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कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के।
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है।...................किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। .............क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।
नई दुनिया छोड़ कर जब डॉ राजेन्द्र माथुर साहब ने नवभारत टाईम्स के प्रधान संपादक का दायित्व ले लिया था तब एक सम्पादकीय लेख में उन्होने पर्यावरण के संबंध में चेतावनी दी थी कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो अगले बीस वर्षों में देश की जलवायु बदल जाएगी।उनकी चेतावनी से समाज कुछ भी नहीं बदला बल्कि पर्यावरण -प्रदूषण पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया है। नदियां अब नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं। अति वर्षा,अति सूखा, अति शीत,भू-स्खलन,बाढ़ आदि प्रकोप जीवनचर्या का अंग बन चुके हैं। 'गंगा की सफाई' के लिए स्वामी निगमानंद का बलिदान हो चुका है और अब इज़राईल की दिलचस्पी गंगा की सफाई में है।
हालांकि प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता की आड़ में बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली तबका 'ज्योतिष' की कड़ी निंदा व आलोचना करता है। परंतु ज्योतिष=ज्योति +ईश अर्थात ज्ञान -प्रकाश देने वाला विज्ञान। जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मानव समेत सभी प्राणियों व वनस्पतियों पर पड़ता है उसी प्रकार मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र भी प्रभावित होते हैं। इसे एक छोटे उदाहरण से यों समझें:
एक बाल्टी पानी में एक गिट्टी उछाल दें तो हमें तरंगें दीखती हैं परंतु वही गिट्टी नदी या समुद्र में डालने पर हमें तरंगें नहीं दीखती हैं परंतु बनती तो हैं। वैसे ही मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र प्रभावित होते हैं। जिसका पता प्रकृति में होने वाली उथल-पुथल से चलता है। कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के।
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है। धर्म= मानव जीवन और मानव समाज को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे कि ,'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये -यही धर्म है। परंतु 'एथीस्टवाद' के कारण इसे नकार दिया जाता है और ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती है जबकि वह तो व्यापारियों/उद्योगपतियों द्वारा जनता की लूट व शोषण के उपबन्ध हैं। किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है।
कुछ अति प्रगतिशील वैज्ञानिक 'ग्रह-नक्षत्रों'के प्रभाव को ही नहीं मानते हैं वैसे लोगों की मूर्खता के ही परिणाम हैं विभिन्न प्राकृतिक-प्रकोप।
यदि ग्रह-नक्षत्रों का प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है तो वहीं प्राणियों का सामूहिक प्रभाव भी ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है। एक बाल्टी में पानी भर कर उसमें गिट्टी फेंकेंगे तो 'तरंगे'दिखाई देंगी। यदि एक तालाब में उसी गिट्टी को डालेंगे तो हल्की तरंग मालुम पड़ सकती है किन्तु नदी या समुद्र में उसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा परंतु 'तरंग' निर्मित अवश्य होगी । इसी प्रकार सीधे-सीधी तौर पर मानवीय व्यवहारों का प्रभाव ग्रहों या नक्षत्रों पर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता उसका एहसास तभी होता है जब प्रकृति दंडित करती है जैसे-उत्तराखंड त्रासदी,नर्मदा मंदिर ,कुम्भ और अब वाराणासी की भगदड़ आदि , क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के।
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है।...................किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। .............क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।
नई दुनिया छोड़ कर जब डॉ राजेन्द्र माथुर साहब ने नवभारत टाईम्स के प्रधान संपादक का दायित्व ले लिया था तब एक सम्पादकीय लेख में उन्होने पर्यावरण के संबंध में चेतावनी दी थी कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो अगले बीस वर्षों में देश की जलवायु बदल जाएगी।उनकी चेतावनी से समाज कुछ भी नहीं बदला बल्कि पर्यावरण -प्रदूषण पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया है। नदियां अब नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं। अति वर्षा,अति सूखा, अति शीत,भू-स्खलन,बाढ़ आदि प्रकोप जीवनचर्या का अंग बन चुके हैं। 'गंगा की सफाई' के लिए स्वामी निगमानंद का बलिदान हो चुका है और अब इज़राईल की दिलचस्पी गंगा की सफाई में है।
हालांकि प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता की आड़ में बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली तबका 'ज्योतिष' की कड़ी निंदा व आलोचना करता है। परंतु ज्योतिष=ज्योति +ईश अर्थात ज्ञान -प्रकाश देने वाला विज्ञान। जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मानव समेत सभी प्राणियों व वनस्पतियों पर पड़ता है उसी प्रकार मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र भी प्रभावित होते हैं। इसे एक छोटे उदाहरण से यों समझें:
एक बाल्टी पानी में एक गिट्टी उछाल दें तो हमें तरंगें दीखती हैं परंतु वही गिट्टी नदी या समुद्र में डालने पर हमें तरंगें नहीं दीखती हैं परंतु बनती तो हैं। वैसे ही मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र प्रभावित होते हैं। जिसका पता प्रकृति में होने वाली उथल-पुथल से चलता है। कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के।
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है। धर्म= मानव जीवन और मानव समाज को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे कि ,'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये -यही धर्म है। परंतु 'एथीस्टवाद' के कारण इसे नकार दिया जाता है और ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती है जबकि वह तो व्यापारियों/उद्योगपतियों द्वारा जनता की लूट व शोषण के उपबन्ध हैं। किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है।
कुछ अति प्रगतिशील वैज्ञानिक 'ग्रह-नक्षत्रों'के प्रभाव को ही नहीं मानते हैं वैसे लोगों की मूर्खता के ही परिणाम हैं विभिन्न प्राकृतिक-प्रकोप।
यदि ग्रह-नक्षत्रों का प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है तो वहीं प्राणियों का सामूहिक प्रभाव भी ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है। एक बाल्टी में पानी भर कर उसमें गिट्टी फेंकेंगे तो 'तरंगे'दिखाई देंगी। यदि एक तालाब में उसी गिट्टी को डालेंगे तो हल्की तरंग मालुम पड़ सकती है किन्तु नदी या समुद्र में उसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा परंतु 'तरंग' निर्मित अवश्य होगी । इसी प्रकार सीधे-सीधी तौर पर मानवीय व्यवहारों का प्रभाव ग्रहों या नक्षत्रों पर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता उसका एहसास तभी होता है जब प्रकृति दंडित करती है जैसे-उत्तराखंड त्रासदी,नर्मदा मंदिर ,कुम्भ और अब वाराणासी की भगदड़ आदि , क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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