राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था। उनके पिता
चिकित्सक थे। वे आंरभिक वर्षों में पिता के साथ मेरठ में कई जगहों पर रहे।
मिडिल की परीक्षा उन्होंने सुरीड़ नामक जगह से पास की। फिर उसके बाद
पढ़ने के लिए मवाना (मेरठ) अपने चाचा के पास गए। वहीं हॉकी खेलते हुए
पैरों में चोट लग गई जिसके कारण उनके पैर की एक हड्डी को निकालना पड़ा।
उसी दौरान उन्होंने उर्दू की कहानियों-उपन्यासों आदि को पढ़ा। चाचा का
तबादला झांसी होने के कारण वे झांसी चले गए और वहीं से उन्होंने मैट्रिक
(1944) किया।उन्होंने आगरा कॉलेज से बी.ए.(1949) किया। आगरा
विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एम.ए.(1951) भी किया। उसके बाद सन् 1954
में वे कलकत्ता चले गए तथा 1964 तक वहीं रहे। उन्होंने वहीं ‘ज्ञानोदय’
दो बार छोटी-छोटी अवधि के लिए नौकरी भी की। सन् 1964 में दिल्ली आने पर
‘अक्षर प्रकाशन’ की स्थापना की और कई महत्वपूर्ण लेखकों की प्रथम रचना को
छापा। सन् 1986 से वे साहित्यिक मासिक ‘हंस’ का संपादन कर रहे
थे ।
नवीन सामाजिक चेतना के कथाकार राजेन्द्र यादव की पहली कहानी
‘प्रतिहिंसा’(1947) कर्म योगी मासिक में प्रकाशित हुई थी। उनके पहले
उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं’ जो बाद में ‘सारा आकाश’ (1959) नाम से
प्रकाशित हुई उन्हें अपने समय के अगुआ उपन्यासकारों में स्थापित कर दिया।
राजेन्द्र यादव नई कहानी आंदोलन के कुछ महत्वपूर्ण कथाकारो में गिने जाते
हैं।
अपनी कहानी में उन्होंने मानवीय जीवन के तनावों और संघर्षों को पूरी
संवेदनशीलता से जगह दी है। नगरीय जीवन के आतंक और विडंबना को बड़ी कुशलता
से वे सामने लाये। उनकी ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’
‘अभिमन्यु की आत्महत्या”छोटे-छोटे ताजमहल’ ‘किनारे से किनारे तक’ जैसी
कहानियां हिन्दी की ही नहीं विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में
गिनी जाती हैं। ‘देवताओं की मूर्तियां’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ (1957)
‘छोटे-छोटे ताजमहल’(1961)’टूटना और अन्य कहानियां’(1987) उनके अन्य कहानी
संग्रह हैं। उनकी अब तक की तमाम कहानियां ‘पड़ाव-1′ ‘पड़ाव-2′ और
‘यहांतक’ शीर्षक से तीन जिल्दों में संकलित हैं।
राजेन्द्र यादव औपन्यासिक चेतना के कथाकार माने जाते हैं। उनका पहला
उपन्यास ‘सारा आकाश’ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक
है। ‘सारा आकाश’ की लगभग आठ लाख प्रतियांं बिक चुकी हैं। ‘सारा आकाश’ की
कहानी एक रूढ़िवादी निम्नमध्य वर्गीय परिवार की कहानी है जिसका नायक एक
अव्यवहारिक आदर्शवादी है।
आजाद भारत की युवा पीढ़ी के वर्तमान की त्रासदी और भविष्य का नक्शा।
आश्वासन तो यह है कि सम्पूर्ण दुनिया का सारा आकाश तुम्हारे सामने खुला
है-सिर्फ तुम्हारे भीतर इसे जीतने और नापने का संकल्प हो- हाथ पैरों में
शक्ति हो... मगर असलियत यह है कि हर पाँव की बेड़ियाँ हैं और हर दरवाजा
बंद है। युवा बेचैनी को दिखाई नहीं देता है किधर जाए और क्या करे। इसी
में टूटती है उसका तन, मन और भविष्य का सपना। फिर वह क्या करे-पलायन,
आत्महत्या या आत्मसमर्पण ?
आज़ादी के पचास वर्षों में सारा आकाश ऐतिहासिक उपन्यास भी है और समकालीन
भी। बेहद पठनीय और हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक सारा
आकाश चालीस संस्करणों में आठ लाख प्रतियों से ऊपर छप चुका है, लगभग सारी
भारतीय और प्रमुख विदेशी भाषाओं में अनूदित है। बासु चटर्जी द्वारा बनी
फिल्में सारा आकाश हिन्दी की सार्थक कला फिल्मों की प्रारम्भकर्ता फ़िल्म
है।
आज की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार एक आदर्शवादी
मनुष्य को समझौतावादी बना देती है- यह उनके उपन्यास ‘उखड़े हुए लोग’
(1956) की मुख्य कथा वस्तु है। ‘शह और मात’(1959) डायरी शैली में लिखा
गया उपन्यास है।उपन्यास ‘कुलटा’ समाज के उच्चवर्गीय महिलाओं की खिन्नता
को उजागर करती है। अपनी लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के साथ लिखा गया
उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ खंडित व्यक्तित्व वाले आधुनिक व्यक्तियों की
प्रेम कहानी है। ‘अनदेखे अनजाने पुल’ ‘मंत्र विद्ध’(1967)
उनके अन्य उपन्यास हैं जो जीवन और उसके विरोधाभासों को और भी स्पष्टता
में दिखाते हैं। ‘आवाज तेरी है ‘(1960) नाम से उनकी कविताओं का एक संग्रह
भी प्रकाशित है।
उन्होंने समीक्षा निबंध की कई पुस्तकें भी लिखी हैं। ‘कहानी :स्वरूप और
संवेदना’ (1968) ‘कहानी :अनुभव और अभिव्यक्ति ‘(1996) और ‘उपन्यास
:स्वरूप और संवेदना’(1997) आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। दस खंडों
में प्रकाशित ‘कांटे की बात’ श्रृंखला में उनके ‘हंस’ मेंं छपे संपादकीय
को मुख्यत:लिया गया है। ‘औरों के बहाने’ 1981 में प्रकाशित हुई थी। नए
साहित्यकार पुस्तकमाला की श्रृंखला में मोहन राकेश कमलेश्वर फणीश्वनाथ
रेणु मन्नू भंडारी तथा स्वयं अपनी लिखी हुई चुनिंदा कहानियों का उन्होंने
संपादन किया।
‘कथा दशक’(1981-90) ‘हिन्दी कहानियां :आत्मदर्पण’(1994) ‘काली
सुर्खियां’(1994 अफ्रीकी कहानियां) और ‘एक दुनियां समानांतर का’ भी
उन्होंने संपादन किया।उनके द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण अनुवादों में
‘हमारे युग का एक नायक’ (लमेल्तोव) ‘प्रथम प्रेम’ ‘वसंत प्लावन’
(तुर्गनेव) ‘टक्कर’(चेखव) ‘संत सर्गीयस’ (टालस्टॉय) ‘एक महुआ :एक मोती’
(स्टाइन बैक) और ‘अजनबी’ (अलबेयर कामू) हैं। ‘मुड़-मुड़ के देखता हूं’
(2001) ‘वे देवता नहीं हैं ‘(2000) और ‘आदमी की निगाह में औरत’ (2001)
उनके संस्मरणों के संग्रह हैं।
हंस पत्रिका
उपन्यास सम्राट पे्रमचंद द्वारा स्थापित और संपादित हंस अपने समय की
अत्यन्त महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। महात्मा गांधी और कन्हैयालाल माणिक
लाल मुंशी दो वर्ष तक हंस के सम्पादक मंडल में रहे। मुंशी प्रेमचंद की
मृत्यु के बाद हंस का संपादन उनके पुत्र प्रसिद्ध कथाकार अमृतराय ने
किया। इधर अनेक वर्षों से हंस का प्रकाशन बंद था। मुंशी प्रेमचंद के
जन्मदिन यानी ३१ जुलाई १९८६ से अक्षर प्रकाशन ने प्रसिद्ध कथाकार
राजेन्द्र यादव के सम्पादन में हंस को एक कथा मासिक के रूप में फिर से
प्रकाशित किया।
आज से 28 साल पहले जब अगस्त 1986 में राजेंद्र यादव ने हंस पत्रिका का
पुनर्प्रकाशन शुरू किया था, तब किसी को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि यह
पत्रिका निरंतरता बरक़रार रखते हुए ढाई दशक तक निर्बाध रूप से निकलती
रहेगी, शायद संपादक को भी नहीं. उस व़क्त हिंदी में एक स्थिति बनाई या
प्रचारित की जा रही थी कि यहां साहित्यिक पत्रिकाएं चल नहीं सकतीं.
सारिका बंद हो गई, धर्मयुग बंद हो गया, जिससे यह साबित होता है कि हिंदी
में गंभीर साहित्यिक पत्रिका चल ही नहीं सकती. लेकिन तमाम आशंकाओं को धता
बताते हुए हंस ने यह सिद्ध कर
दिया कि हिंदी में गंभीर साहित्य के पाठक हैं..
“यह कहते हुए कोई संकोच या किसी तरह की कोई हिचक नहीं है कि पिछले ढाई
दशक की हिंदी की महत्वपूर्ण कहानियां हंस में ही छपीं. एक बार बातचीत में
यादव जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था कि अगर झूठी शालीनता न
बरतूं तो कह सकता हूं कि हिंदी में अस्सी प्रतिशत श्रेष्ठ कहानियां हंस
में ही प्रकाशित हुई हैं और ऐसे एक दर्जन से ज़्यादा कवि हैं, जिनकी पहली
कविता हंस में ही छपी और आज उनमें से कई हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार
हैं.” अनंत विजय (पत्रकार )
हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ,
शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय की तलछट का कोरस, रमाकांत
की कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्र किशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे
और आनंद हर्षुल की उस बूढ़े आदमी के कमरे में छाप कर हिंदी कथा साहित्य
को एक नया जीवनदान दिया ।
“हंस का यह शायद सबसे बड़ा योगदान है कि जिस समय बड़ी प्रकाशन
संस्थाओं से निकलने वाली धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ढेर हो रही थी, उस
दौर में एक लेखक के व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली इस पत्रिका ने
साहित्य से लोगों को जोड़े रखने का कामकिया. टेलीविजन के रंगीन तिलिस्म
के सामने उसने मजबूती से साहित्य के जादू को बरकरार रखने का काम किया. जब
पत्रिकाएंपढ़ने वाला परिवार टेलिविजन धारावाहिकों के जादू में खोने लगा
था हंस ने साहित्य में लोगों का विश्वास बनाये रखने का कामकिया. सबसे
बड़ी बात है कि मनोरंजन प्रधान उस दौर में भी उसने साहित्यिक सरोकारों की
लौ को बनाये रखा. पत्रिकाओं के नामपर हिंदी में सन्नाटा छाता जा रहा था,
बस एक हंस थी. न जाने कितने कथाकार हैं जिन्होंने हंस के पन्नों से
गांवसमाजों तक अपनीव्याप्ति बनाई. हमारी पीढ़ी ने जिन कथाकारों कि ओर सर
ऊँचा करके देखा और लिखने की प्रेरणा पाई संयोग से उन सबको हंस ने हीइतना
ऊंचा बनाया.” जानकिपुल (हिन्दी का प्रमुख साहित्यिक ब्लॉग )
2003 लिटरेट वर्ल्ड द्वारा कराये गए 81 साहित्यकार के माध्यम से कराये गए
सर्वे के मुताबिक “हंस हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका
कथा मासिक ‘हंस’ है।“ हिन्दी के एक साहित्यकार के मुताबिक उन्होंने प्रयास यही किया
कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व स्त्री
विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए जाएँ। उन्होंने स्त्री और दलित को
आज हिन्दी साहित्य में राजेंद्र यादव एक एसा नाम हैं जिन्होंने लेखन
अपने उसूलो पर किया और बिना किसी की परवाह किये सामाजिक मुद्दो पर लेखन के
माध्यम से अपने विचार सामने रखे ।
28 अक्टूबर 2013 को उनका दिल्ली में निधन हुआ. वह प्रगतिशील-जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के महत्वपूर्ण स्तम्भ थे. आज साहित्य और सामाजिक विमर्श में रुचि रखने वाले
हर पाठक को राजेंद्र यादव के साहित्य को जरूर पढ़ना चाहिए ।
साभार:
https://www.facebook.com/groups/yaadgaareagra/permalink/337280386447443/
डॉ जितेंद्र रघुवंशी |
No comments:
Post a Comment
कुछ अनर्गल टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम है.असुविधा के लिए खेद है.