Pankaj Chaturvedi
01-01-2018
35 साल पुराना आकाशवाणी का सफर यूं ही छोड़ दिया :
नीरजा माधव किसी परिचय की मोहताज नहीं। उनके दर्द को पढ़ें
नरेंद्र मोदी सरकार पिछले तीन साल सात महीने से पूरे देश में नारी सशक्तिकरण का नारा दे रही है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा बुलंद किया जा रहा है। पर क्या ये सरकार वास्तव में नारी सशक्तिकरण के प्रति गंभीर है। इस पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की क्या हालत है, वह किस तरह से काम कर रही हैं विभिन्न कार्यालयों में सरकार के नुमाइंदों ने इस पर गौर फरमाने की जहमत उठाई है। क्या सभी बेटियों को सभी को निःशुल्क शिक्षा का लाभ मिल रहा है। इसका जवाब मिलेगा नहीं, अरे जब इस सरकार के मुखिया पर यह आरोप लगा सितंबर में कि अपने संसदीय क्षेत्र में रहते हुए आंदोलनरत बीएचयू की बेटियों से मिलने तक नहीं गए। वो बेटियां जो अपनी आबरू के लिए आंदोलनरत थीं। वह आंदोलन भी टूट गया। छात्राओं पर लाठियां बरसाई गईं। खैर उसका नतीजा यह कि कुलपति को असमय ही फोर्स लीव पर जाना पड़ा। अब एक ताजा तरीन प्रकरण सामने आया है जिसमें प्रमुख साहित्यकार और केंद्र सरकार की तहे दिल से तरफदारी करने वाली महिला को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। वह भी वहां से जहां बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार है। हां! मध्यप्रदेश से। यह साहित्यकार और कोई नहीं डॉ नीरजा माधव है। उन्होंने नव वर्ष के प्रथम दिवस पर अपनी पीड़ा साझा की पत्रिका के साथ। जानते हैं आखिर ऐसा क्या हो गया डॉ माधव के साथ कि उन्हें आकाशवाणी की नौकरी छोड़नी पड़ी...
पत्रिका को भेजे संदेश में नीरजा बताती हैं कि "नव वर्ष में आपसे साझा कर रही हूँ . मैने अपनी नौकरी सहायक निदेशक के पद से वीआरए लेने का फैसला करते हुए अपना पत्र 21 दिसंबर 2017 को विभाग को सौंप दिया है। पिछले डेढ़ वर्ष से मैं आकाशवाणी रीवा में थी। मेरा लेखन और परिवार दोनो प्रभावित हो रहा था। चार वर्ष की सेवा शेष हैं। वाराणसी में तबादला के लिये निवेदन किया तो डीजी साहब ना करने की जिद पर अड़ गए। और भी बहुत सी बातें ....। वह काफ दर्द भरे लफ्जों में कहती हैं आत्मसम्मान के अलावा एक लेखक के पास होता क्या है ज़िसकी वह सुरक्षा करे।
वह बताती हैं कि आज से 30-35वर्ष पहले जब "बेटी बचाओ ,बेटी पढाओ " का नारा देने वाली सरकार नहीं थी उस समय तमाम चुनौतियों को झेल गांव से निकली एक लड़की अपनी शिक्षा पूरी कर अपने दम पर राजपत्रित अधिकारी बनी थी। अपने लेखन से राष्ट्रीय चिन्तन को एक धार दी। अब कोई जिद पर अड़े कि मैं सब छोडकर इस उम्र में परिवार से दूर अकेली दूसरे शहर में रहकर मानसिक तनाव में रहूँ तो उससे बेहतर तो यही विकल्प लगा कि मैं ऐसी नौकरी ही छोड दूं जिसमें महिला की समस्या को समझने का प्रयास भी ना हो। आखिर परिवार भी तो हमसे ही है। इतना तो स्पष्ट हो गया कि आज भी स्त्री के लिए आत्म- निर्भरता, परिवार और लेखन सब एक साथ लेकर चलना कठिन चुनौती है। एक आग का दरिया और...।
नीरजा कहती हैं एक खास category के पुरूषवादी सोच के लोग आपको चलने भी नहीं देंगे, इसलिए वीआरएस ले लेने का कड़ा निर्णय लेना पड़ा। कम से कम लेखन निर्बाध कर पाऊंगी और यह तनाव नहीं होगा कि बेटा बिना खाये तो कॉलेज नहीं चला गया। नए वर्ष की आप सबको शुभ कामनाएं और यह भी कि जीवन में आपके सामने ऐसे लोग ना आएं।
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