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** कोई समय ऐसा नहीं रहा जब लेखकों ने गलत का प्रतिरोध न किया हो --- प्रियदर्शन
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या से लेकर दादरी तक पर लेखकों के संगठित प्रतिरोध के बाद साहित्य अकादेमी ने जो बयान जारी किया है, उसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने क्रांतिकारी बताया है. पुरस्कारों, अनुवादों और दो पत्रिकाओं के बीच ऊंघती अकादेमी ने शायद पहली बार लेखकीय विरोध के दबाव में वक्तव्य जारी कर अपने जीवित होने के प्रमाण दिए हैं. बेशक, लेखकों की यह शिकायत अपनी जगह जायज है कि उसने यह वक्तव्य देने में बहुत देर की और यह बहुत कम है. लेकिन उनका यह प्रतिरोध इस मायने में सफल है कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देशव्यापी ध्यान खींचा है.
इस दौरान लेखकों को लगातार यह तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है. उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया. यह तोहमत फिर से यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं.
19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया.
जो लोग पूछ रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका थी, वे पलट कर उन किताबों को पढ़ लें जिनमें आपातकाल के ढेर सारे ब्योरे हैं. 19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया. लेकिन इमरजेंसी के उस दौर में सम्मान लौटाना तो एक मामूली बात थी, फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी.
नेताओं के अलावा यह लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों की ही जमात थी जिसने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ सबसे तीखी लड़ाई लड़ी. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके खिलाफ खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी.
इसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी. बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी कुछ कविताएं अपने ढंग से सत्ता और इंदिरा पर बेहद तीखी चोट करती हैं.
भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी.
1984 की सिख विरोधी हिंसा के विरोध में भी खुशवंत सिंह जैसे कांग्रेस समर्थक लेखक तक ने पद्मभूषण वापस कर दिया था. बेशक, वह हिंसा ख़ौफ़नाक और शर्मनाक दोनों थी, लेकिन उसे राज्य की वैचारिकी का वैसा समर्थन नहीं था जैसा इन दिनों कई तरह के हिंसक और हमलावर विचारों को मिलता दिखाई पड़ता है. फिर भी अपने-अपने शहरों में लेखकों ने प्रतिरोध किए, राहत देने की कोशिश की और उस विवेक का बार-बार आह्वान किया जो लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है.
चाहें तो याद कर सकते हैं कि उसी दौर में अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखी कविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो. / मैं उस पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं / अगर उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम काट दो.’ यह अलग बात है कि अवतार सिंह पाश को कविता पढ़ते हुए आतंकवादियों ने गोली मार दी.
इस पूरे दौर में लेखकीय और बौद्धिक प्रतिरोध अपने चरम पर दिखता है. पंजाब में गुरुशरण सिंह जैसा नाटककार है जो जनवादी मूल्यों के पक्ष में और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लड़ता रहा. इसी दौर में सफ़दर हाशमी मारे जाते हैं और पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा जैसे सुलग उठती है. छोटे-बड़े शहरों के नुक्कड़ों पर प्रतिरोध की सभाएं सजने लगती हैं. 1989 में जब गैरकांग्रेसी दल राष्ट्रीय बंद का आह्वान करते हैं तो राजनीतिक दलों के समानांतर सांस्कृतिक जत्थे भी पुलिस की लाठियां सहते हैं और जेल जाते हैं. 1992 में मुंबई के दंगों में राजदीप सरदेसाई अपनी रिपोर्ट्स में कांग्रेस और एनसीपी की विफलता पर सवाल खड़े करते हैं और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट इन खबरों का भरपूर हवाला देती है.
अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखी कविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो.
