Thursday, 31 October 2013

राजेन्द्र यादव जी की स्मरण गोष्ठी

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समाचार फोटो वीरेंद्र यादव जी की वाल से साभार
कल शाम लखनऊ में आयोजित आदरणीय  राजेंद्र यादव जी की स्मृति में सम्पन्न गोष्ठी में व्यक्त विचार इस समाचार कटिंग के माध्यम से वीरेंद्र यादव जी ने अपनी वाल पर शेयर किए थे। इसके अतिरिक्त 'हिंदुस्तान',लखनऊ के लाईव अंक में एक समाचार और जुड़ा हुआ है कि वक्ताओं ने चिंता व्यक्त की कि अब 'हंस' का उत्तराधिकारी कौन?
हिंदुस्तान लाईव,लखनऊ,पृष्ठ-26,दिनांक 31-10-2013


इस प्रश्न की आवश्यकता क्या थी ?जबकि राजेन्द्र यादव जी की फेसबुक वाल पर उनकी सुपुत्री सुश्री रचना यादव जी ने यह स्टेटस दे दिया था। :


मेरे पिता श्री राजेंद्र यादव के अचानक हम सब को छोड़ कर चले जाने पर आप सभी दोस्तों ने जितने शोक संदेश, संवेदना और श्रद्धांजलि अर्पित की है, मैं एवं हंस परिवार के सभी कार्यकर्ता आप सभी के आभारी हैं. इस समय हम सब को आप सभी के स्नेह, शुभकामनाओ और साथ की बहुत आवश्यकता है. पापा के हम सब में विश्वास और आपके इसी प्यार के भरोसे हम हंस की गरिमा को बनाये रखने कि कोशिश करेंगे और आप तक पहुँचाते रहेंगे.
परम् धन्यवाद सहित
रचना यादव एवं हंस परिवार


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पहले मेरा विचार इस गोष्ठी में उपस्थित होकर वक्ताओं को सुनने का था।  मुझे फेसबुक पर फ्रेंड स्वीकार करने में राजेन्द्र यादव जी ने बिलकुल भी संकोच नहीं किया था;  मैं तो उनको एक महान साहित्यकार के रूप में जानता था  जबकि मैं  खुद उनके लिए अनजान व्यक्ति था।परंतु फिर यह सोच कर जाना स्थगित कर दिया कि वहाँ तो बड़े- बड़े लोग होंगे और थे भी जिनमें सिर्फ  इप्टा के राकेश जी ही अभिवादन का ठीक से जवाब देते हैं बाकी लोग तो आश्चर्य से देखते हैं कि यह मामूली आदमी यहा कैसे?जब हिंदुस्तान में 'हंस' के उत्तराधिकारी के बारे में जिज्ञासा का समाचार पढ़ा तो लगा कि मैंने वहाँ उपस्थित न होकर अच्छा ही किया।
 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Monday, 28 October 2013

भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है---पी. सी. हादिया/कँवल भारती


आरक्षण पर एक विहंगम दृष्टि
https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/3464677072904 
आरक्षण पर अभी हाल में पी. सी. हादिया की पुस्तक ‘रिजर्वेशन, अफरमेटिव एक्शन एंड इनक्लुसिव पालिसी’ पढने को मिली, जो आरक्षण के पक्ष-विपक्ष और परिणाम पर एक विहंगम दृष्टि डालती है. आरक्षण पर हर पहलू से गम्भीर विचार करने वाली यह मुझे पहली पुस्तक लगी. इस किताब में 18 अध्याय हैं और इसका फोरवर्ड गुजरात हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वाई, आर. मीना ने लिखा है. किताब के परिचय में हादिया लिखते हैं कि भारत में हिन्दूधर्म और मनुस्मृति के समय से ही शूद्रों, अछूतों और आदिवासियों पर राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक शासन करने के लिए सारी सत्ताओं और विशेषाधिकारों का आरक्षण द्विजों के लिये मौजूद रहा है. ये विशेषाधिकार सिर्फ उन पर शासन करने के लिए ही नहीं थे, बल्कि उनको अधिकारों से वंचित करने के लिए भी थे. वह लिखते हैं कि भारत अतीत में जो विदेशी हमलावरों से अपनी सीमाओं की रक्षा नहीं कर सका, उसका यही कारण था कि एक वर्ण विशेष को ही लड़ने का अधिकार था, शेष दूसरी जातिओं के लोगों को राज्य की सेनाओं से बाहर रखा जाता था. अगर सेना में भारी संख्या में दलित जातिओं की भरती की जाति, तो भारत विदेशी शासकों का गुलाम नहीं बनता. इसलिए हादिया लिखते हैं कि भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है.
हादिया आगे बहुत ही रोचक जानकारी देते हैं कि सिपाही-विद्रोह के बाद जब रानी विक्टोरिया ने कम्पनी राज समाप्त कर भारत का शासन अपने हाथों में लिया, तो उन्होंने ब्रिटिश सेवाओं में भर्ती के लिए जाति और धर्म के भेदभाव को कोई मान्यता नहीं दी थी. इस के तहत सतेन्द्र नाथ टैगोर पहले भारतीय थे, जो 1863 में काविनेनटेड सिविल सर्विस में चुने गये. यही वह सर्विस थी, जो बाद में इण्डियन सिविल सर्विस के नाम से जानी गयी. वह आंबेडकर के हवाले से बताते हैं कि ‘आईसीएस में भारतीय युवकों को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नौ छात्रों को, जो सभी उच्च जातियों के थे, छात्रवृत्ति देकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा था. लेकिन सरकार के इन प्रयासों के बावजूद आईसीएस में भारतीयों की संख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई थी, क्योंकि भारतीयों की मेरिट उस लेबिल की थी नहीं. 1920 में ICS की 35 प्रतिशत सीटें भारतीयों के लिए आरक्षित कर दी गयी थीं और 1922 के बाद से भारत में ही ICS की परिक्षाएं भी होने लगी थी. पर, इस आरक्षण के बावजूद अपर कास्ट हिन्दू 1942 में कुल आरक्षित 1056 सीटों में से 363 पर ही अपनी योग्यता दिखा पाए थे.’ इससे हमें पता चलता है कि भारत में ब्रिटिश राज के अंतर्गत अपर कास्ट हिन्दू आरक्षण का लाभ ले रहे थे. लेखक कहता है कि अगर आरक्षण न होता, तो ICS में उनकी उपस्थिति इतनी भी नहीं होती. लेकिन यह विडंबना ही है कि जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गये, तो देश पर शासन करने की सम्पूर्ण सत्ता इन्हीं (अयोग्य) हिन्दुओं के हाथों में आयी.
किताब का दूसरा अध्याय उस हौवा पर है, जो योग्यता के नाम पर खड़ा किया गया है. यह इस किताब का सबसे पठनीय और महत्वपूर्ण अध्याय है. इस अध्याय में उन तमाम छल-प्रपंचों पर चर्चा की गयी है, जिन्हें परिक्षाओं में उच्चतम नम्बर प्राप्त करने के लिए अपर कास्ट हिन्दुओं ने बनाया हुआ है. इस अध्याय में भारत के विभिन्न न्यायलयों में आरक्षण पर दिए गये अनेक महत्वपूर्ण फैसलों का भी तार्किक विश्लेषण किया गया है. लेखक ने इस अध्याय में formal समानता और proportional समानता दोनों किस्म की समानताओं पर चर्चा की है, जो बहुत ही तर्कपूर्ण है. अध्याय का अंत डा. आंबेडकर के इस कथन से होता है कि ‘यदि अगर सभी समुदायों को समानता के स्तर पर लाना है, तो इसका सिर्फ एक ही हल है कि असमानता से पीड़ित लोगों को समानता के स्तर पर लाया जाये.’
इस किताब का अंतिम अध्याय reservation sans tears है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है. मैं समझता हूँ कि अभी तक आरक्षण के इतने सारे पहलुओं पर सम्यक चिन्तन और विमर्श आप कहीं नहीं पाएंगे, जो इस अध्याय में है. यह अध्याय भारत के पूर्व राष्ट्रपति के आरनारायण की इस चेतावनी से समाप्त होता है, जो उन्होंने 25 जनवरी 2000 को कहा था कि ‘पीड़ित लोगों के कोप से बचो.’
26 अक्टूबर 2013

