Er S D Ojha
एक नारीवादी लेखिका का सच ।मशहूर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का छठ ब्रती महिलाओं पर कसा तंज उन पर हीं भारी पड़ गया । उन्होंने लिखा था -
"छठ के त्यौहार में बिहार वासिनी स्त्रियां मांग माथे के अलावा नाक पर भी सिंदूर पोत रचा लेती हैं । कोई खास वजह होती है क्या ?"
लोग उन्हें ट्रोल करने लगे । एक पाठक ने लिखा कि आपके पति हैं , फिर भी आप सिंदूर नहीं लगातीं । इस बात पर तो किसी ने आज तक तंज नहीं कसा । वैसे इस बात पर उन्हीं के शब्दों में यह सवाल तो बनता है - क्या कोई खास वजह है क्या ? ज्यादा हो हल्ला मचने पर मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी यह विवादित पोस्ट हटा ली है , पर जितनी सुर्खियां बटोरनी थी , वह बटोरने के बाद या जितना उनके व्यक्तित्व को नुकसान होना था , उसके हो चुकने के बाद ।
मैत्रेयी पुष्पा हिंदी अकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष हैं । उन्हें महिला हिंदी लेखन की यदि सुपर स्टार भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । उनकी कहानी " ढैसला " पर टेलिफिल्म बन चुकी है । उनके उपन्यास " बेतवा बहती रही " को हिंदी संस्धान द्वारा " प्रेमचंद सम्मान " दिया गया है । " कहैं ईसुरी फाग " एक स्थानीय लोक गायक ईसुरी पर लिखा उपन्यास है । मैत्रेयी पुष्पा को गांव की पहली लेखिका कहा जाता है , जिन्होंने गांव की गवईं स्त्री के दर्द को समझा है । लेकिन " इदन्नम " , "चाक "और "अलमा कबूतरी " में गांव की स्त्री का मैत्रेयी पुष्पा ने जो एडवांस रूप दिखाया है । वह वास्तव में वैसा नहीं है । यदि मांग में सिंदूर न पहनना , सिगरेट पीना और जींस पहनना हीं फेमिनिस्ट की पहचान है तो माफ कीजिए , मुझे आज तक कोई ऐसी औरत गांव में नहीं मिली । मैत्रेयी पुष्पा भी एक नारीवादी हैं , पर वह भी साड़ी पहनती हैं । ये और बात है कि वे मांग में सिंदूर नहीं पहनतीं । ये उनकी मर्जी है । मानिए वही जो मन भावे ।
सरिता से अपने कथा संसार का सूत्रपात करने वाली मैत्रेयी पुष्पा जब धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान और सारिका जैसी उच्च श्रेणी की पत्रिकाओं में अपनी पैठ कायम करती हैं तो सभी लोग उनके इस इल्म का लोहा मानने लगते हैं । वही मैत्रेयी पुष्पा जब होटल में राजेंद्र यादव के साथ पहुंचती हैं तो वह जल्दी जल्दी अपने कमरे में पहुंच जाना चाहती हैं । उन्हें डर है कि राजेंद्र यादव कहीं उनका हाथ न पकड़ लें । किंतु जब रात को मैत्रेयी पुष्पा को पानी की दरकार होती है तो रिस्पेशन में फोन न कर वह राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा खटखटाती हैं । ऐसा क्यों ? यह बात किसी ने मैत्रेयी पुष्पा से नहीं पूछी । कारण , उनकी मर्जी । हो सकता है कि उनको होटल स्टाफ से ज्यादे राजेंद्र यादव पर विश्वास हो । या जल्दी से कमरे में अपने को बंद कर लेने से वे अपने आप को अपराधी मान रहीं हों । उनको ऐसा लगा हो कि ऐसा कर उन्होंने राजेंद्र यादव का अपमान किया है । कुछ भी हो सकता है । इस बात का तो किसी ने विवाद का विषय नहीं बनाया । फिर बिहार वासिनी औरतों के नाक ,मांग व माथे पर सिंदूर पोतने पर ऐसा तंज क्यों ?
कभी राजेंद्र यादव ने भी हनुमान को विश्व का पहला आतंकवादी कहा था । ऐसा कह उन्होंने काफी सुर्खियां बटोरी थीं । वैसे आप पूछ सकते हैं कि राजेंद्र यादव को सुर्खियों की क्या जरूरत थी ? वे तो पहले से हीं एक स्थापित कथाकार थे । लेकिन उनके इस कथन से जो उन्हें जानते तक नहीं थे वे भी जानने लगे । आम तौर पर साहित्यकारों को साहित्यिक अभिरूचि रखने वाले लोग हीं जानते हैं । लेकिन साहित्यकार कुछ इस तरह का उथल पुथल मचा दे कि वह पूरी मीडिया में खबर की खबर बन जाय तो उसको जानने वाले बहुत से लोग हो जाएंगे । कहीं यही मंशा मैत्रेयी पुष्पा की भी तो नहीं थी ।
राजेंद्र यादव ने मैत्रेयी पुष्पा के लिए एक बार लिखा था -"तुम स्त्री को गांव लेकर आईं ।" यहां बात विल्कुल उलट हुई है । गांव गवईं स्त्रियों के सिंदूर लगाने की परम्परा पर तंज कसकर मैत्रेयी ने स्त्री को शहर ले जाने की कोशिश की है । इनके पति श्री आर सी शर्मा ने भी इनसे एक बार कहा था कि तुम दूसरी औरतों जैसी क्यों नहीं हो ? इसका कारण मैत्रेयी ने यह बताया - मैंने खुद को पत्नी माना नहीं कभी । चलो मान लेते हैं कि आप अपने को पत्नी नहीं मानतीं , लेकिन एक दोस्त तो मानती होंगी ? तो दोस्त का भी यह कर्तव्य होता है कि टूर पर जाते वक्त दोस्त से एक बार पूछ तो ले कि वह कब आएगा ? आपने ऐसा कभी शर्मा जी से नहीं पूछा । ऐसा क्यों ? ऐसा शायद इसलिए कि आप एक फेमिनिस्ट हैं । ऐसा करेंगी तो आपकी छवि एक फेमिनिस्ट की नहीं रह जाएगी ।
आप कहती हैं कि कभी भी आपने जाते समय शर्मा जी की अटैची तैयार नहीं की । ठीक है । एक आदमी टूर पर जा रहा है । उसे जाने की जल्दी है । वह चीजों को सहेजने में तनाव ग्रस्त है । ऐसे में आप उसकी थोड़ा मदद कर देंगी तो आपका क्या जाएगा ? लेकिन नहीं , आप ऐसा कर देंगी तो आपके नाम से फेमिनिस्ट का तगमा हटा लिया जाएगा । आपकी बड़ी बेइज्जत हो जाएगी ।आपने यह भी कहा है कि शर्मा जी के जाने के बाद आप बहुत अच्छा महसूस करती हैं । अपने को आजाद महसूस करती हैं । अपना पसंददीदा गजल सुनती हैं । क्या शर्मा जी के रहते हुए आप पर बंदिश रहती है ? नहीं , ऐसा कुछ नहीं है । चूंकि आप एक फेमिनिस्ट हैं तो कुछ अलग हट कर करना चाहिए । कुछ अलग सोचना चाहिए । कुछ अलग लिखना चाहिए । तभी तो आप एक नारीवादी लेखिका कहलाएंगी !
राजेंद्र यादव ने एक बार "हंस" में आपको मरी हुई गाय कहा था । उसके बाद आपकी शान में कसीदे भी पढ़े थे । उस समय आपने राजेंद्र यादव से इसकी वजह क्यों नहीं पूछी । आपको भी एक लेख लिखना चाहिए था और राजेंद्र यादव से पूछना चाहिए था , " इसकी खास वजह है क्या ?" लेकिन नहीं । आपने नहीं पूछा । पूछती भी कैसे ? उस लेख में केवल आपकी बड़ाई हीं बड़ाई थी । बड़ाई सबको अच्छी लगती है । आपको भी लगी होगी । मन्नू भंडारी ने एक बार लिखा था कि आपको कथा लिखने की समझ विल्कुल नहीं थी । आपने अपना पहला उपन्यास मन्नू जी को हीं दिखाया था । मन्नू ने कोई टिप्पणी नहीं की थी । क्योंकि उसमें टिप्पणी करने जैसा कुछ था हीं नहीं । मन्नू भण्डारी आपको हताश भी नहीं करना चाहती थीं । इसलिए कोई टिप्पणी नहीं की थी । राजेंद्र यादव का साथ मिला तो आप में लेखन कौशल आया । आज आप इस मकाम पर पहुंची हैं तो राजेंद्र यादव की बदौलत । आदमी को कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि वह कौन सी सीढ़ियां चढ़कर इस मकाम पर पहुंचा है । अब आप इस मकाम पर पहुंच कर किसी परम्परा का मजाक उड़ाएं तो यह आपको कत्तई शोभा नहीं देता । आप पूछती हैं - इसकी कोई खास वजह है क्या ? जिस तरह से हर " क्यों" का जवाब नहीं होता , उसी तरह से हर परम्परा की हर बार वजह नहीं होती । यह पीढ़ी दर पीढ़ी बिना वजह के भी चलती रहती है ।
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लेकिन सच्चाई तो यह है कि, आज के पूंजीवादी युग में जबकि 'पूंजी' की ही पूजा है बाजारवाद (उद्योगपति/ व्यापारी वर्ग ) ब्राह्मणवाद (पुरोहित वर्ग ) के सहयोग से जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहा है। जब भी सच्चाई को सामने लाने का प्रयास किया जाता है यह गठजोड़ उसे हर तरीके से दबाने - कुचलने का प्रयास करता है।
(विजय राजबली माथुर )
देखिये प्रमाण :
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