Thursday, 4 August 2011

एक पुरानी याद

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Hindustan-Lucknow-04/08/2011


आज यह खबरें पढ़ कर पुरानी यादें ताजा हो गईं जिंनका जिक्र 'विद्रोही स्वर-स्वर मे' पहले भी कर चुके हैं। 1961 तक बाबूजी लखनऊ मे हुसेन गंज मे नाले के किनारे स्थित 'फख़रुद्दीन मंजिल' के निचले भाग मे किराये पर रहते थे और बरेली तबादला होने तक वहीं थे। उस समय तक नाला पाटा नहीं गया था। हम लोगों को घर के चबूतरे पर ही खड़े होकर सामने मुख्य मार्ग पर हो रही गतिविधियें दीख जाती थी । जिस गुड़िया के मेले का जिक्र इन भद्र -जनों ने किया है उसका तमाशा भी हम लोगों को घर से ही दीख जाता था। लेकिन फिर भी पास के मेले मे तो बाबूजी तीनों भाई-बहन को घुमाने ले जाते थे। कभी-कभी दिन मे साईकिल पर बैठा कर मुझे तथा अजय को मंकी-ब्रिज और डालीगंज पुलों पर लगने वाला मेला भी दिखाने ले जाते थे। तब शहीद स्मारक आज की स्थिति मे नहीं था। पिछले वर्ष तो अखबारों मे कोई खबर नहीं थी इस बार इस खबर को पढ़ कर बचपन की यादें ताजा हो गईं।

यह सच है अब इन मेलों आदि मे वह उत्साह भी नहीं होता और न ही वह स्वरूप होता है। आजकल के लोग तो प्रगतिशील हैं वे क्यों परम्पराओं को बचाने लगे?हाँ पाखंडी परम्पराओं का परिपालन जरूर किया जाता है।




    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

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