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Saturday, 26 October 2013

गणेशशंकर विद्यार्थी ---Indrabhuwan Tripathi



जन्म- 26 अक्टूबर, 1890, प्रयाग; मृत्यु- 25 मार्च, 1931) एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के 'स्वाधीनता संग्राम' में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुँह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।

जीवन परिचय

गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग (आधुनिक इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे और उर्दू तथा फ़ारसी ख़ूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।

व्यावसायिक शुरुआत
गणेशशंकर विद्यार्थी अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर जी को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी।

सम्पादन कार्य

इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने करेंसी ऑफ़िस में नौकरी की, किन्तु यहाँ भी अंग्रेज़ अधिकारियों से इनकी नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' के लिए बुला लिया। विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गये और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक का इनका जीवन अत्यन्त संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी सम्पादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में 'प्रताप' (साप्ताहिक) के सम्पादक हुए। इन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज़ बुलन्द की।

लोकप्रियता
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किये गये अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा पत्रकार, शैलीकार एवं निबन्ध लेखक रहे थे। यह अपनी अतुल देश भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबन्ध त्याग और बलिदान सम्बन्धी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।

साहित्यिक अभिरूचि

पत्रकारिता के साथ-साथ गणेशशंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरूचियाँ भी निखरती जा रही थीं। आपकी रचनायें 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया था। हिन्दी में "शेखचिल्ली की कहानियाँ" आपकी देन है। "अभ्युदय" नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था, से भी विद्यार्थी जी जुड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर "प्रताप" अखबार की शुरूआत की। 'प्रताप' भारत की आज़ादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ। कानपुर का साहित्य समाज 'प्रताप' से जुड़ गया। क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेशशंकर विद्यार्थी 'जंग-ए-आज़ादी' के एक निष्ठावान सिपाही थे। महात्मा गाँधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी, क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।[3]

भाषा-शैली

गणेशशंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है।






संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Monday, 21 October 2013

सच्चाई और ईमानदारी अजायबघर की अमूल्य निधि बन कर रह गई है ---चक्रपाणि 'हिमांशु'

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( चक्रपाणि 'हिमांशु' जी एवं  'पाटलीपुत्र टाईम्स'को हार्दिक बधाई )
 पाटलीपुत्र टाईम्स की 29 वीं वर्षगांठ पर विशेष :
कैसे बीत गए 28 वर्ष..!!---चक्रपाणि 'हिमांशु'




