Monday 28 October 2013

भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है---पी. सी. हादिया/कँवल भारती


आरक्षण पर एक विहंगम दृष्टि
https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/3464677072904 
आरक्षण पर अभी हाल में पी. सी. हादिया की पुस्तक ‘रिजर्वेशन, अफरमेटिव एक्शन एंड इनक्लुसिव पालिसी’ पढने को मिली, जो आरक्षण के पक्ष-विपक्ष और परिणाम पर एक विहंगम दृष्टि डालती है. आरक्षण पर हर पहलू से गम्भीर विचार करने वाली यह मुझे पहली पुस्तक लगी. इस किताब में 18 अध्याय हैं और इसका फोरवर्ड गुजरात हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वाई, आर. मीना ने लिखा है. किताब के परिचय में हादिया लिखते हैं कि भारत में हिन्दूधर्म और मनुस्मृति के समय से ही शूद्रों, अछूतों और आदिवासियों पर राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक शासन करने के लिए सारी सत्ताओं और विशेषाधिकारों का आरक्षण द्विजों के लिये मौजूद रहा है. ये विशेषाधिकार सिर्फ उन पर शासन करने के लिए ही नहीं थे, बल्कि उनको अधिकारों से वंचित करने के लिए भी थे. वह लिखते हैं कि भारत अतीत में जो विदेशी हमलावरों से अपनी सीमाओं की रक्षा नहीं कर सका, उसका यही कारण था कि एक वर्ण विशेष को ही लड़ने का अधिकार था, शेष दूसरी जातिओं के लोगों को राज्य की सेनाओं से बाहर रखा जाता था. अगर सेना में भारी संख्या में दलित जातिओं की भरती की जाति, तो भारत विदेशी शासकों का गुलाम नहीं बनता. इसलिए हादिया लिखते हैं कि भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है.
हादिया आगे बहुत ही रोचक जानकारी देते हैं कि सिपाही-विद्रोह के बाद जब रानी विक्टोरिया ने कम्पनी राज समाप्त कर भारत का शासन अपने हाथों में लिया, तो उन्होंने ब्रिटिश सेवाओं में भर्ती के लिए जाति और धर्म के भेदभाव को कोई मान्यता नहीं दी थी. इस के तहत सतेन्द्र नाथ टैगोर पहले भारतीय थे, जो 1863 में काविनेनटेड सिविल सर्विस में चुने गये. यही वह सर्विस थी, जो बाद में इण्डियन सिविल सर्विस के नाम से जानी गयी. वह आंबेडकर के हवाले से बताते हैं कि ‘आईसीएस में भारतीय युवकों को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नौ छात्रों को, जो सभी उच्च जातियों के थे, छात्रवृत्ति देकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा था. लेकिन सरकार के इन प्रयासों के बावजूद आईसीएस में भारतीयों की संख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई थी, क्योंकि भारतीयों की मेरिट उस लेबिल की थी नहीं. 1920 में ICS की 35 प्रतिशत सीटें भारतीयों के लिए आरक्षित कर दी गयी थीं और 1922 के बाद से भारत में ही ICS की परिक्षाएं भी होने लगी थी. पर, इस आरक्षण के बावजूद अपर कास्ट हिन्दू 1942 में कुल आरक्षित 1056 सीटों में से 363 पर ही अपनी योग्यता दिखा पाए थे.’ इससे हमें पता चलता है कि भारत में ब्रिटिश राज के अंतर्गत अपर कास्ट हिन्दू आरक्षण का लाभ ले रहे थे. लेखक कहता है कि अगर आरक्षण न होता, तो ICS में उनकी उपस्थिति इतनी भी नहीं होती. लेकिन यह विडंबना ही है कि जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गये, तो देश पर शासन करने की सम्पूर्ण सत्ता इन्हीं (अयोग्य) हिन्दुओं के हाथों में आयी.
किताब का दूसरा अध्याय उस हौवा पर है, जो योग्यता के नाम पर खड़ा किया गया है. यह इस किताब का सबसे पठनीय और महत्वपूर्ण अध्याय है. इस अध्याय में उन तमाम छल-प्रपंचों पर चर्चा की गयी है, जिन्हें परिक्षाओं में उच्चतम नम्बर प्राप्त करने के लिए अपर कास्ट हिन्दुओं ने बनाया हुआ है. इस अध्याय में भारत के विभिन्न न्यायलयों में आरक्षण पर दिए गये अनेक महत्वपूर्ण फैसलों का भी तार्किक विश्लेषण किया गया है. लेखक ने इस अध्याय में formal समानता और proportional समानता दोनों किस्म की समानताओं पर चर्चा की है, जो बहुत ही तर्कपूर्ण है. अध्याय का अंत डा. आंबेडकर के इस कथन से होता है कि ‘यदि अगर सभी समुदायों को समानता के स्तर पर लाना है, तो इसका सिर्फ एक ही हल है कि असमानता से पीड़ित लोगों को समानता के स्तर पर लाया जाये.’
इस किताब का अंतिम अध्याय reservation sans tears है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है. मैं समझता हूँ कि अभी तक आरक्षण के इतने सारे पहलुओं पर सम्यक चिन्तन और विमर्श आप कहीं नहीं पाएंगे, जो इस अध्याय में है. यह अध्याय भारत के पूर्व राष्ट्रपति के आरनारायण की इस चेतावनी से समाप्त होता है, जो उन्होंने 25 जनवरी 2000 को कहा था कि ‘पीड़ित लोगों के कोप से बचो.’
26 अक्टूबर 2013

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

1 comment:

  1. इतिहास अपने समय का गुलाम होता है, अपने सम्पूर्ण स्वरूप में जब भारतीय इतिहास को देखेंगे तो इस प्रकार की शिकायतें नहीं होंगी। अरे भाई जब हिन्दू इस देश में युगों से रहते आये हैं तो जय पराजय के लिए वही उत्तरदायी भी होंगे किन्तु इस बात से सहमत होने का कोई अधार नहीं कि अगर सेनाओं में दलितों की भर्ती की जाती तो देश विदेशी शासकों का गुलाम नहीं होता।

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