Monday, 27 August 2018

मुकेश: कभी धूमिल नहीं होगी दिल को छू लेने वाली आवाज की याद ------ प्रगति सक्सेना








मशहूर गायक मुकेश की 43 वीं पुण्यतिथि : 
मुकेश का भलापन, भोलापन और एक ख़ास उदासी जिसे आप संजीदगी भी कह सकते हैं, उनकी आवाज़ में झलकती है, दिल को कहीं गहरे कचोटती है।
एक शांत सौम्य शख्सियत जो दिल्ली से बंबई गया था अभिनेता बनने और बन बैठा एक ऐसा मधुर गहरा स्वर, जिसके साये में आज भी कई फ़िल्मी गायक अपनी आवाज़ के आयाम तलाशते हैं। मुकेशचन्द्र माथुर उर्फ़ मुकेश ही वो आवाज़ थे। आज के शोर-शराबे और मार्केटिंग की चमक दमक से भरे फ़िल्मी संगीत की दुनिया में मुकेश का मद्धम स्वर न सिर्फ हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की याद दिलाता रहता है, बल्कि वो उन तमाम गायकों के लिए एक प्रेरणा के स्रोत भी हैं जो खुद को मार्केटिंग में कमज़ोर पाते हैं लेकिन सुर में मज़बूत।1941 में मुकेश ने बतौर अभिनेता अपने करियर की शुरुआत की थी फिल्म ‘निर्दोष’ से, जिसमें उन्होंने एक गाना भी गाया था। हालांकि मुकेश गायक बनने बंबई नहीं आये थे, न ही बतौर गायक उनकी कोई औपचारिक ट्रेनिंग ही हुयी थी। लेकिन जब उनके दूर के रिश्तेदार अभिनेता मोतीलाल ने उन्हें एक शादी में गाते सुना, तो उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि इस आवाज़ में कई संभावनाएं छिपी हैं। मोतीलाल ही उन्हें बंबई लेकर आये और उन्हें पंडित जगन्नाथ प्रसाद के संरक्षण में संगीत के प्रशिक्षण का इंतज़ाम भी करवाया।लेकिन मुकेश हमेशा एक ऐसे गायक रहे जो पेशेवर गायकों की कतार में सबसे आख़िरी माने जाते रहे। मशहूर गायक मन्ना डे के लिए तो वो हमेशा एक शौकिया गायक ही रहे, जबकि संगीतकार सलिल चौधरी उन्हें एक ऐसा गायक मानते रहे जिसकी आवाज़ में अलग-अलग मूड के गायन को एकसाथ पिरोने की क्षमता थी।बतौर गायक भी मुकेश को काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा क्योंकि उनके सामने थे मोहम्मद रफ़ी और तलत महमूद जैसे मंझे हुए गायक। एक किस्सा बहुत मशहूर है कि बिमल रॉय के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘यहूदी’ का एक रोमांटिक गीत था ‘ये मेरा दीवानापन है..’, जिसे बिमल रॉय मोहम्मद रफ़ी से गवाना चाहते थे और फिल्म के हीरो दिलीप कुमार चाहते थे कि तलत महमूद इसे गायें, लेकिन फिल्म के संगीतकार शंकर-जय किशन, जिनसे मुकेश की काफ़ी दोस्ती हो चुकी थी, चाहते थे कि मुकेश ही ये गीत गायें। काफी बहस-मुबाहिसे के बाद तय हुआ कि दिलीप कुमार पहले मुकेश की आवाज़ में ये गाना सुनेंगे फिर तय होगा कि ये गीत आखिर कौन गायेगा।दिन तय हो गया। शंकर-जय किशन ने दिलीप कुमार को लगभग शाम का वक्त दिया गाना सुनने के लिए क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि मुकेश सुर से ज़रा हट कर गाते हैं और उन्हें गाने के लिए अभ्यास की ज़रूरत होती है। तो, सुबह से प्रैक्टिस शुरू हुयी और आखिर शाम के वक्त जब मुकेश ने वो गाना दिलीप कुमार के सामने गाया तो दिलीप कुमार भी प्रभावित हो गए। नतीजतन हमारे पास यहूदी का वो कालजयी गाना है, जिसे हर पीढ़ी का प्रेमी एक बार ज़रूर गुनगुनाता है - ‘ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर, तू ना पहचाने तो ये है तेरी नज़रों का कुसूर..”बहुत से संगीत समीक्षक उनकी आवाज़ में हलके से नाक से आते सुर और कभी-कभार सुर से बाहर लहरा जाती आवाज़ की आलोचना करते थे। वे करते रहे। लेकिन खामियों के बावजूद ये वो आवाज़ है जो दिल को छू जाती है, वक्त और मौका चाहे जो हो। संगीतकार कल्याण जी से जब मुकेश की खामियों पर बात की गयी तो उनका जवाब था - “जो भी चीज़ दिल से निकलती है, वो दिल को छू ही जाती है। मुकेश का गाना भी कुछ ऐसा ही था। यही वजह है कि उनकी सीधी-सरल आवाज़ अपनी तथाकथित कमजोरियों के बावजूद इतना गहरे असर करती है।”ये सच है कि मुकेश का भलापन, भोलापन और एक ख़ास उदासी जिसे आप संजीदगी भी कह सकते हैं, उनकी आवाज़ में झलकती है, दिल को कहीं गहरे कचोटती है। वे अपनी आलोचना का भी बुरा नहीं मानते थे, बल्कि लता मंगेशकर के साथ कई लाइव शोज़ में उन्होंने मज़ाक भी किया था कि “जानते हैं लता को इतना बेहतरीन गायक क्यों माना जाता है? क्योंकि उन्हें मेरे जैसे बेसुरे गायक का साथ जो मिला है!”केएल सहगल के मुकेश इतने बड़े फैन थे कि शुरूआती गानों में वो उनकी ही नक़ल करते रहे और अपना एक गाना ‘दिल जलता है तो जलने दे..’ इतना अच्छा गाया कि केएल सहगल ने भी उस गाने को सुन कर कहा, “अजीब बात है, मुझे याद नहीं पड़ता कि ये गाना मैंने कब गाया।”
उनकी आवाज़ राज कपूर के फ़िल्मी अवतार ‘राजू’ को मानो चरितार्थ करती थी - भोला, भला, मस्त और संजीदा सा किरदार जो यथार्थ की छल-कपट भरी दुनिया में एक अजनबी है, लेकिन इसी दुनिया में वो अपनी एक ख़ास जगह बनाना चाहता है और बनाता भी है। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों के गाने उन्होंने गाये। राजकपूर का किरदार और उनकी आवाज़ दोनों इतने घुल-मिल गए थे कि जब राज कपूर और मुकेश रूस के दौरे पर गए तो वहां के लोगों के लिए ये मानना मुश्किल हो गया था कि ‘आवारा हूं...’ गीत राज कपूर ने नहीं गाया है। मुकेश की अचानक मृत्यु से सन्न राज कपूर के मुंह से यही निकला था -“आज मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया!”लेकिन आज भी वो भली और गहरी सी आवाज़ कहीं दूर बजती हुयी हमें अपने इंसानी फ़र्ज़, प्यार और त्याग से बंधे इंसानी रिश्तों की ख़ूबसूरती की याद दिलाती रहती है। आखिर जीने के मानी तो यही हैं न...‘रिश्ता दिल से दिल के एतबार का/ जिंदा है इसी से नाम प्यार का/ के मर के भी किसी को याद आएंगे/ किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे/ कहेगा फूल हर काली से बार-बार/ जीना इसी का नाम है...’
https://www.navjivanindia.com/cinema/mukesh-the-voice-will-never-fade-away-that-touched-our-heart

Sunday, 26 August 2018

हिन्दू प्रतीकों से लदी अतीतजीवी हिन्दी : देशभइयों को निहत्था कर देगी ------ चंद्र्भूषण

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 25 August 2018

डरा और अपमानित पुलिस बल स्वतंत्र व निष्पक्ष कार्य कैसे करे ? ------ नवीन जोशी

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भाजपाइयों के साथ अलग और गैर - भाजपाइयों के साथ अलग व्यवहार करने का पुलिस को निर्देश होगा इन दोनों घटनाओं से तो यही सिद्ध होता है ------







 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 19 August 2018

नया रास्ता निकाल सकते हैं इमरान - मोदी ------ ए एस दुल्लत ( पूर्व रॉ प्रमुख )

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https://www.jansatta.com/trending-news/senior-congress-leader-digvijaya-singh-lauds-punjab-minister-navjot-singh-sidhu-for-attending-pakistan-pm-imran-khan-oath-ceremony-says-promotion-friendship/742764/?utm_source=izooto&utm_medium=push_notification&utm_campaign=browser_push&utm_content=&utm_term=

The Wire
Published on Aug 25, 2016

The Wire interviewed former Research and Analysis Wing chief A.S Dulat to understand the crisis in Kashmir and possible resolutions. Dulat has served in Kashmir for a long time, his most important tenure being from the year 2001 to 2004 when he was the advisor on Kashmir in the then Prime Minister Atal Bihari Vajpayee's office. 



Last year, his book Kashmir: The Vajpayee years, co-authored with senior journalist Aditya Sinha, created a lot of ripples as he became one of the few security personnels to advocate that the military presence in Kashmir should be reduced and that India needs to take the Kashmiris into confidence through humanitarian measures




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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 15 August 2018

स्वतन्त्रता की सार्थकता समानता और लोकतन्त्र से ------ संजय कुन्दन

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 12 August 2018

फासिस्ट आतंक से टकराती छात्र नेत्री : पूजा शुक्ला

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 7 August 2018

इस "कांवर-यात्रा" का रहस्य क्या है ? ------ सुरेश प्रताप




Suresh Pratap Singh
07-08-2018 
#बनारस_जिन्दगी_आस्था_और_महिलाएं !!
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#बनारस : जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझती ग्रमीण अंचल की ये महिलाएं अपने दु:ख-दर्द के समाधान के लिए बाबा विश्वनाथ का दर्शन व जलाभिषेक करने के लिए कंधे पर कांवर लेकर जा रही हैं. जीवन इतना आसान नहीं है. और उसे ही सुखमय बनाने के लिए "आस्था" के वशीभूत होकर पूरे मनोयोग से ये कंधे पर कांवर उठाई हैं.

कांवर को ये सलीके से सजाई हैं. और उसके आगे-पीछे प्लास्टिक की लुटिया लटकाई हैं. जिसमें जल लेकर ये बाबा विश्वनाथ का जलाभिषेक करेंगी ! जिससे बाबा खुश होकर करेंगे इनकी समस्याओं का समाधान ! अद्भुत है आस्था के प्रति इनका समर्पण !!

इनके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन और विश्लेषण करने से ही उनकी इस आस्था का रहस्य समझा जा सकता है. आखिर शहरी परिवेश की पढ़ी-लिखी महिलाएं अपने कंधे पर कांवर क्यों नहीं उठाती हैं ? कांवेंट स्कूल में पढ़ी महिलाएं और बच्चियां भी कांवर अपने कंधे पर नहीं उठाती हैं. यही स्थिति पुरुषों के साथ भी है.

तो क्या इस "आस्था" का सवाल शिक्षा और आदमी के आर्थिक परिवेश से भी जुड़ा है ? शिक्षित होने या आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सशक्त होने के साथ ही आस्था का स्वरूप भी बदल जाता है. हम अपने किसी पढ़े-लिखे दोस्त या फिर आर्थिक व सामाजिक स्तर पर सशक्त व्यक्ति को कंधे पर कांवर लेकर बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने जाते हुए नहीं देखे हैं. राजनेता और राजनीतिक दल के पदाधिकारी भी कांवर काफिले में नहीं दिखाई पड़ते हैं. तो आखिर इस "कांवर-यात्रा" का रहस्य क्या है ?

राजनेता कांवर लेकर बाबा विश्वनाथ का जलाभिषेक करने क्यों नहीं जाते हैं ? उनकी आस्था का स्वरूप अलग क्यों है ? क्या यह सब कुछ किसी प्रायोजित साजिश का हिस्सा है ? ताकी गरीब तबके के स्त्री-पुरुष "आस्था" के मकड़जाल में फंसे रहें और राजसत्ता से उसके द्वारा किए गए वादे के संदर्भ में कोई सवाल न पूछें ? इसके पीछे कुछ तो कारण है ? इस परिप्रेक्ष्य में व्यापक शोध की जरूरत है ताकि इस "रहस्य" को समझा जा सके.
#सुरेश प्रताप

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Monday, 6 August 2018

कांवड़िया तांडव और "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ ------ विजय राजबली माथुर

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यदि हम अपने देश  व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर, अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं, सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं, भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैं तो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं। आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं। काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं। 
" ओ ३ म *नमः शिवाय च" कहने पर उसका मतलब यह होता है। :-
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति 
च अर्थात तथा/ एवं / और 
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप 

नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन ******

'शैव' व 'वैष्णव' दृष्टिकोण की बात कुछ विद्वान उठाते हैं तो कुछ प्रत्यक्ष पोंगापंथ का समर्थन करते हैं तो कुछ 'नास्तिक' अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथ को ही पुष्ट करते हैं। सार यह कि 'सत्य ' को साधारण जन के सामने न आने देना ही इनका लक्ष्य होता है।  शिव रात्रि  तथा सावन या श्रावण मास में सोमवार के दिन 'शिव ' पर जल चढ़ाने के नाम पर, शिव रात्रि पर भी तांडव करना और साधारण जनता का उत्पीड़न करना इन पोंगापंथियों का गोरख धंधा है। 

'परिक्रमा ' क्या थी ?: 
वस्तुतः प्राचीन काल में जब छोटे छोटे नगर राज्य (CITY STATES) थे और वर्षा काल में साधारण जन 'कृषि कार्य' में व्यस्त होता था तब शासक की ओर से राज्य की सेना नगर राज्य के चारों ओर परिक्रमा (गश्त) किया करती थी और यह सम्पूर्ण वर्षा काल में चलने वाली निरंतर प्रक्रिया थी जिसका उद्देश्य दूसरे राज्य द्वारा अपने राज्य की व अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। कालांतर में जब छोटे राज्य समाप्त हो गए तब इस प्रक्रिया का औचित्य भी समाप्त हो गया। किन्तु ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों ने अपने व अपने पोषक व्यापारियों के हितों की रक्षार्थ धर्म की संज्ञा से सजा कर शिव के जलाभिषेक के नाम पर 'कांवड़िया ' प्रथा का सूत्रपात किया जो आज भी अपना तांडव जारी रखे हुये है। क्या दमित, क्या, पिछ्ड़ा, क्या महिलाएं सभी इस ढोंग को प्रसारित करने में अग्रणी हैं। 


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 4 August 2018

किसान बनने की इच्छुक अवंतिका बनीं मिसेज इंडिया

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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश