Saturday, 26 December 2015
Saturday, 19 December 2015
ब्राहमणवाद का राजनीतिक अर्थशास्त्र ------ महेश राठी
हिंदू समाज में दलित के रूप में पैदा होना निश्चित ही दुनिया का सबसे निकृष्टतम कृत्य और कृत्य भी ऐसा जिसमें आपका कोई हाथ नही होता है। यह निकृष्टता और अपमान ब्राहमणवादी संघी टोले के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद से अपने चरम पर है। ब्राहमणवादियों की दबंगई और उसमें सत्ता का दुरूपयोग अपनी पूरी आक्रामकता और निर्लज्जता के साथ देश में चारो तरफ पैर पसार रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी भी इस दबंगई से अछूती नही है।
ब्राहमणवाद का राजनीतिक अर्थशास्त्र :
हिंदू समाज में दलित के रूप में पैदा होना निश्चित ही दुनिया का सबसे निकृष्टतम कृत्य और कृत्य भी ऐसा जिसमें आपका कोई हाथ नही होता है। यह निकृष्टता और अपमान ब्राहमणवादी संघी टोले के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद से अपने चरम पर है। ब्राहमणवादियों की दबंगई और उसमें सत्ता का दुरूपयोग अपनी पूरी आक्रामकता और निर्लज्जता के साथ देश में चारो तरफ पैर पसार रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी भी इस दबंगई से अछूती नही है।
द्वारका इलाके में कुतुब विहार नामक कालोनी में एक दलित रामप्रसाद के नेतृत्व में कालोनी के अनुसूचित जाति के लोगों ने कुछ साल पहले एक मंदिर की नींव रखी और कईं सालों की मेहनत के बाद उसे विकसित भी किया। अब अचानक इलाके के ब्राहमणवादी भाजपाईयों को याद आ गया कि उनकी देवी देवताओं की देखभाल करने वाले लोग दलित हैं और उन्हें उनके देवी देवताओं की रखवाली और पूजा अर्चना करने का कोई अधिकार नही है। उसके बाद भाजपा के स्थानीय नेता शेलैन्द्र पाण्ड़े के साथ मिलकर उनकी ही पार्टी के दो अन्य कार्यकर्ताओं अभिमन्यू और मनीषा ने रामप्रसाद और उनके परिवार को मंदिर से धक्के देकर बाहर कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि तुम नीच जाति वालों को पूजा पाठ करने विशेषकर मंदिर की देखभाल करने का कोई अधिकार ही नही है। रामप्रसाद ने थाने जाकर शिकायत करनी चाही तो थानाध्यक्ष ने साफ कहा कि शिकायत मत करो पछताना पडेगा और शिकायत लेने से मनाकर दिया। उसके बाद उन्होंने अपनी शिकायत डीसीपी और पुलिस आयुक्त को एवं अनुसूचित जाति जनजाति आयोग में भी भेजी जहां आयोग ने 29 दिसम्बर को इस मामले की सुनवाई तय की है।
अब थानाघ्यक्ष की चेतावनी के मूर्त रूप लेने का समय था। भाजपा नेता ने अपनी सहयोगी मनीषा के माध्यम रामप्रसाद पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगवाकर उसे जेल भेज दिया। पंरतु ऐसा मामला बनने की आशंका को लेकर एक शिकायत रामप्रसाद ने पहले ही पुलिस विभाग को कर दी थी और उसी के आधार पर उन्हें जमानत भी मिल गई। इस इलाके में जगह जगह लगे पोस्टर एवं होर्डिंग्स भाजपा नेता के पद एवं रसूख का पता दे रहे हैं तो वहीं उनके साथ उन्हीं होर्डिंग्स में लगी उस महिला की तस्वीर भी पूरी कहानी बयां कर देती है जिसने रामप्रसाद को छेडछाड़ को आरोप में फंसवाया है।
दरअसल यह पूरा मामला सरकारी जमीन को हड़पने का है। डीडीए की कईं बीघा जमीन में यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर के पास भी लगभग एक हजार गज की जमीन पर बना ढ़ंाचा है अर्थात मामला स्थानीय निवासियों द्वारा इस मंदिर को कालोनी के कब्जे में रखकर इसका सामाजिक इस्तेमाल करने बनाम लैंड माफिया द्वारा इसे हथियाकर बेचन का है। जिसने कईं सालों तक इस मंदिर को बनाने में अपना सब कुछ लगाया और जिसका पूरा परिवार इस मंदिर के रख रखाव में लगा उसे एक दिन ब्राहमणवादी संगठन के प्रदेश स्तरीय नेता ने बता दिया कि तुम दलित हो और ना मंदिर तुम्हारा है और यह धर्म ही तुम्हारा है, भागो यहां से। हिंदू धर्म, उसके मंदिर उसके पूरे कार्मकाण्ड़ों का सच ही यही है कि वो एक वर्ग विशेष को देश और समाज के पूरे संसाधनों पर कब्जे और उसके दोहन का अर्थशास्त्र सिखाता है। यह तभी से जारी है जब हजारों साल पहले इस देश के मूल निवासियों पर आर्यों के रूप में पहला साम्राज्यवादी हमला हुआ था।* तभी से इन ब्राहमणवादियों की कोशिश धार्मिक कर्मकाण्ड़ों पर अपना वर्चस्व बनाने के माध्यम से पूरी प्राकृतिक और राष्ट्रीय संपदा के दोहन की है। परंतु अब लड़ाई का बिगुल बज चुका है और कुतुब विहार, गोला डेरी में ब्राहमणवाद के कब्जे से इस मंदिर को आजाद कराकर इसे समता प्रेरणा स्थल के रूप स्थापित किया जायेगा। आप सभी के इसमें सहयोग की आशा है।
https://www.facebook.com/mahesh.rathi.33/posts/10203777537797264
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'भारत पर आर्यों का हमला ' यह एक पाश्चात्य दृष्टिकोण है जो साम्राज्यवादियो द्वारा खुद को श्रेष्ठ साबित करने का एक घृणित प्रयास है।
