जी ने मुझ पर नहीं अपनी बेटी , बहन को ये शब्द कहे हैं"......सबसे पहले लोगो का ध्यानाकर्षित करते हुए ''आजतक'' नेकहा था मायावती जी का भी जुबान फिसल रही है .......अब जा कर यह समझ में आया की अहं से भरी स्वर्ण प्रभुत्व और मानसिकता वाली मीडिया को यह हजम न हो पा रहा था की एक दलित भी अपने मान सम्मान के लिए इतने आक्रामकता के साथ प्रतिरोध दर्ज करा सकती है ?____निचे दिए गए देश के दो प्रमुख चैनलों के है, जरा गौर कीजिये ....1, ABP न्यूज़ ....देश के सबसे ताकतवर दलित महिला के विरूद्ध अपराधिक टिपन्नी करने वाले फरार दयाशंकर सिंह की पत्नी का मीडिया से घिर bite देते 2, 'आजतक' की heading " मायावती v/s स्वाति" ____बिना इस बात की परवाह किये की जिसके एक आह्वान पर UP ही नहीं देश के दलित सड़क पर उतर आने को आतुर हो , उसी ताकतवर दलित महिला नेत्री के विरूद्ध आक्रमक तेवर में फरार दयाशंकर की पत्नी को उसके समकक्ष दिखाने का पर्यास जिसमे स्वाति सिंह कह रही है की भाजपा के सारे कार्यकर्ता मेरे साथ

.....क्या संदेश है ?........ऐसे ऐसे मायावती के मुकाबले कोई गुमनाम स्वर्ण स्वाति भी भारी है?
https://www.facebook.com/aquil.ahmed.7927/posts/668679363286163




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Lalajee Nirmal
सवर्ण और दलितों का अलगाव  :
देश की सबसे ताकतवर महिला दलित सुप्रीमो बहन जी पर आज बड़ा सामंती हमला हुआ |उनके विरूद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 504 ,506 ,509 ,153ए और 120बी के तहत मुकदमा दर्ज कराया गया है |नसीमुद्दीन सिद्दीकी,राम अचल राजभर और मेवालाल गौतम सहित अज्ञात लोगों को भी इसमें आरोपी बनाया गया है |इसी के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीती में सवर्ण और दलितों का अलगाव और अपने अपने खेमे में जुड़ाव साफ़ नजर आने लगा है | सोसल मिडिया में तो यह अलगाव शीशे की तरह साफ़ नजर आ रहा है | स्वाभाविक मित्रों को छोड़ कर वैचारिक विरोधियों के साथ दोस्ती और जातीय प्रबंधन निष्फल दिखने लगा है |बड़ी मजबूती के साथ फिर कह रहा हूँ भारत के सामंती कोढ़ की शल्य चिकित्सा केवल और केवल बहुजन अवधारणा से ही संभव है |

https://www.facebook.com/lalajee.nirmal/posts/1122617821131866

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उपरोक्त टिप्पणियों से साफ नज़र आता है कि, दलितों - सवर्णों का यह अलगाव 'नास्तिकता'- एथीज़्म का दावा करने वाले साम्यवादी दल  के भीतर भी उतना ही मजबूत है जितना सोशल मीडिया और समाज में क्योंकि ये दल भी ब्राह्मण वादियों के ही नियंत्रण में हैं। बस फर्क सिर्फ इतना है कि, इन दलों में दलितों का समर्थन करने वाले मुखर लोग खुद दलित नहीं हैं बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर प्रभावशाली कामरेड्स हैं । ब्राह्मण वादी /कार्पोरेटी/मोदीईस्ट कामरेड्स प्रभावशाली और दलित विरोधी मानसिकता के हैं जिनके लिए मार्क्स वाद सिर्फ सत्ता नियंत्रण का मंत्र भर है और वे अपनी कारगुजारियों से मार्क्स वाद को जनता से दूर रखने में निरंतर सफल रहे हैं । इसी लिए 1964 में टूट कर CPM का गठन किया गया था। यू पी में पिछले बाईस वर्षों में दो बार पार्टी विभाजन भी ब्राह्मण वाद और ब्राह्मणों के वर्चस्व का  ही परिणाम था। CPM से टूटे नकसल पंथी गुटों ने कार्पोरेटी शक्तियों को मजदूरों - किसानों का दमन करने का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर दिया है। आज का जातीय विभाजन और टकराव और कुछ नहीं सिर्फ शोषणवादी शक्तियों को ही मजबूत करेगा जो कि, सत्तारूढ़ सरकारों की गहरी कूटनीतिक चाल है। इसकी पुष्टि  BBC के इस वीडियो से भी होती है 
( विजय राजबली माथुर )

Tuesday, 28 June 2016

ब्राहमणवाद : प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों एवं उत्पादन और वितरण को नियत्रित करने का अधिकार भारतीय समाज की अगड़ी जातियों के पास ------ महेश राठी