जाहिर है, यह सारा विरोध कांग्रेसी सरकारों के ख़िलाफ़ था जिसमें बेशक, कुछ समाजवादी और वाम वैचारिकी की भूमिका थी, मगर उसका राजनीतिक या सत्तामूलक समर्थन नहीं था. लेकिन नब्बे के दशक में जब बीजेपी ने सांप्रदायिकता के राक्षस को नए सिरे से खड़ा किया तो विरोध की धुरी कांग्रेस से मुड़कर उसकी तरफ़ चली आई. 2002 की गुजरात की हिंसा के ख़िलाफ़ बहुत सारी कविताएं लिखी गईं. मंगलेश डबराल की सुख्यात कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जितनी बड़ी राजनीतिक कविता है, उससे कहीं ज़्यादा बडी मानवीय कविता है.
मंगलेश अपनी मद्धिम आवाज़ में लिखते हैं- ‘और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो / क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम / कोई मज़हब कोई ताबीज / मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था / सिर्फ एक रंगरेज़ एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार / जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की / जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे / अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के नन्हे पहिये / तभी मुझ पर गिरी एक आग, बरसे पत्थर / और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाये / तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई जवाब नहीं आता.‘ गुजरात की इसी हिंसा के त्रासद पहलुओं को लेकर असगर वजाहत ‘शाह आलम की रूहें’ जैसी नायाब किताब तैयार कर देते हैं.
बहरहाल, लेखकीय प्रतिरोध की यह सूची बहुत लंबी है और वह सिर्फ भाजपा विरोधी नहीं है. कुछ ही साल पहले हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद को लेकर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के रवैये से नाराज़ सात लेखकों ने अपने हिंदी अकादमी सम्मान लेने से इनकार कर दिया था. जाहिर है, लेखन सत्ता का वह प्रतिपक्ष बनाता है जिससे कभी कांग्रेस नाराज़ होती है कभी भाजपा.
यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके विरोध में खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी.
एक ऐसे दौर में जब बाज़ार की चमक-दमक एक हिंसक भव्यता के साथ एक समृद्ध भारत का मिथक रच रही है, जब आर्थिक संपन्नता को छोड़कर बाकी सारे मूल्य पुराने मानकर छोड़ दिए गए हैं, जब घर-परिवार और समाज तार-तार होते दिख रहे हैं, जब सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं क्षरण की शिकार हैं, जब ज्ञान के दूसरे अनुशासन – समाजशास्त्र, इतिहास या अर्थशास्त्र – सत्ता की जी हुजूरी करते नज़र आ रहे हैं, तब यह साहित्य ही है जो इस पूरी प्रक्रिया का अपने दम पर प्रतिरोध कर रहा है.
लेकिन उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे पहचान और मान्यता देने से इनकार किया जा रहा है, उसे बिल्कुल अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है. मगर उसकी मद्धिम आवाज़ जब एक सामूहिक लय धारण करती है, जब उसका कातर प्रतिरोध अपने पुरस्कार छोड़ने का इकलौता सुलभ विकल्प आज़माता है, तब सत्ता के पांव कांपते हैं और वह उसे अविश्वसनीय साबित करने में जुट जाती है. यह पूछते हुए कि इससे पहले तुमने विरोध क्यों नहीं किया.