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तारीख 21/10/1985 | पटना से प्रकाशित पाटलिपुत्र टाइम्स दैनिक के विशेष काॅलम 'मेरी नजर' में छपे मेरे इस छोटे से आलेख के साथ ही शुरू हुई थी मेरी पत्रकारिता | यह मेरा पहला आलेख था |
पाटलिपुत्र टाइम्स का वह काल बिहार में पत्रकारिता की दशा और दिशा निर्धारित करने वाले काल के रूप मे रेखांकित किया जा सकता है | उस समय जब पटना में आर्यावर्त, इंडियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप और जनशक्ति जैसे दैनिकों का दबदबा और रुतवा था; तब पाटलिपुत्र टाइम्स; अखबार के प्रिंटिंग, कंटेंट और प्रस्तुति के तौर तरीकों पर नित नये प्रयोग कर रहा था |संयोग या सच; उस वक्त 'पा० टा०' की टीम का; कुछ नया करने का जज्बा ऐसा कि; वह किसी भी समाचार पत्र की ड्रीम टीम हो सकती है| उस वक्त 'पा०टा०' से जुड़े थे- मणिकांत ठाकुर (बीते माह बी०बी०सी० की हिंदी सेवा से रिटायर), प्रभात रंजन दीन (संप्रति- संपादक, कैनविज टाइम्स, लखनऊ), अवधेश प्रीत (संप्रति- हिन्दुस्तान, पटना, वरिष्ठ साहित्यकार व कथाकार), विकास कुमार झा (माया), संजय निरूपम (संप्रति- सांसद), अजीत अंजुम (संप्रति- मैनेजिंग एडीटर, न्यूज 24), नवेन्दु-श्रीकांत (संप्रति- बिहार के चर्चित व वरिष्ठ पत्रकार), कल्पना अशोक (संप्रति- समाजसेवा व लेखन), सलिल सुधाकर (संप्रति- फिल्म/टीवी आर्टिस्ट) सुधीर सुधाकर (संप्रति- इलेक्ट्रनिक मीडिया), ज्ञानवधर्धन मिश्र, राजेन्द्र कमल, रतीन्द्रनाथ (संप्रति- ब्यूरो प्रमुख, शुक्रवार मैगजीन), खुर्शीद अनवर, मुकेश प्रत्यूष, डा० दीपक प्रकाश के अलावे और भी कई नाम ऐसे हैं जो फिलहाल स्मृति पटल पर नहीं आ रहे | ....और इन सबसे छोटा मैं ! पटना सायंस काॅलेज का नया नया छात्र ! इन हस्तियों के बीच जब मैं बार बार छपता तो रोमांचित भी होता और इन लोगों के लेखन से कुछ न कुछ सीखने की चेष्टा भी करता था |
...और संपादक थे विनोदानंद ठाकुर, फिर माधवकांत मिश्र; जो मेनका गांधी की मैगजीन सूर्या इंडिया से आए थे, बाद में वे राष्ट्रीय सहारा में रहे (संप्रति- अाध्यात्म की ओर झुके और विभिन्न टीवी चैनलों पर उनका विशेष कार्यक्रम ' रुद्राक्ष का पौधा' आता रहता है|)
"पा०टा०" संभवतः देश का पहला अखबार था; जिसने बीच के पेज (संपादकीय के सामने वाला) पर विभिन्न विषयों पर प्रतिदिन फीचर छापने की शुरुआत की | इससे पहले केवल रविवार को ही अखबारों में फीचर सप्लीमेंट देने की परंपरा थी | ऐसी शुरुआत बाद में जनसत्ता ने की थी..उसके बाद देश के सभी अख़बारों ने |
तीन दिन बाद मेरा यह आलेख 28 वर्ष पुराना हो जाएगा | इस बीच कई अख़बार, कई मैगजीन, कई मीडिया हाउस...और साथ में अब- फ़ेसबुक ! ..जहाँ आज भी अपने सैकड़ों मित्रों से रोज़ कुछ न कुछ सीखता हूँ और अपने विचार शेयर करता हूँ; भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा......आमीन !!

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Saturday, 19 October 2013

सवाल-जवाब :फेसबुक पर ---विजय राजबली माथुर



19 अक्तूबर 2013

Prathak Batohi 'राम' भी अधिनायकवाद पर चलने लगे.... Vijai Mathur सर क्या इसे प्रमाणित किया जा सकता है
 पृथक साहब यदि आप इस नोट पर दिये गए लिंक तक जाते तो ज्ञात होता कि प्रस्तुत लेख-'सीता का विद्रोह' डॉ रघुवीर शरण'मित्र' के खंड काव्य 'भूमिजा' पर अवलंबित है। यह पुस्तक मेरठ  विश्व विदध्यालय ,मेरठ के बी  ए  के कोर्स में 1970-71 के दौरान  पढ़ी थी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में डॉ 'मित्र' ने खुद लिखा है जो कि मेरे लिए तो पर्याप्त प्रमाण है। 'कोर्ट'-कचहरी के लिहाज से मैं कोई प्रमाण नहीं प्रस्तुत कर सकता हूँ। फिर भी इतना ज़रूर कहना चाहूँगा वहीं बी ए 'समाजशास्त्र' की एक पुस्तक में पढ़ा था कि प्राचीन काल का अध्यन  करते समय हमें सूत्रों से तथ्य खोजने होते हैं । उदाहरण के तौर पर वर्णन था कि जैसे हम धुआँ देख कर अनुमान लगा लेते हैं कि ज़रूर 'आग 'लगी है और 'गर्भिणी' को देख कर अनुमान लगाते हैं कि 'संभोग' हुआ है उसी प्रकार अध्यन में प्राप्त सूत्रों से अनुमान लगाए जाते हैं। वरना नौ लाख वर्ष पूर्व (राम-रावण युद्ध )के प्रमाण आज कौन जुटा सकता है ज़रा आप खुद ही बता दीजिएगा बहुत-बहुत मेहरबानी होगी। 

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Nitin Devak आपने मुझे ये लिंक दिया है। इसी आधार पर मैं जानना चाहता हूँ अगर तुम आर्य हो तो आनार्य कौन है ?
 
नितिन देवक जी आपने 'आर्य' और 'अनार्य' के बारे में जानकारी चाही है इस संबंध में निवेदन इस प्रकार है-
 
आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है और न ही इसका संबंध किसी 'काल-TIME' से है ,इसका तात्पर्य नर या नारी अथवा स्त्री या पुरुष से भी नहीं है। यह मोटा-पतला,काला-गोरा,लम्बा-नाटा के सन्दर्भ में भी नहीं है। 
 
विदेशी साम्राज्यवादियों ने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और पढ़ाया है उसी का दुष्परिणाम आज देश में फूट के रूप में सामने है। विदेशियों ने खुद को सर्वोच्च सिद्ध करने के लिए आर्यों को भारत पर आक्रांता के रूप में दर्शाया है जिसके परिणाम स्वरूप 'आर्य'बनाम ',मूल निवासी' संघर्ष चल रहा है। 
 
आज से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव-सृष्टि हुई तो 'युवा नर' और 'युवा नारी' के रूप में हुई थी जिनकी सन्तानें पूरी दुनियाँ में आज भी फैली हुई हैं। 
 
अफ्रीका,मध्य यूरोप और 'त्रिवृष्टि' अर्थात 'तिब्बत' में एक साथ युवा सृष्टि हुई थी। रूप-रंग,आकार-प्रकार क्षेत्र की जलवायु के अनुरूप विकसित हुये। 
 
इनमें   त्रिवृष्टि के लोग सर्वांगीण विकास करने में सफल रहे और आबादी बढ्ने पर दक्षिण में हिमालय पर करके आ बसे जिसे हम आज भारत वर्ष कहते हैं। यहाँ जिस सभ्यता का विकास हुआ वह आचरण के दृष्टिकोण से 'श्रेष्ठ'थी जिसे उस समय की संस्कृत में 'आर्ष' कहते थे जो अब 'आर्य' हो गया है। इस प्रकार आर्य का अर्थ श्रेष्ठ 'कर्म' और 'स्वभाव'से है। जिनके कर्म इसके विपरीत हों वे ही 'अनार्य' हैं। 

शोषण,उत्पीड़न,लोभ -लालच के चलते पोंगा-पंडितों और शासकों ने 'कर्म' पर आधारित 'वर्ण-व्यवस्था' को 'जन्म'पर आधारित करके 'जाति' व्यवस्था में बदल डाला जो कि 'अनार्य-व्यवस्था' है। अतः आज मुख्य रूप से कोई भी खुद को 'आर्य'कहने का हकदार नहीं है। फिर भी जिनके 'कर्म' श्रेष्ठ हों,आचरण श्रेष्ठ हों उनको आर्य की संज्ञा दी जा सकती है। 


