Wednesday, 15 March 2017

क्या उत्तर प्रदेश में कोई संरचनात्मक बदलाव हुआ है? ------ अनिल पदमनाभन

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पद्मनाभन  साहब की नज़र से तीन वर्षों में दो बार ऐसा होना उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में संरचनात्मक बदलाव है। क्योंकि देश की जनसंख्या में नौजवानों की आबादी काफी ज़्यादा हो गई है और वह युवा आबादी किसी परंपरा में आसानी से नहीं बंधती।यह स्थिति इन मतदाताओं को अपनी पहचान से परे जाकर अपनी प्राथमिकताए तय करने की राह दिखाती है। 

परंतु मुझे जो जानकारी 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद आज से तीन वर्ष पहले हासिल हुई थी उसके अनुसार प्राथमिकताओं में बदलाव की यह प्रक्रिया 2011 / 12 में शुरू की गई थी। व्हाईट हाउस में तब के प्रेसीडेंट बराक हुसैन ओबामा साहब ने विश्व भर के दलित-पिछड़ों की एक बैठक की थी जिसमें भारत से गए लोगों में लखनऊ विश्वविद्यालय के एक तत्कालीन  हिन्दी अध्यापक भी शामिल हुये थे। उस बैठक में ही यह तय हुआ था कि विश्व भर से किस प्रकार मुस्लिमों  का सत्ता में अस्तित्व समाप्त करना है।उसी योजना के तहत कारपोरेट समर्थक 'भ्रष्टाचार आंदोलन' चलवाया गया था और  उसी योजना का यह परिणाम था कि, 2014 के लोकसभा चुनावों में दलित वर्ग का वोट बसपा के बजाए भाजपा को पड़ा था और लोकसभा में बसपा 'शून्य ' हो गई थी। 2017 का यू पी चुनाव परिणाम उसी व्यवस्था का विस्तार है जिसने दलित वर्ग के साथ - साथ पिछड़े वर्ग का भी वोट बसपा / सपा के बजाए भाजपा को पड़ा है। चुनाव विश्लेषणों से सिद्ध है कि, यू पी विधानसभा में इस बार अगड़े अर्थात सवर्ण वर्ग के विधायक अधिक चुने गए हैं। दलित, पिछड़ा और मुस्लिम प्रतिनिधित्व काफी कम हुआ है। 

आज ईस्ट इंडिया कंपनी सरीखा 'साम्राज्यवाद ' स्थापित करना संभव नहीं है। अतः कारपोरेट कंपनियों द्वारा नियंत्रित तथाकथित राष्ट्रवाद अर्थात अप्रयक्ष साम्राज्यवाद स्थापित किया जा रहा है जो कि, जनतंत्र की समाप्ती एवं अधिनायकतंत्र के आगमन का संकेत प्रस्तुत करता है। 
(विजय राजबली माथुर ) 
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