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"एक वर्ष पहले तक भारत मे महाराष्ट्र के बाहर अन्ना हज़ारे को जानने वाले कितने लोग थे?"....... " सरकार ने महज छह महीनों मे अन्ना को देश के हर आम आदमी की आवाज बना दिया"। यह कथन है हिंदुस्तान के राजनीतिक संपादक निर्मल पाठक जी का। वह आगे लिखते हैं-"अन्ना को यह समझने की जरूरत है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के सहारे जिस लोकप्रियता के शेर की सवारी वह कर रहे हैं,उसके अपने खतरे भी हैं। टीम अन्ना की यह जिद भी समझ से परे है कि उन्होने जो लोकपाल विधेयक तैयार किया है,सरकार उसे ही क्यों नहीं संसद के सामने रखती। "
पहली बार 1966 मे 'लोकपाल'की चर्चा उठी थी और इस बिल को आठ बार संसद मे पेश किया जा चुका है। अटल जी छह वर्ष प्रधानमंत्री रहे उससे पहले शांतिभूषण जी खुद कानून मंत्री रह चुके थे ,लेकिन किसी ने भी इस बिल को पारित नहीं कराया।
आज अन्ना कोई क्रांति नहीं कर रहे हैं वह तो कारपोरेट घरानों की वैसी ही मदद कर रहे हैं जैसी मनमोहन जी चाहते हैं।1991 मे वित्त मंत्री बनने के बाद मनमोहन जी ने जिन आर्थिक नीतियों को अपनाया था उनके संबंध मे अमेरिका जाकर एल के आडवाणी साहब ने कहा था कि इनहोने उनकी नीतियों को चुरा लिया है और सत्ता पाने पर उन लोगों ने इन्हीं आर्थिक नीतियों को जारी रखा जिनहोने भ्रष्टाचार को दिन दूना और रात चौगुना बढ़ाया। आज जब संसद मे मनमोहन सरकार की निंदा का प्रस्ताव का गुरुदास दास गुप्ता ने रखा तो भाजपा और कांग्रेस ने मिल कर वोटिंग की लेकिन जनता को मूर्ख समझ कर भाजपा बाहर अन्ना का समर्थन करती है और संसद मे उसकी नेता सुषमा स्वराज सरकार को लोकपाल बिल शीतकालीन सत्र मे पास करने का सुझाव देती हैं जिसे मान लिया गया।
लोक सभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप जी भी अन्ना को इलेक्ट्रानिक मेडिया का शेर ही मानते हैं ,देखिये इस स्कैन को-
अमेरिका और ब्रिटेन अपनी आर्थिक उथल-पुथल से घबरा कर भारत मे दोतरफा घेराबंदी कर रहे हैं। एक तो भारत सरकार को अमेरिका को अपना दिया ऋण वापिस न मांगने को राजी करते हैं और दूसरी ओर अन्ना को भ्रष्टाचार का मामला टूल देने का निर्देश देते हैं,जिससे भूख-बेकारी,मंहगाई आदि की मूल-भूत समस्याएँ पीछे रह जाएँ और जनता भ्रष्टाचार के जो पूंजीवाद का अनिवार्य कारक है मे उलझ कर फंस जाये।
ईस्ट इंडिया क .ने मुगलों को रिश्वत दे कर दीवानी अधिकार प्राप्त किए और इसी भ्रष्ट आचरण के बल पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। आज भी विदेशी क .रिश्वत के डैम पर ही टिकी हैं। वे ही क .अन्ना को एक करोड़ का दान दे चुकी हैं जिसमे से 2 लाख 20 हजार रु अन्ना साहब अपने जन्म दिन पर फूँक चुके हैं। यह भ्रष्टाचार नहीं है तो क्या है?कोर्ट से बचने के लिए बीमारी का बहाना करते हैं और जनता को मूर्ख बनाने के लिए अनशन का स्वांग रचते हैं।
1974 मे जे पी आंदोलन मे घुस कर संघ सत्ता तक पहुंचा फिर बोफोर्स आंदोलन मे घुस कर वी पी सरकार को नचाया-घुमाया -गिराया। अब अन्ना आंदोलन मे घुस कर एकबार फिर सत्ता हथियाने का उपक्रम किया है। आम जनता तो राजनीति समझती नहीं है पढे-लिखे लोग शोषणकारी व्यवस्था को मजबूत करने हेतु अन्ना के पीछी डटे खड़े हैं। जनता ने इस चाल को न समझा तो देश को उसी प्रकार के दुर्दिन देखने पड़ेंगे जिस प्रकार से बंगाल से बामपंथी शासन के खत्म होते ही पेट्रोल,डीजल,गैस के दाम बढ़ा कर सरकार ने दिखाये हैं और अन्ना के जाल मे उलझा कर जनता का इनसे ध्यान हटा दिया है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