वस्तुतः आर्य न कोई जाति है, न संप्रदाय, न ही धर्म । आर्य शब्द आर्ष का अपभ्रंश है जिसका अभिप्राय है 'श्रेष्ठ' अर्थात विश्व का कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ है वह आर्य है।
यदि पाश्चात्य दुष्चक्र में फंस कर आर्य को जाति,धर्म,संप्रदाय के रूप में लेकर हमलावर मानते रहेंगे तो कभी भी अपने लक्ष्य में सफल न हो सकेंगे, जैसा कि ब्राह्मणवादी चाहते भी हैं।
'त्रिवृष्टि' अर्थात तिब्बत क्षेत्र आर्यों का मूल उद्गम क्षेत्र है जहां 'स्व:' और 'स्वधा' का सृजन हुआ। ये श्रेष्ठ लोग जब आबादी बढ्ने पर दक्षिण में हिमालय के पार जिस निर्जन-क्षेत्र में बसे वह इनके कारण आर्यावृत कहलाया। पहले मूल निवासी तो ये श्रेष्ठ जन- आर्य ही थे। तब तक आज का दक्षिण भारत 'जंबू द्वीप' के रूप में एक अलग निर्जन टापू था। जब भू- गर्भीय हलचलों से 'जंबू द्वीप' उत्तर की ओर बढ़ कर आर्यावृत से टकराया तब 'हिंदमहासागर' नाम से जाना जाने वाला समुद्र सिकुड़ कर धुर दक्षिण में चला गया तथा जंबू द्वीप व आर्यावृत को संयुक्त करने वाले 'विंध्याचल' पर्वत की उत्पत्ति हुई। आर्यावृत से जंबू द्वीप पर आबादी के स्थानांतरण से आर्यजन वहाँ भी आबाद हुये। पाश्चात्य इतिहासकारों ने इनको प्रथक द्रविन घोषित करके पार्थक्य की भावना को पोषित कर रखा है।
जब अफ्रीका व यूरोप की आबादी को श्रेष्ठ अर्थात आर्य बनाने के उद्देश्य से आर्यों के जत्थे पश्चिम से चले तो उनका पहला पड़ाव था आर्यनगर= एर्यान= ईरान। खोमेनी से पहले तक वहाँ का शासक खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहता था। आगे बढ़ते हुये आर्य मेसोपोटामिया होते हुये जर्मनी पहुंचे थे। लेकिन पाश्चात्य जगत से गुमराह लोग उल्टा कहते हैं कि वहाँ से आर्य भारत पर आक्रमण करके आए थे।
पूर्व से चले आर्य वर्तमान चीन, साईबेरिया क्षेत्र से होते हुये ब्लाड़ीवासटक और अलास्का को पार करते हुये कनाडा से दक्षिण की ओर बढ़े थे। उनका पहला पड़ाव 'तक्षक' ऋषि के नेतृत्व में जहां पड़ा था वह स्थान आज भी उनके नाम पर अपभ्रंश में 'टेक्सास' कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। दूसरा पड़ाव धुर दक्षिण में 'मय' ऋषि के नेतृत्व में जहां पड़ा वह आज भी उनके ही नाम पर मेक्सिको है।
दक्षिण दिशा में 'पुलत्स्य'ऋषि के नेतृत्व में गए आर्य वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे थे जहां का शासक 'सोमाली' एक निर्जन टापू की ओर अपने समर्थकों सहित भाग गया था वह आज भी उसी के नाम पर सोमाली लैंड है।
भारत से बाहर गए इन आर्यों का ध्येय लोगों को श्रेष्ठ मार्ग सिखाना अर्थात आर्यत्व में ढालना था। किन्तु पुलत्स्य के वंशज 'विश्र्श्वा' ने वर्तमान लंका में एक राज्य की स्थापना कर डाली जो अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ और इसी कारण उनका पुत्र रावण साम्राज्यवादी बन सका अपने अमेरिकी और साईबेरियाई सहयोगियों (एरावन व कुंभकरण ) की सहायता से। इसी साम्राज्यवादी आर्य - रावण को भारत के आर्य - राम ने कूटनीति व युद्ध में परास्त कर साम्राज्यवाद का सर्व प्रथम विनाश किया था।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्वान लेखक महेश राठी जी ने भी पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के दुर्भावनापूर्ण शब्द आर्य हमलावर थे को अपना लिया। भारतीय साम्यवाद के जनता के मध्य अलोकप्रिय होने का सबसे बड़ा कारण साम्यवादी विद्वानों द्वारा साम्राज्यवादी इतिहासकारों से भ्रमित होते रहना ही है। काश अब भी साम्यवादी विद्वान 'सत्य ' को स्वीकार करके ' हिन्दू' और 'ब्रहमनवाद' को अभारतीय कहने का साहस दिखा सकें तो सफलता उनके चरण चूम लेगी। साम्यवाद और कुछ नहीं वेदोक्त समष्टिवाद ही है लेकिन सत्य से दूर रहना और उसका वरन करने की बजाए उस पर प्रहार करते रहना ही वह वजह है जिसने जनता के दिलो-दिमाग में साम्यवाद के प्रति नफरत भर रखी है।महेश राठी जी सत्य के शस्त्र से हिंदूवाद और ब्रहमनवाद पर प्रहार करें तो निश्चय ही सफल होंगे , हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं।
(विजय राजबली माथुर )
Mahesh Rathi
19-12-2015 ·
ब्राहमणवाद का राजनीतिक अर्थशास्त्र :
हिंदू समाज में दलित के रूप में पैदा होना निश्चित ही दुनिया का सबसे निकृष्टतम कृत्य और कृत्य भी ऐसा जिसमें आपका कोई हाथ नही होता है। यह निकृष्टता और अपमान ब्राहमणवादी संघी टोले के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद से अपने चरम पर है। ब्राहमणवादियों की दबंगई और उसमें सत्ता का दुरूपयोग अपनी पूरी आक्रामकता और निर्लज्जता के साथ देश में चारो तरफ पैर पसार रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी भी इस दबंगई से अछूती नही है।
