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फैज की तरह मजाज़ भी इंकलाब व मोहब्बत के शायर
इनकी शायरी से सरमायेदारी से लड़ने की ताकत मिलती है - ताहिरा हसन
लखनऊ, 16 मई। आज जन संस्कृति मंच की ओर उर्दू के अजीम शायर असरारुल हक मजाज़ को याद किया गया। कार्यक्रम था ‘सरमायेदारी के हमलावर दौर में मजाज’ पर सेमिनार। यह जलसा जयशंकर प्रसाद सभागार, कैसरबाग में हुआ। शुरुआत कुलदीप द्वारा मजाज की गजलों के गायन से हुआ।
विषय पर बीज वक्तव्य देते हुए महिला एक्टिविस्ट ताहिरा हसन ने कहा कि मजाज की शायरी में कीट्स, शेली, वायरन की छाप नुमाया तौर पर दिखती है। भगत सिंह की बगावत, नेहरू का सोशलिज्म, माक्र्स की सीख़ और लेनिन की तड़प ये सब मजाज के शऊर और एहसास के हिस्से थे। वे सरमायेदारी के खिलाफ पुरजोर आवाज बुलन्द करते हैं और नौजवानों, मजदूरों, किसानों में अपनी शायरी से इंकलाब पैदा करते हैं। वे कहते हैं ‘इंकलाब के आमद का इंतजार न कर, हो सके तो इंकलाब पैदा कर’। औरतों में बेदारी लेते हुए कहते हैं ‘तेरी मोथे पर आंचल बहुत ही है खूब है, पर तू आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा’। ताहिरा हसन ने आगे कहा कि मजाज फैज की तरह ही इंकलाब और मोहब्बत के शायर हैं। इनकी शायरी में थकान नहीं, मस्ती है। इसीलिए फाासिज्म के इस दौर में आज भी मौंजू हैं। इनकी शायरी से हमें सरमायेदारी व फासिज्म से लड़ने की ताकत मिलती है।
सेमिनार की सदारत करते हुए कथाकार नसीम साकेती ने कहा कि आज स्त्री विमर्श पर बड़ी चर्चा है। मजाज़ ने उर्दू अदब में बहुत पहले नारी जागरण का शंखनाद कर दिया था और आंचल को परचम बनाने की बात की थी। वे जजबाती नारों से इंकलाब लाने के पक्षधर नहीं थे बल्कि रूमानी अंदाज में इंकलाब को आवाज देते थे। इस मायने में इनकी इंकलाबियत आम इंकलाबी शायरों से मुख्तलिफ है। इस मौके पर प्रो रूपरेखा वर्मा, इरफान अहमद, शेहला रैनम, ऊषा राय, राम किशोर व अजय सिंह आदि ने भी अपने विचार प्रकट किये। इनका कहना था कि मजाज़ की शायरी सरमायेदारी के खिलाफ हथियार थी। समय गुजर गया लेकिन न तो सरमायेदारी खत्म हुई और न उसके खिलाफ जंग। आज तो वह और भी हमलावर है। फासीवाद उसी का सबसे खूंखार रूप है। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में 16 मई का दिन बड़ा मायने रखता है जिस दिन फासीवादी सत्ता केन्द्र में आई। इस दिन को देश का तरक्की पसंद व जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन फसीवाद के खिलाफ जंग के दिन के बतौर याद करता है। मजाज से हमें इस जंग में हौसला मिलता है। वक्ताओं का यह भी कहना था कि हमें मजाज़ के जीवन ट्रेजडी और इंकलाब व इश्क के शायर के रूप् में याद करते हुए उनके सौन्दर्य शास्त्र पर और उन्होंने नया क्या दिया, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए।
कार्यक्रम के अन्त में जसम के प्रदेश अध्यक्ष की ओर से प्रस्ताव पेश किये गये जिसके तहत मांग की गई कि रिफा-ए-आम क्लब जो साझी संस्कृति की धरोहर है इसका पुनरुद्धार किया जाय तथा इसे साझी संस्कृति की रिवायत को बढ़ाने के संस्थान के रूप में विकसित किया जाय। प्रस्ताव में मीर तकी मीर, हसरत मोहानी व मजाज की मजारों की दुर्दशा पर रोष प्रकट किया गया तथा मांग की गई कि इन मजारों का पुनरुद्धार हो और इन्हें पूरी इज्जत बख्शी जाय। यह भी प्रस्तावित किया गया कि बादशाह नगर रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर इसे अजीम शायर मजाज के नाम पर रखा जाय।
कार्यक्रम की सदारत शायर तश्ना आलमी को करना था लेकिन उनके अचानक लकवाग्रस्त हो जाने के कारण वे कार्यक्रम में नहीें पहुंच पाये। सभी ने उनके जल्दी स्वस्थ होने की दुआ की।
https://www.facebook.com/kaushal.kishor.1401/posts/1076917509040203
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
जनसंदेश टाईम्स ,17 मई 2016 ,पृष्ठ-5 |
फैज की तरह मजाज़ भी इंकलाब व मोहब्बत के शायर
इनकी शायरी से सरमायेदारी से लड़ने की ताकत मिलती है - ताहिरा हसन
लखनऊ, 16 मई। आज जन संस्कृति मंच की ओर उर्दू के अजीम शायर असरारुल हक मजाज़ को याद किया गया। कार्यक्रम था ‘सरमायेदारी के हमलावर दौर में मजाज’ पर सेमिनार। यह जलसा जयशंकर प्रसाद सभागार, कैसरबाग में हुआ। शुरुआत कुलदीप द्वारा मजाज की गजलों के गायन से हुआ।
विषय पर बीज वक्तव्य देते हुए महिला एक्टिविस्ट ताहिरा हसन ने कहा कि मजाज की शायरी में कीट्स, शेली, वायरन की छाप नुमाया तौर पर दिखती है। भगत सिंह की बगावत, नेहरू का सोशलिज्म, माक्र्स की सीख़ और लेनिन की तड़प ये सब मजाज के शऊर और एहसास के हिस्से थे। वे सरमायेदारी के खिलाफ पुरजोर आवाज बुलन्द करते हैं और नौजवानों, मजदूरों, किसानों में अपनी शायरी से इंकलाब पैदा करते हैं। वे कहते हैं ‘इंकलाब के आमद का इंतजार न कर, हो सके तो इंकलाब पैदा कर’। औरतों में बेदारी लेते हुए कहते हैं ‘तेरी मोथे पर आंचल बहुत ही है खूब है, पर तू आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा’। ताहिरा हसन ने आगे कहा कि मजाज फैज की तरह ही इंकलाब और मोहब्बत के शायर हैं। इनकी शायरी में थकान नहीं, मस्ती है। इसीलिए फाासिज्म के इस दौर में आज भी मौंजू हैं। इनकी शायरी से हमें सरमायेदारी व फासिज्म से लड़ने की ताकत मिलती है।
सेमिनार की सदारत करते हुए कथाकार नसीम साकेती ने कहा कि आज स्त्री विमर्श पर बड़ी चर्चा है। मजाज़ ने उर्दू अदब में बहुत पहले नारी जागरण का शंखनाद कर दिया था और आंचल को परचम बनाने की बात की थी। वे जजबाती नारों से इंकलाब लाने के पक्षधर नहीं थे बल्कि रूमानी अंदाज में इंकलाब को आवाज देते थे। इस मायने में इनकी इंकलाबियत आम इंकलाबी शायरों से मुख्तलिफ है। इस मौके पर प्रो रूपरेखा वर्मा, इरफान अहमद, शेहला रैनम, ऊषा राय, राम किशोर व अजय सिंह आदि ने भी अपने विचार प्रकट किये। इनका कहना था कि मजाज़ की शायरी सरमायेदारी के खिलाफ हथियार थी। समय गुजर गया लेकिन न तो सरमायेदारी खत्म हुई और न उसके खिलाफ जंग। आज तो वह और भी हमलावर है। फासीवाद उसी का सबसे खूंखार रूप है। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में 16 मई का दिन बड़ा मायने रखता है जिस दिन फासीवादी सत्ता केन्द्र में आई। इस दिन को देश का तरक्की पसंद व जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन फसीवाद के खिलाफ जंग के दिन के बतौर याद करता है। मजाज से हमें इस जंग में हौसला मिलता है। वक्ताओं का यह भी कहना था कि हमें मजाज़ के जीवन ट्रेजडी और इंकलाब व इश्क के शायर के रूप् में याद करते हुए उनके सौन्दर्य शास्त्र पर और उन्होंने नया क्या दिया, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए।
कार्यक्रम के अन्त में जसम के प्रदेश अध्यक्ष की ओर से प्रस्ताव पेश किये गये जिसके तहत मांग की गई कि रिफा-ए-आम क्लब जो साझी संस्कृति की धरोहर है इसका पुनरुद्धार किया जाय तथा इसे साझी संस्कृति की रिवायत को बढ़ाने के संस्थान के रूप में विकसित किया जाय। प्रस्ताव में मीर तकी मीर, हसरत मोहानी व मजाज की मजारों की दुर्दशा पर रोष प्रकट किया गया तथा मांग की गई कि इन मजारों का पुनरुद्धार हो और इन्हें पूरी इज्जत बख्शी जाय। यह भी प्रस्तावित किया गया कि बादशाह नगर रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर इसे अजीम शायर मजाज के नाम पर रखा जाय।
कार्यक्रम की सदारत शायर तश्ना आलमी को करना था लेकिन उनके अचानक लकवाग्रस्त हो जाने के कारण वे कार्यक्रम में नहीें पहुंच पाये। सभी ने उनके जल्दी स्वस्थ होने की दुआ की।
https://www.facebook.com/kaushal.kishor.1401/posts/1076917509040203
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
धन्यवाद माथुर सहेब.
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