"एक वर्ष पहले तक भारत मे महाराष्ट्र के बाहर अन्ना हज़ारे को जानने वाले कितने लोग थे?"....... " सरकार ने महज छह महीनों मे अन्ना को देश के हर आम आदमी की आवाज बना दिया"। यह कथन है हिंदुस्तान के राजनीतिक संपादक निर्मल पाठक जी का। वह आगे लिखते हैं-"अन्ना को यह समझने की जरूरत है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के सहारे जिस लोकप्रियता के शेर की सवारी वह कर रहे हैं,उसके अपने खतरे भी हैं। टीम अन्ना की यह जिद भी समझ से परे है कि उन्होने जो लोकपाल विधेयक तैयार किया है,सरकार उसे ही क्यों नहीं संसद के सामने रखती। "
पहली बार 1966 मे 'लोकपाल'की चर्चा उठी थी और इस बिल को आठ बार संसद मे पेश किया जा चुका है। अटल जी छह वर्ष प्रधानमंत्री रहे उससे पहले शांतिभूषण जी खुद कानून मंत्री रह चुके थे ,लेकिन किसी ने भी इस बिल को पारित नहीं कराया।
आज अन्ना कोई क्रांति नहीं कर रहे हैं वह तो कारपोरेट घरानों की वैसी ही मदद कर रहे हैं जैसी मनमोहन जी चाहते हैं।1991 मे वित्त मंत्री बनने के बाद मनमोहन जी ने जिन आर्थिक नीतियों को अपनाया था उनके संबंध मे अमेरिका जाकर एल के आडवाणी साहब ने कहा था कि इनहोने उनकी नीतियों को चुरा लिया है और सत्ता पाने पर उन लोगों ने इन्हीं आर्थिक नीतियों को जारी रखा जिनहोने भ्रष्टाचार को दिन दूना और रात चौगुना बढ़ाया। आज जब संसद मे मनमोहन सरकार की निंदा का प्रस्ताव का गुरुदास दास गुप्ता ने रखा तो भाजपा और कांग्रेस ने मिल कर वोटिंग की लेकिन जनता को मूर्ख समझ कर भाजपा बाहर अन्ना का समर्थन करती है और संसद मे उसकी नेता सुषमा स्वराज सरकार को लोकपाल बिल शीतकालीन सत्र मे पास करने का सुझाव देती हैं जिसे मान लिया गया।
लोक सभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप जी भी अन्ना को इलेक्ट्रानिक मेडिया का शेर ही मानते हैं ,देखिये इस स्कैन को-
Hindustan-Lucknow-18/08/2011
विदेशी अखबारों मे अन्ना की खूब वकालत हो रही है-अमेरिका और ब्रिटेन अपनी आर्थिक उथल-पुथल से घबरा कर भारत मे दोतरफा घेराबंदी कर रहे हैं। एक तो भारत सरकार को अमेरिका को अपना दिया ऋण वापिस न मांगने को राजी करते हैं और दूसरी ओर अन्ना को भ्रष्टाचार का मामला टूल देने का निर्देश देते हैं,जिससे भूख-बेकारी,मंहगाई आदि की मूल-भूत समस्याएँ पीछे रह जाएँ और जनता भ्रष्टाचार के जो पूंजीवाद का अनिवार्य कारक है मे उलझ कर फंस जाये।
ईस्ट इंडिया क .ने मुगलों को रिश्वत दे कर दीवानी अधिकार प्राप्त किए और इसी भ्रष्ट आचरण के बल पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। आज भी विदेशी क .रिश्वत के डैम पर ही टिकी हैं। वे ही क .अन्ना को एक करोड़ का दान दे चुकी हैं जिसमे से 2 लाख 20 हजार रु अन्ना साहब अपने जन्म दिन पर फूँक चुके हैं। यह भ्रष्टाचार नहीं है तो क्या है?कोर्ट से बचने के लिए बीमारी का बहाना करते हैं और जनता को मूर्ख बनाने के लिए अनशन का स्वांग रचते हैं।
1974 मे जे पी आंदोलन मे घुस कर संघ सत्ता तक पहुंचा फिर बोफोर्स आंदोलन मे घुस कर वी पी सरकार को नचाया-घुमाया -गिराया। अब अन्ना आंदोलन मे घुस कर एकबार फिर सत्ता हथियाने का उपक्रम किया है। आम जनता तो राजनीति समझती नहीं है पढे-लिखे लोग शोषणकारी व्यवस्था को मजबूत करने हेतु अन्ना के पीछी डटे खड़े हैं। जनता ने इस चाल को न समझा तो देश को उसी प्रकार के दुर्दिन देखने पड़ेंगे जिस प्रकार से बंगाल से बामपंथी शासन के खत्म होते ही पेट्रोल,डीजल,गैस के दाम बढ़ा कर सरकार ने दिखाये हैं और अन्ना के जाल मे उलझा कर जनता का इनसे ध्यान हटा दिया है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
nice
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