बिखराब की ओर एनडीए और टूट की ओर भाजपा :
अपने घनघोर कट्टरपंथी एजेंडे को जनता पर जबरिया थोपने, 2014 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं से किये वायदों से पूरी तरह मुकरने और काम की जगह थोथी बयानबाजी के चलते राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) और भाजपा के प्रति जनता में भारी आक्रोश पैदा हुआ है। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार और पिछले दिनों हुये लोकसभा और विधानसभा की सीटों के उपचुनावों में उसकी उल्लेखनीय पराजय ने आग में घी का काम किया है। यही वजह है कि आज एनडीए बिखर रहा है और भाजपा कण कण करके टूट रही है। हालात ये हैं कि 2019 के चुनाव आते आते एनडीए के ध्वंसावशेष ही दिखेंगे और भाजपा 2014 के पूर्व की स्थिति में पहुँच जायेगी।
तेलगू देशम पार्टी ने तो एनडीए को पहले ही तलाक देदिया था तो आतंकवाद से निपटने में असफलता के चलते बदनामी झेल रही भाजपा ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी से खुद ही हाथ छुड़ा लिया। अब एनडीए के आधा दर्जन से अधिक घटक दल खुल कर विद्रोह पथ पर हैं तो अन्य कई के अंदर अंदर आग सुलग रही है। उनका धैर्य कब जबाव दे जाएगा और विलगाव के स्वर कब फूट पड़ेंगे कहा नहीं जासकता।
यूपी के फूलपुर और गोरखपुर के लोकसभा उपचुनावों से शुरू हुयी और कैराना में परवान चढ़ी विपक्षी एकता ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि साल का अन्त आते आते एनडीए के विखराव की आधारशिला तैयार होगयी। इन चुनावों में सपा, बसपा और रालोद ने वामपंथी दलों के सहयोग से तीनों प्रतिष्ठापूर्ण सीटें जीत लीं। इस जीत ने विपक्ष और जनता में आत्मविश्वास जगाया कि भाजपा को हराया जासकता है। तीन हिन्दी भाषी राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथ से निकल जाने पर तो यह आत्मविश्वास हिलोरें लेने लगा। सत्तापक्ष की हताशा के चलते एक के बाद एक सहयोगी दल के असंतोष से एनडीए दरकने लगा। भाजपा एक मजबूत पार्टी से मजबूर पार्टी की स्थिति में आगयी। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा और असुरक्षा की भावना के चलते भाजपा से भी लोग किनारा करने लगे।
बिहार की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी साढ़े चार साल तक सत्ता में साथ निभाने के बाद एनडीए को छोड़ कर संप्रग का हिस्सा बन गयी। उसने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने पिछड़ों और गरीबों के लिये कोई काम नहीं किया।
कार्पोरेट्स नियंत्रित आज की राजनीति में विचार और सिध्दांत की जगह चुनावों में जीत हार और सत्ता प्राप्ति की संभावना पार्टियों के बीच हाथ मिलाने का आधार बनते हैं। जब तक ये संभावनायें भाजपा के पास थीं, पार्टियों का प्रवाह भाजपा की ओर था। 2014 में मोदी लहर में जिनको जीत और सत्ता दिख रही थी वे साथ आये, उनको लाभ मिला। पर आज हालात बदल गये हैं और इस प्रवाह की दिशा भी बदल चुकी है।
केन्द्र सरकार के शासन के साड़े चार सालों के दलितों के साथ भारी अन्याय हुआ है। इससे वे उद्वेलित और आंदोलित हैं। इससे विचलित बिहार के दुसाधों के आधार वाली पार्टी लोजपा भी असुरक्षित समझने लगी। उसके नेताओं ने ताबड़तोड़ बयानबाजी कर भाजपा को बैक फुट पर लादिया। गत लोकसभा चुनावों में बिहार में 30 सीटें लड़ कर 22 सीटें जीतने वाली भाजपा को मात्र 17 सीटों पर संतोष करना पड़ा। उसे जीती हुयी पांच सीटों की कुर्बानी लोजपा और जदयू के लिये करनी पड़ी। एक राज्यसभा सीट भी लोजपा को देनी पड़ी।
