Sunday 5 May 2013

श्री श्री कार्ल मार्क्साय नमः---क्षमा शर्मा

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कार्ल मार्क्स जयंती 05 मई के अवसर पर विशेष---

फेसबुक पर मार्क्सवाद ---

अभिजात अखबारों के स्तंभ लेखों से लेकर फ़ेसबुक की स्खलित टिप्पणियों तक - अचानक मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों की आलोचना (या जिसे आलोचना समझा जाता है) की बाढ़ आ गई है. यह एक अच्छी बात है. लेकिन मैं यह भी सोच रहा हूं कि इसकी वजह क्या है ? क्या कम्युनिस्ट सत्ता पर कब्ज़ा करने जा रहे हैं ? क्या कम्युनिस्ट ख़तरे से आगाह करना अत्यंत सामयिक हो गया है ?

  • Vimalendu Dwivedi उज्ज्वल जी ने इन आलोचनाओं(स्खलन) का निहितार्थ उल्टा समझ लिया है. ये आलोचनाओं की बाढ़ अस्वाभाविक नहीं है. मार्क्सवादियों नें इस देश में पूँजीवादियों और साम्प्रदायिकों को खुला खेल खेलने का मैदान देकर देश की जनता के प्रति अपराध किया है. उन्होने सत्ता के साथ अपने लाभ के संबन्ध बनाकर अपने राजनीतिक कर्तव्यों कि तिलांजलि दे दी.

    लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलों का प्रतिरोध दलों के द्वारा ही किया जा सकता. भारत की कम से कम तीन चौथाई आवादी वैचारिक रूप से मार्कसवादी है. वो वोटर भले किसी भी पार्टी के हों. हमारे देश की कम्टुनिष्ट पार्टियों ने इस तीन चौथाई आबादी के भरोसे और भविष्य का खून किया है.

    रही बात इनके सत्ता में आने की......तो यह तो फिलहाल दिवास्वप्न है.
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    हिंदुस्तान में प्रकाशित क्षमा शर्मा जी का लेख मात्र व्यंग्य नहीं उनका अनुभूत वर्णन लगता है। सच्चाई यही है जैसा कि फेसबुक टिप्पणी में भी दुखद रूप से प्रकट की गई है। मैंने अपने लेख द्वारा http://krantiswar.blogspot.in/2012/05/blog-post_05.html
     
    सिद्ध करना चाहा था कि मार्क्स वाद के सिद्धान्त मूल रूप से भारतीय हैं विदेशी नहीं और विदेशों मे असफल भी इसीलिए हुये क्योंकि उनको गैर-भारतीय संदर्भों में लागू किया गया । अतः क्षमा शर्मा जी द्वारा उठाए प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करके उनके निराकरण करने की महती आवश्यकता है।  
 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

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