द्वारका इलाके में कुतुब विहार नामक कालोनी में एक दलित रामप्रसाद के नेतृत्व में कालोनी के अनुसूचित जाति के लोगों ने कुछ साल पहले एक मंदिर की नींव रखी और कईं सालों की मेहनत के बाद उसे विकसित भी किया। अब अचानक इलाके के ब्राहमणवादी भाजपाईयों को याद आ गया कि उनकी देवी देवताओं की देखभाल करने वाले लोग दलित हैं और उन्हें उनके देवी देवताओं की रखवाली और पूजा अर्चना करने का कोई अधिकार नही है। उसके बाद भाजपा के स्थानीय नेता शेलैन्द्र पाण्ड़े के साथ मिलकर उनकी ही पार्टी के दो अन्य कार्यकर्ताओं अभिमन्यू और मनीषा ने रामप्रसाद और उनके परिवार को मंदिर से धक्के देकर बाहर कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि तुम नीच जाति वालों को पूजा पाठ करने विशेषकर मंदिर की देखभाल करने का कोई अधिकार ही नही है। रामप्रसाद ने थाने जाकर शिकायत करनी चाही तो थानाध्यक्ष ने साफ कहा कि शिकायत मत करो पछताना पडेगा और शिकायत लेने से मनाकर दिया। उसके बाद उन्होंने अपनी शिकायत डीसीपी और पुलिस आयुक्त को एवं अनुसूचित जाति जनजाति आयोग में भी भेजी जहां आयोग ने 29 दिसम्बर को इस मामले की सुनवाई तय की है।
अब थानाघ्यक्ष की चेतावनी के मूर्त रूप लेने का समय था। भाजपा नेता ने अपनी सहयोगी मनीषा के माध्यम रामप्रसाद पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगवाकर उसे जेल भेज दिया। पंरतु ऐसा मामला बनने की आशंका को लेकर एक शिकायत रामप्रसाद ने पहले ही पुलिस विभाग को कर दी थी और उसी के आधार पर उन्हें जमानत भी मिल गई। इस इलाके में जगह जगह लगे पोस्टर एवं होर्डिंग्स भाजपा नेता के पद एवं रसूख का पता दे रहे हैं तो वहीं उनके साथ उन्हीं होर्डिंग्स में लगी उस महिला की तस्वीर भी पूरी कहानी बयां कर देती है जिसने रामप्रसाद को छेडछाड़ को आरोप में फंसवाया है।
दरअसल यह पूरा मामला सरकारी जमीन को हड़पने का है। डीडीए की कईं बीघा जमीन में यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर के पास भी लगभग एक हजार गज की जमीन पर बना ढ़ंाचा है अर्थात मामला स्थानीय निवासियों द्वारा इस मंदिर को कालोनी के कब्जे में रखकर इसका सामाजिक इस्तेमाल करने बनाम लैंड माफिया द्वारा इसे हथियाकर बेचन का है। जिसने कईं सालों तक इस मंदिर को बनाने में अपना सब कुछ लगाया और जिसका पूरा परिवार इस मंदिर के रख रखाव में लगा उसे एक दिन ब्राहमणवादी संगठन के प्रदेश स्तरीय नेता ने बता दिया कि तुम दलित हो और ना मंदिर तुम्हारा है और यह धर्म ही तुम्हारा है, भागो यहां से। हिंदू धर्म, उसके मंदिर उसके पूरे कार्मकाण्ड़ों का सच ही यही है कि वो एक वर्ग विशेष को देश और समाज के पूरे संसाधनों पर कब्जे और उसके दोहन का अर्थशास्त्र सिखाता है। यह तभी से जारी है जब हजारों साल पहले इस देश के मूल निवासियों पर आर्यों के रूप में पहला साम्राज्यवादी हमला हुआ था।* तभी से इन ब्राहमणवादियों की कोशिश धार्मिक कर्मकाण्ड़ों पर अपना वर्चस्व बनाने के माध्यम से पूरी प्राकृतिक और राष्ट्रीय संपदा के दोहन की है। परंतु अब लड़ाई का बिगुल बज चुका है और कुतुब विहार, गोला डेरी में ब्राहमणवाद के कब्जे से इस मंदिर को आजाद कराकर इसे समता प्रेरणा स्थल के रूप स्थापित किया जायेगा। आप सभी के इसमें सहयोग की आशा है।
https://www.facebook.com/mahesh.rathi.33/posts/10203777537797264
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'भारत पर आर्यों का हमला ' यह एक पाश्चात्य दृष्टिकोण है जो साम्राज्यवादियो द्वारा खुद को श्रेष्ठ साबित करने का एक घृणित प्रयास है।
वस्तुतः आर्य न कोई जाति है, न संप्रदाय, न ही धर्म । आर्य शब्द आर्ष का अपभ्रंश है जिसका अभिप्राय है 'श्रेष्ठ' अर्थात विश्व का कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ है वह आर्य है।
यदि पाश्चात्य दुष्चक्र में फंस कर आर्य को जाति,धर्म,संप्रदाय के रूप में लेकर हमलावर मानते रहेंगे तो कभी भी अपने लक्ष्य में सफल न हो सकेंगे, जैसा कि ब्राह्मणवादी चाहते भी हैं।
'त्रिवृष्टि' अर्थात तिब्बत क्षेत्र आर्यों का मूल उद्गम क्षेत्र है जहां 'स्व:' और 'स्वधा' का सृजन हुआ। ये श्रेष्ठ लोग जब आबादी बढ्ने पर दक्षिण में हिमालय के पार जिस निर्जन-क्षेत्र में बसे वह इनके कारण आर्यावृत कहलाया। पहले मूल निवासी तो ये श्रेष्ठ जन- आर्य ही थे। तब तक आज का दक्षिण भारत 'जंबू द्वीप' के रूप में एक अलग निर्जन टापू था। जब भू- गर्भीय हलचलों से 'जंबू द्वीप' उत्तर की ओर बढ़ कर आर्यावृत से टकराया तब 'हिंदमहासागर' नाम से जाना जाने वाला समुद्र सिकुड़ कर धुर दक्षिण में चला गया तथा जंबू द्वीप व आर्यावृत को संयुक्त करने वाले 'विंध्याचल' पर्वत की उत्पत्ति हुई। आर्यावृत से जंबू द्वीप पर आबादी के स्थानांतरण से आर्यजन वहाँ भी आबाद हुये। पाश्चात्य इतिहासकारों ने इनको प्रथक द्रविन घोषित करके पार्थक्य की भावना को पोषित कर रखा है।
