Thursday, 24 April 2014

सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए ? ---तुकाराम वर्मा






विश्व के मानवीय समाज के बीच चोरी को कब से अपराध घोषित किया गया इसका उत्तर बीस वर्षों से अत्यधिक अन्वेषण करने पर भी कहीं से किसी स्रोत से नहीं मिल सका| हाँ इतना तो सुनिश्चित हो गया कि जब कुछ लोगों ने संघठित शक्ति और समूहों ने लूट के द्वारा अपार संपत्ति को एकत्र कर लिया तो उस लूटी हुई उनकी संपत्ति को कोई और न लूट सके इस कारण चोरी और लूट को सामाजिक अपराध मान लिया गया|
कालांतर में राज्य व्यवस्था बनने के बाद उसे कानूनी मान्यता दे दी गई| यह सब राजशाही के दौरान हुआ, फिर भी लूट का उद्योग चलता रहा और एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करके उसकी संपत्ति को लूटने में विजय और शौर्य के रूप में पहचान पाता रहा| इसे उस राजा के धार्मिक पुरोहितों ने मान्यता दी तथा राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर जनता से स्वीकार्य करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया| इस सहयोग के लिए धार्मिक तंत्र और उसके आचार्यों को राजा से पुरस्कार एवं सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होती रही|
विश्व में लोकतंत्र आने के बाद साधारण जनता को सत्ता की भागेदारी मिलने लगी जिस कारण स्थापित भोगवादी तंत्र को अपने को स्थापित किये रहने का खतरा बढ़ने लगा| अब चिंतनीय प्रश्न यह  उभरा कि जनता को सत्ता से कैसे अलग रक्खा जाए अतः दुरभिसंधियां रची आने लगी और प्रतिमान रूप में स्वच्छ दिखने वाली व्यवस्था के पीछे शोषण लूट और अर्थ का स्थापित साम्राज्य अधिक मजबूत किया जाने लगा|
सम्प्रति धनतंत्र प्रभावी है, दुनिया को बाजार चला रहा है| राजनेता बाजारवाद से ग्रसित हैं और पूँजीपतियों के इशारों को समझकर अपना मुँह खोलते हैं| जिन कमजोर वर्गों के नेताओं ने इस साजिश को समझा और उसे उजागर करने का प्रयास किया उनपर शिकंजा कसा गया और संगठित होकर व्यवस्था, सत्ता, धर्मतंत्र और औद्योगिक घरानों ने उन्हें अपमानित और बदनाम करना प्रारम्भ कर दिया|
चूँकि निर्वाचन के लिए राजनैतिक दल बनाना उसे चलाना अर्थ के बिना संभव नहीं अतः इन दलों को आर्थिक सहयोग से  वंचित रक्खा गया और जब इन्होंने अपने आपको आर्थिक सुदृढ़ता के अपने स्तर से प्रयास किए तो उसे वर्षों से भ्रष्टाचार करते आ रहे वर्ग ने भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरना प्रारम्भ कर दिया, जिससे उन्हें सत्ता से बेदखल किया जा सके अथवा वह वर्ग इनके अधीन चलने वाले दलों में शामिल होकर उनकी दासता को शिरोधार्य कर ले|
ऐसा कहकर यहाँ कमजोर वर्ग के भ्रष्ट आचरण को बचाने का प्रयास नहीं किया जा रहा अपितु यह स्पष्ट करने की कोशिश है कि सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए तथा स्थापित वर्ग का वर्जस्व बना रह सके और लोकतंत्र का केवल प्रदर्शनीय चेहरा सामने रहे|

यह विचार किसी भी तरह से एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लोकतंत्र के पथिकों के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं कि किसी को सत्ता प्राप्त करने के लिए ईश्वर ने चुना है| यह काल्पनिक भ्रामक मनगढंत ढोंग है कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा चुन लिया गया है| भारतीय संवैधानिक व्यवस्था ऐसे किसी विचार को मान्यता नहीं देती जिसके लिए कोई प्रमाणिक साक्ष्य न हो, क्या इस कथन के प्रमाण में परमेश्वर उनके लिए साक्ष्य के रुप में उपस्थित हो सकता है? कदाचित नहीं|
हमारा संसद भवन ईश्वर का मंदिर नहीं अपितु जनता का मंदिर है, इसमें ईश्वर के प्रतिनिधियों की नहीं अपितु जनता के प्रतिनिधियों की आवश्यकता एवं उपयोगिता है| ईश्वर के प्रतिनिधि को जनता से वोट माँगने की क्या जरूरत? ऐसा लग रहा है कि जनता का अपार धन जो ईश्वर के मंदिरों में भरा पड़ा है वह इनके प्रचार में प्रयुक्त हो रहा है|
ईश्वर के प्रतिनिधियों को ईश्वर के मंदिर में जाकर सेवकाई करनी चाहिये|

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