Monday, 28 August 2017

सड़क पर भीड़ तंत्र और 'सड़क ' का संदेश ------ विजय राजबली माथुर

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नर - नारी की समानता की आवाज़ उठाने वाली महिला नेत्रियों का एकपक्षीय दृष्टिकोण उजागर : 

यदि शहीद पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति अपने अखबार में आवाज़ न उठाते 


और यदि CBI अधिकारी दबाव के बावजूद निर्भीकता व निष्पक्षता न बरतते एवं जज साहब भी निर्भीक व निष्पक्ष निर्णय न देते तो साध्वी को न्याय कहाँ से मिलता ? किन्तु इन लोगों के पुरुष होने के कारण पुरुष विरोधी महिला नेत्रियों ने एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा। ऐसी ही नर - नारी समानता समाज को चाहिए क्या ?
20 दिसंबर 1991 को प्रदर्शित महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म 'सड़क ' वेश्या वृत्ती के गैर कानूनी कारोबार को उजागर करने और ध्वस्त करने की एक साहसिक प्रेरणा देती है। नायक रवि ( संजय दत्त ) का सहयोग न मिलता तो क्या पूजा ( पूजा भट्ट ) जिसे उसके अपने चाचा ने ही इस नर्क में धकेला था क्या बच सकती थी ? अब से 26 वर्ष पूर्व आई इस फिल्म से जनता ने कोई सबक नहीं लिया और ढोंगियों के फेर में युवतियाँ फँसती रही हैं या उनके रिशतेदारों द्वारा ही फंसाई जाती रही हैं। 

राम रहीम मामले में भी साध्वियाँ और उनके परिवार स्वेच्छा से ही फंसे थे। किन्तु साहसी पत्रकार जो शहीद भी हुआ यदि छाप कर सार्वजनिक न करता और जज  व CBI अधिकारी साहस न दिखाते तब यह न्याय मिलना संभव न होता किन्तु नारीवादी नेत्रियों को पुरुषों को उनका श्रेय देना गवारा न हुआ। 
ये महिला  संगठन यदि अब भी जनता को जाग्रत करें और इन ढोंगियों से महिलाओं व युवतियों को बचाएं तो देश व समाज का भला हो सकता है।
'सड़क ' की तरह संदेषपरक फिल्में अब नहीं बन रही हैं लेकिन मुकेश भट्ट ने इसका सीकवल बनाने की घोषणा की है जिसमें आलिया भट्ट की भूमिका संजय दत्त व पूजा भट्ट की बेटी के रूप मे होगी।  







  

  संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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