Sunday, 2 December 2018

निजता ,स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अतार्किक और अविवेकवादी इस्तेमाल ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी


Jagadishwar Chaturvedi
02-12-2018 
शादी, समाज और नव्य हिन्दुत्व-
भारत का संविधान व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। निजता ,स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अतार्किक और अविवेकवादी इस्तेमाल करने के मामले में हमारे नव्य हिन्दू शिक्षित और अमीर लोग सबसे आगे हैं। ये वे लोग हैं जो समाज में संस्कृति,धर्म और मासकल्चर की दिशा तय करते हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि इन नव्य हिन्दुओं के खिलाफ कहीं पर कोई सांस्कृतिक हस्तक्षेप नजर नहीं आता। अधिकांश बुद्धिजीवियों से लेकर सभी राजनीतिक दलों तक इनको समर्थन और सहयोग प्राप्त है।हम सब लोग जो समाज को बदलने में दिलचस्पी रखते हैं उनका भी बड़ा हिस्सा नव्य –हिन्दुत्व के नव्य सांस्कृतिक दवाबों में जीने, उसे मानने और उनके बताए मार्ग पर चलने लिए अभिशप्त है। हम कभी खुलकर इस तरह के सांस्कृतिक प्रदर्शन और अपव्यय पर बहस नहीं चलाते। इस सबका परिणाम यह निकला है कि सादगी और समानता में एक बैर भाव पैदा हो गया है।
सादगी से शादी करने, बिना तड़क-भड़क और लाखों-करोडों रूपये खर्च करके शादी करने से हम सब लोग परहेज करने की बजाय उसका ही अनुसरण करने लगे हैं। यह सब करके हम सबने अपने घर और मन के अंदर एक नव्य हिन्दू सांस्कृतिक नायक और नव्य हिन्दू संस्कृति को प्रतिष्ठित कर लिया है। हमें भव्य और खर्चीली शादी से प्यार हो गया है, हम उसकी आलोचना करने की बजाय उसका समर्थन करने लगे हैं।
भव्य और महंगी शादी मुकेश अम्बानी के घर हो या किसी मध्यवर्गीय व्यक्ति के घर हो या फिर किसी मार्क्सवादी के घर हो, यह अपने आपमें नव्य हिन्दू संस्कृति के सामने खुला समर्पण है। यह सादगी और समानता के लक्ष्य का विलोम है,यह इस बात का प्रतीक है कि समाज सुधारों की हमने जरूरत से इंकार कर दिया है। हमने संस्कृति को सजाने-संवारने की बजाय,मासकल्चर और नव्य हिदुत्व के दर्शन के सामने आत्म समर्पण कर दिया है। 
जिस तरह फैशन उद्योग अधिनायकवादी ढ़ंग से समाज के साथ पेश आता है और सबको मजबूर करता है और फैशन के दायरे में खींच लेता है, ठीक उसी तरह शादी कैसे करोगे, कितना खर्चा करोगे, आदि सवालों पर विचार करते ही जाने-अनजाने निम्न-मध्यवर्ग, मध्यवर्ग,बुर्जुआजी,सैलीब्रिटी आदि में एक सांस्कृतिक साझा परंपरा नजर आती है।सबमें अधिक से अधिक खर्च करने की होड़ नजर आती है। हम भूल ही जाते हैं कि भारत एक गरीब देश है, इसमें दौलत का किसी भी रूप में प्रदर्शन अंततः सांस्कृतिक और सामाजिक वैषम्य को और भी गहरा बनाता है।सांस्कृतिक खाई को और भी चौड़ा करता है।
सवाल यह है शादी को हम सादगी और कम खर्च में संपन्न क्यों नहीं कर पाते ॽ हम आजतक शादी के खर्चे के सवाल पर शिक्षितों में आम सहमति क्यों नहीं बना पाए हैं ॽ वह कौन सी चीज है जिसने हमें शादी को कम खर्चे और सादगी से करने से रोका हुआ है ॽ शादी में पैसे का अपव्यय, अधिक से अधिक लोगों को खाना खिलाने, महंगे से महंगे उपहार देने,दहेज देने आदि की परंपरा आज भी कायम है। इन परंपराओं को चुनौती देने की न तो वाम को फुर्सत है न दक्षिण को फुर्सत है, न उदारपंथियों को फुर्सत है। सब मस्त हैं शादियां हो रही हैं,नव्य हिन्दुत्व के सांस्कृतिक पैराडाइम का निर्माण करने में ! 
जो लोग राजनीति में एक-दूसरे के घनघोर विरोधी हैं, वे सांस्कृतिक तौर पर एक ही जमीन पर एक साथ जयकारे लगा रहे हैं,इसने भारत में सांस्कृतिक वैषम्य बढ़ाने में मदद की है। इसने औरत को और भी असहाय बनाया है। दिलचस्प है शादी के महंगे खर्चे के सवाल पर समाज का कोई भी वर्ग और संगठन बहस नहीं करना चाहता,विगत 70 सालों में इसके खिलाफ कभी कोई दिल्ली मार्च नहीं निकाला गया, जबकि प्रतिवर्ष हजारों लड़कियां दहेज हत्या की शिकार हुई हैं।यह आयरनी है किसान-हत्या जिनको नजर आती है और उसके लिए मार्च निकालना सही लगता है , वे संगठन कभी शादी कैसे करोगे, के सवाल पर एक भी मार्च 70 सालों में नहीं निकाल पाए, जबकि किसानों से कई गुना ज्यादा औरतें दहेज हत्या की हर साल शिकार होती हैं। 
लड़की जब दहेज हत्या की शिकार होती है तब कभी-कभार महिला संगठनों की आवाज सुनाई देती है ,यह आवाज हत्या के बाद ही सुनाई देती है। लेकिन दहेज हत्या का सिलसिला तो महंगी शादी और दहेज की मांग के साथ शुरू होता है, उस सबके खिलाफ किसी संगठन के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। कहने का आशय यह कि जिस समाज में हर साल हजारों लड़कियां दहेज के नाम पर मारी जाती हों उस समाज में जब शादी कैसे करें ॽ का सवाल महत्वपूर्ण सवाल नहीं बन पाया है तो क्रांति तो कॉमरेड अभी बहुत दूर है !
महंगी शादी,खर्चीली शादी की बीमारी पूरे समाज में फैली हुई है, उसके खिलाफ व्यवहार में आचरण करने वाले गिनती के लोग हैं, जबकि कहने को यह देश गांधी का देश है, सादगी पसंद देश है,गरीबों का देश है, गरीबी,स्त्री हत्या, दहेज हत्या का प्रतिवाद करने वालों का देश है। लेकिन हममें से अधिकांश लोग कम खर्चे में शादी करने के पक्ष में नहीं हैं, किसी न किसी बहाने अपने शादी के खर्चों को जायज ठहराते रहते हैं। 
कायदे से शादी परंपरागत हो या कानूनी सिविल मैरिज हो, उसमें पांच से ज्यादा लोग नहीं बुलाए जाएं, दावत के नाम पर पांच लोग ही खाएं और जाएं। कोई लेन देन न हो। जब तक समाज इस बात पर एकमत नहीं होता तय मानो समाज में क्रांति नहीं कर सकते। 
शादी कैसे करें, यह सवाल जितना सामाजिक है,उससे अधिक व्यक्तिगत और पारिवारिक भी है। हमने समाज को इस सवाल पर कभी शिक्षित ही नहीं किया। हां, बीच -बीच में विभिन्न समुदायों और जाति समूहों में यह बहस जरूर चली है कि कम से कम कितने बराती आएं, कितनी संख्या में मिठाई बने, आदि। यहां तक कि एकबार इस पर कानून भी बना था। लेकिन शादी कैसे करें , इस सवाल पर किसी भी किस्म की जन-जागृति के काम को प्रधान एजेण्डा नहीं बनाया गया। जिन बातों पर समाज में बहस नहीं हुई,जिन संस्कारों को दुरूस्त करने के बारे में विचार-विनिमय नहीं हुआ, नव्य हिन्दुत्व के सांस्कृतिक हमले वहीं से आ रहे हैं। भव्य शादी और उसके समारोह उसके प्रतीक मात्र हैं,इन सांस्कृतिक रूपों की एक राजनीति भी है जिसका मूलाधार अविवेकवाद है। जो लोग खर्चीली शादी करते हैं वे जाने-अनजाने अविवेकवाद की आग में घी डालने का काम करते हैं। 
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