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#स्त्री- पुरुष सम्बन्धों पर एक विमर्श।(पूरक या प्रतिद्वंद्वी)
मित्रों नारी विमर्श की जो आधुनिक बयार चली है उसमें ये साबित करने की हड़बड़ी दिखाई देती है कि नारी को हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी मिलनी चाहिए क्योंकि वह किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं है।चाहे वस्त्र धारण का मामला हो,फैशन का विषय हो या आचरण का।बराबरी की यह उत्तेजना कब प्रतिद्वंद्विता में परिवर्तित हो जाती है पता ही नहीं चलता।स्वतंत्रता की ये उत्कट चाहत कब स्वछन्दता की दहलीज लाँघ जाती है पता ही नहीं चलता।समाज कैसे विघटन के कगार पर पहुँच जाता है पता ही नहीं चलता।
दरअसल ऐसा सामाजिक बिखराव इस गलत दृष्टिकोण के कारण होता है कि कायनात ने जिस स्त्री और पुरुष को एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करने के लिए बनाया है उसमें प्रकृति के विपरीत प्रतिस्पर्धा करा देने से प्रेम,समर्पण और खुशहाली के बजाए प्रतिस्पर्धा जनित घृणा,द्वेष और बिखराव का जन्म हो जाता है।इससे बचा जाना चाहिए। इसीलिए एक खुशहाल समाज के लिए नारी और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिस्पर्धी तो कतई नहीं। लेकिन पुरूष से ज्यादा समर्पण और सामंजस्य बैठा पाने की अद्वितीय क्षमता के कारण आदर्श समाज के निर्माण में प्रकृति ने नारी को पुरुष के मुकाबले ज्यादा बड़ी भूमिका दी है क्योंकि सृष्टि उसके गर्भ में पलती है।इस विशिष्ट भूमिका के वजह से नारी कहीं ज्यादा महान है और विशिष्ट सम्मान की अधिकारिणी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए पुरुष प्रधान समाज को भी अपने अंहकार से मुक्त होकर नारी को अपने लिए खुद फैसला लेने का अधिकारी बनाना होगा तो दूसरी तरफ नारी को भी बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रकृति ने जो बड़ी भूमिका प्रदान की है उसे कुशलता पूर्वक निभाने के लिए स्वतंत्रता और स्वछन्दता के अन्तर को समझना होगा।इसलिए यह जरूरी है कि प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वंद्वी बनाने वाली विचारधारा का परित्याग कर प्रकृति के अनुकूल स्त्री और पुरुष के एक दूसरे के पूरक होने की अवधारणा के महत्व को समाज समझ सके।क्या आप मेरे इस विश्लेषण से सहमत हैं।
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Rajanish Kumar Srivastava
#स्त्री- पुरुष सम्बन्धों पर एक विमर्श।(पूरक या प्रतिद्वंद्वी)
मित्रों नारी विमर्श की जो आधुनिक बयार चली है उसमें ये साबित करने की हड़बड़ी दिखाई देती है कि नारी को हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी मिलनी चाहिए क्योंकि वह किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं है।चाहे वस्त्र धारण का मामला हो,फैशन का विषय हो या आचरण का।बराबरी की यह उत्तेजना कब प्रतिद्वंद्विता में परिवर्तित हो जाती है पता ही नहीं चलता।स्वतंत्रता की ये उत्कट चाहत कब स्वछन्दता की दहलीज लाँघ जाती है पता ही नहीं चलता।समाज कैसे विघटन के कगार पर पहुँच जाता है पता ही नहीं चलता।
दरअसल ऐसा सामाजिक बिखराव इस गलत दृष्टिकोण के कारण होता है कि कायनात ने जिस स्त्री और पुरुष को एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करने के लिए बनाया है उसमें प्रकृति के विपरीत प्रतिस्पर्धा करा देने से प्रेम,समर्पण और खुशहाली के बजाए प्रतिस्पर्धा जनित घृणा,द्वेष और बिखराव का जन्म हो जाता है।इससे बचा जाना चाहिए। इसीलिए एक खुशहाल समाज के लिए नारी और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिस्पर्धी तो कतई नहीं। लेकिन पुरूष से ज्यादा समर्पण और सामंजस्य बैठा पाने की अद्वितीय क्षमता के कारण आदर्श समाज के निर्माण में प्रकृति ने नारी को पुरुष के मुकाबले ज्यादा बड़ी भूमिका दी है क्योंकि सृष्टि उसके गर्भ में पलती है।इस विशिष्ट भूमिका के वजह से नारी कहीं ज्यादा महान है और विशिष्ट सम्मान की अधिकारिणी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए पुरुष प्रधान समाज को भी अपने अंहकार से मुक्त होकर नारी को अपने लिए खुद फैसला लेने का अधिकारी बनाना होगा तो दूसरी तरफ नारी को भी बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रकृति ने जो बड़ी भूमिका प्रदान की है उसे कुशलता पूर्वक निभाने के लिए स्वतंत्रता और स्वछन्दता के अन्तर को समझना होगा।इसलिए यह जरूरी है कि प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वंद्वी बनाने वाली विचारधारा का परित्याग कर प्रकृति के अनुकूल स्त्री और पुरुष के एक दूसरे के पूरक होने की अवधारणा के महत्व को समाज समझ सके।क्या आप मेरे इस विश्लेषण से सहमत हैं।
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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