Mahesh Rathi with Ameeque Jamei and 10 others.
27 june 2016 at 5:33pm · 
ब्राहमणवाद को लेकर कईं भ्रम पैदा करने वाली परिभाषाएं फैलाईं जाती हैं। जब ब्राहमणवादियों अथवा ब्राहमणवाद पर चोट की जाती है तो विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े कईं साथी और मित्र विभिन्न दलित और पिछड़े वर्ग के स्थापित नेताओं को भी निशाना बनाकर उन्हें भी ब्राहमणवादी बताकर ब्राहमणवाद को एक सामान्य अवधारणा अथवा सामान्य मानसिकता बताने की कोशिश करते हैं कि इस ब्राहमणवाद का शिकार कोई भी हो सकता है। 
परंतु भारतीय संदर्भों में ब्राहमणवाद वर्ण व्यवस्था पर आधारित अगड़ी जातियों के वर्चस्व को बनाये रखने की ऐसी शोषणकारी व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों एवं उत्पादन और वितरण को नियत्रित करने का अनौपचारिक अधिकार भारतीय समाज की अगड़ी जातियों के पास रहता है और बाकी निम्न मध्य और निम्न जातियां सेवा कार्यो में संलग्न रहती हैं। अब जहां तक सवाल पिछड़े और दलित नेताओं के तथाकथित ब्राहमणवादी होने का है वह ब्राहमणवाद द्वारा गढ़ा गया एक नया मिथक है। अग्रणी पिछड़े और दलित नेताओं का व्यवहार सामंती प्रवृति तो कहा जा सकता है, ब्राहमणवादी नही। परंतु उनके सामंती और निरंकुश व्यवहार को ब्राहमणवादी घोषित करना ब्राहमणवाद की ही एक ऐसी चाल है जो एक तरफ तो पिछड़ी और दलित राजनीति को लांछित कर देती है और दूसरी तरफ अपनी भयावह भेदभाव की शोषणकारी प्रणाली को स्वाभाविक मानसिक अवस्था बताकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश करती है। यहां दो उदाहरण देकर मैं इस अंतर को स्पष्ट करना चाहंूगा। 
भाकपा के पूर्व महासचिव ए बी बर्धन द्वारा 2008-09 में मायावती को प्रधानमंत्री पद का योग्य उम्मीदवार कहे जाने पर रेणुका चैधरी सहित सभी अगड़े नेताओं ने जिस प्रकार की कटु और अवांछित प्रतिक्रिया दी थी उससे उनके जातीय दुराग्रह साफ जाहिर हो रहे थे और उस एक घटना से यह सिद्ध होता है कि मायावती बेशक बड़े जनाधार वाली और मजबूत नेता हों वे ब्राहमणवादी नेता कभी नही हो सकती क्योंकि वे अगड़ी जाति से नही आती हैं और अगड़ी जतियों में उनके प्रति हमेशा दुराग्रह बना रहेगा। 
इसी प्रकार अन्ना आंदोलन के समय रामलीला मैदान में एक ब्राहमण मंचीय कवि ने अपना दर्द जाहिर करते हुए कहा था कि देखिए देश का क्या हाल हो गया है भैंस चराने वाले राज चला रहे हैं। जाहिर है भैंस चराने वाले पिछड़े नेता कितने ही ताकतवर और जनाधार वाले नेता हो जायें मगर वो अगड़े नही हो सकते हैं और ब्राहमणवादी जातिगत कारणों से उनकी योग्यता पर सवाल उठाते ही रहेंगे। दो अलग अलग समयों पर ब्राहमणवादियों की यह प्रतिक्रिया बताती है कि पिछड़े और दलित नेता दबंग सामंती व्यवहार वाले नेता तो हो सकते हैं वो ब्राहमणवादी नही हो सकते हैं क्योंकि वो अगड़ी जातियों से नही आते हैं और वो हमेशा जातिगत कारणों से अगड़ों के निशाने पर रहने वाले पिछड़े और दलित नेता ही रहेंगे। 
यही कारण है कि जब कभी भी ब्राहमणवाद की बात की जाती है तो उसका अर्थ भारतीय समाज की अगड़ी जातियों की जातिगत श्रेष्ठता आधारित वर्चस्व की पुरातन शोषण व्यवस्था से जोड़कर ही समझा जाना चाहिए।

Friday, 21 November 2014

राजनीति में अंध-भक्ति खतरनाक होती है -----कँवल भारती

20-11-2014 · Edited
राजनीति में अंध-भक्ति खतरनाक होती है
(कँवल भारती)
फेसबुक मित्र पवन कुमार ने मेरे इनबॉक्स में मुझसे पूछा है कि-- “सर, मोदी के बढ़ते रथ को रोकने के लिये हमारे विश्लेषक व लेखक कोई कदम उठा रहे है या नहीं ? बहन जी ने तो मिशन की गति ही रोक दी.”
मैं इसका क्या जवाब दूं? यह सवाल तो पवन कुमार को उन दलित चिंतकों से पूछना चाहिए, जिन्होनें कांशीराम और मायावती की चापलूसी करने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे, जो मायावती को दलितों की जिन्दा देवी कहते थे, जिनके लिए वे सिर्फ पूजा की वस्तु हैं और जिन्होने यह कभी नहीं सोचा कि वे क्या कर रही हैं और दलितों को कहाँ ले जा रही हैं? अगर मेरे जैसे कुछ लोगों ने मायावती के नेतृत्व पर सवाल उठाया, तो हमें उनहोंने समाज का गद्दार और ब्राह्मणों का दलाल कहा.
अभी हमारे एक मित्र, जो एक पत्रिका भी निकालते हैं, लखनऊ में ‘कथाक्रम’ के बाद मुझसे मिलने लखनऊ विश्वविद्यालय के गेस्टहाउस में आये थे. उन्होंने मायावती की अंधी भक्ति में अपनी पत्रिका को बसपा का पोस्टर बना दिया था. इससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ. उन्होंने भी मुझसे यही सवाल पूछा, जो पवन कुमार ने पूछा है. मैं तो इस मौके की तलाश में ही था. सो, मैंने कहा, “अगर आप जैसे बुद्धिजीवियों ने अपनी चापलूसी की भूमिका नहीं निभाई होती, एक आलोचक की भूमिका निभाई होती, तो आज मोदी को लेकर आप इतने परेशान नहीं होते, पर आप तो उन्हें अपना आराध्य माने हुए थे”.
यह सिर्फ उन्हीं की बात नहीं है, हमारे एक दलित लेखक ने तो बाकायदा किताब ही लिख दी—‘मायावती जिन्दा देवी’. ऐसे ही लोगों ने मायावती को यह एहसास कराया कि सब कुछ हरा-हरा है, कहीं भी कुछ सूखा नहीं है. वे कहीं कुछ गलत नहीं कर रही हैं. कब और कैसे बसपा का हाथी गणेश बन गया, इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. जब कांशीराम ने सपा-बसपा गठबंधन तोड़कर पहली बार भाजपा से हाथ मिलाया और मायावती को मुख्यमंत्री बनाया, तो दलितों ने जश्न मनाया था. दलित बुद्धिजीवियों ने कसीदे पढ़े थे, यहाँ तक कहा गया कि दलित-ब्राह्मण की एकता से समाज बदलेगा. किसी ने भी इस पर सवाल खड़े नहीं किये, किसी ने भी इसके दूरगामी परिणाम पर विचार नहीं किया. जब दूसरी बार उन्होंने फिर से भाजपा से हाथ मिलाकर सरकार बनाई, तब भी उन दलित बुद्धिजीवियों ने जश्न मनाया. तीसरी बार जब बसपा को पूर्ण बहुमत मिला, तो उसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया. किसी ने उसे इस नजरिये से नहीं देखने की कोशिश नहीं की कि वह ब्राह्मण की अवसरवादिता थी, जिसे मायावती के सहारे सत्ता में आना था. अगर वह सोशल इंजीनियरिंग थी, तो लोकसभा-2014 के चुनावों में बसपा का सूपड़ा क्यों साफ़ हो गया? अगर सोशल इंजीनियरिंग नाम की कोई चीज है, तो वह ‘बहुजन’ की अवधारणा को कायम रखने और मजबूत करने में होनी चाहिए थी, लेकिन मायावती ने उसी को अपनी तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग में ध्वस्त कर दिया.
यहाँ मैं कहना चाहता हूँ कि दलित बुद्धिजीवी सवाल क्यों नहीं उठाते? जब पहली बार कांशीराम ने भाजपा से हाथ मिलाया था, तो उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया? जब कांशीराम ने भाजपा को असाम्प्रदायिक और राष्ट्रवादी पार्टी बताया था, तो उन्होंने उस पर सवाल क्यों नहीं खड़े किये? जब मायावती 2000 में नरेंद्र मोदी के लिए वोट मांगने गुजरात गयीं थीं, तो उन्होंने उन्हें कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया? जब यह सब उन्होंने नहीं किया, तो अब मायावती के पतन पर हाय-हाय क्यों की जा रही है? मैं अपने से एक उदाहरण देता हूँ, जब मैंने आज़म खां के जुल्म के खिलाफ कांग्रेस का दामन थामा था, तो देश भर में मेरे खिलाफ विरोध का माहौल बना था, मेरे बहुत करीबी मित्र भी मेरे खिलाफ हो गये थे, यहाँ तक कि मेरे पक्ष में हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले एक सीनियर अधिवक्ता ने भी बहस नहीं की थी, क्योंकि वे मेरे कांग्रेस में जाने से नाराज हो गये थे. इसे कहते हैं विरोध. और मैंने कुछ ही समय बाद कांग्रेस छोड़ दी थी, जबकि मैं कांग्रेस का मेंबर तक नहीं बना था. अगर इसी तरह का दबाव दलित बुद्धिजीवियों और दलितों ने मायावती पर बनाया होता तो आज बहुजन राजनीति की इतनी दुर्गति नहीं होती कि जहाँ से हम चले थे, लौट कर वहीँ आ गये. कहीं पहुंचे ही नहीं.

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