Monday, 30 September 2019

ट्रेंड फोर्स को नेशनल सिक्योरिटी से दूर करने का प्रयास ------ पूनम पाण्डे

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 22 September 2019

नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे , बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे ------ रवीश कुमार द्वारा प्रणव प्रियदर्शी

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http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html

मैगसायसाय से बदल नहीं गई मेरी दुनिया
सप्ताह का इंटरव्यू

रवीश कुमार
न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये बहसें वही चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं


आप उनसे सहमत हो सकते हैं, आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। शैली और तेवर ही नहीं, उनका कंटेंट भी उन्हें और उनकी पत्रकारिता को खास बनाता है। और अब तो वह मैगसायसाय पुरस्कार हासिल करने वाले हिंदी के पहले पत्रकार हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं रवीश कुमार की। तीखा विरोध झेलकर और कठिन अवरोधों से गुजर कर मैगसायसाय पुरस्कार समिति के शब्दों में ‘बेजुबानों की आवाज’ बने रवीश कुमार से बातचीत की है प्रणव प्रियदर्शी ने। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:


• पहले तो आपको बहुत बधाई। मैगसायसाय पुरस्कार पाकर लौटने के बाद जब आप दोबारा काम में जुटे तो आसपास की दुनिया में, कामकाज के माहौल में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं/ 


शुक्रिया। कोई बदलाव नहीं है। वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। चूंकि संसाधन नहीं हैं तो बहुत सारे मैसेज यूं ही पड़े रह जाते हैं, हम उन पर काम नहीं कर पाते। मैसेज तो बहुत सारे आते हैं। ट्रोल करने वालों ने मेरा नंबर गांव-गांव पहुंचा दिया है। अब लोग उसी नंबर को अपना हथियार बना रहे हैं। वे अपनी खबरें मुझे भेजते हैं, चाहते हैं कि मैं दिखाऊं। पूरे मीडिया का काम कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। फिर भी, जितना हो सकता है, उतना तो किया जाए, इसी सूत्र पर मैं चल रहा हूं।


• आपने हाल में बताया कि पुरस्कार के बाद जितने भी मैसेज मिले, वे सब पॉजिटिव थे। क्या इस पुरस्कार ने झटके में सबकी सोच बदल दी या पहले से ही उसमें अंतर आ रहा था धीरे-धीरे


दोनों ही बातें थीं। जो मुझे देखते हैं उनका एक बड़ा हिस्सा खुद भी दबाव में रहता है। रिश्तेदारों-मित्रों के नाराज होने का डर रहता है। तो ये सब साइलेंट थे और इन्हें पुरस्कार के सहारे अपनी बात कहने का मौका मिला। दूसरी बात, बहुत से लोग बदल भी रहे हैं। पुरस्कार से पहले भी मेरे पास ऐसे कई मैसेज आते थे कि मैं आपको गाली देता था पर अब लगता है कि मैंने गलती की, क्या आप मुझे माफ कर सकते हैं/ यह बड़ी सुंदर बात है। वे माफी नहीं मांगते, मेरे सामने स्वीकार नहीं करते तो भी उनका काम चल जाता।


• यह तो मनुष्य में विश्वास बढ़ाने वाली बात है...


बिल्कुल। यह ऐसी बात है जो साबित करती है कि लोग बदलते हैं। हमें अपना काम पूरी निष्ठा से करना चाहिए क्योंकि हमारे पाठकों और दर्शकों पर देर-सबेर उसका असर होता है।• एक बात आजकल नोट की जा रही है कि लोगों की सोच निर्धारित करने में सूचनाओं की भूमिका लगातार कम हो रही है। इसकी क्या वजह है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं/


सचाई यह है कि न्यूजरूम से सूचनाएं गायब ही हो गई हैं। वहां धारणाओं पर काम होता है। तो जो चीज रहेगी नहीं, उसकी भूमिका कैसे बढ़ेगी/ चैनलों में रिपोर्टर ही नहीं हैं। सो सूचनाओं तक पहुंचने की चिंता छोड़कर वे धारणाओं पर बहस कराते रहते हैं। यह भयावह है। सूचनाओं के बगैर नागरिक धर्म नहीं निभाया जा सकता। नागरिकों को ही इसकी चिंता करनी पड़ेगी।


• इस पोस्ट ट्रुथ दौर में खबरों के स्वरूप को लेकर भी बहस चल रही है। कहते हैं, खबर वही है जो लोग सुनना चाहते हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं/


दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं है जो न्यूज के बगैर रह सके। और न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये सारी बहसें वही लोग चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। उसकी एक ही परिभाषा हो सकती है, हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, वह अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है।

• सरकारें तो हमेशा से पत्रकारिता के सामने एक चुनौती के रूप में रही हैं। आज सत्ता तंत्र से लड़ना पत्रकारिता के लिए ज्यादा मुश्किल क्यों साबित हो रहा है/

