Wednesday 20 February 2013

खाड़ी युद्ध के भारत पर घातक परिणाम---विजय राजबली माथुर

20 फरवरी ईराक पर द्वितीय आक्रमण की वर्षगांठ पर विशेष-
दुर्भाग्य से 17 जनवरी 1991 की प्रातः खाड़ी मे अमेरिका नेपहली बार युद्ध छेड़  दिया था । दोषी ईराक था अथवा अमेरिका इस विषय मे मतभेद हो सकते हैं। परन्तु अमेरिकी कारवाई न्यायसंगत न होकर निजी स्वार्थ से प्रेरित थी यह हकीकत है। जार्ज बुश (जो तेल कंपनियों मे नौकरी कर चुके थे ) अनेकों बार ईराकी सेना को नष्ट करने की धम्की दे चुके थे। उनके पूर्ववर्ती रोनाल्ड रीगन लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी को नष्ट करने का असफल प्रयास कर चुके थे और जिसे बाराक ओबामा ने पूरा किया। बुश पनामा के राष्ट्रपति का अपहरण करने मे कामयाब रहे थे। ईराक पर अमेरिकी आक्रमण का उद्देश्य कुवैत को मुक्त  कराना नहीं अमेरिकी साम्राज्यवाद को पुख्ता कराना था।

जब खाड़ी समस्या प्रारम्भ हुई तो वी पी सरकार के कुशल कदम से ईराक और कुवैत मे फंसे भारतीयों को स्वदेश ले आया गया। परन्तु जब युद्ध के बादल मंडराने लगे तो राजीव गांधी-समर्थित चंद्रशेखर सरकार ने खाड़ी क्षेत्र मे फंसे 12-13 लाख भारतीयों को स्वदेश लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सफाई देते रहे थे कि वे प्रवासी भारतीय लौटना नहीं चाहते थे और  युद्ध काल मे उन्हें बुलाया नहीं जा सकता था ।

युद्ध का लाभ-

एक ओर जहां लाखों भारतीयों का जीवन दांव पर लगा था । हमारे देश के जमाखोर व्यापारी खाड़ी संकट की आड़ मे खाद्यान ,खाद्य-तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा कर अपना काला व्यापार बढ़ा कर लाभ उठाने मे लगे हुये थे । प्रधानमंत्री कोरी धमकियाँ दाग कर जनता को दिलासा दे रहे थे । बाज़ार मे कीमतें आसमान छू रही थीं और आज तो और भी भीषण अवस्था हो गई है । राशन की दुकानों मे चीनी और गेंहू चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिल रहा था।

गरीब जनता विशेष कर रोज़ कमाने-खाने वाले भुखमरी के कगार पर पहुँच थे । सरकार एय्याशी मे व्यस्त थी । उप-प्रधानमंत्री और किसानों के तथाकथित ताऊ चौ. देवीलाल कहते थे  मंहगाई बढ़ाना उनकी सरकार का लक्ष्य है जिससे किसानों को लाभ हो। वह सोने के मुकुट और चांदी की छड़ियाँ लेकर अट्हास कर रहे थे और आज उनके बेटा व पोता जेलों मे हैं।

लुटेरा कौन?

लेकिन निश्चित रूप से बढ़ती हुई कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा था और न आज ही मिल रहा है। किसान कम दाम पर फसल उगते ही व्यापारियों को बेच देता था/ है। जमाखोर व्यापारी कृत्रिम आभाव पैदा कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे थे/ हैं और उन्हें सरकारी संरक्षण मिला हुआ था/ है।

गाँव के कृषि मजदूर को राशन मे उपलब्ध गेंहू नहीं मिल रहा ,अधिक दाम देकर वह खरीद नहीं सकता। खेतिहर  मजदूर भूखा रह कर मौत के निकट पहुँच रहा था/है। प्रदेश और केंद्र की सरकारें अपना अस्तित्व बचाने के लिए पूँजीपतियों के आगे घुटने टेके हुये तब भी थीं और आज भी हैं। पूंजीपति वर्ग और व्यापारी वर्ग मिल कर जनता का शोषण कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं और गरीब जनता को भूखा मारने की तैयारी कर रहे हैं और वह भी सरकारी संरक्षण मे।

भूखे भजन होही न गोपाला- 

मध्यम वर्गीय जमाखोर व्यापारियों की पार्टी भाजपा हिन्दुत्व की ठेकेदार बन कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के नाम का दुरुपयोग कर जनता को बेवकूफ बनाने मे लगी हुई तब भी थी और आज फिर 2014 के चुनावों मे वही तीर छोड़ रही है उसका उद्देश्य जनता को गुमराह कर व्यापारियों की सत्ता कायम करना है। उधर पूँजीपतियों की पार्टी इंका अवसरवादी सरकारों को टिका कर शोषक वर्ग की सेवा कर रही है। ये दोनों पार्टियां मण्डल आयोग द्वारा घोषित पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की विरोधी हैं इसलिए मंदिर-मस्जिद के थोथे  झगड़े खड़े करके भूखी,त्रस्त जनता को आपस मे लड़ा कर मार देना चाहती हैं।

क्रान्ति होगी-

इन हालात के चलते तो निश्चय ही शोषित ,दमित,पीड़ित और भूखी जनता  को एक न एक दिन (चाहे वह जब भी आए)भारत मे भी वैसी ही 'क्रान्ति'कर देनी होगी  जैसी 1917 मे रूस मे और 1949 मे चीन की भूखी जनता ने की थी उसे तलाश है किसी 'लेनिन' अथवा 'माओ' की जिसे भारत -भू पर अवतरित होना ही होगा।

                                 
परंतु एक तो हमारे देश के शोषक वर्ग ने 'पुरोहितवाद'की आड़ मे 'फूट' फैलाकर जनता के एकीकरण मे बाधा खड़ी कर रखी है दूसरे शासक वर्ग असंतोष की चिंगारी देखते ही अपने लोगों को बीच मे घुसा कर जन-असंतोष को दूसरी ओर कामयाबी से मोड देता है जैसा कि 2011 मे 'अन्ना' के माध्यम से किया गया है। अफसोस यह कि साम्यवादी और प्रगतिशील लोग शोषकों द्वारा परिभाषित 'पुरोहितवाद' को ही 'धर्म' मान कर "धर्म" का विरोध कर डालते हैं। "धर्म" का अर्थ है -'धारण'करना जो वह नहीं है जैसा पोंगा-पंथी बताते हैं। भारत के लेनिन और माओ को 'धर्म'(वास्तविक =वेदिक/वैज्ञानिक)का सहारा लेकर पोंगा-पंथी 'पुरोहितवाद पर प्रहार करना होगा तभी भारत मे 'क्रान्ति'सफल हो सकेगी अन्यथा 1857 की भांति ही कुचल दी जाएगी।


भारत के राष्ट्रीय हित और खाड़ी युद्ध-1991

 खाड़ी युद्ध दिनों दिन गहराने के साथ   इसके दुष्परिणाम तभी से हमारे देश पर पड़ने लगे थे जो अब विकराल रूप मे सामने हैं। इस युद्ध की आड़ मे खाद्यानों की भी काला बाजारी हो रही थी  और डीजल की सप्लाई का तो बुरा हाल था।तत्कालीन  पेट्रोलियम मंत्री द्वारा दिल्ली-भ्रमण की दूरदर्शन रिपोर्ट मे भले ही पेट्रोलियम सप्लाई सही दर्शा दी गई हो किन्तु  आगरा  आदि अन्य स्थानों के ग्रामीण क्षेत्रों मे किसान सिंचाई के लिए डीजल न मिलने से बुरी तरह से कराह उठे थे अब फिर वही स्थिति बनने जा रही है। इसी संबंध मे आगरा के तत्कालीन  पुलिस उपाधीक्षक का सिर भी फट चुका है।

विदेश नीति की  विफलता- 

पूर्व विदेश सचिव वेंकटेश्वरन ने तो भारत द्वारा ईराक का समर्थन करने का केवल  एहसास दिलाने की बात कही थी और उन्होने अमेरिका का पक्ष लेने की  ही  हिमायत की थी। परन्तु वास्तविकता यह है कि,भारत अपनी विदेश नीति मे पूरी तरह कूटनीतिक तौर पर  इसलिए विफल हुआ है कि,युद्ध शुरू होने से रोकने के लिए राष्ट्रसंघ अथवा निर्गुट आंदोलन मे भारत ने कोई पहल ही नहीं की थी।

 पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की जार्डन के शाह हुसैन और ईराकी राष्ट्रपति श्री सद्दाम हुसैन से फोन वार्ता के बाद उनके निवास पर विपक्षी बाम-मोर्चा आदि के दलों और विदेशमंत्री श्री विद्या चरण शुक्ल की उपस्थिती मे हुई बैठक मे भारत की विदेश नीति की समीक्षा की गई थी । बैठक के बाद इंका महासचिव श्री भगत ने सरकार की विदेश नीति की भर्तस्ना खुल कर की थी । इसी के बाद विदेश मंत्रियों के दौरे शुरू हुये थे । अमेरिका ने भारत के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया था  और सुरक्षा परिषद ने युद्ध विराम की अपील रद्द कर दी थी जो भारतीय विदेश नीति की विफलता के अकाट्य प्रमाण हैं।

अमेरिका की जीत से  भारत का अहित हुआ  है-

खाड़ी युद्ध से पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक संकट के साथ बेरोजगारी और बढ्ने तथा भुखमरी और बीमारियों के फैलने का  ही खतरा नहीं था बल्कि  सबसे बड़ा खतरा अमेरिका की जीत और ईराक की पराजय के बाद आया है। इस  स्थिति मे पश्चिम एशिया के तेल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का शिकंजा कस गया है  वहाँ साम्राज्यवादी सेनाएँ मजबूत किलेबंदी करके जम गई हैं। भारत आदि निर्गुट देशों को तेल प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों की शर्तों के आगे झुकना पड़ रहा है हम ईरान से सस्ता तेल नहीं आयात कर पा रहे हैं। हमारी अर्थनीति और उद्योग नीति पश्चिम के हितों के अनुरूप ढालने के बाद ही  हमे तेल प्राप्त हो पा रहा है। अब  भारत का 'स्वाभिमान' दांव पर लगा हुआ है हमारी केंद्र सरकार अमेरिका की जी-हुज़ूरी मे लगी हुई है।

एशिया का गौरव सद्दाम -

यह विडम्बना ही रही कि न तो भारत और न ही सोवियत रूस ने  ईराक का साथ दिया  जबकि दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत ईराक और सद्दाम को बचाने से ही पूरी हो सकती थी। पश्चिम के साम्राज्यवादी -शोषणवादी हमले को ईराक अकेला ही झेलता  रहा।  ईराक के  पराजित होने से   न केवल पश्चिम एशिया औपनिवेशिक जाल मे फंस गया वरन एशिया और अफ्रीका के देशों को पश्चिम का प्रभुत्व स्वीकार करना ही पड़ रहा है।

अतः आज ज़रूरत नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा प्रस्तुत नारे-"एशिया एशियाईओ के लिए" पर अमल करने की है । भारत को एशिया के अन्य महान देशों -चीन और रूस को एकताबद्ध करके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और अब ईरान को बचाने के लिए उसको नैतिक समर्थन प्रदान करना चाहिए। भारत के स्वाभिमान ,आर्थिक और राजनीतिक हितों का तक़ाज़ा है कि,अब ईरान का भी पतन न हो जाये ऐसी व्यवस्था करने वाली सरकार  केंद्र मे आ सके।

आज तो भारत के भावी प्रधानमंत्री हेतु भी अमेरिका नाम का  सुझाव देने लगा है-कौन सा दल किसे अपना नेता चुने यह भी अमेरिका मे तय हो रहा है। भारत मे किस विषय पर आंदोलन चले यह भी अमेरिका तय कर रहा है-अन्ना आंदोलन इसका ताजा तरीन उदाहरण है। अतीत की गलतियों का खामियाजा आज मिल रहा है और आज जो गलतियाँ की जा रही हैं-अन्ना जैसों का समर्थन उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को निश्चित रूप से भुगतना ही होगा।

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