जब अफ्रीका व यूरोप की आबादी को श्रेष्ठ अर्थात आर्य बनाने के उद्देश्य से आर्यों के जत्थे पश्चिम से चले तो उनका पहला पड़ाव था आर्यनगर= एर्यान= ईरान। खोमेनी से पहले तक वहाँ का शासक खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहता था। आगे बढ़ते हुये आर्य मेसोपोटामिया होते हुये जर्मनी पहुंचे थे। लेकिन पाश्चात्य जगत से गुमराह लोग उल्टा कहते हैं कि वहाँ से आर्य भारत पर आक्रमण करके आए थे।
पूर्व से चले आर्य वर्तमान चीन, साईबेरिया क्षेत्र से होते हुये ब्लाड़ीवासटक और अलास्का को पार करते हुये कनाडा से दक्षिण की ओर बढ़े थे। उनका पहला पड़ाव 'तक्षक' ऋषि के नेतृत्व में जहां पड़ा था वह स्थान आज भी उनके नाम पर अपभ्रंश में 'टेक्सास' कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। दूसरा पड़ाव धुर दक्षिण में 'मय' ऋषि के नेतृत्व में जहां पड़ा वह आज भी उनके ही नाम पर मेक्सिको है।
दक्षिण दिशा में 'पुलत्स्य'ऋषि के नेतृत्व में गए आर्य वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे थे जहां का शासक 'सोमाली' एक निर्जन टापू की ओर अपने समर्थकों सहित भाग गया था वह आज भी उसी के नाम पर सोमाली लैंड है।
भारत से बाहर गए इन आर्यों का ध्येय लोगों को श्रेष्ठ मार्ग सिखाना अर्थात आर्यत्व में ढालना था। किन्तु पुलत्स्य के वंशज 'विश्र्श्वा' ने वर्तमान लंका में एक राज्य की स्थापना कर डाली जो अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ और इसी कारण उनका पुत्र रावण साम्राज्यवादी बन सका अपने अमेरिकी और साईबेरियाई सहयोगियों (एरावन व कुंभकरण ) की सहायता से। इसी साम्राज्यवादी आर्य - रावण को भारत के आर्य - राम ने कूटनीति व युद्ध में परास्त कर साम्राज्यवाद का सर्व प्रथम विनाश किया था।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्वान लेखक महेश राठी जी ने भी पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के दुर्भावनापूर्ण शब्द आर्य हमलावर थे को अपना लिया। भारतीय साम्यवाद के जनता के मध्य अलोकप्रिय होने का सबसे बड़ा कारण साम्यवादी विद्वानों द्वारा साम्राज्यवादी इतिहासकारों से भ्रमित होते रहना ही है। काश अब भी साम्यवादी विद्वान 'सत्य ' को स्वीकार करके ' हिन्दू' और 'ब्रहमनवाद' को अभारतीय कहने का साहस दिखा सकें तो सफलता उनके चरण चूम लेगी। साम्यवाद और कुछ नहीं वेदोक्त समष्टिवाद ही है लेकिन सत्य से दूर रहना और उसका वरन करने की बजाए उस पर प्रहार करते रहना ही वह वजह है जिसने जनता के दिलो-दिमाग में साम्यवाद के प्रति नफरत भर रखी है।महेश राठी जी सत्य के शस्त्र से हिंदूवाद और ब्रहमनवाद पर प्रहार करें तो निश्चय ही सफल होंगे , हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं।
(विजय राजबली माथुर )
Friday, 18 December 2015
Friday, 11 December 2015
:किसने मारा हेरल्ड ( #NationalHerald ) को? ------ K Vikram Rao
K Vikram Rao
·11-12-2015
किसने मारा हेरल्ड ( #NationalHerald ) को? :
आजादी की आवाज था नेशनल हेरल्ड, उसे (2 अप्रैल 2008) इतिहास में ढकेल दिया गया। हेरल्ड हाउस जिसे दिल्ली में #IndiraGandhi ने बहादुर शाह मार्ग पर खोला था, बन्द कर डाला गया। लखनऊ में दस वर्ष (1998) पूर्व ही खत्म कर दिया गया था। अंग्रेज नेशनल हेराल्ड को बंद करने में जुटे रहे, विफल हुए। पर सोनिया-कांग्रेसियों ने उसे लखनऊ में नीलामी पर चढ़ा दिया था।
सात दशक हुए पूर्व (9 सितम्बर 1938) कैसरबाग चैराहे के पास वाली ईसाई मिशन स्कूल वाली इमारत पर Jawahar Lal Nehru ने तिरंगा फहराकर राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दैनिक को शुरू किया था। नेहरू परिवार की इस सम्पत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर (लखनऊ) ने 1995 में लगवा दी थी, ताकि चार सौ कर्मियों के बाइस माह के बकाया वेतन में चार करोड़ रुपये वसूले जा सकें। यू.पी. प्रेस क्लब में तब अटल बिहारी वाजपेयी ने संवाददाताओं के पूछने पर कहा था- ”जो नेशनल हेराल्ड नहीं चला पाये वे देश क्या चला पायेंगे?“ देश की जंगे आज़ादी को भूगोल का आकार देने वाला हेरल्ड खुद भूगोल से इतिहास में चला गया।
लेखक टामस कार्लाइल ने अखबार को इतिहास का अर्क बताया था। अर्क के साथ हेरल्ड एक ऊर्जा भी था। अब दोनों नहीं बचे। ऐसा नहीं कि इस बार कोई ज्यादा बड़ा तूफान आ पड़ा हो। जब इसके संस्थापक-संपादक श्री K.#RamaRao ने सितम्बर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। तूफान बहुतेरे उठे, पर हेराल्ड की कश्ती अपना सफर तय करती रही। फिर यदि डूबी भी तो किनारे से टकराकर। उसके प्रबंधक बस तमाशाई बने रहे। क्या वजह है कि कांग्रेस के शासन काल में ही हेराल्ड का अस्तित्व मिट गया जबकि इसकी हस्ती ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही थी, भले ही दौरे जमाना उसका दुश्मन था? इच्छा शाक्ति का अभाव ही है वह वजह। कुछ मिलती जुलती हालत थी 1941 के नवम्बर में जब अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने कागज देने से मना कर दिया था क्योंकि उधार काफी हो गया था। नेहरू ने तब एक रूक्के पर दस्तखत कर हेराल्ड को बचाया था, हालांकि नेहरू ने व्यथा से कहा भी कि ”सारे जीवन भर मैं ऐसा प्रामिसरी नोट न लिखता।“ पिता की भांति पुत्री ने भी हेराल्ड को बचाने के लिए गायिका एम.एस. सुब्बालक्ष्मी का कार्यक्रम रचा था। ताकि धनराशि जमा हो सके। इंदिरा गांधी तब कांग्रेस अध्यक्ष थी। रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेराल्ड राहत कोष के कूपन बेचकर आर्थिक मदद की थी। मगर नेहरू, इंदिरा और राजीव के नाम पर निधि तथा न्यास के संचालकों ने उनकी असली स्मृति (हेराल्ड) को अपनी प्राथमिकता की सूची में कभी शामिल तक नहीं किया।
हेराल्ड ने आज़ाद भारत के समाचारपत्र उद्योग में क्रांति की थी जब 1952 में सम्पादक की अध्यक्षता में सहकारी समिति बनाकर प्रबंध चलाया गया था। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रबन्ध निदेशक मोहन लाल सक्सेना (22 अपै्रल 1952) को लिखे पत्र में इस अभिनव श्रमिक प्रयोग की सफलता की कामना की थी। मगर फिर भी निजी स्वामित्व की लालसा में पंजाब से पी.एल. सोधी नामक व्यवसायी को प्रबंधक बनाया गया जिसने दिवालियापन ला दिया। नौबत यहां तक आ गयी कि नेहरू परिवार द्वारा स्थापित हेराल्ड जननिधि न्यास से छीनकर किसी सेठ जी के हाथ बेचने की विवशता भी आ पड़ी थी। भला हो उमाशंकर दीक्षित का जो कुशल प्रबंध-निदेशक बनकर आये और कश्ती बचा ली। प्रधानमंत्री के तीन मूर्ति आवास में 1957 में निदेशकों की बैठक में सोंधी को बर्खास्त कर दीक्षित की नियुक्ति की गयी। तब हेराल्ड और उसके साथी दैनिक ‘नवजीवन’ (#Navjeevan) और ‘कौमी आवाज’ #KaumiAwaaz की प्रतियां ज्यादा छपी खूब बिकीं। विज्ञापनों का अम्बार लग गया। मुनाफा तेजी से बढ़ा। उमाशंकर दीक्षित बाद में इंदिरा गांधी के गृह मंत्री बने, फिर बंगाल के राज्यपाल। इन्हीं की पतोहू श्रीमती शीला दीक्षित दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर थी। हेराल्ड में दीक्षित जी के आने के पूर्व पहली बार श्रमिकों ने हड़ताल की थी। यह भी एक विडम्बना थी क्योंकि श्रमिक यूनियन का अगुवा हमेशा निदेशक मंडल की बैठक में शिरकत करता था। यह उस जमाने की परम्परा है जब भारतीय प्रबन्धकों के दिमाग में श्रमिकों की भगीदारी की कल्पना भी नहीं हुई थी।
श्रमिक सहयोग का यह नायाब उदाहरण हेराल्ड में एक पुरानी परिपाटी के तहत सृर्जित हुआ था। दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का। छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे। हेराल्ड तीन साल के अन्दर ही बंदी की कगार पर था। अंग्रेजपरस्त दैनिक ‘पायनियर’ इस आस में था कि उसका एक छत्र राज कायम हो जायेगा। तब हेराल्ड पत्रकारों और अन्य कर्मियों ने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा कटवा लिया था। तीन महीने तो बिना वेतन के काम किया। कई अविवाहित कर्मचारी हेराल्ड परिसर में रहते और सोते थे। कामन किचन भी चलता था जहां चंदे से खाना पकता था। संपादक के हम कुटम्बीजन तब (आठ भाई-बहन) माता-पिता के साथ नजरबाग के तीन मंजिला मकान में रहते थे। किराया था तीस रूपये हर माह। तभी अचानक एक दिन पिता जी हम सबको दयानिधान पार्क के सामने वाली गोपालकृष्ण लेन के छोटे से मकाने में ले आये। किराया था सत्रह रूपये। दूध में कटौती की गयी। रोटी ही बनती थी क्योंकि गेहूं रूपये में दस सेर था और चावल बहुत मंहगा था, रूपये में सिर्फ छह सेर मिलता था। दक्षिण भारतीयों की पसन्द चावल है। फिर भी लोभ संवरण कर हमें गेहूं खाना पड़ा। यह सारी बचत, कटौती, कमी बस इसलिए कि हेराल्ड छपता रहे। यह परिपाटी हेराल्ड के श्रमिकों को सदैव उत्प्रेरित करती रही, हर उत्सर्ग के लिए। इसी का ताजा प्रमाण 1995 में फिर मिला जब बाइस महीनों के वेतन न मिलने पर भी सारे कार्मिक हेराल्ड, नवजीवन व कौमी आवाज छापने में सतत यत्नरत रहे। श्रम का अभाव नहीं था। काम तब रूका जब नकारा प्रबन्धन कागज, स्याही, बिजली आदि साधन भी मुहैया न करा पाया। इतने वर्षो से, यह सब सिलसिलेवार होता रहा जब कि दशकों तक हेराल्ड के स्वामी ही प्रधानमंत्री और सत्तासीन पार्टी के नेता रहे। प्रबन्धन में घुसपैठियों का यह आलम था कि राज्य सत्ता का पूरा लाभ निजी तौर पर उठाया गया। श्रमिकों का शोषण अनवरत था। वर्ष 1979 से 1986 तक इन्दिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सहायक यशपाल कपूर प्रबंध निदेशक रहे। साढ़े सात वर्ष तक यशपाल कपूर हेराल्ड पर छाये रहे। उस दौर में पटना, मुंबई, इन्दौर, भोपाल आदि नगरों में कांग्रेसी सरकारों की अनुकम्पा से प्रेस के लिए महंगी जमीन कौड़ी के भाव खरीदी गयी। विज्ञापन भी राज्य सरकारों से बेशुमार आते रहे। नयी मशीने लायी गयी। फिर वही हुआ जो स्कूली बच्चे टिफिन खा लेने के बाद अन्त में चिल्लाकर कहते है: ‘खेल खत्म, पैसा हजम।’ जितना पैसा कांग्रेस-शासित राज्यों और प्रधानमंत्रियों के कार्यालय से आता था सब खत्म, बल्कि हजम होता रहा। श्रमिक बुद्धु बनते रहे। सन् 1998 में हुई नीलामी उसी लूट की परिणति है।
लखनऊ स्थित उच्च न्यायालय की खण्डपीठ का 1998 में यह नीलामी का निर्णय भी श्रमिकों के कारण नहीं, वरन् निर्मम व ढीठ प्रबंधन के चलते हुई। दिलचस्प घटना है, यह श्रमिक संघर्ष के इतिहास में। 24 अक्टूबर 1998 को हाईकोर्ट के वकीलों ने हड़ताल रखी थी। इससे हेराल्ड के श्रमिकों का भाग्य खुल गया। उसी दिन साल भर से टलती आ रही उनकी रिट याचिका सुनवाई पर लगी थी। याचिका लखनऊ जिलाधिकारी सदाकांत (आज प्रमुख सचिव) की उदासीनता और निष्क्रियता के खिलाफ थी। श्रमिकों ने उपश्रमायुक्त द्वारा वेतन भुगतान के लिए प्रबन्धकों पर लागू रिकवरी प्रमाणपत्र जारी करवाया था। पर जिलाधिकारी ने इसे रूटीन मामला समझ कर दफना दिया था। हाईकोर्ट में भी व्यवस्ता के कारण शीघ्र सनुवाई नहीं हो पा रही थी। उसी दिन (24 अक्टूबर) न्यायामूर्ति डी.के. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला खंडपीठ पर विराजमान थे। हड़ताल के कारण कोई वकील हाजिर नहीं था। बस कौमी आवाज़ के चंद कातिब हाईकोर्ट में उत्सुकतावश पहुंच गये थे। न्यायमूर्ति द्वय ने उन श्रमिकों से जानकारी मांगी। पहले तो वह सब हिचके क्योंकि आज तक वकील के मार्फत ही सारी सुनवाई चलती थी, पर न्यायमूर्ति त्रिवेदी एवं भल्ला के आग्रह से वे श्रमिक आश्वस्त होकर अपनी व्यथा-कथा बयान कर गये। उन्होंने बताया कि बाइस माह से वेतन न मिलने के कारण भुखमरी की स्थिति आ गयी है। हाईकोर्ट ने जिलाधिकारी की ढिलाई पर रोष व्यक्त किया और वेतन भुगतान के लिए फौरी कार्रवाई का आदेश दिया। जिला प्रशासन जागा और दिल्ली में हेराल्ड के प्रबन्धकों को भी जगाया। बजाय आदेशानुसार वेतन भुगतान के, प्रबन्धकों ने नीलामी की कार्यवाही स्थगित करने का असफल प्रयास किया। श्रमिकों से संवाद स्थापित कर सकते थे कि मिलजुल कर समस्या का सामाधान ढूंढे। पर उन्हें परवाह नहीं थी। इसका बुनियादी कारण यह है कि फिरोज गांधी, मोहम्मद यूनुस, उमाशंकर दीक्षित आदि प्रबन्ध निदेशक लखनऊ के मुख्य कार्यालय से काम करते रहे, जबकि बाद में प्रबंधन ने दिल्ली में सत्ता के गलियारे के निकट रह कर मुख्यालय लखनऊ को स्टेपनी बना डाला था। दिल्ली संस्करण के कर्मचारियों को वहां की भव्य इमारत के किराये से वेतन भुगतान हो जाता था। लखनऊ उपेक्षित रहता है।
नीलामी की नौबत आने के पूर्व लखनऊ के श्रमिकों ने प्राण प्रण से काम किया। बिजली का बिल बत्तीस लाख रूपये हो गया था। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से अनुरोध कर बिना भुगतान बिजली चालू रखाई ताकि मशीने बन्द न हो। टेलीफोन कट गये तो पी.सी.ओ. लगवाया ताकि संचार संपर्क बना रहे। संवाद समितियों ने भुगतान न होने पर अपनी लाइनें काट दी तो हेराल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज के सारे रिपोर्टर शहर में घूम-घूम कर समाचार बटोरते रहे ताकि अखबार में पर्याप्त प्रकाशन सामग्री जुटाई जा सके। इस पर भी लखनऊ और दिल्ली का प्रबंधन चेता नही। जब चेता तो बोली लग चुकी थी।
यूं तो हेराल्ड के इतिहास में खास-खास तारीखों की झड़ी लगी है, पर 9 नवम्बर 1998 मार्मिक दिन रहा। उससे दिन प्रथम सम्पादक स्वर्गीय श्री के. रामा राव की 102वीं जन्मगांठ भी थी। लखनऊ के पुराने लोग उस दिन महसूस कर रहे थे कि मानों उनकी अपनी सम्पत्ति नीलाम हो रही हो। वह मशीने भी थी, जिसे फिरोज गांधी अपने कुर्ते से कभी पोछते थे। वह फर्नीचर जिस पर बैठकर इतिहास का क्रम बदलने वाली खबरे लिखी गयी थी। पिछले सत्तर वर्ष का हेराल्ड का दौर उत्तर प्रदेश और भारत के घटनाक्रम से अविभाज्य रहा है। इसकी शुरूआती कड़ी 1938 के गर्मी के मौसम की बनी थी। संयुक्त प्रान्त (तब यू.पी. का यही नाम था) में विधान सभा निर्वाचन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बहुमत मिल गया था। जवाहरलाल नेहरू ने सुझाया कि पार्टी को अपना दैनिक समाचार पत्र छापना चाहिए क्योंकि तब के अंग्रेजी दैनिक साम्राज्यवादी राज के समर्थक थे। एक कम्पनी पंजीकृत हुई। नाम रखा गया एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड #AJL। नेहरू बने अध्यक्ष और निदेशक मण्डल में थे फैजाबाद जिले के आचार्य नरेन्द्र देव (#AcharyaNarendraDev, प्रख्यात समाजवादी चिन्तक), बाराबंकी जिले के रफी अहमद किदवई (#RafiAhmedKidwai, बाद में केन्द्रीय मंत्री), आगरा के श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल (दैनिक सैनिक के सम्पादक), इलाहाबाद के राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन और डा. कैलाश नाथ काटजू, नैनीताल के गोविन्द वल्लभ पन्त (#GovindVallabhPant), गंगाघाट, (उन्नाव), के एम.ए. सोख्ता और अमीनाबाद, लखनऊ, के मोहनलाल सक्सेना (बाद में केन्द्रीय मंत्री)। अब प्रश्न था सम्पादक कैसा हो? राष्ट्रवादी हो और वेतन के बजाय मिशन की भावना से काम करने वाला हो। पहला नाम था पोथन जोसेफ (#PothanJoseph)का, जो तब दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक थे और बाद में जिन्ना के मुस्लिम लीगी दैनिक ‘दि डाॅन’ #TheDon के सम्पादक बने। उन्हीं दिनों अपने कराची अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया था कि सारे कांग्रेसी सरकार के मंत्री सादा जीवनयापन करेंगे और मासिक आय पांच सौ रूपये से अधिक नहीं लेंगे। पोथन जोसेफ खर्चीली आदतों वाले थे। पांच सौ रूपये वेतन कैसे स्वीकारते? हेराल्ड के सम्पादक को कांग्रेस मंत्री से अधिक वेतन देना वाजिब नहीं था। फिर नाम आया मुंबई दैनिक ‘दि फ्री प्रेस जर्नल’ के सम्पादक के. श्रीनिवासन का। वे कांग्रेस की विचारधारा के निकट नहीं थे। तब रफी साहब ने बाम्बे क्रानिकल के मशहूर सम्पादक सैय्यद अहमद ब्रेलवी से सुझाव मांगा। ब्रेलवी के साथ युवा के.रामा राव काम कर चुके थे। ब्रेलवी ने रफी साहब से कहा कि नया अखबार है तो आलराउण्डर को सम्पादक बनाओ जो प्रूफ रीडिंग से लेकर सम्पादकीय लिखने में हरफनमौला हो। अतः रामाराव ही योग्य होंगे। तब वे दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स में समाचार सम्पादक थे। उन्हें इंटरव्यू के लिए रफी साहब ने लखनऊ के विधान भवन में अपने मंत्री कक्ष में बुलवाया। सवा पांच फुट कदवाले, खादीकुर्ता- पाजामा-चप्पल पहने उस व्यक्ति को कुछ संशय और कौतूहल की मुद्रा में देखकर रफी साहब ने पूछा कि ”आप वाकई में सम्पादन कार्य कर सकेंगें?“ रामाराव का जवाब संक्षिप्त था, ”बस वही काम मैं कर सकता हूं।“ फिर हेराल्ड के संघर्षशील भविष्य की चर्चा कर, रफी साहब ने पूछा, ”जेल जाने में हिचकेंगे तो नहीं?“ रामाराव हंसे, बोले, ”मैं पिकनिक के लिए तैयार हूं।“ बाद में 1942 में रामाराव को उनके सम्पादकीय ‘जेल और जंगल’ के लिए छह माह तक लखनऊ सेन्ट्रल जेल में कैद रखा गया था। रामाराव के सम्पादकीय सहयोगियों में तब थे: त्रिभुवन नारायण सिंह (बाद में संविद सरकार के मुख्यमंत्री और बंगाल के राज्यपाल), नेताजी सुभाष बोस के साथी अंसार हरवानी (बाद में लोकसभा सदस्य) और एम. चलपति राव। एक सादे समारोह में नेशनल हेराल्ड की शुरूआत हुई। पूरी यू.पी. काबीना हाजिर थी। ये सारे मंत्री रोज शाम को हेराल्ड कार्यालय आकर खुद खबरें देते थे। वहीं काफी हाउस जैसा नजारा पेश आता था। जवाहरलाल खबरें देते थे। अपने भाषण को खुद आकर रपट के रूप में लिखते थे। उनका पहला वाक्य होता था, ”प्रमुख कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू ने आज एक सार्वजनिक जनसभा में कहा“ ......आदि। सीमित संसाधनों के कारण हेराल्ड कई संवाद समितियों’ की सेवा से वंचित रहता था। तभी की बात है शनिवार, 3 सितम्बर 1939 हिटलर ने ब्रिटेन पर युद्ध की घोषणा कर दी। अर्द्धसदी की यह सबसे बड़ी खबर थी। देर से आल इंडिया रेडियों (All India Radio) ने सूचना प्रसारित की। नेहरू के जीजा (विजयलक्ष्मी के पति) आर.एस. पण्डित ने टेलीफोन पर हेराल्ड के सम्पादकीय विभाग को यह बात बतायी। रेडियों से खबर उदघृत करना कानूनी जुर्म था। संवाद समिति से यह खबर आयी नहीं थी। उन दिनों रविवार को अखबार नहीं छपता था। अर्थात यदि उस शनिवार की रात युद्ध की खबर न छपती, तो अगला संस्करण तीन दिन बाद मंगलवार को होता। रामाराव ने खबर छाप दी। उधर दिल्ली में स्टेट्समैन ने भी यही किया। पुलिसिया तफतीश हुई। स्टेट्मैन के सम्पादक ने कहा कि समाचार के अत्याधिक महत्वपूर्ण होने के कारण पाठकों के प्रति दायित्व निभाने के लिए रेडियों से खबर उठाना उचित था। हेराल्ड से जवाब तलब करने की हिम्मत ब्रिटिश शासन जुटा नहीं पाया।