राजनीति के पर्यवेक्षक अभी भी इसे स्थायी समाधान नहीं, “पैच अप” मान रहे हैं। यदि भाजपा ने साख बचाने की गरज से मंदिर निर्माण के लिये अध्यादेश लाने की कोशिश की तो दोनों की राहें जुदा होसकतीं हैं। क्योंकि दोनों के जनाधार के समक्ष मंदिर नहीं, किसान- कामगारों की दयनीय स्थिति का मुद्दा प्रमुख है। नीतीश कुमार कह भी चुके हैं कि राम मंदिर का मुद्दा सहमति या अदालत से हल होगा।
महाराष्ट्र में भाजपा की पुश्तैनी सहयोगी रही शिवसेना भी आँखें तरेर रही है। वह लगातार भाजपा को कठघरे में खड़ा कर रही है। इसके सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने तो यहाँ तक कह डाला कि 'दिन बदल रहे हैं, चौकीदार ही अब चोरी कर रहे हैं।' राफेल विमान सौदे में घोटाले को भी वे उजागर कर रहे हैं।
सुभासपा के नेता और योगी सरकार में काबीना मंत्री श्री ओमप्रकाश राजभर राज्य सरकार के गठन के दिन से ही उस पर खुले हमले बोल रहे हैं। सुभासपा ने अब भाजपा के केंद्रीय नेत्रत्व पर भी हल्ला बोल दिया है। वह आरक्षण को तीन भागों में बांटने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन कर रही है। भाजपा की हिम्मत नहीं कि उसे बाहर का रास्ता दिखा सके।
जातीय पहचान और सामाजिक न्याय के प्रश्न पर क्षेत्रीय पार्टियों का अभ्युदय हुआ था। भाजपा और संघ का हिन्दुत्वनामी कट्टरपंथ क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाओं को रौंद रहा है। अतएव एनडीए के घटक अपना दल को भी अपना अस्तित्व खतरे में नजर आरहा है। इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने प्रदेश सरकार पर सम्मान न देने का आरोप लगाया। उन्होने कहाकि ‘मौजूदा हालात में सोचना पड़ेगा कि जहां सम्मान न हो, स्वाभिमान न हो, वहां क्यों रहें? उन्होने केन्द्र में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल की अनदेखी का आरोप भी लगाया और सभी विकल्प खुले रखने का संकेत दिया। उल्लेखनीय है कि अपना दल ने पांच साल में यह पहला बड़ा हमला बोला है।
पंजाब में अकाली दल ने आँखें दिखाना शुरू कर दीं हैं तो तमिलनाड्डु में भाजपा खोखली होचुकी एआईएडीएमके की बैसाखियों पर निर्भर है। पूर्वोत्तर में विपरीतधर्मी पार्टियों के साथ हनीमून के दौर से गुजर रही भाजपा से उनका कब तलाक होजायेगा कोई नहीं जानता।
एनडीए ही नहीं 2019 में पुनर्वास की चिन्ता में डूबी भाजपा भी आंतरिक विघटन की पीड़ा से गुजर रही है। एक एक कर सहयोगी दल भाजपा से छिटक रहे हैं। इससे भाजपा में छटपटाहट है। कर्नाटक में जीत के जादुयी आंकड़े से दूर रही भाजपा के पांच राज्यों में चुनावी हार से कार्यकर्ताओं का मनोबल और भी टूटा है। वे अब मोदी के करिश्मे और संघ की दानवी ताकत पर भरोसा नहीं कर पारहे हैं। हार की ज़िम्मेदारी तय न करने पर भी सवाल उठ रहे हैं। श्री नितिन गडकरी ने इशारों इशारों में नरेन्द्र मोदी और अमितशाह पर सवाल उठाया कि ‘सफलता के कई पिता होते हैं पर असफलता अनाथ होती है। कामयाब होने पर उसका श्रेय लेने को कई लोग दौड़े चले आते हैं, पर नाकाम होने पर लोग एक दूसरे पर अंगुलियां उठाते हैं।‘
जहाज डूबने को होता है तो चूहे भी उसे छोड़ कर भागने लगते हैं। पाला बदलने का दौर शुरू होगया है। हर दिन किसी न किसी भाजपाई के पार्टी छोड़ने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। 40 से 50 फीसदी सांसदों की टिकिटें काटने की भाजपा की योजना है। टिकिट गँवाने वाले ये सांसद क्या गुल खिलायेंगे, सहज अनुमान लगाया जासकता है।
कार्पोरेट्स को लाभ पहुंचाने और किसान कामगारों की उपेक्षा के चलते समस्याओं का अंबार लग गया है और पीड़ित तबके उनसे जूझ रहे हैं। हाल ही में देश के कई कोनों और राजधानी में किसानों ने बड़ी संख्या में एकत्रित हो हुंकार भरी है। देश के व्यापकतम मजदूर तबके 8 व 9 जनवरी को हड़ताल पर जाने वाले हैं। शिक्षक, बैंक कर्मी, व्यापारी, दलित, पिछड़े और महिलाएं सभी आंदोलनरत हैं। जमीनी स्तर पर वंचित और उपेक्षित तबकों की हलचल जिस तेजी से बड़ रही है उसी तेजी से संघ और भाजपा की बेचैनी बड़ रही है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि साढ़े चार साल में पहली बार भाजपा नेताओं की सभाओं में लोग प्रतिरोध जता रहे हैं। एक ओर लोग ‘मन्दिर नहीं तो वोट नहीं’ जैसे नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर महंगाई भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से आजिज़ युवक सभाओं में पत्थरबाजी कर रहे हैं।
दशहरे पर अपने भाषण में मन्दिर राग छेड़ने वाले संघ प्रमुख पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से उसकी निस्सारिता को समझ चुके हैं। परन्तु अन्य कोई विकल्प सामने न देख संघ “मन्दिर शरणम गच्छामि” के उद्घोष को मजबूर है। गंगा, गाय, नामों के बदलने और मूर्तियों के निर्माण से भी हानि की भरपाई हो नहीं पारही है। ऐसे में न्यायालय से मन्दिर- मस्जिद प्रकरण पर जल्द फैसला आता न देख विश्वसनीयता की रक्षा के लिए केन्द्र सरकार मन्दिर निर्माण के लिये अध्यादेश ला सकती है।
इस अध्यादेश का हश्र क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा पर एनडीए को खंड खंड करने और भाजपा के विघटन के लिये यह काफी होगा । भाजपा के गैर संघी लोगों को अब यह राह स्वीकार्य नहीं।
डा॰ गिरीश
27- 12- 2018
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जनसंघ के माध्यम से आर एस एस भारत में भी यू एस ए व यू के की भांति दो पार्टी पद्धति की वकालत करता रहा है। 1980 के लोकसभा चुनावों में आर एस एस ने नवगठित भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था। इन्दिरा जी की उस सरकार को पूर्ण हिन्दू बहुमत से बनी सरकार की संज्ञा दी गई थी। 1985 में राजीव गांधी को भी आर एस एस का समर्थन मिला था और इसी लिए 1989 में उनके द्वारा अयोध्या के विववादित ढांचे का ताला खुलवाया गया था। 1998 से 2004 तक के भाजपा शासन में प्रशासन,सेना,पुलिस,खुफिया एजेंसियों में आर एस एस के लोगों की भरपूर घुसपैठ करा दी गई थी। 1977 की मोरारजी सरकार के समय भी विदेश और संचार मंत्रालयों में आर एस एस के लोग दाखिल कराये जा चुके थे।
2014 से अब तक शिक्षा संस्थाओं, संवैधानिक संस्थाओं समेत लगभग पूरी सरकारी मशीनरी में आर एस एस के लोग बैठाये जा चुके हैं। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि, पी एम भाजपा का है या कांग्रेस का या किसी अन्य दल का। मोदी - शाह की जोड़ी न सिर्फ भाजपा संगठन पर मनमाने तरीके से काबिज थी बल्कि आर एस एस को भी काबू करने की कोशिशों में लगी थी इसी वजह से आर एस एस को उनका विरोध कराना पड़ रहा है क्योंकि भाजपा को बहुमत मिलने की दशा में इस जोड़ी को हटाना संभव नहीं होगा बल्कि यह आर एस एस को भी कब्जा लेगी। 2013 में कोलकाता में घोषित योजना से ( जिसके अनुसार दस वर्ष मोदी को पी एम रहना था और फिर योगी को बनाया जाना था ) हट कर आर एस एस अब राहुल कांग्रेस को गोपनीय समर्थन दे रहा है जिससे भाजपा विरोधी सरकार 2019 में सत्तारूढ़ होने से मोदी - शाह जोड़ी से संघ को छुटकारा मिल जाये। संघ अब सत्ता और विपक्ष दोनों को अपने अनुसार चलाना चाहता है।
संघ विरोधियों विशेषकर साम्यवादियों व वामपंथियों को संघ की इस चाल को समझते हुये तीसरा मोर्चा के माध्यम से स्वम्य को मजबूत करना चाहिए।
------ विजय राजबली माथुर
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