मुगलसराय का नाम बदल से क्या होगा, पहले पंडित जी की मौत की गुत्थी सुलझाओ!
स्टेशन का नाम बदलने से क्या दीनदयाल उपाध्याय और उनके परिवार को न्याय मिल जाएगा ? बहुत बड़े राष्ट्रनायक थे पं.दीनदयाल उपाध्याय, इतने बड़े कि उन्हें पूरा देश अब तक नहीं जान पाया। कैसे जीये, क्या किये, ये तो बीजेपी और संघ वाले बता रहे लेकिन कैसे मरे, मरे कि मार डाले गए ये उनके नेता नहीं बता रहे। जबकि स्व.दीनदयाल जी के परिवार और संघ पार्टी के सभी वरिष्ठ व बुजुर्ग नेताओं और राष्ट्रभक्तों को पता है कि दीनदयाल उपाध्याय की मौत एक मिस्ट्री है। मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर हुई उनकी संदिग्ध मौत को सिर्फ़ रहस्यमय ही नहीं माना गया बल्कि उनकी नियोजित हत्या किये जाने तक कि बात चली....चर्चा में आई।
बड़ी और चौंकाने वाली बात तो ये कि जनसंघ के अध्यक्ष रहे बड़े नेता बलराज मधोक ने ये इशारा कर तब सनसनी फैला दी थी कि पंडित जी की हत्या के पीछे पार्टी के ही कुछ बड़े नेताओं के हाथ हो सकते हैं। पंडित दीनदयाल जो सीधे गुरु गोलवलकर से जुड़े हुए थे और उनकर बेहद विश्वासपात्र थे। 'गुरुजी' ने ही उन्हें जनसंघ के अध्यक्ष की कमान सौंपी थी। इससे संघ के कई नेता उदासीन भी थे। जिनका कद संघ संगठन में कद्दावर था।
तब ये सवाल भी बहुत जोर पकड़ा था कि उपाध्याय की मौत/हत्या से संगठन में किसको बड़ा लाभ मिला, कौन लोग लाभान्वित हुए? उनके परिजन ये भी बताते रहे कि पंडित जी ने उन्हें बताया भी था कि उनको तरह-तरह की धमकियां मिल रही हैं। तब अटल बिहारी वाजपेयी पंडित जी के सचिव हुआ करते थे। उनके हवाले से भी ये बात आई कि हां, धमकी मिलती थी। उनकी मौत के बाद भी ज़ुबान बंद रखने की धमकी भी क्योंआती रही?
10 फरवरी 1968 की रात को पंडित दीनदयाल लखनऊ से सियालदह-पठानकोट एक्सप्रेस में सवार हो पटना किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे। फर्स्ट क्लास की बोगी में वे सवार थे। सुबह 11 फरवरी को मृतावस्था में वे मुगलसराय स्टेशन के दक्षिणी यार्ड में पाये गये। उनका शव सही सलामत ही था। हाईलाइट ये कि उनके हाथ में उंगलियों से फंसा एक पांच रुपये का नोट था! कहानी ये कही गयी और शोर ये मचाया गया कि ट्रेन की बोगी से वे गिर पड़े होंगें। वे वहां मरे या मारे गये जहां उन्हें कोई नहीं जानता था। खास बात ये भी कि उनके सचिव अटल जी भी इस सफर में उनके साथ नहीं थे। स्टेशन के प्लेटफार्म पर लाश लावारिस रखी हुई थी। इसी बीच उन्हें एक व्यक्ति ने देखा और कहा कि ये तो पंडित जी हैं!
बहरहाल, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत विवाद का कारण तो बनी ही। विवाद आज भी है। संघ संगठन के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने तो तभी साफ कह दिया था कि उनकी मौत एक सोची-समझी राजनीतिक हत्या है। उनके पास कुछ खास लोगों के पाखंड और भेद के सबूत थे। राष्ट्रभक्ति और सम्प्रदायिकता के असली-नकली चेहरों की फाइलें थीं। ये आशंका उनके परिवार वालों ने भी जताई थी। वहीं डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ये कहते रहे कि उनकी हत्या कांग्रेस ने करवाई, क्योंकि जनसंघ को वे विपक्ष की बड़ी पार्टी बना रहे थे। 1967 के आम चुनाव में उन्होंने अपनी ताक़त दिखा दी थी।
हत्या/मौत के इन विवादों के बीच कांग्रेस की सरकार ने जांच बैठवा दी। कई स्तर की जांच चली। 1969 में संसद में सभी दलों के सांसदों की मांग पर वाई बी चंद्रचूड़ की अधयक्षता में विशेष जांच आयोग बना। पर राज़ है कि फिर भी नहीं खुला। सीबीआइ जांच भी बैठी। सीबीआइ सिर्फ दो लोगों राम अवध-भरत लाल को पकड़ सकी। कहा गया कि वे चोर थे और डिब्बे में सामान चुराने घुसे थे। अदालत से वे बाद में इस मामले में छूट भी गए। पंडित जी का परिवार, उनकी एक भतीजी मधु शर्मा तो आज भी यही मांग कर रही है कि उनकी मौत/हत्या की गुत्थी सरकार सुलझाए।
पंडित दीनदयाल पार्टी और संघ के बड़े नेता थे उनकी मौत की गुत्थी उन्हीं की पार्टी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार और उसके अपराजेय मुखिया क्यों नहीं सुलझा रहे। सारी फाइलें और समस्त जांच एजेंसियां उनके पास ही तो हैं। तो फिर ये कैसा खेल है कि जहां, जिस रेलवे स्टेशन मुगलसराय पर मरे उनके नेता, उसके नाम बदलने की तो बड़ी बेचैनी है, इस बात की बेचैनी क्यों नहीं कि पंडित दीनदयाल की हत्या/मौत का पर्दाफ़ाश किया जाय?
मालूम हो कि श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही पंडित दीनदयाल के परिजन, उनकी भतीजी मधु शर्मा वगैरह पीएम से मिले थे। उनके साथ डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी भी थे। उन सबने मोदी जी से यही मांग की कि पंडित जी की मौत की फाइलें खुलवाइए। नयी जांच बैठवाइए। पंडित जी की रहस्यमय मौत एक समर्पित संघ कार्यकर्ता और एक दार्शनिक नेता की हुई एक राजनीतिक हत्या है। हमें आपसे बहुत ही आस है!
सवाल ये कि तीन साल बीत गये उस आस और मुलाक़ात के। इस बीच कोई आहट भी न मिली पंडित दीनदयाल के परिवार और देश को कि फ़ाइल कोई खुली भी है या खोली जाएगी अथवा नहीं। इस राजनीतिक हत्या पर संघ-बीजेपी की मोदी सरकार की इच्छाशक्ति जागी है या जागेगी अथवा नहीं। बलराज मधोक ने आखिर क्यों खुद के संगठन और कुछ बड़े नेताओं की ओर उंगली उठाई? ये ठीक नहीं कि मूल सवालों के सार्थक खोजबीन और समाधान निकालने के बजाय कोई सरकार स्टेशन का नाम बदलने का लॉलीपॉप थमाए और इस बहस में उलझा कर सब कुछ पहले की तरह हवा कर दे। कांग्रेस की सरकार ने बहुत कुछ किया तो सही। ग़लत दिशा में किया, सही किया ये गुण-दोष भी जांचे न बीजेपी सरकार, क्यों कोई दिक्कत है?
एक बात ये भी समझ में नहीं आ रही कि मुगलसराय का नाम बदलने की ही इतनी जल्दी क्यों है? जहां मरे/मारे गये पंडित दीनदयाल उसी जगह का नाम उनके नाम पर क्यों रहे? जिस मथुरा के पैतृक स्थान नंगला चंद्रभान के पंडित जी वाशिंदा थे, उस मथुरा का नाम क्यों नहीं बदला जाय, मुगलसराय का ही क्यों? जिस जयपुर के धनकिया रेलवे स्टेशन वाले ननिहाल में दीनदयाल उपाध्याय जन्मे, उस धनकिया स्टेशन का नाम बदलने से पंडित जी की आत्मा खुश नहीं होगी! मुगलों को छोड़िये, दीनदयाल की मौत/हत्या का राज़फाश करिये!
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