देखिए, पिछली सरकारों का जिक्र करके आज की सरकार को रियायत नहीं दी जा सकती। कभी ऐसा नहीं था कि सभी चैनल एक तरह की बहस चला रहे हैं। समझना होगा कि यह संपूर्ण नियंत्रण का दौर है। आपात काल की बात हम करते हैं, पर आपात काल में जनता सरकार के साथ नहीं थी, वह मीडिया के साथ थी। इस बार जनता के भी एक हिस्से को मीडिया के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है।


• जब आप पत्रकारिता में आए थे तब क्या लक्ष्य थे आपके सामने/


कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था। नौकरी मिल जाए, मैं अच्छा लिखूं, मेरा लिखा पसंद किया जाए…... यही बातें थीं। पर रिपोर्टिंग के दौरान जब भी बाहर जाता तो लोग बड़ी उम्मीद से देखते। देखता, अनजान आदमी मेरे लिए कुर्सी ला रहा है, कोई भाग कर पानी ला रहा है। मन में सवाल उठता कि यह आदमी मुझे जानता भी नहीं है क्यों मेरे लिए इतना कर रहा है। धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सरकार से, प्रशासन से इसे कोई उम्मीद नहीं है। जानता है कि सत्ता का तंत्र मेरे बारे में नहीं सोचेगा, पर पत्रकार सोचेगा क्योंकि वह हमारे बीच का है, हमारा आदमी है। लोगों की ये भावनाएं, उनकी उम्मीदें मुझे जिम्मेदार बनाती गईं।


• अब आगे का क्या लक्ष्य है/



आगे के लिए भी वही है नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे और मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे…, बस।

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 17 September 2019

पर्दा अपनी जगह यथावत है ------ हेमंत कुमार झा

Hemant Kumar Jha
3 hrs

कितने मासूम हैं वे...! बिल्कुल उस बच्चे की तरह जिसे चावल का भूंजा 'कुरकुर' भी चाहिये और 'मुरमुर' भी चाहिये।
उसी तरह उन्हें भी...एक खास तरह का राष्ट्रवाद भी चाहिये, नकारात्मक किस्म के सांस्कृतिक वर्चस्व की मनोवैज्ञानिक संतुष्टि भी चाहिये, धारणाओं में सुनियोजित तरीके से स्थापित 'मजबूत' नेता भी चाहिये और...अपनी स्थायी सरकारी नौकरी में किसी तरह की विघ्न-बाधा भी नहीं चाहिये।
वे रेलवे में नौकरी करते हैं, एयरपोर्ट में नौकरी करते हैं, बैंकों, विश्वविद्यालयों, आयुध निर्माण केंद्रों, बीएसएनएल, एमटीएनएल, ओएनजीसी सहित पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों में नौकरी करते हैं।
उन्हें अपनी नौकरी में स्थायित्व पर कोई सवाल नहीं चाहिये, समयबद्ध तरक्की भी चाहिये और पेंशन तो चाहिये ही चाहिये... वह भी 'ओल्ड' वाला।
लेकिन यह क्या?
अभी वे बालाकोट में पाकिस्तान के मानमर्दन का जश्न मना कर, केंद्र में मजबूत नेता के फिर से और अधिक मजबूत होकर आने का स्वागत गान गा कर अपने-अपने ऑफिसों में निश्चिंत हो कर बैठे भी नहीं थे कि खुद उनके अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे।
बिना सही तथ्य जाने एनआरसी विवाद पर अपनी कीमती राय रखते हुए, मजबूत सरकार द्वारा कश्मीरियों को 'सीधा' करने की कवायदों पर अपना उत्साह ही नहीं, उल्लास व्यक्त करते हुए अपनी गद्देदार कुर्सियों की पुश्तों से गर्दन टिका कर उन्होंने ऑफिस कैंटीन में कॉफी का ऑर्डर भेजा ही था कि पता चला...उसी मजबूत सरकार ने उनकी कुर्सी के नीचे पटाखों की लड़ियों में माचिस की तीली सुलगा दी है।
अब क्या बैंक, क्या रेलवे, क्या कॉलेज, क्या एयरपोर्ट, क्या ये, क्या वो...सब हैरान हैं। ये क्या हो रहा है,?
एयरपोर्ट वाले बाबू लोग तो बहुत हैरान हैं। उनकी हैरानी नाराजगी का रूप ले रही है। सरकार ने देश के बड़े हवाई अड्डों के निजीकरण का निर्णय लिया है। बाबू लोग सकते में हैं। वे कह रहे हैं कि जो सरकारी एयरपोर्ट अच्छे-भले मुनाफे में चल रहे हैं उनको कारपोरेट के हाथों में सौंपने का क्या मतलब है? वे गिनाते हैं कि सरकारी नियंत्रण में रहते इन एयरपोर्ट्स ने आधारभूत संरचना के विकास में कितने उच्च मानदंडों को छुआ है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार अब वे बाबू लोग आरोप लगा रहे हैं कि बने-बनाए, मुनाफे में चल रहे एयरपोर्ट्स को बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों सौंप कर सरकार सिर्फ उन उद्योगपतियों के हित साध रही है। अब उन्हें अपना भविष्य अंधेरा नजर आ रहा है।
आह...कितने मासूम हैं ये बाबू लोग। जब कभी कोई कहता या लिखता था कि जिस नेता को वे 'डायनेमिक' कह रहे हैं उसके आभामंडल के निर्माण में उन्हीं बड़े औद्योगिक घरानों ने बड़ी मेहनत की है, अकूत पैसा खर्च किया है, कि तमाम भावनात्मक मुद्दे आंखों में धूल झोंकने के हथियार मात्र हैं और उनसे किसी के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं आने वाला, कि यह मजबूत नेता दोबारा आने के बाद दुगुने जतन से कारपोरेट की शक्तियों का हित पोषण करेगा...तो वे हिकारत के भावों के साथ टिप्पणियां करते थे, ऐसा कहने वालों को वे वामी आदि के संबोधनों से तो नवाजते ही थे, अक्सर उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठा दिया करते थे।
अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और ज्यां द्रेज सरीखे अर्थशास्त्रियों के बयानों को किसी 'साजिश' का हिस्सा बताने में उन बाबुओं को भी कोई संकोच नहीं होता था जिन्होंने दसवीं तक के अर्थशास्त्र को भी ठीक से नहीं पढ़ा था।
सितम यह कि सरकारी विश्वविद्यालयों के अधिकतर प्रोफेसरों को बैंक निजी चाहिये, रेलवे-एयरपोर्ट के निजीकरण से उन्हें कोई आपत्ति नहीं, आयुष्मान भारत योजना को वे गरीबों की चिकित्सा के लिये ऐतिहासिक कदम बताते हैं, सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की बदहाली का कोई संज्ञान लेने तक को वे तैयार नहीं और ऊंची तनख्वाह के साथ ही मेडिकल बीमा के बल पर लकदक निजी अस्पतालों में अपनी चिकित्सा के प्रति वे निश्चिंत हैं।
उनकी दिक्कत तब शुरू हुई जब सरकार सरकारी कॉलेजों को भी एक-एक कर बाकायदा कारपोरेट के हाथों में सौंपने की तैयारी करने लगी। शुरुआत हो चुकी है और पिछले सप्ताह कुछ कॉलेजों के बिकने का टेंडर भी हो चुका है। आने वाले 10-15 सालों में देश की उच्च शिक्षा का संरचनात्मक स्वरूप पूरी तरह बदल जाने वाला है। जिन्हें इस पर संशय हो वे प्रस्तावित 'नई शिक्षा नीति' के विस्तृत मसौदे को पढ़ने का कष्ट उठा लें। यह प्रस्तावित नीति और कुछ नहीं, उच्च शिक्षा तंत्र के कारपोरेटीकरण और इसकी जिम्मेवारियों से सरकार के हाथ खींच लेने का घोषणा पत्र है।
अधिकतर बैंक वाले खुश हैं कि सरकारी कालेजों का निजीकरण किया जा रहा है। वे इस परसेप्शन के शिकार हैं कि सरकारी स्कूल-कालेजों के मास्टर लोग बिना कुछ किये-धरे ऊंची तनख्वाहें उठाते हैं और कि...ये सारे मास्टर सरकार पर बेवजह के बोझ हैं।
एक-एक कर सार्वजनिक संपत्तियों को कौड़ी के मोल कारपोरेट के हाथों बेचा जा रहा है और इन खबरों को कहीं कोई तवज्जो नहीं मिल रही। अखबारों के किसी पन्ने के कोने में चार-आठ लाइनों की कोई छोटी सी खबर आती है, जिसका संज्ञान भी अधिकतर लोग नहीं लेते कि पब्लिक सेक्टर की फलां इकाई फलां उद्योगपति के हाथों बेच दी गई।
अधिकतर बाबू लोगों के प्रिय न्यूज चैनलों में वे चैनल ही हैं जो प्राइम टाइम में नियम से पाकिस्तान, कश्मीर, तीन तलाक, एनआरसी आदि पर बहसें करते-कराते हैं, जिनके एंकरों की चीखों से इन बाबुओं की रगों में भी देशभक्ति का जोश कुलांचें भरने लगता है। टीवी में एंकरों/एंकरानियों की चीखें जितनी जोर से गूंजती हैं, बाबू लोगों का जोश उतना बढ़ता है। उतना ही उनके बच्चों का मस्तिष्क प्रदूषित होता है जो अभी छठी, आठवीं या बारहवीं क्लास में हैं और कारपोरेट संचालित लोकतंत्र के छल-छद्मों से नितांत अनभिज्ञ हैं।
नहीं, ऐसा नहीं है कि अब उनकी आंखों पर पड़ा पर्दा हट रहा है। पर्दा अपनी जगह यथावत है और मोबाइल न्यूज एप्स पर आ रही उन प्रायोजित खबरों को देख-पढ़ कर वे अब भी मुदित-हर्षित हो रहे हैं जिनमें बताया जाता है कि इमरान मोदी के डर से थर-थर कांप रहे हैं, कि अब कश्मीर तो क्या, पीओके भी बस हासिल ही होने वाला है, कि असम की जमीन की पवित्रता अब लौटने ही वाली है जहां सिर्फ 'मां भारती के सपूत' ही रह जाएंगे और तमाम सौतेलों को खदेड़ दिया जाएगा।
उनकी आंखों पर पड़े पर्दों ने उन्हें इंसानियत से, भारतीयता से कितना विलग कर दिया है, यह उन्हें अहसास भी नहीं। तबरेज के हत्यारों को दोषमुक्त कर दिए जाने से तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं ही हुई, दोषमुक्त आरोपियों को फूल-मालाओं से लदा देख कर भी उन्हें कोई हैरत नहीं हुई।
तमाम खुली आँखों पर पड़े गर्द भरे पर्दे यथावत हैं। उन्हें तो विरोध बस अपने हितों पर हो रहे आघातों से है। उनका विभाग सलामत रहे, सरकारी बना रहे, उनका वेतन-पेंशन कायम रहे, बाकी सारे के सारे विभागों का निजीकरण हो जाए, फर्क नहीं पड़ता।
ये सिर्फ बाबू लोग हैं। इनमें अधिकारी भी हैं, कर्मचारी भी हैं, पियून साहब लोग भी हैं, प्रोफेसर/मास्टर भी हैं। वे न सवर्ण हैं, न पिछड़े, न अति पिछड़े, न दलित आदि। वे सिर्फ मध्यवर्गीय बाबू हैं जिन्हें अपने वर्गीय हितों से इतर कुछ नहीं सूझता।
उनमें से बहुत सारे लोग अब आंदोलित हैं लेकिन अलग-अलग जमीन पर। एक दूसरे के आंदोलनों के प्रति उनमें कोई सहानुभूति नहीं, बल्कि, अपना छोड़ बाकी अन्यों के आंदोलनों को वे संदेह की दृष्टि से देखते हैं और अवसर पड़ने पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने से भी कोई गुरेज नहीं करते।
कितने मासूम हैं वे !
वे सोचते हैं कि आसमान गिर पड़े तो गिरे, बस उनकी छत सलामत रहे, जिसकी सुरक्षा का जिम्मा सरकार का है क्योंकि वे तो सरकारी हैं। उनका ऑफिस सरकारी है और उसकी छत सरकार ने ही बनाई थी।
हितों के अलग-अलग द्वीपों पर खड़े वे तमाम लोग पराजित होने को अभिशप्त हैं। उनके बीच सामूहिक मानस का निर्माण सम्भव ही नहीं क्योंकि वे सारे एक-दूसरे के विभागों को सरकार पर बोझ मानते हैं।
वे आंदोलन कर रहे हैं। कुछ लोग, कुछ विभाग तो जोरदार आंदोलन की राह पर हैं। लेकिन, उनका वैचारिक खोखलापन तब सामने आता है जब दिन भर 'इंकलाब जिंदाबाद' करते-करते वे शाम को जब घर लौटते हैं तो चाय/कॉफी पीते उन्हीं न्यूज चैनलों पर उन्हीं दलाल एंकरों की चीखें सुनते हैं जो उन्हें बताते हैं कि पाकिस्तान तो अब बर्बाद होने ही वाला है और भारत...? यह तो विश्व गुरु था और फलां जी के नेतृत्व में फिर से विश्व गुरु बनने की राह पर है, कि बस, विश्व गुरु बनने को ही है। दुनिया के शीर्ष 300 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में भारत का कोई संस्थान अगर जगह नहीं पा सका तो लिस्ट बनाने वालों की कसौटियां ही संदिग्ध हैं। जिस देश में 'जियो' नामक अवतारी यूनिवर्सिटी हो जिसने जन्म से पहले ही एक्सीलेंस की कसौटियों को पूरा कर लिया हो उसे विश्वगुरु बनने से कोई रोक भी कैसे सकता है?

Tuesday, 10 September 2019

सरकार की आलोचना करने वाला व्यक्ति कम देशभक्त नहीं होता ------ जस्टिस दीपक गुप्ता

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Pankaj Chaturvedi
08-09*-2019 
कोई सात मिनट लगेंगे, इसके एक एक शब्द को ध्यान से पढ़ें।
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जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा, सरकार की आलोचना करने वाला व्यक्ति कम देशभक्त नहीं होता।

प्रेलेन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में वकीलों को संबोधित करते हुए, सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने "लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एंड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन" विषय पर लंबी बात की। न्यायमूर्ति गुप्ता ने अपने भाषण में कई पहलुओं पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा;
"बातचीत की कला खुद ही मर रही है। कोई स्वस्थ चर्चा नहीं है, सिद्धांतों और मुद्दों की कोई वकालत नहीं करता। केवल चिल्लाहट और गाली-गलौच है। दुर्भाग्य से आम धारणा यह बन रही है कि या तो आप मुझसे सहमत हैं या आप मेरे दुश्मन हैं और इससे भी बदतर कि एक आप राष्ट्रद्रोही हैं। "
उन्होंने कहा, "एक धर्मनिरपेक्ष देश में प्रत्येक विश्वास को धार्मिक होना जरूरी नहीं है। यहां तक कि नास्तिक भी हमारे संविधान के तहत समान अधिकारों का आनंद लेते हैं। चाहे वह एक आस्तिक हो, एक अज्ञेयवादी या नास्तिक हो, कोई भी हमारे संविधान के तहत विश्वास और विवेक की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। संविधान द्वारा अनुमत लोगों को छोड़कर उपरोक्त अधिकारों पर कोई बाधा नहीं है। "
उन्होंने असहमत होने के अधिकार के महत्व बताते हुए कहा कि;
"जब तक कोई व्यक्ति कानून को नहीं तोड़ता है या संघर्ष को प्रोत्साहित नहीं करता है, तब तक उसके पास हर दूसरे नागरिकों और सत्ता के लोगों से असहमत होने का अधिकार है और जो वह मानता है उस विश्वास का प्रचार करने का अधिकार है।"
उन्होंने ए.डी.एम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, (1976) 2 एससीसी 521 में जस्टिस एच. आर खन्ना के असहमतिपूर्ण फैसले का हवाला दिया, जो अंततः बहुमत की राय से बहुत अधिक मूल्यवान निकला।
"असहमति का अधिकार हमारे संविधान द्वारा गारंटीकृत सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है। जब तक कोई व्यक्ति कानून को नहीं तोड़ता है या संघर्ष को प्रोत्साहित नहीं करता है, तब तक उसके पास हर दूसरे नागरिकों और सत्ता के लोगों से असहमत होने का अधिकार है और जो वह मानता है उस विश्वास का प्रचार करने का अधिकार है।"
एडीएम जबलपुर मामले में एचआर खन्ना, का निर्णय एक असहमति का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो बहुमत की राय से बहुत अधिक मूल्यवान है। यह एक निडर न्यायाधीश द्वारा दिया गया निर्णय है। न्यायाधीशों को जो शपथ दिलाई जाती है, उसमें वे बिना किसी डर या पक्षपात, स्नेह या दूषित इच्छा के अपनी क्षमता के अनुसार कर्तव्यों को पूरा करने की शपथ लेते हैं। कर्तव्य का पहला और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बिना किसी डर के कर्तव्य निभाना है।
"लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नागरिकों को सरकार से कोई डर नहीं होना चाहिए। उन्हें उन विचारों को व्यक्त करने से डरना नहीं चाहिए, जो सत्ता में बैठे लोगों को पसंद नहीं हों। इसमें कोई संदेह नहीं कि विचारों को सभ्य तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए। हिंसा को उकसाए बिना, लेकिन इस तरह के विचारों की केवल अभिव्यक्ति अपराध नहीं हो सकती और इसे नागरिकों के खिलाफ नहीं होना चाहिए।
अभियोजन पक्ष से डरने या सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के डर के बिना लोग अगर अपनी राय व्यक्त कर पाएंगे तो दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। यह वास्तव में दुखद है कि हमारी एक सिलेब्रिटी को सोशल मीडिया से दूर जाना पड़ा क्योंकि उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को गंभीर रूप से ट्रोल किया गया और धमकी दी गई। "
उन्होंने अवगत कराया कि विद्रोहियों की आवाज को चुप कराने के लिए ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजद्रोह का कानून पेश किया गया था। जबकि उन्होंने यह तय किया कि यह प्रावधान लोगों को उनकी ताकत और अधिकार के इस्तेमाल से रोकने के लिए था। यह कानून प्रकट रूप से वैध असंतोष या स्वतंत्रता की किसी भी मांग को रोकने के लिए इस्तेमाल किया गया था।
वास्तव में क्वीन इम्प्रेसेस बनाम बालगंगाधर तिलक, ILR (1898) 22 बॉम्बे 112 के मामले में 'राजद्रोह' शब्द को बहुत व्यापक अर्थ में समझाया गया था। "इन लेखों के कारण कोई गड़बड़ी या प्रकोप हुआ या नहीं, यह पूरी तरह से सारहीन है। यदि अभियुक्त का इरादा लेख द्वारा विद्रोह या अशांति फैलाना था तो उसका कृत्य निस्संदेह धारा 124 ए के अंतर्गत अपराध होगा।"
इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा;
"हिंसा के लिए उकसावे के बिना आलोचना करना राजद्रोह की श्रेणी में नहीं होगा"। महात्मा गांधी के शब्दों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि "स्नेह कानून द्वारा निर्मित या विनियमित नहीं किया जा सकता। यदि किसी को किसी व्यक्ति या प्रणाली के लिए कोई स्नेह नहीं है और जब तक कि वह उकसाने का कार्य नहीं करता, हिंसा को बढ़ावा नहीं देता, उसे अपने असंतोष के लिए पूर्ण अभिव्यक्ति देने के लिए उसे स्वतंत्र होना चाहिए।"
जस्टिस गुप्ता ने कहा,
"आप लोगों को सरकार के प्रति स्नेह करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते और केवल इसलिए कि लोगों में सरकार के विचारों के प्रति असहमति या लोग दृढ़ता से असहमत हैं या मजबूत शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त करते हैं, उन पर राजद्रोही होने का आरोप नहीं लगा सकते, जब तक कि वे या उनके शब्द प्रचार या झुकाव या प्रवृति हिंसा को बढ़ावा नहीं देते या लोक शांति को खतरे में नहीं डालते।"
उन्होंने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्र भाषण के अधिकार के अपवाद के रूप में राजद्रोह को शामिल नहीं किया, क्योंकि वे कहते थे कि राजद्रोह केवल तभी अपराध हो सकता है जब वह सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा के लिए प्रेरित करे या भड़काए।
उन्होंने कहा, "केवल हिंसा या विद्रोह के लिए उकसावे पर रोक लगाई जानी चाहिए और इसलिए, अनुच्छेद 19 के अपवादों में 'राजद्रोह' शब्द शामिल नहीं है, लेकिन राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक अव्यवस्था या अपराध के लिए उकसाना शामिल है।"
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, 1962 सुप्रीम कोर्ट 2 एससीआर 769 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि केवल सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करने के लिए देशद्रोह के आरोप नहीं लगाए जा सकते। धारा 124 ए के तहत कोई मामला तभी बनाया जा सकता है जब ऐसे शब्द बोले गए या लिखे गए हों, जिसमें हिंसा का सहारा लेकर लोक शांति को भंग करने या गड़बड़ी पैदा करने की प्रवृत्ति रही हो।
इस फैसले की सावधानीपूर्वक जांच करने पर, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा,
"यह स्पष्ट है कि यदि अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाना नहीं किया गया होता तो यह संभावना होती कि संविधान पीठ सभी में धारा 124 ए नहीं लगाती। हिंसा के लिए उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने के संदर्भ में इसे पढ़े जाने पर संवैधानिक माना गया था।"
2011 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी की बात करते हुए उन्होंने कहा,

"मुझे लगता है कि हमारा देश, हमारा संविधान और हमारे राष्ट्रीय प्रतीक राजद्रोह के कानून की सहायता के बिना अपने कंधों पर खड़े होने के लिए पर्याप्त मजबूत हैं। सम्मान, स्नेह और प्यार अर्जित किया जाता है और इसके लिए कभी मजबूर नहीं किया जा सकता। आप किसी व्यक्ति को राष्ट्रगान के समय खड़े होने पर मजबूर कर सकते हैं, लेकिन आप उसके दिल में उसके लिए सम्मान होने के लिए उसे मजबूर नहीं कर सकते। आप कैसे इस बात का निर्णय करेंगे कि किसी व्यक्ति के मन में क्या है? "

https://www.facebook.com/pankaj.chaturvedi2/posts/10217832261991614





 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 7 September 2019

चंदा रे ये क्या ------ चंद्रशेखर जोशी

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Chandrashekhar Joshi
07-09-2019 
चंदा रे ये क्या : 
---
किसी का मामा, किसी का दुलारा, किसी का प्यारा सितारा है। समझ न आया, युग भी न बीता, अब हुड़ी तमाशा क्यों। 
...दुनिया में चंद्र अभियान 30 फीसदी ही सफल रहे हैं। विज्ञानी जल्द बड़े चंद्रमिशन सफल करेंगे। यह विश्व गुरु बनने जैसा भी कुछ नहीं था, चंद्रमा के सभी अभियान दुनिया के साझा हैं। मानव के चंद्र अभियान का पहला चरण वो था जब चांद की धरती के गुरुत्व त्वरण 1.62 m/s² का पता चला। तभी से चांद पर जाने की कोशिशें चलती रहीं। कई देश जब चांद पर कदम रख आए तब भारत भी ऊपर चढ़ा। इसरो के अध्यक्ष के.सिवन भी रोज कह रहे हैं कि चंद्रयान-2 की यह साफ्ट लैंडिंग है, पर नेताओं ने इसे हार्ड बना दिया। 
...कोई बात नहीं, चांद से ज्यादा चालाकी भला कौन समझता है। चंदा कभी आधा दिखता, कभी पूरा और कभी गायब रहता। दुनिया के राजनेता ही बाधक हैं कि चांद ने अब तक अपना अंधेरा हिस्सा किसी को न दिखाया। धरती का मानव ऐसा ही रहा तो अंधेरा हिस्सा खोजना संभव भी न होगा। इस तस्तरी का पिछला हिस्सा अब तक कोई नहीं जान पाया। असल में धरती के अलावा कोई भी ग्रह बाजार नहीं, किसी को बेचना संभव नहीं। नेता और नन्हे बच्चे इसरो मेें न जाने किस चक्कर में डटे रहे, सारी बातें इनकी समझ से परे थी।
...जो भी हो, धरती पर मानव की उत्पत्ति के बाद से ही सूर्य से ज्यादा इज्जत शीतल चांद ने पाई। सूर्य की तरफ फटकना संभव नहीं। चंद्रमा पृथ्वी का नजदीकी उपग्रह है, जिसके माध्यम से अंतरिक्ष की लिखित खोज के प्रयास गैलीलियो और आर्यभट के जमाने से चलते रहे। कोशिशें उससे पहले भी हुईं, पर तब की जानकारी जुटाना संभव नहीं। ग्रहों की बातें गहन अंतरिक्ष मिशन है, बच्चे इसकी गहराई समझें, नेता इस तरफ ध्यान न दें।
...बता रहे हैं चंद्रयान-2 चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव तक पहुंचा। यह दिलचस्प है क्योंकि इसकी सतह का बड़ा हिस्सा सूर्य की रोशनी नहीं ले पाता। विज्ञानी चाहते हैं कि चंद्रमा हमें पृथ्वी के क्रमिक विकास और सौर मंडल के पर्यावरण के बारे में बताए, यहां जीवन की उम्मीद बताए। खास मौके पर नेक चाह रखने वाले विज्ञानी किसी को नहीं दिखे, बेअक्ल नेता और नन्हे बच्चे ईवेंट का हिस्सा बन गए।
...खैर बांकी बातें कुछ दिनों बाद पता चलेंगी। फिलवक्त यह मिशन चंद्रयान-1 के बाद भारत का दूसरा चन्द्र अन्वेषण अभियान है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिक इसे और विकसित करेंगे। इस अभियान में भारत में निर्मित एक चंद्रकक्ष यान, एक रोवर एवं एक लैंडर शामिल हैं। चंद्रयान-2 के लैंडर और रोवर चंद्रमा पर लगभग 70 दक्षिण के अक्षांश पर स्थित दो क्रेटरों मजिनस-सी और सिमपेलियस-एन के बीच एक उच्च मैदान पर उतरा। उम्मीद है कुछ चूकें जल्द सुधार ली जाएंगी फिर से इसका रोवर चंद्र सतह पर चलेगा और चंद्रधरा का रासायनिक विश्लेषण करेगा। 
...इससे पहले चंद्रयान-1 ऑर्बिटर का मून इम्पैक्ट प्रोब 14 नवंबर 2008 को चंद्र सतह पर उतरा था। तब भी सैकड़ों लोग अद्भुत नजारे देखने पहुंचे थे। चंद्रयान-1 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के चंद्र अन्वेषण कार्यक्रम का पहला अंतरिक्ष यान था। इसमें एक मानवरहित यान को 22 अक्टूबर को चन्द्रमा पर भेजा गया। यह यान संशोधित संस्करण वाले राकेट की सहायता से सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से भेजा गया था। इसे चन्द्रमा तक पहुंचने में 5 दिन लगे और चन्द्रमा की कक्षा में स्थापित करने में 15 दिन लगे थे। सदियों से विज्ञानी चंद्रमा की सतह के विस्तृत नक्शे, पानी के अंश और हीलियम की तलाश करना चाहते हैं। चंद्रयान-2 का मकसद भी यही है।


..ये रात बड़ी थी, बात बड़ी, हम बड़ी-बड़ी बातें समझेंगे..

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( नौ लाख वर्ष पूर्व साईबेरिया के शासक ' कुंभकर्ण ' द्वारा कराये शोद्ध के अनुसार चंद्रमा ' राख़ व चट्टानों का ढेर ' है जिसकी पुष्टि अब की इस खबर से भी होती है कि, चंद्रमा की सतह समतल नहीं है )
 ------विजय  राजबली माथुर

Wednesday, 4 September 2019

ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जाता, जिससे लोग बीमार ही न पड़ें : समीक्षा ------योगेश मिश्र

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घर जैसा ही लगा लखनऊ : समीक्षा


टीवी की ऑडियंस फिल्मों से अलग है : 


जब मेरे करियर की शुरुआत हुई तो मुझे साउथ इंडस्ट्री की फिल्में मिलीं। इस पर मेरे घरवालों से लोग पूछते कि आपकी बेटी इतने दिनों से काम कर रही है पर अभी तक टीवी में दिखी नहीं। मैं भी टीवी सीरियल्स में काम करना चाहती थी। दरअसल, टॉलिवुड, बॉलिवुड और टीवी की ऑडियंस अलग-अलग होती है। मैं सभी ऑडियंस से जुड़ी रहना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि अपने काम को बेहतर तरीके से करूं। इसके लिए मैंने एक फिल्म करने के बाद दूसरी का इंतजार नहीं किया बल्कि टीवी में चली गई। मैंने टीवी को कभी छोटा नहीं माना।



वेलनेस कंसल्टेंट बनना चाहती थी :


मैं बचपन में वेलनेस कंसल्टेंट बनना चाहती थी। मेरी तब सोच थी कि लोगों के बीमार पड़ने के बाद ही डॉक्टर दवा क्यों देते हैं। ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जाता, जिससे लोग बीमार ही न पड़ें। मैं सोचती थी कि बड़ी होकर इसी की पढ़ाई करूंगी। पर जब बड़ी हुई तो पता चला कि इसकी कोई पढ़ाई नहीं होती है। अगर स्वस्थ रहना है तो अच्छा खाना, अच्छा सोचना, रोजाना योग और एक्सरसाइज करनी पड़ेगी। 



साउथ की फिल्मों में डायलॉग्स


रटने पड़ते हैं   :


मेरे ऐक्टिंग करियर की शुरुआत साउथ की फिल्मों से हुई थी। वहां के हीरो के साथ नार्थ इंडिया की हिरोइनों को ही तवज्जो दी जाती है। यही वजह रही कि मुझे टॉलिवुड में खूब काम मिला और मिल भी रहा है। हालांकि, तमिल और कन्नड़ फिल्मों के डायलॉग्स में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती है। तमिल शब्दों का मतलब पता नहीं होता इसलिए ध्यान देना पड़ता है कि बोलते समय हाव-भाव सही हों। ऐसा न हो कि हम बात खुशी की कर रहे हों और हमारा चेहरा उदास लग रहा हो। डायलॉग रटने पड़ते हैं। बाकी सारी चीजें डब की जाती हैं।

क्रिएटिविटी से कोई समझौता नहीं

मैंने शो ‘जारा’ किया। यह करीबन दो साल का शो था। इसके बाद टीवी शो ‘यहां मैं घर घर खेली’ में काम किया। बाद में पता चला कि वह एक डेली सोप शो था। मुझे लगने लगा था कि वहां मेरी क्रिएटिविटी खत्म हो रही थी। वह डेली रूटीन वाली जॉब जैसा था। जीवन निरंतर चलने वाली यात्रा है। मैं एक जगह रुक नहीं सकती। इसलिए उस शो को मैंने एक महीने बाद छोड़ दिया। सोप शो में एक टारगेट मिल जाता है कि इतना आपको करना ही है। उसमें आप खुद से कोई क्रिएटिव ऐक्ट नहीं कर सकते।



विज्ञापन करने के बाद किस्मत ने ली करवट: 


मैं जब इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग कर रही थी, तभी एक ऐड के लिए ऑडिशन हो रहा था। ऑडिशन दिया और मुझे वो ऐड मिल गया। उसके होर्डिंग्स जगह-जगह लगाए गए। मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि उस ऐड से मुझे फिल्मों में काम मिलने वाला था। एक दिन मुझसे तेलुगू फिल्म डायरेक्टर पुरी जगन्नाधजी ने संपर्क किया। उन्होंने फिल्म 143 में मुझसे लीड रोल के लिए कहा। मैं तमिलनाडु गई। वहां ऑडिशन के तौर पर केवल लुक टेस्ट होता है। डायरेक्टर के मन में उनकी कहानी के अनुसार, अगर आपका लुक है और प्लॉट के हिसाब से आप ऐक्टिंग कर लेते हैं, तो आपकी आधी परेशानी खत्म। इसी तरह संजीव जी को फिल्म प्रणाम के लिए मेरे भीतर ‘मंजरी’ दिखी। इसमें मंजरी आईएएस की तैयारी करती है। ऐसी लड़की चुलबुली नहीं हो सकती। संजीव जी को मेरे अंदर वो गंभीरता दिखी, जिसकी उन्हें जरूरत थी। बस इसी तरह मुझे फिल्म में लीड हिरोइन का किरदार मिल गया। 



‘प्रणाम’ में दिख रहा है


रियल इंडिया : 


आज के दौर में हर कोई मसाला फिल्में बना रहा है या कर रहा है। उनमें कहानियां चलती हैं और आखिर में हीरो गे निकलता है या हिरोइन लेस्बियन निकल जाती है। फिल्मों में ढेर सारी सेक्सुआलिटी और रोमांस परोसा जा रहा है। सबने अलग कहानी देने के चक्कर में रियल इंडिया को भुला दिया है। फिल्में मसालेदार, तड़केदार सब्जी की तरह हो गई हैं। वहीं, फिल्म प्रणाम साधारण दाल-चावल है। जब आदमी तरह-तरह के व्यंजन खाकर ऊब जाता है तो उसे दाल-चावल भी अच्छा लगता है। इस फिल्म में कोई वीएफएक्स इस्तेमाल नहीं हुआ। सारे सीन्स लखनऊ की रियल लोकेशंस पर शूट हुए हैं। इसकी कहानी मध्यम वर्गीय परिवार की है। इसमें रियल इंडिया है।


पढ़ाई में नहीं लगा मन : 


मेरी साइंस और मैथ्स अच्छी है तो इस वजह से घरवालों ने मुझे बीटेक में एडमिशन दिलवा दिया था। उसी दौरान मुझे एक ऐड मिला फिर साउथ की मूवी भी मिल गई। उसके बाद ऐक्टिंग का सफर शुरू हो गया। मुझे क्रिएटिविटी पसंद है। मेरे पास सभी सेमेस्टर के रिजल्ट हैं पर आखिर में मैंने घरवालों को बोल दिया था कि आगे मुझे टीवी और फिल्मों में ही करियर बनाना है। इसलिए अब पढ़ाई नहीं कर पाऊंगी। उसके बाद से कॉलेज वाली पढ़ाई नहीं की लेकिन खाली समय में किताबें जरूर पढ़ती हूं। आज मैं अपने सपनों को जी रही हूं।



योगेश मिश्र, लखनऊ



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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 3 September 2019

नौकर द्वारा फ्रिज में डाल कर बुजुर्ग मालिक का अपहरण

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश