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Thursday, 10 May 2018

क्रान्तिकारियों की शहादत एक ऐसे मुल्क के सपने के लिए थी जो बराबरी, समानता और शोषण से मुक्त हो ------ जया सिंह



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Jaya Singh
10-05-2018

संघ-भाजपा द्वारा जारी ‘देशभक्ति’ के शोर के बीच हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि देश क्या है? और देशभक्ति किसे कहते हैं? देश कोई कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता है, यह बनता है वहाँ के लोगों से, जनता से। और देश भक्ति के असली मायने है जनता से प्यार, इनके दुख तकलीफ़ से वास्ता और इनके संघर्ष में साथ देना। देशभक्ति की बात करते हुए अगर इस देश की आजादी की लड़ाई पर नजर डाली जाय तो आज भी हमारे जेहन में जो नाम आते हैं वे हैं: शहीद भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, अशफ़ाक-उल्ला, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’। देशभक्ति के लिए देश के अर्थ को समझना बेहद जरूरी है और यह भी जानना जरूरी है कि देश के लिए कुर्बान होने वाले इन शहीदों ने किसके लिए अपनी जान की बाजी लगायी थी? आज यह एक आम आदमी भी समझ सकता है कि देश कागज़ पर बना महज एक नक्शा नहीं होता। न ही केवल जमीन का एक टुकड़ा होता है। देश बनता है वहाँ रहने वाली जनता से। वह जनता जो उस देश की जरूरत का हर एक साजो सामान बनाती है, वह किसान और खेतिहर मजदूर जो अनाज पैदा करते हैं वह जनता जो देश को चलाती है। क्या इस जनता के दुःख-तकलीफ में शामिल हुए बिना, उसके संघर्ष में भागीदारी किये बिना कोई देशभक्त कहला सकता है? भगतसिंह के लिए क्रान्ति और संघर्ष का मलतब क्या था? वह किस तरह के समाज के लिए लड़ रहे थे? 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में दिये भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त के बयान से स्पष्ट होता हैः

‘क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है- अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। दुनियाभर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करानेवाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढँकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। यह भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल पुथल की तरफ लिए जा रहा है। यह स्थिति बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ढ की कगार पर चल रहे हैं।’(भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज, सं- सत्यम, पृष्ठ- 338)

भगतसिंह के लिए देशभक्ति का मतलब था- जनता के लिए शोषणमुक्त समाज बनाने का संकल्प। आज़ादी की लड़ाई में क्रान्तिकारियों की शहादत एक ऐसे मुल्क के सपने के लिए थी जो बराबरी, समानता और शोषण से मुक्त हो। जहाँ नेता और पूँजीपति घपलों घोटालों से देश की जनता को न लूटें।

मगर भाजपा के ‘देशभक्त’ क्या कर रहे हैं? क्या इस देश की जनता को याद नहीं है कि कारगिल के शहीदों के ताबूत तक के घोटाले में इसी भाजपा के तथाकथित देशभक्त फँसे थे। सेना के लिए खरीद में दलाली और रिश्वत लेते हुए भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पकड़े गए थे। मध्यप्रदेश में व्यापम घोटाला और उससे जुड़ी हत्याएं देश की जनता भूली नहीं होगी। भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव कैमरे पर रिश्वत लेकर यह बोलते हुए पकड़े गए थे कि ‘पैसा खुदा नहीं तो खुदा से कम भी नहीं’। क्या जब देश की जनता महँगाई की मार से परेशान थी तभी मोदी सरकार ने पूँजीपतियों के कर्ज माफी की घोषणाएँ नहीं की? ऐसे हैं ये ‘राष्ट्रवादी’ और यही है संघ और भाजपा की ‘देशभक्ति’।


आज बात-बात पर देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बाँटने वाले संघ-भाजपा गिरोह की असलियत जानने के लिए हमें एक बार स्वतन्त्रता आन्दोलन में इनकी करतूतों के इतिहास पर नजर डाल लेनी चाहिए।
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=449748425464644&id=100012884707896

