Tuesday, 3 October 2017

जर्जर होते जनतंत्र के चौथे स्तम्भ को बचाने की मुहिम

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कभी अकबर इलाहाबादी  ने  कहा था : 
'' खींचो न तीर कमानों को न तलवार निकालो। 
   जब तोप मुक़ाबिल हो  तब अखबार निकालो। । "
रेलवे की रु 50 /- मासिक की नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद में 'सरस्वती ' के रु 20/- मासिक पर  संपादक बनने वाले आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी का कथन था कि, साहित्य में वह शक्ति छिपी होती है जो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती । 
अखबारों के संपादक साहित्यकार लोग ही होते थे जो न केवल खबरों को पाठकों तक पहुंचाते थे बल्कि वे जनता को सतत जागरूक भी करते थे और स्वतन्त्रता आंदोलन में सहयोग करने हेतु प्रेरित करते थे। 
समय समय पर विदेशी सत्ता ने अखबारों को नियंत्रित करने के जो प्रयास किए और आज़ादी के बाद भी 'प्रेस ' पर जो हमले हुये उनका विस्तृत वर्णन " भारत में पत्रकारिता पर हमला कोई नई बात नहीं " वीडियो में किया गया है। 
2014 के बाद गठित मोदी नीत भाजपा सरकार के शासन में जन सरोकार रखने वाले पत्रकारों की हत्या, चरित्र हनन, धमकी, मानहानी मुकदमे आदि की बाढ़ आ गई है। गांधी जयंती पर दिल्ली  सहित देश के विभिन्न प्रेस क्लबों पर पत्रकारों ने मानव श्रंखला बना कर विरोध प्रदर्शन किया। पत्रकारों की चर्चा में भी इस समस्या पर विमर्श हुआ । द वायर हिन्दी द्वारा इस दिशा में सराहनीय कार्य सम्पन्न हुये। लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ 'पत्रकारिता ' की स्वतन्त्रता व पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना लोक अर्थात जनता का भी कर्तव्य बनता है अतः उसे आगे आ कर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि, अपराधी तत्वों को नियंत्रित व दंडित करे। 


 


संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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