साभार : **
http://www.satyagrah.com/society-and-culture/writers-always-protest-what-was-wrong/
Jagdish Chander :
भारत में 1992 से अब तक हजारों पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये जिनमे से 37 पत्रकारों की निर्मम हत्या कर दी गई।
1- संदीप कोठारी, फ्रीलांस,जबलपुर, मध्य प्रदेश, 21 जून 2015,
2- जगेन्द्र सिंह, फ्रीलांस, उत्तर प्रदेश, शाहजहांपुर, 8 जून 2015,
3- MVN शंकर, आंध्र प्रभा, आंध्र प्रदेश, भारत में 26 नवंबर 2014,
4- तरुण कुमार आचार्य, कनक टीवी, सम्बाद ओडिशा, 27 मई 2014,
5- साई रेड्डी, देशबंधु, बीजापुर जिले, भारत में 6 दिसम्बर 2013,
6- नरेंद्र दाबोलकर, साधना, पुणे, 20 अगस्त 2013,
7- राजेश मिश्रा, मीडिया राज, रीवा, मध्य प्रदेश, 1 मार्च 2012
8- साई रेड्डी, देशबंधु, बीजापुर जिले, 6 दिसम्बर 2013
9- राजेश वर्मा, आईबीएन 7, मुजफ्फरनगर, 7 सितंबर 2013,
10- द्विजमणि सिंह, प्रधानमंत्री समाचार, इम्फाल, 23 दिसम्बर 2012,
11- विजय प्रताप सिंह, इंडियन एक्सप्रेस, इलाहाबाद, 20 जुलाई 2010,
12- विकास रंजन, हिंदुस्तान, रोसेरा, नवंबर 25, 2008
13- जावेद अहमद मीर, चैनल 9, श्रीनगर, 13 अगस्त 2008,
14- अशोक सोढ़ी, डेली एक्सेलसियर, सांबा, 11 मई 2008,
15- मोहम्मद मुसलिमुद्दीन, असोमिया प्रतिदिन, बारपुखरी, 1 अप्रैल, 2008
16- प्रहलाद गोआला, असोमिया खबर, गोलाघाट, 6 जनवरी 2006,
17- आसिया जीलानी, स्वतंत्र, कश्मीर, भारत में 20 अप्रैल 2004,
18- वीरबोइना यादगिरी, आंध्र प्रभा, मेडक, भारत में 21 फ़रवरी 2004,
19- परवेज मोहम्मद सुल्तान, समाचार और फीचर एलायंस, श्रीनगर, 31 जनवरी 2003,
20- राम चंदर छत्रपति, पूरा सच, सिरसा, 21 नवंबर 2002,
21- मूलचंद यादव, फ्रीलांस, झांसी, 30 जुलाई 2001,
22- प्रदीप भाटिया, हिंदुस्तान टाइम्स, श्रीनगर, 10 अगस्त 2000,
23- एस गंगाधर राजू, इनाडू, टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997
24- एस कृष्णा, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
25- जी राजा शेखर, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
26- जगदीश बाबू, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
27- पी श्रीनिवास राव, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
28- सैदान शफी, दूरदर्शन टीवी, श्रीनगर, 16 मार्च, 1997,
29- अल्ताफ अहमद, दूरदर्शन टीवी, श्रीनगर, 1 जनवरी, 1997,
30- पराग कुमार दास, असोमिया, असम, 17 मई, 1996,
31- गुलाम रसूल शेख, रहनुमा-ए-कश्मीर और केसर टाइम्स, कश्मीर, 10 अप्रैल 1996,
32- मुश्ताक अली, एजेसीं फ्रांस-प्रेस और एशियन न्यूज इंटरनेशनल, श्रीनगर, 10 सितम्बर 1995,
33- गुलाम मोहम्मद लोन, फ्रीलांसर, कंगन, 29 अगस्त 1994,
34- दिनेश पाठक, सन्देश, बड़ौदा, 22 मई 1993,
35- भोला नाथ मासूम, हिंदुस्तान समाचार, राजपुरा, 31 जनवरी 1993
36- एम एल मनचंदा, ऑल इंडिया रेडियो, पटियाला, 18 मई 1992,
37- राम सिंह आजाद आवाज़, डेली अजीत, जालंधर, 3 जनवरी 1992,
Jagdish Chander :
October 20 at 9:17pm · Delhi · Edited ·
देश के साहित्यकारों के द्वारा पुरूस्कार सरकार और अकेडिमियों को वापस लौटाए जा रहे हैं , यह वे लेखक हैं, जो देश के बुद्धिजीवी लेखकों और साहित्यकारों पर हुए हमलों के विरोधस्वरूप, प्राप्त पुरुष्कार जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अकैडिमियों और भारत सरकार द्वारा भिन्न भिन्न समय में उनके द्वारा समाज और राष्ट्र तथा शिक्षा के क्षेत्र के विकास में उनकी लेखनी द्वारा किये गए सहयोग, और उनके उच्च विचारों के एवज में दिए गए हैं, उक्त उपहारों को लौटा कर देश के साहित्यकार , लेखकों , बुद्धिजीवियों, और साहित्यकारों पर कटट्रपंथियों के द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों, आक्रमण के विरोधस्वरूप सभी साहित्यकारों से एक जुटता की मांग कर रहे हैं, साहित्यकारों द्वारा सरकार से पानसरे, कलबुर्गी, दावोलकर के हत्यारों की सज़ा की भी मांग की गई है !
यह तो सच है कि विचार कभी मरते नहीं हैं, वे अजर और अमर है, जो लोग साहित्यकारों के उपहार लौटाने के साथ साथ प्राप्त धन को लौटाने की बात कर रहे हैं, वे यह नहीं जानते कि देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों, लेखकों, और साहित्यकारों के द्वारा लिखित विचारों के द्वारा जितना नैतिक और आर्थिक सहयोग उनके ज्ञान और बुद्धि से मुखरित विचारों से हुआ है, जिसके एवज में उपहार स्वरुप दिए गए धन की कोई भी मान्यता नहीं , उन साहित्यकारों के विचारों और लिखित ज्ञान से जितना धन सरकार और समाज में आप और हम , सदियों तक कमाएँगे वह धन साहित्यकार और लेखक का ही होगा, ज्ञान और साहित्य पर जिस दिन पेटेंट की मुहर लगने लग जाएगी उस दिन साहित्यकारों के विचारों के वे विरोधी लोग इस शब्द को लिखने की समझ भी नहीं रखेंगे , कि " साहित्यकार पुरुष्कार के साथ साथ तथाकथित प्राप्त धन को भी वापस करें " वह दिन ज्ञान सुनने के एवज में शूद्रों के कानों में पिघला हुआ शीसा उड़ेलने सी बात होगी " या उस दिन अभिब्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध की सी बात होगी, संविधान को गलत ठहराना, बार बार हिंसात्मक कार्यवाहियां करना और हिंसा को लोकतांत्रिक ठहराना, शांति की गलत ब्याख्या करना , ऐसे विचार लम्बे समय तक जीवित नहीं रहते , उम्मीद है कि इस बार भी हम इस घृणित अध्याय को समाप्त कर सकेंगे सम्पूर्ण समाज को पानसरे, कलबुर्गी, दावोलकर के हत्यारों की सज़ा की मांग के साथ एकजुट होना चाहिये .
उधर दुनिया के लगभग १५० देशों के लेखकों और साहित्यकारों और साहित्यक अकैडिमियो ने भी भारत में लेखकों और साहित्यकारों पर हुए हमलों का विरोध किया है और भारत सरकार को विरोधस्वरूप भारतीय लेखकों, साहित्यकारों, द्वारा देश में बढ़ती असहिषुणता के विरोध में पुरुष्कार लौटा रहे लेखकों और कलाकारों के साथ १५० देशों के लेखकों ने एकजुटता दिखाई है , उन्होंने वर्तमान सरकार से अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बेहतर सुरक्षा प्रदान करने की अपील की है ? कनाडा के क्यूबेक शहर में लेखकों के वैश्विक संघ पेन इंटरनेशनल ने भारत सरकार से एम एम कुलबुर्गी , नरेंद्र दाभोलकर और गोविन्द पंसारी के हत्यारों की गिरफ्तारी की भी मांग की है ।
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वस्तुतः साहित्य समाज का 'दर्पण' होता है। आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के अनुसार साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। तोप, तलवार और बम
अतः जो लोग साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के विरोधी हैं वे भीरु व कायर ही हैं।
http://www.jansatta.com/entertainment/nation-has-bestowed-national-award-will-not-return-it-vidya-balan/46879/ |
** कोई समय ऐसा नहीं रहा जब लेखकों ने गलत का प्रतिरोध न किया हो --- प्रियदर्शन
चाहे 1975 हो या 1984 या 2002 या फिर 2015, लेखक हर दौर के गलत का उतना ही तीखा प्रतिरोध करते रहे हैं
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या से लेकर दादरी तक पर लेखकों के संगठित प्रतिरोध के बाद साहित्य अकादेमी ने जो बयान जारी किया है, उसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने क्रांतिकारी बताया है. पुरस्कारों, अनुवादों और दो पत्रिकाओं के बीच ऊंघती अकादेमी ने शायद पहली बार लेखकीय विरोध के दबाव में वक्तव्य जारी कर अपने जीवित होने के प्रमाण दिए हैं. बेशक, लेखकों की यह शिकायत अपनी जगह जायज है कि उसने यह वक्तव्य देने में बहुत देर की और यह बहुत कम है. लेकिन उनका यह प्रतिरोध इस मायने में सफल है कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देशव्यापी ध्यान खींचा है.
इस दौरान लेखकों को लगातार यह तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है. उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया. यह तोहमत फिर से यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं.
19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया.
जो लोग पूछ रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका थी, वे पलट कर उन किताबों को पढ़ लें जिनमें आपातकाल के ढेर सारे ब्योरे हैं. 19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया. लेकिन इमरजेंसी के उस दौर में सम्मान लौटाना तो एक मामूली बात थी, फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी.
नेताओं के अलावा यह लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों की ही जमात थी जिसने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ सबसे तीखी लड़ाई लड़ी. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके खिलाफ खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी.
इसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी. बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी कुछ कविताएं अपने ढंग से सत्ता और इंदिरा पर बेहद तीखी चोट करती हैं.
भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी.
1984 की सिख विरोधी हिंसा के विरोध में भी खुशवंत सिंह जैसे कांग्रेस समर्थक लेखक तक ने पद्मभूषण वापस कर दिया था. बेशक, वह हिंसा ख़ौफ़नाक और शर्मनाक दोनों थी, लेकिन उसे राज्य की वैचारिकी का वैसा समर्थन नहीं था जैसा इन दिनों कई तरह के हिंसक और हमलावर विचारों को मिलता दिखाई पड़ता है. फिर भी अपने-अपने शहरों में लेखकों ने प्रतिरोध किए, राहत देने की कोशिश की और उस विवेक का बार-बार आह्वान किया जो लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है.
चाहें तो याद कर सकते हैं कि उसी दौर में अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखी कविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो. / मैं उस पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं / अगर उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम काट दो.’ यह अलग बात है कि अवतार सिंह पाश को कविता पढ़ते हुए आतंकवादियों ने गोली मार दी.
इस पूरे दौर में लेखकीय और बौद्धिक प्रतिरोध अपने चरम पर दिखता है. पंजाब में गुरुशरण सिंह जैसा नाटककार है जो जनवादी मूल्यों के पक्ष में और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लड़ता रहा. इसी दौर में सफ़दर हाशमी मारे जाते हैं और पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा जैसे सुलग उठती है. छोटे-बड़े शहरों के नुक्कड़ों पर प्रतिरोध की सभाएं सजने लगती हैं. 1989 में जब गैरकांग्रेसी दल राष्ट्रीय बंद का आह्वान करते हैं तो राजनीतिक दलों के समानांतर सांस्कृतिक जत्थे भी पुलिस की लाठियां सहते हैं और जेल जाते हैं. 1992 में मुंबई के दंगों में राजदीप सरदेसाई अपनी रिपोर्ट्स में कांग्रेस और एनसीपी की विफलता पर सवाल खड़े करते हैं और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट इन खबरों का भरपूर हवाला देती है.
अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखी कविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो.
जाहिर है, यह सारा विरोध कांग्रेसी सरकारों के ख़िलाफ़ था जिसमें बेशक, कुछ समाजवादी और वाम वैचारिकी की भूमिका थी, मगर उसका राजनीतिक या सत्तामूलक समर्थन नहीं था. लेकिन नब्बे के दशक में जब बीजेपी ने सांप्रदायिकता के राक्षस को नए सिरे से खड़ा किया तो विरोध की धुरी कांग्रेस से मुड़कर उसकी तरफ़ चली आई. 2002 की गुजरात की हिंसा के ख़िलाफ़ बहुत सारी कविताएं लिखी गईं. मंगलेश डबराल की सुख्यात कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जितनी बड़ी राजनीतिक कविता है, उससे कहीं ज़्यादा बडी मानवीय कविता है.
मंगलेश अपनी मद्धिम आवाज़ में लिखते हैं- ‘और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो / क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम / कोई मज़हब कोई ताबीज / मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था / सिर्फ एक रंगरेज़ एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार / जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की / जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे / अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के नन्हे पहिये / तभी मुझ पर गिरी एक आग, बरसे पत्थर / और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाये / तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई जवाब नहीं आता.‘ गुजरात की इसी हिंसा के त्रासद पहलुओं को लेकर असगर वजाहत ‘शाह आलम की रूहें’ जैसी नायाब किताब तैयार कर देते हैं.
बहरहाल, लेखकीय प्रतिरोध की यह सूची बहुत लंबी है और वह सिर्फ भाजपा विरोधी नहीं है. कुछ ही साल पहले हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद को लेकर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के रवैये से नाराज़ सात लेखकों ने अपने हिंदी अकादमी सम्मान लेने से इनकार कर दिया था. जाहिर है, लेखन सत्ता का वह प्रतिपक्ष बनाता है जिससे कभी कांग्रेस नाराज़ होती है कभी भाजपा.
यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके विरोध में खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी.
एक ऐसे दौर में जब बाज़ार की चमक-दमक एक हिंसक भव्यता के साथ एक समृद्ध भारत का मिथक रच रही है, जब आर्थिक संपन्नता को छोड़कर बाकी सारे मूल्य पुराने मानकर छोड़ दिए गए हैं, जब घर-परिवार और समाज तार-तार होते दिख रहे हैं, जब सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं क्षरण की शिकार हैं, जब ज्ञान के दूसरे अनुशासन – समाजशास्त्र, इतिहास या अर्थशास्त्र – सत्ता की जी हुजूरी करते नज़र आ रहे हैं, तब यह साहित्य ही है जो इस पूरी प्रक्रिया का अपने दम पर प्रतिरोध कर रहा है.
लेकिन उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे पहचान और मान्यता देने से इनकार किया जा रहा है, उसे बिल्कुल अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है. मगर उसकी मद्धिम आवाज़ जब एक सामूहिक लय धारण करती है, जब उसका कातर प्रतिरोध अपने पुरस्कार छोड़ने का इकलौता सुलभ विकल्प आज़माता है, तब सत्ता के पांव कांपते हैं और वह उसे अविश्वसनीय साबित करने में जुट जाती है. यह पूछते हुए कि इससे पहले तुमने विरोध क्यों नहीं किया.
साभार : **
http://www.satyagrah.com/society-and-culture/writers-always-protest-what-was-wrong/
Jagdish Chander :
भारत में 1992 से अब तक हजारों पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये जिनमे से 37 पत्रकारों की निर्मम हत्या कर दी गई।
1- संदीप कोठारी, फ्रीलांस,जबलपुर, मध्य प्रदेश, 21 जून 2015,
2- जगेन्द्र सिंह, फ्रीलांस, उत्तर प्रदेश, शाहजहांपुर, 8 जून 2015,
3- MVN शंकर, आंध्र प्रभा, आंध्र प्रदेश, भारत में 26 नवंबर 2014,
4- तरुण कुमार आचार्य, कनक टीवी, सम्बाद ओडिशा, 27 मई 2014,
5- साई रेड्डी, देशबंधु, बीजापुर जिले, भारत में 6 दिसम्बर 2013,
6- नरेंद्र दाबोलकर, साधना, पुणे, 20 अगस्त 2013,
7- राजेश मिश्रा, मीडिया राज, रीवा, मध्य प्रदेश, 1 मार्च 2012
8- साई रेड्डी, देशबंधु, बीजापुर जिले, 6 दिसम्बर 2013
9- राजेश वर्मा, आईबीएन 7, मुजफ्फरनगर, 7 सितंबर 2013,
10- द्विजमणि सिंह, प्रधानमंत्री समाचार, इम्फाल, 23 दिसम्बर 2012,
11- विजय प्रताप सिंह, इंडियन एक्सप्रेस, इलाहाबाद, 20 जुलाई 2010,
12- विकास रंजन, हिंदुस्तान, रोसेरा, नवंबर 25, 2008
13- जावेद अहमद मीर, चैनल 9, श्रीनगर, 13 अगस्त 2008,
14- अशोक सोढ़ी, डेली एक्सेलसियर, सांबा, 11 मई 2008,
15- मोहम्मद मुसलिमुद्दीन, असोमिया प्रतिदिन, बारपुखरी, 1 अप्रैल, 2008
16- प्रहलाद गोआला, असोमिया खबर, गोलाघाट, 6 जनवरी 2006,
17- आसिया जीलानी, स्वतंत्र, कश्मीर, भारत में 20 अप्रैल 2004,
18- वीरबोइना यादगिरी, आंध्र प्रभा, मेडक, भारत में 21 फ़रवरी 2004,
19- परवेज मोहम्मद सुल्तान, समाचार और फीचर एलायंस, श्रीनगर, 31 जनवरी 2003,
20- राम चंदर छत्रपति, पूरा सच, सिरसा, 21 नवंबर 2002,
21- मूलचंद यादव, फ्रीलांस, झांसी, 30 जुलाई 2001,
22- प्रदीप भाटिया, हिंदुस्तान टाइम्स, श्रीनगर, 10 अगस्त 2000,
23- एस गंगाधर राजू, इनाडू, टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997
24- एस कृष्णा, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
25- जी राजा शेखर, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
26- जगदीश बाबू, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
27- पी श्रीनिवास राव, इनाडू टेलीविजन (ई टी वी), हैदराबाद, 19 नवंबर 1997,
28- सैदान शफी, दूरदर्शन टीवी, श्रीनगर, 16 मार्च, 1997,
29- अल्ताफ अहमद, दूरदर्शन टीवी, श्रीनगर, 1 जनवरी, 1997,
30- पराग कुमार दास, असोमिया, असम, 17 मई, 1996,
31- गुलाम रसूल शेख, रहनुमा-ए-कश्मीर और केसर टाइम्स, कश्मीर, 10 अप्रैल 1996,
32- मुश्ताक अली, एजेसीं फ्रांस-प्रेस और एशियन न्यूज इंटरनेशनल, श्रीनगर, 10 सितम्बर 1995,
33- गुलाम मोहम्मद लोन, फ्रीलांसर, कंगन, 29 अगस्त 1994,
34- दिनेश पाठक, सन्देश, बड़ौदा, 22 मई 1993,
35- भोला नाथ मासूम, हिंदुस्तान समाचार, राजपुरा, 31 जनवरी 1993
36- एम एल मनचंदा, ऑल इंडिया रेडियो, पटियाला, 18 मई 1992,
37- राम सिंह आजाद आवाज़, डेली अजीत, जालंधर, 3 जनवरी 1992,
Jagdish Chander :
October 20 at 9:17pm · Delhi · Edited ·
देश के साहित्यकारों के द्वारा पुरूस्कार सरकार और अकेडिमियों को वापस लौटाए जा रहे हैं , यह वे लेखक हैं, जो देश के बुद्धिजीवी लेखकों और साहित्यकारों पर हुए हमलों के विरोधस्वरूप, प्राप्त पुरुष्कार जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अकैडिमियों और भारत सरकार द्वारा भिन्न भिन्न समय में उनके द्वारा समाज और राष्ट्र तथा शिक्षा के क्षेत्र के विकास में उनकी लेखनी द्वारा किये गए सहयोग, और उनके उच्च विचारों के एवज में दिए गए हैं, उक्त उपहारों को लौटा कर देश के साहित्यकार , लेखकों , बुद्धिजीवियों, और साहित्यकारों पर कटट्रपंथियों के द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों, आक्रमण के विरोधस्वरूप सभी साहित्यकारों से एक जुटता की मांग कर रहे हैं, साहित्यकारों द्वारा सरकार से पानसरे, कलबुर्गी, दावोलकर के हत्यारों की सज़ा की भी मांग की गई है !
यह तो सच है कि विचार कभी मरते नहीं हैं, वे अजर और अमर है, जो लोग साहित्यकारों के उपहार लौटाने के साथ साथ प्राप्त धन को लौटाने की बात कर रहे हैं, वे यह नहीं जानते कि देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों, लेखकों, और साहित्यकारों के द्वारा लिखित विचारों के द्वारा जितना नैतिक और आर्थिक सहयोग उनके ज्ञान और बुद्धि से मुखरित विचारों से हुआ है, जिसके एवज में उपहार स्वरुप दिए गए धन की कोई भी मान्यता नहीं , उन साहित्यकारों के विचारों और लिखित ज्ञान से जितना धन सरकार और समाज में आप और हम , सदियों तक कमाएँगे वह धन साहित्यकार और लेखक का ही होगा, ज्ञान और साहित्य पर जिस दिन पेटेंट की मुहर लगने लग जाएगी उस दिन साहित्यकारों के विचारों के वे विरोधी लोग इस शब्द को लिखने की समझ भी नहीं रखेंगे , कि " साहित्यकार पुरुष्कार के साथ साथ तथाकथित प्राप्त धन को भी वापस करें " वह दिन ज्ञान सुनने के एवज में शूद्रों के कानों में पिघला हुआ शीसा उड़ेलने सी बात होगी " या उस दिन अभिब्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध की सी बात होगी, संविधान को गलत ठहराना, बार बार हिंसात्मक कार्यवाहियां करना और हिंसा को लोकतांत्रिक ठहराना, शांति की गलत ब्याख्या करना , ऐसे विचार लम्बे समय तक जीवित नहीं रहते , उम्मीद है कि इस बार भी हम इस घृणित अध्याय को समाप्त कर सकेंगे सम्पूर्ण समाज को पानसरे, कलबुर्गी, दावोलकर के हत्यारों की सज़ा की मांग के साथ एकजुट होना चाहिये .
उधर दुनिया के लगभग १५० देशों के लेखकों और साहित्यकारों और साहित्यक अकैडिमियो ने भी भारत में लेखकों और साहित्यकारों पर हुए हमलों का विरोध किया है और भारत सरकार को विरोधस्वरूप भारतीय लेखकों, साहित्यकारों, द्वारा देश में बढ़ती असहिषुणता के विरोध में पुरुष्कार लौटा रहे लेखकों और कलाकारों के साथ १५० देशों के लेखकों ने एकजुटता दिखाई है , उन्होंने वर्तमान सरकार से अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बेहतर सुरक्षा प्रदान करने की अपील की है ? कनाडा के क्यूबेक शहर में लेखकों के वैश्विक संघ पेन इंटरनेशनल ने भारत सरकार से एम एम कुलबुर्गी , नरेंद्र दाभोलकर और गोविन्द पंसारी के हत्यारों की गिरफ्तारी की भी मांग की है ।
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वस्तुतः साहित्य समाज का 'दर्पण' होता है। आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के अनुसार साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। तोप, तलवार और बम
अतः जो लोग साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के विरोधी हैं वे भीरु व कायर ही हैं।
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