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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Thursday, 8 February 2018

सरकारी हस्तक्षेप की अति और चिकत्सा क्षेत्र में निजीकरन को बढ़ावा

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   संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 20 November 2017

जन - विरोधी सरकार के तानाशाही की ओर बढ़ते कदम ------ उर्मिलेश

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  संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 2 January 2017

यह लोकतंत्र की लड़ाई है पिता के सम्पत्ति की नहीं ------ रजनीश कुमार श्रीवास्तव

लेकिन जब शरीर और दिमाग दोनों थक जाएँ लेकिन राजनीतिक वासना पहले से भी ज्यादा लोलुप हो जाए तो परिणाम मुलायम हो ही जाता है।किसी बड़ी मजबूरी के तहत मुलायम सिंह यादव का रिमोट किसी और के पास चला गया है।वो समाजवादी पार्टी का निर्विवादित भूत तो हैं लेकिन वर्तमान और भविष्य कतई नहीं।............................अखिलेश यादव को विष का पान कर महादेव बनने का अवसर मिल गया है।राजनीति में नेता वही है जिसके साथ जनता है।अखिलेश को आसुरी शक्तियों का विनाश करना ही चाहिए।ये आगे बढ़ने का समय है।



Rajanish Kumar Srivastava

समाजवादी पार्टी का संघर्ष वास्तव में एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री और एक भटके एवं भ्रमित पार्टी अध्यक्ष के सही गलत फैसलों से सम्बन्धित है उसे पिता और पुत्र के पारिवारिक संघर्ष के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
दरअसल राजनीति ही एकमात्र ऐसा पेशा है जिसमें रिटायरमेंट की कोई उम्र ही नहीं होती।लेकिन जब शरीर और दिमाग दोनों थक जाएँ लेकिन राजनीतिक वासना पहले से भी ज्यादा लोलुप हो जाए तो परिणाम मुलायम हो ही जाता है।किसी बड़ी मजबूरी के तहत मुलायम सिंह यादव का रिमोट किसी और के पास चला गया है।वो समाजवादी पार्टी का निर्विवादित भूत तो हैं लेकिन वर्तमान और भविष्य कतई नहीं।
सारी दिक्कत दो पृथक मुद्दों को पृथक रूप से नहीं देख पाने के कारण हो रही है।यह भारतीय राजनीति में पहली बार हुआ है कि ठीक चुनाव के पहले एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री को एक पार्टी अध्यक्ष ने पार्टी से निष्कासित कर दिया हो। जबकि हर सर्वे में अखिलेश की लोकप्रियता अपनी पार्टी से लगभग दोगुनी है।यह उसी तरह है कि एक पिता खुद पुत्र का विवाह तय करे और बारात के दिन जिद्द करे कि बारात पुत्र के बिना जाएगी।एक मुख्यमंत्री लगातार गुहार लगा रहा था कि इस चुनाव में चूँकि जनता मेरे कार्यों का मुल्याँकन करने जा रही है इसलिए उत्तरपुस्तिका मुझे लिखने दी जाए।लेकिन निष्ठुर पिता और स्वयं से निर्णय कर पाने में असमर्थ पार्टी अध्यक्ष ने अपने मुख्यमंत्री को बिना उत्तरपुस्तिका दिए ही परीक्षा में बैठाने की जिद्द पकड़ रखी थी।लोकतंत्र में अलग पार्टी वो बनाता है जिसे पार्टी में बहुमत प्राप्त ना हो। यह पूरा मसला लोकतंत्र और राजनीति का है।यह पूरी लड़ाई एक मुख्यमंत्री और एक पार्टी अध्यक्ष के सही गलत फैसलों की है ना कि कोई पारिवारिक विरासत की।लोकतंत्र में बहुमत ही निर्णायक होता है और चुने सांसदों तथा विधायकों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं में 90% का बहुमत अखिलेश के पास है।अलग पार्टी मुलायम सिंह यादव को बनानी पड़ेगी।यह लोकतंत्र की लड़ाई है पिता के सम्पत्ति की नहीं।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1769884630002810&set=a.1488982591426350.1073741827.100009438718314&type=3




क्या मुलायम सिंह यादव का रिमोट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के हाथ में है? सभ्य और शिष्ट तथा विकास के नाम पर चुनाव लड़ने की घोषणा करने और बाहुबलियों को टिकट ना देने की भरपूर कोशिश करने वाले अपने ही लोकप्रिय मुख्यमंत्री को पार्टी से निकालने का दुस्साहस भला कोई यूँ ही कर सकता है।मुलायम सिंह यादव किसी बहुत बड़ी मजबूरी में ऐसा विनाश काले विपरीत बुद्धि वाला निर्णय ले सकते हैं । लेकिन सारे सर्वे यही बताते हैं कि लोकप्रिय युवा मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव को अपनी समाजवादी पार्टी से भी ज्यादा लोकप्रियता हासिल है।यकीन मानिए मुलायम सिंह यादव का रिमोट किसी और के पास है वरना कोई यूँ ही अपने पैर पर कुल्हाडी नहीं मार लेता है।

समुद्र मंथन में पहले विष निकला था बाद में अमृत।अमृत के लिए राक्षस और देवता लड़ मरे थे लेकिन विष का पान कर मानवता को जिसने बचाया था वह गरलकंठ महादेव कहलाए थे।अखिलेश यादव को विष का पान कर महादेव बनने का अवसर मिल गया है।राजनीति में नेता वही है जिसके साथ जनता है।अखिलेश को आसुरी शक्तियों का विनाश करना ही चाहिए।ये आगे बढ़ने का समय है।
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02-01-2016 

Thursday, 24 April 2014

सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए ? ---तुकाराम वर्मा






विश्व के मानवीय समाज के बीच चोरी को कब से अपराध घोषित किया गया इसका उत्तर बीस वर्षों से अत्यधिक अन्वेषण करने पर भी कहीं से किसी स्रोत से नहीं मिल सका| हाँ इतना तो सुनिश्चित हो गया कि जब कुछ लोगों ने संघठित शक्ति और समूहों ने लूट के द्वारा अपार संपत्ति को एकत्र कर लिया तो उस लूटी हुई उनकी संपत्ति को कोई और न लूट सके इस कारण चोरी और लूट को सामाजिक अपराध मान लिया गया|
कालांतर में राज्य व्यवस्था बनने के बाद उसे कानूनी मान्यता दे दी गई| यह सब राजशाही के दौरान हुआ, फिर भी लूट का उद्योग चलता रहा और एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करके उसकी संपत्ति को लूटने में विजय और शौर्य के रूप में पहचान पाता रहा| इसे उस राजा के धार्मिक पुरोहितों ने मान्यता दी तथा राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर जनता से स्वीकार्य करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया| इस सहयोग के लिए धार्मिक तंत्र और उसके आचार्यों को राजा से पुरस्कार एवं सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होती रही|
विश्व में लोकतंत्र आने के बाद साधारण जनता को सत्ता की भागेदारी मिलने लगी जिस कारण स्थापित भोगवादी तंत्र को अपने को स्थापित किये रहने का खतरा बढ़ने लगा| अब चिंतनीय प्रश्न यह  उभरा कि जनता को सत्ता से कैसे अलग रक्खा जाए अतः दुरभिसंधियां रची आने लगी और प्रतिमान रूप में स्वच्छ दिखने वाली व्यवस्था के पीछे शोषण लूट और अर्थ का स्थापित साम्राज्य अधिक मजबूत किया जाने लगा|
सम्प्रति धनतंत्र प्रभावी है, दुनिया को बाजार चला रहा है| राजनेता बाजारवाद से ग्रसित हैं और पूँजीपतियों के इशारों को समझकर अपना मुँह खोलते हैं| जिन कमजोर वर्गों के नेताओं ने इस साजिश को समझा और उसे उजागर करने का प्रयास किया उनपर शिकंजा कसा गया और संगठित होकर व्यवस्था, सत्ता, धर्मतंत्र और औद्योगिक घरानों ने उन्हें अपमानित और बदनाम करना प्रारम्भ कर दिया|
चूँकि निर्वाचन के लिए राजनैतिक दल बनाना उसे चलाना अर्थ के बिना संभव नहीं अतः इन दलों को आर्थिक सहयोग से  वंचित रक्खा गया और जब इन्होंने अपने आपको आर्थिक सुदृढ़ता के अपने स्तर से प्रयास किए तो उसे वर्षों से भ्रष्टाचार करते आ रहे वर्ग ने भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरना प्रारम्भ कर दिया, जिससे उन्हें सत्ता से बेदखल किया जा सके अथवा वह वर्ग इनके अधीन चलने वाले दलों में शामिल होकर उनकी दासता को शिरोधार्य कर ले|
ऐसा कहकर यहाँ कमजोर वर्ग के भ्रष्ट आचरण को बचाने का प्रयास नहीं किया जा रहा अपितु यह स्पष्ट करने की कोशिश है कि सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए तथा स्थापित वर्ग का वर्जस्व बना रह सके और लोकतंत्र का केवल प्रदर्शनीय चेहरा सामने रहे|

यह विचार किसी भी तरह से एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लोकतंत्र के पथिकों के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं कि किसी को सत्ता प्राप्त करने के लिए ईश्वर ने चुना है| यह काल्पनिक भ्रामक मनगढंत ढोंग है कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा चुन लिया गया है| भारतीय संवैधानिक व्यवस्था ऐसे किसी विचार को मान्यता नहीं देती जिसके लिए कोई प्रमाणिक साक्ष्य न हो, क्या इस कथन के प्रमाण में परमेश्वर उनके लिए साक्ष्य के रुप में उपस्थित हो सकता है? कदाचित नहीं|
हमारा संसद भवन ईश्वर का मंदिर नहीं अपितु जनता का मंदिर है, इसमें ईश्वर के प्रतिनिधियों की नहीं अपितु जनता के प्रतिनिधियों की आवश्यकता एवं उपयोगिता है| ईश्वर के प्रतिनिधि को जनता से वोट माँगने की क्या जरूरत? ऐसा लग रहा है कि जनता का अपार धन जो ईश्वर के मंदिरों में भरा पड़ा है वह इनके प्रचार में प्रयुक्त हो रहा है|
ईश्वर के प्रतिनिधियों को ईश्वर के मंदिर में जाकर सेवकाई करनी चाहिये|

Wednesday, 20 February 2013

खाड़ी युद्ध के भारत पर घातक परिणाम---विजय राजबली माथुर

20 फरवरी ईराक पर द्वितीय आक्रमण की वर्षगांठ पर विशेष-
दुर्भाग्य से 17 जनवरी 1991 की प्रातः खाड़ी मे अमेरिका नेपहली बार युद्ध छेड़  दिया था । दोषी ईराक था अथवा अमेरिका इस विषय मे मतभेद हो सकते हैं। परन्तु अमेरिकी कारवाई न्यायसंगत न होकर निजी स्वार्थ से प्रेरित थी यह हकीकत है। जार्ज बुश (जो तेल कंपनियों मे नौकरी कर चुके थे ) अनेकों बार ईराकी सेना को नष्ट करने की धम्की दे चुके थे। उनके पूर्ववर्ती रोनाल्ड रीगन लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी को नष्ट करने का असफल प्रयास कर चुके थे और जिसे बाराक ओबामा ने पूरा किया। बुश पनामा के राष्ट्रपति का अपहरण करने मे कामयाब रहे थे। ईराक पर अमेरिकी आक्रमण का उद्देश्य कुवैत को मुक्त  कराना नहीं अमेरिकी साम्राज्यवाद को पुख्ता कराना था।

जब खाड़ी समस्या प्रारम्भ हुई तो वी पी सरकार के कुशल कदम से ईराक और कुवैत मे फंसे भारतीयों को स्वदेश ले आया गया। परन्तु जब युद्ध के बादल मंडराने लगे तो राजीव गांधी-समर्थित चंद्रशेखर सरकार ने खाड़ी क्षेत्र मे फंसे 12-13 लाख भारतीयों को स्वदेश लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सफाई देते रहे थे कि वे प्रवासी भारतीय लौटना नहीं चाहते थे और  युद्ध काल मे उन्हें बुलाया नहीं जा सकता था ।

युद्ध का लाभ-

एक ओर जहां लाखों भारतीयों का जीवन दांव पर लगा था । हमारे देश के जमाखोर व्यापारी खाड़ी संकट की आड़ मे खाद्यान ,खाद्य-तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा कर अपना काला व्यापार बढ़ा कर लाभ उठाने मे लगे हुये थे । प्रधानमंत्री कोरी धमकियाँ दाग कर जनता को दिलासा दे रहे थे । बाज़ार मे कीमतें आसमान छू रही थीं और आज तो और भी भीषण अवस्था हो गई है । राशन की दुकानों मे चीनी और गेंहू चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिल रहा था।

गरीब जनता विशेष कर रोज़ कमाने-खाने वाले भुखमरी के कगार पर पहुँच थे । सरकार एय्याशी मे व्यस्त थी । उप-प्रधानमंत्री और किसानों के तथाकथित ताऊ चौ. देवीलाल कहते थे  मंहगाई बढ़ाना उनकी सरकार का लक्ष्य है जिससे किसानों को लाभ हो। वह सोने के मुकुट और चांदी की छड़ियाँ लेकर अट्हास कर रहे थे और आज उनके बेटा व पोता जेलों मे हैं।

लुटेरा कौन?

लेकिन निश्चित रूप से बढ़ती हुई कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा था और न आज ही मिल रहा है। किसान कम दाम पर फसल उगते ही व्यापारियों को बेच देता था/ है। जमाखोर व्यापारी कृत्रिम आभाव पैदा कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे थे/ हैं और उन्हें सरकारी संरक्षण मिला हुआ था/ है।

गाँव के कृषि मजदूर को राशन मे उपलब्ध गेंहू नहीं मिल रहा ,अधिक दाम देकर वह खरीद नहीं सकता। खेतिहर  मजदूर भूखा रह कर मौत के निकट पहुँच रहा था/है। प्रदेश और केंद्र की सरकारें अपना अस्तित्व बचाने के लिए पूँजीपतियों के आगे घुटने टेके हुये तब भी थीं और आज भी हैं। पूंजीपति वर्ग और व्यापारी वर्ग मिल कर जनता का शोषण कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं और गरीब जनता को भूखा मारने की तैयारी कर रहे हैं और वह भी सरकारी संरक्षण मे।

भूखे भजन होही न गोपाला- 

मध्यम वर्गीय जमाखोर व्यापारियों की पार्टी भाजपा हिन्दुत्व की ठेकेदार बन कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के नाम का दुरुपयोग कर जनता को बेवकूफ बनाने मे लगी हुई तब भी थी और आज फिर 2014 के चुनावों मे वही तीर छोड़ रही है उसका उद्देश्य जनता को गुमराह कर व्यापारियों की सत्ता कायम करना है। उधर पूँजीपतियों की पार्टी इंका अवसरवादी सरकारों को टिका कर शोषक वर्ग की सेवा कर रही है। ये दोनों पार्टियां मण्डल आयोग द्वारा घोषित पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की विरोधी हैं इसलिए मंदिर-मस्जिद के थोथे  झगड़े खड़े करके भूखी,त्रस्त जनता को आपस मे लड़ा कर मार देना चाहती हैं।

क्रान्ति होगी-

इन हालात के चलते तो निश्चय ही शोषित ,दमित,पीड़ित और भूखी जनता  को एक न एक दिन (चाहे वह जब भी आए)भारत मे भी वैसी ही 'क्रान्ति'कर देनी होगी  जैसी 1917 मे रूस मे और 1949 मे चीन की भूखी जनता ने की थी उसे तलाश है किसी 'लेनिन' अथवा 'माओ' की जिसे भारत -भू पर अवतरित होना ही होगा।

                                 
परंतु एक तो हमारे देश के शोषक वर्ग ने 'पुरोहितवाद'की आड़ मे 'फूट' फैलाकर जनता के एकीकरण मे बाधा खड़ी कर रखी है दूसरे शासक वर्ग असंतोष की चिंगारी देखते ही अपने लोगों को बीच मे घुसा कर जन-असंतोष को दूसरी ओर कामयाबी से मोड देता है जैसा कि 2011 मे 'अन्ना' के माध्यम से किया गया है। अफसोस यह कि साम्यवादी और प्रगतिशील लोग शोषकों द्वारा परिभाषित 'पुरोहितवाद' को ही 'धर्म' मान कर "धर्म" का विरोध कर डालते हैं। "धर्म" का अर्थ है -'धारण'करना जो वह नहीं है जैसा पोंगा-पंथी बताते हैं। भारत के लेनिन और माओ को 'धर्म'(वास्तविक =वेदिक/वैज्ञानिक)का सहारा लेकर पोंगा-पंथी 'पुरोहितवाद पर प्रहार करना होगा तभी भारत मे 'क्रान्ति'सफल हो सकेगी अन्यथा 1857 की भांति ही कुचल दी जाएगी।


भारत के राष्ट्रीय हित और खाड़ी युद्ध-1991

 खाड़ी युद्ध दिनों दिन गहराने के साथ   इसके दुष्परिणाम तभी से हमारे देश पर पड़ने लगे थे जो अब विकराल रूप मे सामने हैं। इस युद्ध की आड़ मे खाद्यानों की भी काला बाजारी हो रही थी  और डीजल की सप्लाई का तो बुरा हाल था।तत्कालीन  पेट्रोलियम मंत्री द्वारा दिल्ली-भ्रमण की दूरदर्शन रिपोर्ट मे भले ही पेट्रोलियम सप्लाई सही दर्शा दी गई हो किन्तु  आगरा  आदि अन्य स्थानों के ग्रामीण क्षेत्रों मे किसान सिंचाई के लिए डीजल न मिलने से बुरी तरह से कराह उठे थे अब फिर वही स्थिति बनने जा रही है। इसी संबंध मे आगरा के तत्कालीन  पुलिस उपाधीक्षक का सिर भी फट चुका है।

विदेश नीति की  विफलता- 

पूर्व विदेश सचिव वेंकटेश्वरन ने तो भारत द्वारा ईराक का समर्थन करने का केवल  एहसास दिलाने की बात कही थी और उन्होने अमेरिका का पक्ष लेने की  ही  हिमायत की थी। परन्तु वास्तविकता यह है कि,भारत अपनी विदेश नीति मे पूरी तरह कूटनीतिक तौर पर  इसलिए विफल हुआ है कि,युद्ध शुरू होने से रोकने के लिए राष्ट्रसंघ अथवा निर्गुट आंदोलन मे भारत ने कोई पहल ही नहीं की थी।

 पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की जार्डन के शाह हुसैन और ईराकी राष्ट्रपति श्री सद्दाम हुसैन से फोन वार्ता के बाद उनके निवास पर विपक्षी बाम-मोर्चा आदि के दलों और विदेशमंत्री श्री विद्या चरण शुक्ल की उपस्थिती मे हुई बैठक मे भारत की विदेश नीति की समीक्षा की गई थी । बैठक के बाद इंका महासचिव श्री भगत ने सरकार की विदेश नीति की भर्तस्ना खुल कर की थी । इसी के बाद विदेश मंत्रियों के दौरे शुरू हुये थे । अमेरिका ने भारत के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया था  और सुरक्षा परिषद ने युद्ध विराम की अपील रद्द कर दी थी जो भारतीय विदेश नीति की विफलता के अकाट्य प्रमाण हैं।

अमेरिका की जीत से  भारत का अहित हुआ  है-

खाड़ी युद्ध से पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक संकट के साथ बेरोजगारी और बढ्ने तथा भुखमरी और बीमारियों के फैलने का  ही खतरा नहीं था बल्कि  सबसे बड़ा खतरा अमेरिका की जीत और ईराक की पराजय के बाद आया है। इस  स्थिति मे पश्चिम एशिया के तेल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का शिकंजा कस गया है  वहाँ साम्राज्यवादी सेनाएँ मजबूत किलेबंदी करके जम गई हैं। भारत आदि निर्गुट देशों को तेल प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों की शर्तों के आगे झुकना पड़ रहा है हम ईरान से सस्ता तेल नहीं आयात कर पा रहे हैं। हमारी अर्थनीति और उद्योग नीति पश्चिम के हितों के अनुरूप ढालने के बाद ही  हमे तेल प्राप्त हो पा रहा है। अब  भारत का 'स्वाभिमान' दांव पर लगा हुआ है हमारी केंद्र सरकार अमेरिका की जी-हुज़ूरी मे लगी हुई है।

एशिया का गौरव सद्दाम -

यह विडम्बना ही रही कि न तो भारत और न ही सोवियत रूस ने  ईराक का साथ दिया  जबकि दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत ईराक और सद्दाम को बचाने से ही पूरी हो सकती थी। पश्चिम के साम्राज्यवादी -शोषणवादी हमले को ईराक अकेला ही झेलता  रहा।  ईराक के  पराजित होने से   न केवल पश्चिम एशिया औपनिवेशिक जाल मे फंस गया वरन एशिया और अफ्रीका के देशों को पश्चिम का प्रभुत्व स्वीकार करना ही पड़ रहा है।

अतः आज ज़रूरत नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा प्रस्तुत नारे-"एशिया एशियाईओ के लिए" पर अमल करने की है । भारत को एशिया के अन्य महान देशों -चीन और रूस को एकताबद्ध करके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और अब ईरान को बचाने के लिए उसको नैतिक समर्थन प्रदान करना चाहिए। भारत के स्वाभिमान ,आर्थिक और राजनीतिक हितों का तक़ाज़ा है कि,अब ईरान का भी पतन न हो जाये ऐसी व्यवस्था करने वाली सरकार  केंद्र मे आ सके।

आज तो भारत के भावी प्रधानमंत्री हेतु भी अमेरिका नाम का  सुझाव देने लगा है-कौन सा दल किसे अपना नेता चुने यह भी अमेरिका मे तय हो रहा है। भारत मे किस विषय पर आंदोलन चले यह भी अमेरिका तय कर रहा है-अन्ना आंदोलन इसका ताजा तरीन उदाहरण है। अतीत की गलतियों का खामियाजा आज मिल रहा है और आज जो गलतियाँ की जा रही हैं-अन्ना जैसों का समर्थन उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को निश्चित रूप से भुगतना ही होगा।

Saturday, 23 June 2012

कथनी और करनी का यही अंतर ले डूबा

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हिंदुस्तान-लखनऊ-23/06/2012 
उपरोक्त स्कैन मे विद्वान ,विचरवान और एक बड़े मार्क्सवादी नेता का लेख है जो किसी भी रूप मे गलत नहीं कहा जा सकता किन्तु उनही की पार्टी 'राष्ट्रपति चुनाव' मे उसी उम्मीदवार का समर्थन कर रही है जिसे ऐसे ही प्रधानमंत्री की पार्टी ने अमेरिकी हित -संरक्षण हेतु खड़ा किया है।

पश्चिम बंगाल मे 34 वर्षों का मार्क्सवादी पार्टी का शासन 'साम्यवादी' शासन नहीं वरन 'बंगाली पार्टी' का शासन था और उसी बंगालेवाद के आधार पर इन नेता की पार्टी ने पी एम की पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन दिया है। फिर ऐसे लेख किसको मूर्ख बनाने के लिए हैं खुद को या जनता को?







 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर