संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Saturday, 12 December 2020
किसानों का बहिष्कार और जियो फ़ेसबुक
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Tuesday, 24 November 2020
भजन गायिका से अभद्रता , कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ?
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संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Sunday, 22 November 2020
होमवती देवी : पश्चिमी उत्तर - प्रदेश की महादेवी वर्मा
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संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Friday, 18 September 2020
पीएम का टैटू बनवाने वाली ऋद्धि शर्मा बेरोजगार ------ प्रभा सिंह
बड़ी खबर : बेरोजगार हो गयी पीएम मोदी का टैटू बनवाने वाली रांची की लड़की, फुटपाथ पर जूता चप्पल का कारोबार भी बंद करना पड़ा, पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर बनवायी थी टैटू :
आज पूरे देश में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है. युवा रोजगार की तलाश कर रहे है और सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ मुहीम चला रहे है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर भी युवाओ ने राष्ट्रिय बेरोजगारी दिवस मनाकर अपने आक्रोश का इजहार किया था. इन सब के बीच रांची के नामकुम की रहने वाली रिद्धि शर्मा की खबर भी आप तक पहुंचनी जरूरी है. रांची लाइव की टीम ने रिद्धि शर्मा के परिवार से संपर्क किया और पीएम मोदी की सबसे बड़ी फैन रिद्धि शर्मा के मौजूदा हालात की जानकारी लेने की कोशिश की. रिद्धि शर्मा उस समय मीडिया की हैडलाइन बन गयी थी जब 2019 में कश्मीर से अनुछेद 370 हटाया गया था. रिद्धि ने इस फैसले से खुश होकर रांची के टैटू पार्लर में अपनी पीठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टैटू बनवायी थी. तब उनकी खूब चर्चा हुई थी. मगर समय के साथ रिद्धि अपने जीवन में व्यस्त हो गयी, और लोग भी उन्हें भूल गए.
बेरोजगार हो गयी रिद्धि :
पीएम मोदी की सबसे बड़ी फैन रिद्धि शर्मा ने अपने महीने की पूरी कमाई से ज्यादा पीएम के तस्वीर का टैटू बनवाने में खर्च कर दिए थे. रिद्धि उस समय एक दूकान में काम करती थी, और उनकी पगार 6000 रुपये महीना थी. इंटर पास रिद्धि ने पीएम का टैटू बनवाने के लिए अपने दोस्तों से भी आर्थिक मदद ली. तकरीबन 8 से 10 हज़ार में रिद्धि ने अपनी पीठ पर टैटू बनवाया. मगर इस साल लॉकडाउन के कारण दुकानदार की कमर टूट गयी और उन्होंने रिद्धि को काम से निकाल दिया. जैसे तैसे रिद्धि ने फुटपाथ पर चप्पल जूता बेचना शुरू किया मगर हालात ने इसमें भी उसका साथ नहीं दिया. कारोबार मंदा हो गया और रिद्धि को बड़ा नुकसान हुआ. फिलहाल रिद्धि बेरोजगार है और अपने घर में ही परिवार का हाथ बटा रही है. रिद्धि ने काम के लिए कई जगहों पर आवेदन दिया हुआ है, मगर आज तक कहीं से कोई जवाब नहीं मिला.
पिता नहीं चाहते थे रिद्धि टैटू बनवाये :
नामकुम के कैलाश नगर के छोटे से मकान में रिद्धि और उनका परिवार रहता है. परिवार में रिद्धि अपने भाई, माँ और पिता के साथ रहती है. रिद्धि के पिता नरेश शर्मा नामकुम स्टेशन के पास फुटपाथ पर तिरपाल लगाकर नाइ की छोटी सी दूकान चलाते है. घर की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है. पेशे से नाइ होने के कारण दूकान भी लॉकडाउन में लंबे समय तक बंद रहा. नरेश शर्मा का पूरा परिवार आर्थिक तंगहाली में घिर गया. जैसे तैसे नाइ की दूकान अनलॉक होते ही पिता नरेश शर्मा ने कुछ पैसे जुटाए और काम शुरू किया. अभी भी बाज़ार मंदा होने के कारण नरेश दिनभर में ज्यादा नहीं कमा पाते. बस खाने और घर के छोटे मोटे खर्चो का जुगाड़ हो जाता है. नरेश शर्मा ने बताया कि रिद्धि का टैटू बनवाना उन्हें कभी पसंद नहीं था. मगर बेटी ने पिता की इक्षा के खिलाफ जाकर टैटू बनवाया. उस समय रिद्धि उतना नहीं कमाती थी जिससे वो टैटू बनवा सके. परिवार भी आर्थिक रूप से कमजोर था.
आजतक बीजेपी नेताओ और कार्यकर्ताओ ने नहीं ली सुध :
खुद को कार्यकर्ताओ की पार्टी बताने वाली बीजेपी ने आजतक अपनी सबसे बड़ी फैन रिद्धि शर्मा की सुध नहीं ली. यहाँ तक की रिद्धि जब अखबारों की सुर्खियां बन रही थी तब भी किसी नेता या कार्यकर्त्ता ने रिद्धि के परिवार वालो से मुलाक़ात नहीं की. लॉकडाउन के कारण रिद्धि शर्मा के परिवार की स्थिति दयनीय हो गयी है. परिवार में नरेश शर्मा के अलावा उनका बेटा पार्ट टाइम जॉब करता है. जिससे थोड़े बहुत खर्चे निपट जाते है. नरेश शर्मा ने बताया कि राजनीति करने वाले केवल अपना फायदा देखते है. कोई नेता किसी का नहीं होता है. अगर ऐसा होता तो आज रिद्धि शर्मा बेरोजगार नहीं होती.
https://www.facebook.com/prabha.singh.7528/posts/1788311814653097?__cft__[0]=AZXoGegDPDNd1gmW1iA5zAMCqTx34W3gDZiDh2oxZdzX_GiyUTyDmIgOYOrQJUjzuI5Sx8_1StIO9ygK5P-n5Q857UqGB9X0q0VWZqpcr21EjhQ2BqCYJpntap5xP8y41UoFGrBVfuVJVuzqtJ-85OB6-JK8ObH5D4xnoulCI_ddMQ&__tn__=%2CO%2CP-R
Thursday, 17 September 2020
स्वामी अग्निवेश एक जन - सन्यासी ------ प्रदीप कुमार सिंह
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संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Wednesday, 9 September 2020
रिया-सुशांत की कहानी इस शोषणकारी डूबती अर्थव्यवस्था की कहानी है ------ सीमा आजाद
अर्थव्यवस्था और रिया-सुशांत फिल्म का काला जादू
कुछ ही सप्ताह पहले तक देश भर में लगे लॉकडाउन की भयावहता के दृश्य छाये हुए थे। शहरों में काम करने वाले गांवों के मजदूर इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आये थे, कि मीडिया को अपना कैमरा उधर घुमाना ही पड़ गया। हर जगह यही चर्चा थी कि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को लॉकडाउन ने और खस्ताहाल बनाया है या यह खस्ताहाल स्थिति लॉकडाउन की वजह से आयी है। दोनों की स्थितियों के लिए सरकार पर सवाल उठ रहे थे। नौजवानों के अन्दर कितना गुस्सा भर चुका है यह 5 सितम्बर की थाली-ताली से समझा जा सकता है। हर जगह यह चिन्ता थी कि अब आगे क्या होगा, भविष्य की भयावहता डरा रही थी।
मार्च 2020 के पहले वाले जीवन में लोग जब अपने रूटीन काम से ऊब जाते थे, तो सब कुछ भुलाने के लिए सीरियल या फिल्म देख लिया करते थे। फिल्म देखने के दौरान और उसके आगे-पीछे के समय में भी काफी देर तक इंसान अपनी परेशानियों से बाहर निकलकर फिल्म की चमकीली दुनिया में, पोशाक और मेकअप में खोया रहता है। लेकिन अभी फिल्मे बंद हैं और टीवी पर कितना भी चीन पाकिस्तान चिल्लाया जाय, अर्थव्यवस्था के रसातल में जाने का असर दिख ही जाता है। ऐसी स्थिति में सुशांत-रिया मामला एक ऐसी फिल्म के रूप में लोगों के सामने पेश कर दिया गया है, जिसमें हीरो-हिरोइन, खलनायक-खलनायिका, प्यार-धोखा, सेक्स और सस्पेंस सब कुछ है। बताने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म का प्रोड्यूसर सरकार और वितरक मीडिया है। इन मीडिया वितरकों के माध्यम से यह फिल्म/सीरियल घर-घर में देखा जा रहा है। लोगों ने अपनी-अपनी समझ के हिसाब से नायक/नायिका और खलनायक/खलनायिका चुन लिया है। देश की अर्थव्यवस्था के गर्त में जाने की चर्चा इसके बहुत पीछे छूट गयी है। इसका असर इतना व्यापक है कि काफी समय तक जो लोग इस फिल्म के प्रकोप से बच रहे थे या भाग रहे थे, वे भी इसे देखने के लिए और अपने नायक/नायिका, खलनायक/खलनायिका चुनने के लिए मजबूर हो गये हैं। फिल्म की महिला पात्र के साथ जिस तरीके का ट्रीटमेंट किया जा रहा है, प्रगतिशील लोगों का उसके पक्ष में आवाज उठना स्वाभाविक है, आवाज उठी भी। इसके पहले भी मीडिया कईयों के साथ यूं ही गिद्ध चाल दिखा चुका है। रिया पर इस तरीके से टूट पड़ने का दृश्य सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद एक पुराना दृश्य फिर से घूम रहा है, जब 2007 में बच्चों से यौनकर्म कराने के आरोप में एक शिक्षिका को भीड़ और मीडिया ने न सिर्फ घसीटा, बल्कि उसके कपड़े भी फाड़ दिये थे। याद करेंगे तो और कई ऐसे दृश्य और घटनायें याद आयेंगे। मीडिया के इस गिद्ध चरित्र को भी नायक पक्ष के लोगों ने सही माना, दूसरी ओर इसके बाद ही रिया के पक्ष में लिखने बोलने वालों की संख्या बढ़ गयी। मीडिया द्वारा वितरित इस फिल्म को फॉलो करने वालों और इस पर बोलने वालों की संख्या बढ़ गयी। (यह लिखकर मैं भी इसमें शामिल हो गयी) इसी बीच भीमा कोरेगांव साजिश केस में कबीर कलामंच के तीन कलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें एक ज्योति जगताप को पुलिस ने पीछा करते हुए पकड़ा है, लेकिन यह सुशांत-रिया की फिल्म में कहीं दब गया। हवाई अड्डे बिक गये, शिक्षा को बरबाद और लोगों को अशिक्षित करने वाली शिक्षा नीति आ गयी, रेलवे बेंच दिया गया, एलआईसी बेंचने की तैयारी है, श्रम कानून खतम हो गये। लाखों लोग एक झटके में सड़क पर आ गये, अर्थव्यवस्था डूब चुकी है, लेकिन इन सब पर बातों और चर्चा की जगह सुशांत-रिया की इस सरकारी फिल्म ने ले लिया है।
सुशांत-रिया इस समाज का हिस्सा हैं, इसलिए उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन ऐसे समय में ये चुनाव का मुद्दा बन जाय, तो इसे कोई बड़ी साजिश ही कही जा सकती है। काला जादू रिया ने सुशांत पर नहीं सरकार ने मीडिया के माध्यम से हम पर किया है, जिसके कारण हम सच्चाई देखना भूल गये हैं। रिया-सुशांत की कहानी इस शोषणकारी डूबती अर्थव्यवस्था की कहानी है। यह बॉलीबुड के चमक-धमक के पीछे बहते गन्दे गटर की कहानी है। राजदीप सरदेसाई को दिये गये रिया के इण्टरव्यू में दरअसल उसके सही होने की बात से ज्यादा इसी गटर की कहानी है। जहां इफरात पैसा है, और यह पैसा सिर्फ फिल्म की कमाई का पैसा नहीं है। जहां नशे का बड़ा व्यापार है, जिसमें इण्डस्ट्री के ज्यादातर लोग किसी न किसी रूप में शामिल हैं। जहां पैसे से पैसे को खींचने के लिए कम्पनियां (सुशांत रिया और शौविक ने आर्टिफीशिएल इंटेलिजेंस कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कराया) और एनजीओ खोलते जाने का धन्धा है। जहां सफल लोगों के कदमों में हर सुख-सुविधा है, लेकिन उनका जीवन कई मनोचिकित्सकों के भरोसे और नींद किसी नशे के भरोसे है। जहां बेइन्तहां पैसा खर्चकर लोग विदेश जाते हैं कि वहां वे सड़क पर घूमेंगे, लेकिन किसी अनजाने डर से खुद को कमरे में बन्द कर लेते हैं। ये किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं, इस ग्लैमर की दुनिया के पीछे का सच है, जो समय-समय पर किसी न किसी के माध्यम से बाहर आता रहता है। कभी परवीन बॉबी, कभी संजय दत्त तो कभी सुशांत या रिया। जहां महिलाओं के शारीरिक शोषण की खबरें भी आती रहती हैं और ये यहां के लिए आम बात मानी जाती है। रिया भले ही अपनी लड़ाई को पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई कह रही हैं, लेकिन अपने इण्टरव्यू में पितृसत्तात्मक लम्पटई के खिलाफ खड़े हुए ‘मी टू’ आन्दोलन के प्रति उनका नजरिया सकारात्मक नहीं लगता। ‘मी टू’ आन्दोलन के समय भी फिल्म इण्डस्ट्री के इस गटर की बदबू सामने आई थी, जिसे खुशबू छिड़ककर दूर करने की कोशिश की गयी। रिया सुशान्त की कहानी को इस समाज की इस ‘एलीट’ संस्था के एक नमूने के तौर पर ही देखना चाहिए। यह ऐसी संस्था है, जो हो सकता है अपने अन्दर की इस कहानी पर ही जल्द ही फिल्म बनाकर कमाई कर डाले।
पूरे देश की अर्थव्यवस्था डूबने का असर फिल्म इण्डस्ट्री पर भी हुआ है, लॉकडाउन ने इस कहर को और बढ़ाया है, बहुत सारे कलाकारों के अवसाद में जाने की खबरें लगातार आ रही हैं। हो सकता है सुशांत की मौत भी उसका हिस्सा हो।
जो भी हो, मीडिया में धारावाहिक के रूप में प्रसारित हो रही इस फिल्म ने क्योंकि सरकार की नाकामी की बहस को पीछे छोड़ने का काम किया है, क्योंकि यह इस समय में बिहार चुनाव और महाराष्ट्र की राजनीति का केन्द्रीय मुद्दा बन गया है, जब रोजगार का सवाल एक बड़ा सवाल है। क्योंकि यह दो-तीन हिन्दुत्ववादी राजनीति पार्टियों का फुटबाल मैच हो गयी है, क्योंकि हम इसके कारण अपने हालात भूल बैठे हैं इसलिए इसपर सवाल तो उठता ही है कि यह मुद्दा था या सरकार हम पर काला जादू करने के लिए इस धारावाहिक फिल्म का प्रसारण कर रही है।
इस काला जादू से जितनी जल्दी निकल जायं, उतना अच्छा है।
सीमा आज़ाद
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Thursday, 3 September 2020
Wednesday, 2 September 2020
Saturday, 22 August 2020
Friday, 21 August 2020
Tuesday, 18 August 2020
Thursday, 13 August 2020
कांग्रेस की दीवारों की ईंटों से बीजेपी का महल ------ शकीब रहमान
कांगेसी संघियों ने कांग्रेस की दीवारों की ईंटों से बीजेपी का महल बना दिया......
इस पर बात करने के लिए थोड़ा इतिहास में जाना होगा.....
1925 में ब्राह्मणवादी विचारधारा के पुरोधा केशव राव बलीराम हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की ......कांग्रेस तब तक इतने बड़े किले में परिवर्तित हो चुकी थी कि हेडगेवार उसको हिला भी नहीं सकते थे....
एक बात गौरतलब है कि कांग्रेस भले एक पार्टी है लेकिन शुरू से ही वो कई विचारधाराओं का संगम रहा है...इसलिए कांग्रेस में इनकी दाल उस तरह से गल नहीँ रही थीं जैसा कि वे चाहते थें.....
वैसे इसी समय ब्राह्मणवादी विचारों को पोषित करने वाली हिन्दू महासभा भी थी ....लेकिन अन्य लोगों को वो जोड़ नहीं पा रही थीं....
तब आरएसएस राजनीति के शतरंज के बिसात पर एक नई चाल चलती है कि जनसंघ नामक अपना एक स्थायी आवास बनाओ ( जो कि बाद में बीजेपी नामक्रम में परिवर्तित हो गई ) और जब तक ये घर बन नही जाता है...तब तक कांग्रेस में रह कर उसकी जड़े खोदो...
हुआ भी यही.... संघी कांग्रेस में शामिल होकर कांग्रेस के किले की ईंटें ले जाकर आरएसएस (जनसंघ ) को मज़बूत करते रहें यही कारण है कि कुछ लोग कांग्रेस को आरएसएस की जननी तक कह देते हैं....
ये कांग्रेस से जोंक की तरह चिपककर उसका खून पीकर आरएसएस को रक्तदान करते रहें...
1980 में मण्डल कमिशन की शिफारिशों को कुँए में डलवाने वाला कांग्रेस का यही धड़ा था....क्योंकि इसमे भूखे पिछडो के लिए कुछ निवाला था जो कि ब्राह्मणवादियों की थाली से जाने वाला था....
सोंचिए 1980 में इसे लागू न करने देने से पिछडो का कितना नुकसान हुआ...
1984 में दिल्ली में सिखों के ख़िलाफ़ तांडव भी इन्ही संघियों ने किया था...
इन पर नेहरू जी का नियंत्रण
इंद्रा पर आकर कमज़ोर हुआ .....और...राजीव तक आते - आते खत्म हो गया.... इसलिए 1987 का हाशिमपुरा नरंसहार और 1989 का भागलपुर दंगा प्रायोजित किया जाता है.....कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस को मुसलमानों के ख़िलाफ़ दंगा करवाने से उसका खुद का ही नुकसान होगा फिर वो ऐसा क्यों करेगी......क्योंकि ऐसा करवाने वाले समाजवादी कांग्रेसी नहीं बल्कि संघी कांग्रेसी होते थें.....जिनको कांग्रेस को खोखला कर बीजेपी की रीढ़ मज़बूत करना था....यही संघी धड़ा राजीव गांधी से मस्ज़िद का ताला खुलवाता है....
1998 में संघी आवास की इमारत का ढाँचा तो बन गया लेकिन मुकम्मल घर 2014 मे जाकर तैयार हुआ...
अब आप कहेंगे....जब संघियों का स्थायी आवास बीजेपी ( आरएसएस ) बन गया है तो सारे संघी कांग्रेस को छोड़कर वहाँ चले क्यों नही जाते हैं...??
पहली बात ...एक घर मे शामिल होने की एक सीमा भी तो होती है....
दूसरी बात ....ये गोलवलकर की संतानें बहुत चालाक होते है...हमेशा अपने लिए एक विकल्प बनाए रखते हैं...
तीसरी बात ...अगर सारे वहाँ चले जाएँगे तो मोदी विरोध के प्लेटफार्म पर बहुजनों का कब्ज़ा हो जाएगा....फिर ये बहुजन एससी , एसटी ,ओबीसी और अल्पसख्यकों के हक़ की बात उठाने लगेंगे....तो इससे ब्राह्मणवाद का नुकसान होगा न....और बीजेपी भी यही चाहती है कि उसके विरोध के प्लेटफार्म पर भी कांग्रेसी संघी ही काबिज रहें....
इसलिए ये मोदी को गरियाते हुए आपको उन्ही मुद्दों में उलझाए रखते हैं जिससे ब्राह्मणवादी हितों का नुकसान न हो तभी तो कोरोना पर ये भले 100 बातें कर देंगे लेकिन न्यायपालिका में आरक्षण , मण्डल कमीशन , एससी- एसटी एक्ट 1989 , सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग, कुंडू कमेटी.......अनुच्छेद 341 जैसे विषयों पर दो शब्द भी खर्च करना ज़रूरी नहीं समझेंगे....क्योंकि ये सारे विषय इनके ब्राह्मणवादी शहद में कड़वाहट डाल देते हैं....
साभार :
https://www.facebook.com/shakeeb.rahman.786/posts/345550383279126?__cft__[0]=AZW5axvrRl0j5oZ07kzz9Hby979zAXQ3b6gA2iwxm4-JjMqgWw5JUWxQAzgT1X2tLPZn1inc6p7EIIW5oMTYZvTh8FC20pzAzj9zpBL2oNEov2Jh1qqDA_fvr_F-fO9Wk560l3O_oMFJg6pP2l0Rhfzj&__tn__=%2CO%2CP-R
इस पर बात करने के लिए थोड़ा इतिहास में जाना होगा.....
1925 में ब्राह्मणवादी विचारधारा के पुरोधा केशव राव बलीराम हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की ......कांग्रेस तब तक इतने बड़े किले में परिवर्तित हो चुकी थी कि हेडगेवार उसको हिला भी नहीं सकते थे....
एक बात गौरतलब है कि कांग्रेस भले एक पार्टी है लेकिन शुरू से ही वो कई विचारधाराओं का संगम रहा है...इसलिए कांग्रेस में इनकी दाल उस तरह से गल नहीँ रही थीं जैसा कि वे चाहते थें.....
वैसे इसी समय ब्राह्मणवादी विचारों को पोषित करने वाली हिन्दू महासभा भी थी ....लेकिन अन्य लोगों को वो जोड़ नहीं पा रही थीं....
तब आरएसएस राजनीति के शतरंज के बिसात पर एक नई चाल चलती है कि जनसंघ नामक अपना एक स्थायी आवास बनाओ ( जो कि बाद में बीजेपी नामक्रम में परिवर्तित हो गई ) और जब तक ये घर बन नही जाता है...तब तक कांग्रेस में रह कर उसकी जड़े खोदो...
हुआ भी यही.... संघी कांग्रेस में शामिल होकर कांग्रेस के किले की ईंटें ले जाकर आरएसएस (जनसंघ ) को मज़बूत करते रहें यही कारण है कि कुछ लोग कांग्रेस को आरएसएस की जननी तक कह देते हैं....
ये कांग्रेस से जोंक की तरह चिपककर उसका खून पीकर आरएसएस को रक्तदान करते रहें...
1980 में मण्डल कमिशन की शिफारिशों को कुँए में डलवाने वाला कांग्रेस का यही धड़ा था....क्योंकि इसमे भूखे पिछडो के लिए कुछ निवाला था जो कि ब्राह्मणवादियों की थाली से जाने वाला था....
सोंचिए 1980 में इसे लागू न करने देने से पिछडो का कितना नुकसान हुआ...
1984 में दिल्ली में सिखों के ख़िलाफ़ तांडव भी इन्ही संघियों ने किया था...
इन पर नेहरू जी का नियंत्रण
इंद्रा पर आकर कमज़ोर हुआ .....और...राजीव तक आते - आते खत्म हो गया.... इसलिए 1987 का हाशिमपुरा नरंसहार और 1989 का भागलपुर दंगा प्रायोजित किया जाता है.....कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस को मुसलमानों के ख़िलाफ़ दंगा करवाने से उसका खुद का ही नुकसान होगा फिर वो ऐसा क्यों करेगी......क्योंकि ऐसा करवाने वाले समाजवादी कांग्रेसी नहीं बल्कि संघी कांग्रेसी होते थें.....जिनको कांग्रेस को खोखला कर बीजेपी की रीढ़ मज़बूत करना था....यही संघी धड़ा राजीव गांधी से मस्ज़िद का ताला खुलवाता है....
1998 में संघी आवास की इमारत का ढाँचा तो बन गया लेकिन मुकम्मल घर 2014 मे जाकर तैयार हुआ...
अब आप कहेंगे....जब संघियों का स्थायी आवास बीजेपी ( आरएसएस ) बन गया है तो सारे संघी कांग्रेस को छोड़कर वहाँ चले क्यों नही जाते हैं...??
पहली बात ...एक घर मे शामिल होने की एक सीमा भी तो होती है....
दूसरी बात ....ये गोलवलकर की संतानें बहुत चालाक होते है...हमेशा अपने लिए एक विकल्प बनाए रखते हैं...
तीसरी बात ...अगर सारे वहाँ चले जाएँगे तो मोदी विरोध के प्लेटफार्म पर बहुजनों का कब्ज़ा हो जाएगा....फिर ये बहुजन एससी , एसटी ,ओबीसी और अल्पसख्यकों के हक़ की बात उठाने लगेंगे....तो इससे ब्राह्मणवाद का नुकसान होगा न....और बीजेपी भी यही चाहती है कि उसके विरोध के प्लेटफार्म पर भी कांग्रेसी संघी ही काबिज रहें....
इसलिए ये मोदी को गरियाते हुए आपको उन्ही मुद्दों में उलझाए रखते हैं जिससे ब्राह्मणवादी हितों का नुकसान न हो तभी तो कोरोना पर ये भले 100 बातें कर देंगे लेकिन न्यायपालिका में आरक्षण , मण्डल कमीशन , एससी- एसटी एक्ट 1989 , सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग, कुंडू कमेटी.......अनुच्छेद 341 जैसे विषयों पर दो शब्द भी खर्च करना ज़रूरी नहीं समझेंगे....क्योंकि ये सारे विषय इनके ब्राह्मणवादी शहद में कड़वाहट डाल देते हैं....
साभार :
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Monday, 3 August 2020
Wednesday, 15 July 2020
जन - विरोधी लाकडाउन का कहर
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यह लाकडाउन वस्तुतः बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है। इससे साधारण जनता, किसान, मजदूर, छोटा व्यापारी, निजी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारी सभी त्रस्त हो रहे हैं । सरकारी आदेश है 50% कर्मचारियों को ही ड्यूटी पर बुलाने का अतः प्रतिष्ठानों के मालिक कर्मचारियों को अधिकतम आधा ही पारिश्रमिक भुगतान कर रहे हैं।
जो लोग दूसरे शहरों में कार्यरत हैं उनको मकान के किराये समेत सभी भुगतान पूरे करने हैं, सभी चीजें मेंहगी है और वेतन आधा मिल रहा है उनका ख्याल न केंद्र सरकार को है न प्रदेश सरकार को।
छोटे दुकानदार, फेरी वाले सभी की आमदनी कम हो गई है उनका जीवन दूभर हो रहा है।
मस्त- मौला लोग लाकडाउन बढ़ते जाने की कवायद करते हैं और सरकार उनकी ख्वाहिश पूरा करके जनता का दमन तेज करती जा रही है।
विपक्षी दलों के नेतागण भी महामारी के धोखे का शिकार हैं फिर जनता का ख्याल कौन करे ? ------
यह लाकडाउन अवैध कार्य करने वालों के लिए स्वर्णिम अवसर भी लेकर आया है। प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग से संबंधित कुछ प्राचार्य / अधिकारी जो पहले से ही अपने पद का दुरुपयोग करके कार्यस्थल क्षेत्र के खेत खरीद कर प्रापर्टी डीलिंग में संलग्न थे लाकडाउन काल में तेजी से निर्माण कराने में भी सफल रहे। इनके विरुद्ध किसी कारवाई के बजाए सत्ता का वरद - हस्त होने से यह लोगों को भयभीत करके मन - मुराद पूरी करने के लिए लाकडाउन को मुफीद पाते हैं और ऐसे ही सारे लोग मिल कर सरकार से बार - बार लाकडाउन बढ़वा लेते हैं। महामारी के भय के आगे जनता तो बेबस है ही विपक्षी दलों द्वारा भी कर्तव्य पालन नहीं किया जाना जनता की बर्बादी का हेतु बन रहा है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
यह लाकडाउन वस्तुतः बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है। इससे साधारण जनता, किसान, मजदूर, छोटा व्यापारी, निजी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारी सभी त्रस्त हो रहे हैं । सरकारी आदेश है 50% कर्मचारियों को ही ड्यूटी पर बुलाने का अतः प्रतिष्ठानों के मालिक कर्मचारियों को अधिकतम आधा ही पारिश्रमिक भुगतान कर रहे हैं।
जो लोग दूसरे शहरों में कार्यरत हैं उनको मकान के किराये समेत सभी भुगतान पूरे करने हैं, सभी चीजें मेंहगी है और वेतन आधा मिल रहा है उनका ख्याल न केंद्र सरकार को है न प्रदेश सरकार को।
छोटे दुकानदार, फेरी वाले सभी की आमदनी कम हो गई है उनका जीवन दूभर हो रहा है।
मस्त- मौला लोग लाकडाउन बढ़ते जाने की कवायद करते हैं और सरकार उनकी ख्वाहिश पूरा करके जनता का दमन तेज करती जा रही है।
विपक्षी दलों के नेतागण भी महामारी के धोखे का शिकार हैं फिर जनता का ख्याल कौन करे ? ------
यह लाकडाउन अवैध कार्य करने वालों के लिए स्वर्णिम अवसर भी लेकर आया है। प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग से संबंधित कुछ प्राचार्य / अधिकारी जो पहले से ही अपने पद का दुरुपयोग करके कार्यस्थल क्षेत्र के खेत खरीद कर प्रापर्टी डीलिंग में संलग्न थे लाकडाउन काल में तेजी से निर्माण कराने में भी सफल रहे। इनके विरुद्ध किसी कारवाई के बजाए सत्ता का वरद - हस्त होने से यह लोगों को भयभीत करके मन - मुराद पूरी करने के लिए लाकडाउन को मुफीद पाते हैं और ऐसे ही सारे लोग मिल कर सरकार से बार - बार लाकडाउन बढ़वा लेते हैं। महामारी के भय के आगे जनता तो बेबस है ही विपक्षी दलों द्वारा भी कर्तव्य पालन नहीं किया जाना जनता की बर्बादी का हेतु बन रहा है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Tuesday, 14 July 2020
नेपाल से सम्बन्ध बिगाड़ना घातक होगा ------ अतुल सती जोशीमठ
स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
पहले नया नक्शा पास किया । विवादित क्षेत्र अपने नक्शे में दर्शाए । फिर सीमा पर तनाव की स्थिति बनाई । भारतीय न्यूज चैनल पर प्रतिबंध लगाया । अब यह बयान अयोध्या राम आदि पर आया है ।
शुरू में यह मात्र भारतीय विस्तारवाद की राजनैतिक लाइन पर ही बात थी । जो कि नेपाल में वर्षों से प्रमुख मुद्दा रहा है । सीमा विवाद भी बहुत समय से है । और उस पर कोई बात न होने के चलते वह बढ़ता गया है । नेपाल में आये भूकम्प के बाद भारतीय सरकार की प्रतिक्रिया से जो नाराजगी बनी थी उसने इसमें थोड़ा और बढ़ोतरी की थी । भारत की सरकार के नाकेबंदी वाले कदम ने भी सम्बन्धों को कडुवाहट में बदलने के साथ नेपाल को चीन के और करीब किया । उसके बाद नोटबन्दी विवाद ने इस खाई को और चौड़ा और गहरा किया । भारत सरकार बन्द किये करेंसी को लेने को तैयार न हुई ।
इस तरह पिछले कुछ सालों में दूरियां बढ़ती गयीं । किन्तु यह राजनैतिक थीं कूटनीतिक थीं ।
भारत नेपाल की जनता का आपसी सम्बन्ध यथावत रहता आया है । सांस्कृतिक एकता में फर्क नहीं आया । किन्तु संवादहीनता ने व भारतीय मीडिया की प्रतिक्रिया ने वापसी के संवाद के रास्ते भी बन्द करने शुरू किए । नेपाल भारत की सेना के तुनात्मक व्यौरे दिए जाने लगे । नेपाल के प्रधानमंत्री के चीनी राजदूत के साथ रिश्ते जोड़ते हुए अनाप शनाप , बेहूदा भाषा में खबरें चलाई जाने लगी । इसकी प्रतिक्रिया वहां से होनी ही थी हुई । किन्तु सरकार की तरफ से आधिकारिक रूप से कोई पहल नहीं दिखाई दी ।
अब जो बयान आया है नेपाल के प्रधानमंत्री का वह ज्यादा चिंताजनक व गम्भीर है । अयोध्या राम को लेकर । भले ही उसको लेकर तमाम हंसी ठिठोली हो रही है , पर यह गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए । क्योंकि अब तक जो भी हुआ वह राजनैतिक कूटनीतिक दूरी ही बन रही थी । जो भविष्य में सरकारों के बदलने पर सामान्य हो सकती थी । जिसमें बातचीत, समझौते, सन्धियों के जरिये पुनः सम्बन्धों को पटरी पर लाया जा सकता था, पुनर्बहाल किया जा सकता था । किंतु यह बयान भारत नेपाल के बीच जो सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं वर्षो वर्ष से उस पर चोट है । उन सम्बन्धों को भी समाप्त करने की तरफ पहल है । भारत नेपाल की जनता के मध्य जो रोटी बेटी का नाता रहा है यह बयान उन रिश्तों को चुनौती है । इसलिए इस बयान को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए । किन्तु भारत में जिस तरह का माहौल बना दिया गया है और शीर्ष नेतृत्व जिस तरह की आत्ममुग्धता और अहम का शिकार है उसमें यह उम्मीद करना कि वह इसकी गम्भीरता को
समझ कोई पहल करेगा, बेमानी है ।
सोसियल मीडिया में तो इस बयान का हल्के फुल्के में मजा लिया जा सकता है पर वास्तविक समाज में यह भविष्य में बड़ी चुनौती बनेगा ।
चीन ने धमकाते हुए कहा ही है कि यदि भारत ने सीमा पर गलती की तो तीन तरफ से मोर्चे खुलेंगे । अमेरिका इजरायल बहुत दूर हैं आग लगेगी तो पानी लेकर दौड़े भी तो तब तक सब राख हो चुकेगा । पड़ोसी बदले नहीं जा सकते वक़्त जरूरत वही बाल्टी ले खड़े हो सकते हैं । उनसे सम्बन्ध बिगाड़ना घातक होगा । खासकर नेपाल से ।
साभार :
https://www.facebook.com/atul.sati.5/posts/3148336838577510?__cft__[0]=AZWzBo4Hsjdfmeq6yXd-C8yncD41onjwTEZbdXp9ijw2w53bllxauTNZcFWkmTIHMZ_-8xX79ryEMwtJVtOw133K4o1F9LQMCDM3pgWV-4MLireRMGtKvaiUy6m-ga-DvJ9yVYkRhC6dWe_Ix1jBtvbP&__tn__=%2CO%2CP-R
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
( नेपाली प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली का दावा कि अयोध्या और राम नेपाल के थे तो गलत हो सकता है परंतु अवध क्षेत्र पुराने फैजाबाद वाली अयोध्या को सम्राट हर्ष वर्द्धन ने ' साकेत ' नाम से बसाया था । त्रेता वाली अयोध्या तो वस्तुतः वह नहीं है । )
------ विजय राजबली माथुर
14-07-2020
पहले नया नक्शा पास किया । विवादित क्षेत्र अपने नक्शे में दर्शाए । फिर सीमा पर तनाव की स्थिति बनाई । भारतीय न्यूज चैनल पर प्रतिबंध लगाया । अब यह बयान अयोध्या राम आदि पर आया है ।
शुरू में यह मात्र भारतीय विस्तारवाद की राजनैतिक लाइन पर ही बात थी । जो कि नेपाल में वर्षों से प्रमुख मुद्दा रहा है । सीमा विवाद भी बहुत समय से है । और उस पर कोई बात न होने के चलते वह बढ़ता गया है । नेपाल में आये भूकम्प के बाद भारतीय सरकार की प्रतिक्रिया से जो नाराजगी बनी थी उसने इसमें थोड़ा और बढ़ोतरी की थी । भारत की सरकार के नाकेबंदी वाले कदम ने भी सम्बन्धों को कडुवाहट में बदलने के साथ नेपाल को चीन के और करीब किया । उसके बाद नोटबन्दी विवाद ने इस खाई को और चौड़ा और गहरा किया । भारत सरकार बन्द किये करेंसी को लेने को तैयार न हुई ।
इस तरह पिछले कुछ सालों में दूरियां बढ़ती गयीं । किन्तु यह राजनैतिक थीं कूटनीतिक थीं ।
भारत नेपाल की जनता का आपसी सम्बन्ध यथावत रहता आया है । सांस्कृतिक एकता में फर्क नहीं आया । किन्तु संवादहीनता ने व भारतीय मीडिया की प्रतिक्रिया ने वापसी के संवाद के रास्ते भी बन्द करने शुरू किए । नेपाल भारत की सेना के तुनात्मक व्यौरे दिए जाने लगे । नेपाल के प्रधानमंत्री के चीनी राजदूत के साथ रिश्ते जोड़ते हुए अनाप शनाप , बेहूदा भाषा में खबरें चलाई जाने लगी । इसकी प्रतिक्रिया वहां से होनी ही थी हुई । किन्तु सरकार की तरफ से आधिकारिक रूप से कोई पहल नहीं दिखाई दी ।
अब जो बयान आया है नेपाल के प्रधानमंत्री का वह ज्यादा चिंताजनक व गम्भीर है । अयोध्या राम को लेकर । भले ही उसको लेकर तमाम हंसी ठिठोली हो रही है , पर यह गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए । क्योंकि अब तक जो भी हुआ वह राजनैतिक कूटनीतिक दूरी ही बन रही थी । जो भविष्य में सरकारों के बदलने पर सामान्य हो सकती थी । जिसमें बातचीत, समझौते, सन्धियों के जरिये पुनः सम्बन्धों को पटरी पर लाया जा सकता था, पुनर्बहाल किया जा सकता था । किंतु यह बयान भारत नेपाल के बीच जो सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं वर्षो वर्ष से उस पर चोट है । उन सम्बन्धों को भी समाप्त करने की तरफ पहल है । भारत नेपाल की जनता के मध्य जो रोटी बेटी का नाता रहा है यह बयान उन रिश्तों को चुनौती है । इसलिए इस बयान को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए । किन्तु भारत में जिस तरह का माहौल बना दिया गया है और शीर्ष नेतृत्व जिस तरह की आत्ममुग्धता और अहम का शिकार है उसमें यह उम्मीद करना कि वह इसकी गम्भीरता को
समझ कोई पहल करेगा, बेमानी है ।
सोसियल मीडिया में तो इस बयान का हल्के फुल्के में मजा लिया जा सकता है पर वास्तविक समाज में यह भविष्य में बड़ी चुनौती बनेगा ।
चीन ने धमकाते हुए कहा ही है कि यदि भारत ने सीमा पर गलती की तो तीन तरफ से मोर्चे खुलेंगे । अमेरिका इजरायल बहुत दूर हैं आग लगेगी तो पानी लेकर दौड़े भी तो तब तक सब राख हो चुकेगा । पड़ोसी बदले नहीं जा सकते वक़्त जरूरत वही बाल्टी ले खड़े हो सकते हैं । उनसे सम्बन्ध बिगाड़ना घातक होगा । खासकर नेपाल से ।
साभार :
https://www.facebook.com/atul.sati.5/posts/3148336838577510?__cft__[0]=AZWzBo4Hsjdfmeq6yXd-C8yncD41onjwTEZbdXp9ijw2w53bllxauTNZcFWkmTIHMZ_-8xX79ryEMwtJVtOw133K4o1F9LQMCDM3pgWV-4MLireRMGtKvaiUy6m-ga-DvJ9yVYkRhC6dWe_Ix1jBtvbP&__tn__=%2CO%2CP-R
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
( नेपाली प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली का दावा कि अयोध्या और राम नेपाल के थे तो गलत हो सकता है परंतु अवध क्षेत्र पुराने फैजाबाद वाली अयोध्या को सम्राट हर्ष वर्द्धन ने ' साकेत ' नाम से बसाया था । त्रेता वाली अयोध्या तो वस्तुतः वह नहीं है । )
------ विजय राजबली माथुर
Monday, 13 July 2020
Sunday, 12 July 2020
Thursday, 9 July 2020
MASK MEDIA : सत्ता की रेड कारपेट और लाउडस्पीकर बने मीडिया का सच..------ पुण्य प्रसून बाजपेयी
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The Worldwide Lockdown May Be the Greatest Mistake in History
Tue, May 5, 2020 • Prager's Column
The idea that the worldwide lockdown of virtually every country other than Sweden may have been an enormous mistake strikes many — including world leaders; most scientists, especially health officials, doctors and epidemiologists; those who work in major news media; opinion writers in those media; and the hundreds of millions, if not billions, of people who put their faith in these people — as so preposterous as to be immoral. Timothy Egan of The New York Times described Republicans who wish to enable their states to open up as “the party of death.”
That’s the way it is today on planet Earth, where deceit, cowardice and immaturity now dominate almost all societies because the elites are deceitful, cowardly and immature.
But for those open to reading thoughts they may differ with, here is the case for why the worldwide lockdown is not only a mistake but also, possibly, the worst mistake the world has ever made. And for those intellectually challenged by the English language and/or logic, “mistake” and “evil” are not synonyms. The lockdown is a mistake; the Holocaust, slavery, communism, fascism, etc., were evils. Massive mistakes are made by arrogant fools; massive evils are committed by evil people.
The forcible prevention of Americans from doing anything except what politicians deem “essential” has led to the worst economy in American history since the Great Depression of the 1930s. It is panic and hysteria, not the coronavirus, that created this catastrophe. And the consequences in much of the world will be more horrible than in America.
The United Nations World Food Programme, or the WFP, states that by the end of the year, more than 260 million people will face starvation — double last year’s figures. According to WFP director David Beasley on April 21: “We could be looking at famine in about three dozen countries. … There is also a real danger that more people could potentially die from the economic impact of COVID-19 than from the virus itself” (italics added).
That would be enough to characterize the worldwide lockdown as a deathly error. But there is much more. If global GDP declines by 5%, another 147 million people could be plunged into extreme poverty, according to the International Food Policy Research Institute.
Foreign Policy magazine reports that, according to the International Monetary Fund, the global economy will shrink by 3% in 2020, marking the biggest downturn since the Great Depression, and the U.S., the eurozone and Japan will contract by 5.9%, 7.5% and 5.2%, respectively. Meanwhile, across South Asia, as of a month ago, tens of millions were already “struggling to put food on the table.” Again, all because of the lockdowns, not the virus.
In one particularly incomprehensible act, the government of India, a poor country of 1.3 billion people, locked down its people. As Quartz India reported on April 22, “Coronavirus has killed only around 700 Indians … a small number still compared to the 450,000 TB and 10,000-odd malaria deaths recorded every year.”
One of the thousands of unpaid garment workers protesting the lockdown in Bangladesh understands the situation better than almost any health official in the world: “We are starving. If we don’t have food in our stomach, what’s the use of observing this lockdown?” But concern for that Bangladeshi worker among the world’s elites seems nonexistent.
The lockdown is “possibly even more catastrophic (than the virus) in its outcome: the collapse of global food-supply systems and widespread human starvation” (italics added). That was published in the left-wing The Nation, which, nevertheless, enthusiastically supports lockdowns. But the American left cares as much about the millions of non-Americans reduced to hunger and starvation because of the lockdown as it does about the people of upstate New York who have no incomes, despite the minuscule number of coronavirus deaths there. Or about the citizens of Oregon, whose governor has just announced the state will remain locked down until July 6. As of this writing, a total of 109 people have died of the coronavirus in Oregon.
An example of how disinterested the left is in worldwide suffering is made abundantly clear in a front-page “prayer” by a left-wing Christian in the current issue of The Nation: “May we who are merely inconvenienced remember those whose lives are at stake.”
“Merely inconvenienced” is how the Rev. Dr. William J. Barber II, a Protestant minister and president of the North Carolina NAACP, describes the tens of millions of Americans rendered destitute, not to mention the hundreds of millions around the world rendered not only penniless but hungry. The truth is, like most of the elites, it is Barber who is “merely inconvenienced.” Indeed, the American battle today is between the merely inconvenienced and the rest of America.
Michael Levitt, professor of structural biology at Stanford Medical School and winner of the 2013 Nobel Prize in chemistry, recently stated, “There is no doubt in my mind that when we come to look back on this, the damage done by lockdown will exceed any saving of lives by a huge factor.”
To the left, anyone who questions the lockdown is driven by preference for money over lives. Typical of the left’s moral shallowness is this headline on Salon this week:
“It’s Time To Reject the Gods of Commerce: America Is a Society, Not an ‘Economy,'” with the subhead reading, “America Is About People, Not Profit Margins.”
And, of course, to smug editors and writers of The Atlantic, in article after repetitive article, the fault lies not with the lockdown but with President Donald Trump. The most popular article in The Atlantic this week is titled “The Rest of the World Is Laughing at Trump.” The elites can afford to laugh at whatever they want. Meanwhile, the less fortunate — that is, most people — are crying.
This column was originally posted on Townhall.com.
https://www.dennisprager.com/column/the-worldwide-lockdown-may-be-the-greatest-mistake-in-history/
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
The Worldwide Lockdown May Be the Greatest Mistake in History
Tue, May 5, 2020 • Prager's Column
The idea that the worldwide lockdown of virtually every country other than Sweden may have been an enormous mistake strikes many — including world leaders; most scientists, especially health officials, doctors and epidemiologists; those who work in major news media; opinion writers in those media; and the hundreds of millions, if not billions, of people who put their faith in these people — as so preposterous as to be immoral. Timothy Egan of The New York Times described Republicans who wish to enable their states to open up as “the party of death.”
That’s the way it is today on planet Earth, where deceit, cowardice and immaturity now dominate almost all societies because the elites are deceitful, cowardly and immature.
But for those open to reading thoughts they may differ with, here is the case for why the worldwide lockdown is not only a mistake but also, possibly, the worst mistake the world has ever made. And for those intellectually challenged by the English language and/or logic, “mistake” and “evil” are not synonyms. The lockdown is a mistake; the Holocaust, slavery, communism, fascism, etc., were evils. Massive mistakes are made by arrogant fools; massive evils are committed by evil people.
The forcible prevention of Americans from doing anything except what politicians deem “essential” has led to the worst economy in American history since the Great Depression of the 1930s. It is panic and hysteria, not the coronavirus, that created this catastrophe. And the consequences in much of the world will be more horrible than in America.
The United Nations World Food Programme, or the WFP, states that by the end of the year, more than 260 million people will face starvation — double last year’s figures. According to WFP director David Beasley on April 21: “We could be looking at famine in about three dozen countries. … There is also a real danger that more people could potentially die from the economic impact of COVID-19 than from the virus itself” (italics added).
That would be enough to characterize the worldwide lockdown as a deathly error. But there is much more. If global GDP declines by 5%, another 147 million people could be plunged into extreme poverty, according to the International Food Policy Research Institute.
Foreign Policy magazine reports that, according to the International Monetary Fund, the global economy will shrink by 3% in 2020, marking the biggest downturn since the Great Depression, and the U.S., the eurozone and Japan will contract by 5.9%, 7.5% and 5.2%, respectively. Meanwhile, across South Asia, as of a month ago, tens of millions were already “struggling to put food on the table.” Again, all because of the lockdowns, not the virus.
In one particularly incomprehensible act, the government of India, a poor country of 1.3 billion people, locked down its people. As Quartz India reported on April 22, “Coronavirus has killed only around 700 Indians … a small number still compared to the 450,000 TB and 10,000-odd malaria deaths recorded every year.”
One of the thousands of unpaid garment workers protesting the lockdown in Bangladesh understands the situation better than almost any health official in the world: “We are starving. If we don’t have food in our stomach, what’s the use of observing this lockdown?” But concern for that Bangladeshi worker among the world’s elites seems nonexistent.
The lockdown is “possibly even more catastrophic (than the virus) in its outcome: the collapse of global food-supply systems and widespread human starvation” (italics added). That was published in the left-wing The Nation, which, nevertheless, enthusiastically supports lockdowns. But the American left cares as much about the millions of non-Americans reduced to hunger and starvation because of the lockdown as it does about the people of upstate New York who have no incomes, despite the minuscule number of coronavirus deaths there. Or about the citizens of Oregon, whose governor has just announced the state will remain locked down until July 6. As of this writing, a total of 109 people have died of the coronavirus in Oregon.
An example of how disinterested the left is in worldwide suffering is made abundantly clear in a front-page “prayer” by a left-wing Christian in the current issue of The Nation: “May we who are merely inconvenienced remember those whose lives are at stake.”
“Merely inconvenienced” is how the Rev. Dr. William J. Barber II, a Protestant minister and president of the North Carolina NAACP, describes the tens of millions of Americans rendered destitute, not to mention the hundreds of millions around the world rendered not only penniless but hungry. The truth is, like most of the elites, it is Barber who is “merely inconvenienced.” Indeed, the American battle today is between the merely inconvenienced and the rest of America.
Michael Levitt, professor of structural biology at Stanford Medical School and winner of the 2013 Nobel Prize in chemistry, recently stated, “There is no doubt in my mind that when we come to look back on this, the damage done by lockdown will exceed any saving of lives by a huge factor.”
To the left, anyone who questions the lockdown is driven by preference for money over lives. Typical of the left’s moral shallowness is this headline on Salon this week:
“It’s Time To Reject the Gods of Commerce: America Is a Society, Not an ‘Economy,'” with the subhead reading, “America Is About People, Not Profit Margins.”
And, of course, to smug editors and writers of The Atlantic, in article after repetitive article, the fault lies not with the lockdown but with President Donald Trump. The most popular article in The Atlantic this week is titled “The Rest of the World Is Laughing at Trump.” The elites can afford to laugh at whatever they want. Meanwhile, the less fortunate — that is, most people — are crying.
This column was originally posted on Townhall.com.
https://www.dennisprager.com/column/the-worldwide-lockdown-may-be-the-greatest-mistake-in-history/
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Wednesday, 8 July 2020
..कोविड तो बहाना है, तानाशाही लाना है..------ चंद्रशेखर जोशी
45 mins ·( 08-07-2020 )
संविधान का भार खत्म
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सीबीएसई ने बच्चों के दिमाग से संविधान को हटाने की औपचारिक घोषणा कर दी है। 22 भागों में लिखे संविधान की मूल बातें अब पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं रहेंगी।
...सीबीएसई ने जूनियर कक्षाओं के पाठ्यक्रम से धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, नागरिकता, लोकतांत्रिक अधिकार संबंधी पाठों को हटा दिया है। बोर्ड ने तर्क दिया है कि कोरोना वायरस संकट के बीच विद्यार्थियों पर पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के लिए यह फैसला लिया गया है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने शैक्षणिक सत्र 2020-21 के लिए कक्षा नौवीं से 12वीं के लिए 30 प्रतिशत पाठ्यक्रम को घटाते हुए नया पाठ्यक्रम अधिसूचित किया।
...इसके मुताबिक, 10वीं कक्षा के पाठ्यक्रम से लोकतंत्र एवं विविधता, लिंग, जाति व धर्म, लोकप्रिय संघर्ष एवं आंदोलन और लोकतंत्र के लिए चुनौतियां जैसे विषय अब छात्रों को नहीं पढ़ाए जाएंगे। 11वीं कक्षा के छात्रों को संघवाद, नागरिकता, राष्टï्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और भारत में स्थानीय सरकारों के विकास से संबंधित पाठ भी नहीं पढ़ाए जाएंगे।
...इसी तरह, 12वीं कक्षा के छात्रों को भारत के अपने पड़ोसियों पाकिस्तान, म्यामां, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के साथ संबंध, भारत के आर्थिक विकास की बदलती प्रकृति, भारत में सामाजिक आंदोलन जैसे पाठों को भी हटा दिया गया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एएचआरडी) के अधिकारियों के मुताबिक पाठ्यक्रम को विद्यार्थियों का बोझ कम करने के लिए घटाया गया है।
...असल में सम्प्रभुता, समाजवाद, पन्थनिरपेक्षता, लोकतंत्र, गणराज्य और भारतीय समाज की विविधताएं भारत के संविधान का प्रमुख हिस्सा थीं। राजशाही, उपनिवेश और इसके खिलाफ संघर्षों को भी बच्चों को पढ़ाया जाता था।
...आजादी के बाद शिक्षाविदों ने तय किया कि भारत का हर बच्चा अपने समाज को समझे और समाज का निर्माण करने लायक बने। भारतीय संविधान के चौथे भाग में उल्लिखित नीति निर्देशक तत्वों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। इसमें कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाय। 1948 में डा. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित किया गया। 1952 में लक्ष्मणस्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग और 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति पर प्रस्ताव प्रकाशित किया गया। इसमें राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशल युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया।
...संभव तो यह भी है कि गणित, विज्ञान को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया जाएगा। यही हाल रहे तो लोकतंत्र के ज्ञान और इतिहास, विज्ञान की तर्क बुद्धि से कटे मर्यादाविहीन बच्चे अपना जीवन नरक बनाएंगे और देश को गर्त में धकेलेंगे।
..कोविड तो बहाना है, तानाशाही लाना है..
साभार :
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=937451653433153&id=100015049811954&__cft__[0]=AZVkryHP34gBwf-pUou9Cfxx0M7DPSUcSRzNzHQaScbddae7m7EsLWvES_sMgK-VY75eYf71ZDDJ9latpjGKXkGOmH-MO6DQb1ZIZJo2LTCKvUtZoL5JPAOgwlQRu_UxRzg2N3yfAbdWBrTaZBRD9kTx&__tn__=%2CO%2CP-R
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