Friday, 18 October 2013

'महर्षि वाल्मीकि'जयंती---विजय राजबली माथुर

आज 18 अक्तूबर 2013 'महर्षि वाल्मीकि'जयंती है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वाल्मीकि जी को आज एक जाति विशेष से संबन्धित कर दिया गया है। उसी जाति से अब 'रावण' को भी संबन्धित करने के प्रयास कुछ विद्वान कर रहे हैं। महर्षि वाल्मीकि ने ही 'रावण-वध की पूर्व योजना' का निर्धार किया था। जिसके अनुरूप ही 'राम' को 'वनवास' दिलाया गया और 'साम्राज्यवादी' रावण का संहार किया गया। 'राम' और 'रावण' दोनों ही आर्य थे और वह युद्ध 'आर्य' एवं 'आर्य' के मध्य ही लड़ा गया था। किन्तु विदेशी साम्राज्यवादियों ने 'आर्यों' को विदेशी आक्रांता घोषित करके जो विभ्रम पैदा किया था वह आज तक भारत वर्ष के लिए अभिशाप बना हुआ है। 'वेदों' को आज हिन्दू धर्म का ग्रंथ घोषित किया जा रहा है पहले गड़रियों के गीत कहा गया था। 'हिटलर' खुद को 'आर्य' घोषित करने लगा था। हमारे विद्वान विदेशी साम्राज्यवादियों के षड्यंत्र को आज भी न समझ कर परस्पर संघर्ष रत हैं। 'वेदों' में समस्त मानवता के कल्याण की बात कही गई है।
किन्तु जब 'राम' भी अधिनायकवाद पर चलने लगे और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं का क्षरण होने लगा तब पुनः 'महर्षि वाल्मीकि'ही सामने आए और उनकी प्रेरणा से 'गर्भवती' सीता जी ने राम के विरुद्ध 'विद्रोह' कर दिया तथा महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही शरण ली थी। सीता जी के पुत्रों 'लव' और 'कुश' को महर्षि वाल्मीकि ने खुद प्रशिक्षित किया था जिस कारण वे राम के 'अश्वमेध' को पकड़ कर राम को ललकार कर पराजित कर सके। आज महर्षि वाल्मीक जयंती पर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे देशवासियों को 'लोकतन्त्र रक्षा' की दृढ़ प्रेरणा उनके कृतित्व से मिल सके।

Wednesday, 16 October 2013

सियासत से नफरत न करें ---उमर अब्दुल्ला

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वास्तविकता से मुंह मोड़ना है -'राजनीति' और 'राजनीतिज्ञों' पर प्रहार---विजय राजबली माथुर 

July 14, 2012 at 9:27am
वास्तविकता से मुंह मोड़ना है -'राजनीति' और 'राजनीतिज्ञों' पर प्रहार

गुवाहाटी,लखनऊ के पुलिस थाना  और बागपत की खाप पंचायत की आड़ मे उदभट्ट विद्वान 'राजनीति' और 'राजनीतिज्ञों' को जम कर कोस रहे हैं और इस प्रकार प्रकारांतर से वे RSS तथा भ्रष्ट IAS आफ़ीसर्स द्वारा देश मे अर्द्ध-सैनिक तानाशाही स्थापित होने पर जनता को उसका स्वागत करने हेतु तैयार कर रहे हैं।

समाज मे व्याप्त 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' जिसे धर्म के नाम पर पूजा जा रहा है ही वस्तुतः उच्श्रंखलता हेतु उत्तरदाई है। धन और धनवानों को अनावश्यक सम्मान उसमे और इजाफा कर देता है। दक़ियानूसी और संकीर्ण सोच वाले साम्यवादी विद्वान सिर्फ और सिर्फ 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को ही धर्म मानते हैं। अतः वे सिरे से ही धर्म को खारिज करते हुये उसे अफीम कह कर आलोचना करते हैं परिणामतः पाखंडियों को लूट का खुला मैदान मिल जाता है।

अज्ञान या न समझने की ज़िद्द के कारण ये विद्वान जनता को वास्तविक 'धर्म' से परिचित नहीं होने देना चाहते हैं। यदि जनता को समझाया जाए कि 'धर्म' वह नहीं है जिसे पाखंडी पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहते हैं तो सभी समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। जड़ पर प्रहार न करके राजनीति और राजनीतिज्ञों पर हमला करना लोकतन्त्र/जनतंत्र की जड़ों मे 'मट्ठा' डालना है।

https://www.facebook.com/ 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Tuesday, 15 October 2013

गरीब दलित मजदूर इस हालत........... नक्सलवाद का आसान शिकार हैं

कानून को इतना अन्धा नहीं होना चाहिए
कॅंवल भारती
31 दिसम्बर 1930 को गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व पर बोलते हुए डा0 आंबेडकर ने कहा था कि दलित वर्गों को यह भय है कि भारत का भावी संविधान इस देश की सत्ता को जिन बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपेगा, वे और कोई नहीं, रूढि़वादी हिन्दू ही होंगे। अतः दलित वर्ग को आशंका है कि रूढि़वादी हिन्दू अपनी रूढि़यों और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ेंगे। और जब तक वे अपनी रूढि़यों, कट्टरपन और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ते, दलितों के लिये न्याय, समानता और विवेक पर आधारित समाज एक सपना ही रहेगा। इसी सम्मेलन में आंबेडकर ने यहाॅं तक कहा था कि भारतीयों की मानसिकता साम्प्रदायिक है, हालांकि हम आशा कर सकते हैं कि एक समय आयेगा, जब वे साम्प्रदायिक दृष्टि का परित्याग कर देंगे; पर यह आशा ही है, सत्य नहीं है। इसलिये उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ समय के लिये भारतीय सेवाओं में अंग्रेजों को ही रखा जाय और भारतीयों को न लिया जाय, क्योंकि भारतीयों को लेने से दलितों पर अत्याचार बढ़ जायेगा।
डा0 आंबेडकर के ये शब्द आजादी के बाद दलितों पर हुए दमन और अत्याचार के हर काण्ड के सन्दर्भ में प्रासंगिक हो जाते हैं। आंबेडकर अपनी शंका में गलत नहीं थे। जिन रूढि़वादी हिन्दुओं के हाथों में स्वतन्त्र भारत की सत्ता आयी, उसका प्रथम राष्ट्रपति 108 ब्राह्मणों के पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था। केन्द्र में पंडित नेहरू प्रधानमन्त्री थे, तो सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री भी ब्राह्मण बनाये गये थे। सिर्फ यही नहीं, कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासन-तन्त्र पर ब्राह्मणों के वर्चस्व ने भारत में एक ऐसे साम्प्रदायिक और रूढि़वादी शासन की आधारशिला रख दी थी, जिससे यह आशा करना ही व्यर्थ था कि वह दलित वर्गों के प्रति सम्वेदनशील और न्यायप्रिय होगा। परिणामतः, स्वतन्त्र भारत में दलितों पर जुल्मों की जो बाढ़ शुरु हुई, वह अब तक थम नहीं रही है। जिस देश का संविधान सबके लिये समान न्याय पर आधारित हो, उस देश में यदि दलितों पर जुल्म और हिन्सा के बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे, देहुली, परसबीघा, कफल्टा, साढूपुर, कुम्हेर, पूरनपुर, गुलबर्गा, पनवारी, खैरलान्जी और मिर्चपुर जैसे नृशंस काण्ड-पर-काण्ड होतेे हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि उसके मूल में वही रूढि़वादी हिन्दुत्व (और सामन्तवाद) है, जिसकी आशंका डा0 आंबेडकर ने की थी।
1989 में सरकार ने इन अत्याचारों को रोकने के लिये अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया। किन्तु जब उसका कोई असर नहीं पड़ा, तो 1995 में उसमें संशोधन कर उसे और भी सशक्त बनाया गया। पर दलितों पर अत्याचार इसके बाद भी बन्द नहीं हुए। और इसलिये बन्द नहीं हुए, क्योंकि रूढि़वादी हिन्दू देश के कानून को अपने ठेंगे पर रखते हैं और मनु के कानून को अपने दिल में। अब सवाल यह है कि इतने सशक्त कानून के बाद भी दलितों को न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? रूढि़वादी हिन्दुओं के हौसले क्यों बुलन्द हैं? कारण इसका भी यही है कि न्यायपालिका में न्याय करने वाले काबिज तत्व उसी रूढि़वादी समाज से आते हैं, जिनके हाथों में देश की शासन-सत्ता आयी। अतः, कहना न होगा कि सत्ता, पुलिस और न्यायपालिका के गठजोड़ ने दलितों के लिये न्याय को भी दुर्लभ और दमनकारी बना दिया है। रूढि़वादी हिन्दू समुदाय आज भी देश को अपनी बपौती समझते हैं और दलित वर्गों को अपना गुलाम। वे उन्हें न सामाजिक सम्मान देना चाहते हैं और न उनका आर्थिक विकास चाहते हैं। यही कारण है कि जब सामाजिक न्याय की राजनीति ने जाति को आधार बनाया, तो रूढि़वादी हिन्दुओं ने उसे अपने वर्चस्व के लिये चुनौती के रूप में लिया और परिवर्तन की हर धारा को अवरुद्ध करने के लिये वे अमानवीयता की किसी भी हद तक जाने के लिये तैयार हो गये। इसलिये यह सवाल उठना जरूरी है कि क्या 1977 में लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितों के हत्यारे, जो सामन्ती रणवीर सेना के लोग थे, बाइज्जत बरी हो सकते थे? कदापि नहीं। हम किसे न्याय कहें-निचली अदालत द्वारा 26 हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुनाने के फैसले को या पटना हाईकोर्ट द्वारा उन हत्यारों को बाइज्जत बरी करने के आदेश को? एक अदालत हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुना रही है, यह साबित करके कि दलित मजदूरों की हत्याएॅं उनके ही द्वारा की गयीं थीं। किन्तु, दूसरी अदालत, जो उच्च मानी जाती है, पिछले फैसले को उलट देती है, यह साबित करके कि दलितों की हत्याएॅं करने में उनका हाथ नहीं है और वह उन्हें निर्दोष मान कर रिहा कर देती है। यह किस तरह का न्याय है? जो सच निचली अदालत को दिखायी दे रहा था, वह सच उच्च न्यायालय को दिखायी क्यों नहीं दे रहा था? कौन मानेगा कि यह (अ)न्याय सत्ता और न्याय-तन्त्र का वीभत्स चेहरा नहीं है? अगर उच्च न्यायालय के मुताबिक रणवीर सेना के लोगों ने हत्याएॅं नहीं की थीं, तो क्या उन 58 लोगों ने स्वयं ही अपनी नृशंस हत्याएॅं कर ली थीं? अगर उन्होंने ही आत्महत्याएॅं की थीं, तो क्या बच्चों ने भी अपना कत्ल स्वयं कर लिया था? न्याय के नाम पर दलितों के साथ यह कैसी विवेकहीनता है? क्या न्याय के नाम पर यही दमन-चक्र चलेगा? अगर इसका जवाब हाॅं में है, तो भले ही गरीब दलित मजदूर इस हालत में नहीं हैं कि वे प्रतिकार कर सकें, पर याद रहे कि वे नक्सलवाद का आसान शिकार हैं।
1997 में मैंने फूलनदेवी पर लिखे अपने एक लेख (देखिए मेरी पुस्तक ‘समाज, राजनीति और जनतन्त्र’, पृष्ठ 72) में लिखा था- ‘माना कि कानून की देवी देख नहीं सकती, उसकी आॅंखों पर पट्टी बॅंधी होती है। लेकिन यह प्रश्न भी अब उठाया जाना चाहिए कि कानून की देवी (खास तौर से दलित वर्ग के सन्दर्भ में) अन्धी क्यों होती है? अब उसकी आॅखों पर से पट्टी हटाने की जरूरत है, ताकि वह सिर्फ तर्कों, बहसों और साक्षों की आॅखों से ही नहीं, बल्कि अपनी नंगी आॅंखों से भी सत्य को देख सके, यथार्थ का साक्षात कर सके। तर्क और साक्ष्य झूठे और फर्जी हो सकते हैं और ऐसे मामले भी कम नहीं हैं, जब झूठे और फर्जी साक्ष्यों के आधार पर निर्दोष लोगों को अदालतों ने जेल भेजा है। यह अन्याय उनके साथ इसीलिये हुआ कि कानून की देवी अन्धी होती है।’
14 अक्टूबर 2013

Tuesday, 1 October 2013

लखनऊ रैली राजनीतिक सन्नाटे को तोड़ने वाली---अतुल कुमार अंजान

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 "जुलूस का नेतृत्व भाकपा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड सुधाकर रेड्डी,राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान,प्रदेश सचिव डॉ गिरीश चंद्र शर्मा , डॉ अरविंद राज स्वरूप एवं पूर्व प्रदेश सचिव  कामरेड अशोक मिश्रा जी ने किया। लखनऊ ज़िला काउंसिल के जत्थे का एक विशेष भाग मोटर साईकिल सवार युवा प्रदर्शंनकारी रैली में आकर्षण का केंद्र बिन्दु था ।
जहां तक रैली की भौतिक सफलता का प्रश्न है रैली पूर्ण रूप से सफल रही है और कार्यकर्ताओं में जोश का नव संचार करते हुये जनता के मध्य आशा की किरण बिखेर सकी है।"
http://vidrohiswar.blogspot.in/2013/09/3-30.html 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर