Thursday 29 September 2016

यह गजब की राजनीति है ------ विजय राजबली माथुर

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वस्तुतः यह गजब का दिमाग नहीं , गजब की राजनीति है जिसका पता 2019 के संसदीय चुनावों से चलेगा। जिनके दिमाग से यह केंद्र सरकार बनी है उनका दिमाग अब उसकी पुनर्वापिसी की ओर लग चुका है। ये चित्र यू पी की राजधानी लखनऊ के एक क्षेत्र मात्र के हैं, सम्पूर्ण देश में सर्वत्र यही स्थिति है । पढे- लिखे सुविधा- साधन सम्पन्न किन्तु मूरख लोग सभी जगहों पर भेड़ियाधसान मचाये हुये हैं। लोगों में होड मची हुई है वर्तमान कंपनी छोड़ कर मुफ्त वाली कंपनी के सिम लेने की जबकि फिलहाल यह दिसंबर तक के लिए ही मुफ्त घोषित स्कीम है। उसके बाद जब चार्ज लगेगा तब मुफ्त के फायदे - नुकसान सामने आएंगे। यह केवल आर्थिक बात है जिसे शायद अधिकांश लोग झेल ही लेंगे। मुफ्त सिम लेने वालों में मजदूर, रिक्शा - टेम्पो चालक , गरीब और मेहनतकश लोग नहीं हैं। अतः ज़्यादा चार्ज देकर भी लोग डटे रह सकते हैं। 

राजनीतिक पक्ष यह है कि, दूसरी संचार कंपनियाँ या तो बाज़ार से विलुप्त हो जाएंगी या फिर इसी मुफ्त वाली कंपनी की सहयोगी बन जाएंगी। तात्पर्य यह कि, एक ही कंपनी का संचार पर एकाधिकार हो जाएगा। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया तो पहले ही इसके मालिकों के कब्जे में आ ही चुका है। केवल सोशल मीडिया से ही सरकार को चुनौती मिल रही थी। मुफ्त सिम की राजनीति से इन्टरनेट गतिविधियां एक ही कंपनी की कृपा - दृष्टि पर निर्भर हो जाएंगी। चुनाव के समय सर्वर की समस्या बता कर सोशल मीडिया पर गतिरोध होने के कारण सरकार विरोधी मुहिम को नियंत्रित कर लिया जाएगा। हवा में लट्ठ घुमाने वाला एथीस्ट संप्रदाय जो जनता से तो कटा हुआ है ही , पढे - लिखे तबके से भी कट जाएगा। एकतरफा प्रचार में वर्तमान सत्तारूढ़ पक्ष बाज़ी जीत लेगा और उसकी आसान पुनर्वापिसी हो जाएगी। इस ओर ध्यान देने के बजाए अपनी अलग डफली बजा कर  वामपंथ जाने - अनजाने फासिस्टों का मार्ग सुगम करता प्रतीत हो रहा है।  

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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