सेंशरशिप का शिकार तो हेराल्ड लगातार रहा, पर सरकार विरोधी खबरों के लिए कई बार इस पर जुर्माना हुआ। पहली बार 6,000 रूपये, दुबारा 12,000 रूपये। महात्मा गांधी ने हेराल्ड के पक्ष में अपनी पत्रिका ‘हरिजन’ में लिखा कि ऐसा वित्तीय अन्याय बंद होना चाहिए। जब जब हेराल्ड पर जुर्माना होता, एक सार्वजनिक अपील छपती थी। जनसरोकार इतना अगाध था कि दो दिनों में दुगुनी राशि जमा हो जाती थी। देने वालों में सरकारी अफसर, अवध कोर्ट के जज, मगर बहुतेरे लोग एक, पांच और दस रूपये के नोट देते थे। वे साधारण पाठक थे। अक्सर जवाहरलाल नेहरू ऐसे अवसरों पर खुद अपील निकालते थे। वे इलाहाबाद से तड़के सुबह आने वाली ट्रेन से लखनऊ आते। सह-सम्पादक त्रिभुवन नारायण सिंह के साथ तांगे पर सवार होकर चारबाग से कैसरबाग आते। स्थिति का जायजा लेते।
हेराल्ड की एक परम्परा शुरू से रही है और आजादी के बाद भी बनी रही। वह थी समाचार प्रकाशन में निष्पक्षता बरतना तथा तनिक भी राग-द्वेष न रखना। तब आर्य समाज ने निजाम के खिलाफ आन्दोलन चलाया था। सारे अखबार हैदरबाद की खबरों को खूब छापते रहे। अचानक हेराल्ड के अलावा सभी ने बिल्कुल चुप्पी साध ली। एक दिन निज़ाम का एक दूत सम्पादक रामाराव के कैसरबाग स्थित दफ्तर में आया। पहले उसने आर्य समाज की बुराईयां बतायी। फिर उसने कुछ हेराल्ड के लाभ की बात की। इसके पहले कि वह नोटों का बण्डल खोलता, सम्पादक ने उसे खदेड़ा और फाटक तक दौड़ाया। आर्य समाज ने बाद में रामाराव को एक आभार-पत्र लिखा था। त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी और नेहरू के विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। हेराल्ड ने बोस के समर्थन में काफी लिखा। जब सुभाष बोस लखनऊ आये और बोले, यह नेहरू का अखबार मेरे प्रति बड़ा संवेदनशील रहा। ईमानदार रहा।”
मुस्लिम लीग का गढ़ लखनऊ था। राजा महमूदाबाद उसके पुरोधा थे। मुस्लिम लीग के नेता हेराल्ड में अपने बयानों को प्रमुखता से प्रकाशित होते देखकर प्रफुल्लित होते थे। उन्हें बस एक शिकायत थी कि हेराल्ड के सम्पादकीय अग्रलेखों . में उनकी तीखी आलोचना होती थी। उन्हे घातक करार दिया जाता था। आजादी के बाद का किस्सा है। तब चन्द्रभानु गुप्त प्रदेश के अध्यक्ष पद पर मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द के प्रत्याशी मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को हराकर चुने गये थे। सम्पादक चलपति राव ने यादगार लेख लिखा था कि ”नैतिकता यदि शेष हो तो सम्पूर्णानन्द त्यागपत्र दें।“ इमरजेंसी के दौरान जब संजय गांधी को सारे समाचारपत्र वली अहद के रूप में पेश कर रहे थे, तो लखनऊ हेराल्ड के स्थानीय सम्पादक सी.एन. चितरंजन ने संजय गांधी की तस्वीर छापने पर रोक लगा दी थी। तब के कांगे्रसी मुख्यमंत्री ने प्रबंध निदेशक मोहम्मद युनुस से इसकी शिकायत की तो उन्हें जवाब मिला कि सम्पादकीय मामलों में प्रबंधन का हस्तक्षेप वर्जित है। हेराल्ड के सम्पादक की आत्मा हमेशा उसकी अपनी रही। उसकी कभी कोई बोली नहीं लगा पाया है, चाहे जैसा प्रबंधन रहा हो।
एक शाम (20 अप्रैल 1940) जवाहरलाल नेहरू ने सम्पादक को लिखा कि हेराल्ड का पीछा दुर्भाग्य कर रहा है अथवा अक्षम प्रबंधन है जिससे ये सारे आर्थिक संकट उपजते है? आज सत्तर साल बाद इतना तो स्पष्ट हो गया कि दुर्भाग्य इतनी लम्बी अवधि तक छाया नहीं रहता है। ग्रह दशा बारह वर्ष में तो बदल ही जाती है। अतः यदि प्रबंधन सुधरे तो स्थिति बदले। मगर वहीं फ्रांसीसी क्रांति वाली बात याद आ जाती है। क्रांति की बेला पर पेरिस में भूखों के अपार जन सैलाब को अपने महल के झरोखे से देखकर, महारानी मेरी एन्तियोनेत ने आक्रोश का कारण जानना चाहा। दरबारियेां ने कहा कि प्रदर्शनकारियों को डबल रोटी नहीं मिल रही है। महारानी बोली तो ”कहो वे केक खायें।“ हेराल्ड के प्रबंधकों ने 10 जनपथ की निवासिनी अपनी स्वामिनी को शायद इसी तरह अनभिज्ञ रखा था। तब नीलामी की बोली गोमती के इस पार लगी थी। आज यमुना के उस तट पर हेराल्ड हाउस ही बन्द हो गया। पर हेरल्ड के नाम पर लूट चालू है।
सात दशक हुए पूर्व (9 सितम्बर 1938) कैसरबाग चैराहे के पास वाली ईसाई मिशन स्कूल वाली इमारत पर Jawahar Lal Nehru ने तिरंगा फहराकर राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दैनिक को शुरू किया था। नेहरू परिवार की इस सम्पत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर (लखनऊ) ने 1995 में लगवा दी थी, ताकि चार सौ कर्मियों के बाइस माह के बकाया वेतन में चार करोड़ रुपये वसूले जा सकें। यू.पी. प्रेस क्लब में तब अटल बिहारी वाजपेयी ने संवाददाताओं के पूछने पर कहा था- ”जो नेशनल हेराल्ड नहीं चला पाये वे देश क्या चला पायेंगे?“ देश की जंगे आज़ादी को भूगोल का आकार देने वाला हेरल्ड खुद भूगोल से इतिहास में चला गया।
लेखक टामस कार्लाइल ने अखबार को इतिहास का अर्क बताया था। अर्क के साथ हेरल्ड एक ऊर्जा भी था। अब दोनों नहीं बचे। ऐसा नहीं कि इस बार कोई ज्यादा बड़ा तूफान आ पड़ा हो। जब इसके संस्थापक-संपादक श्री K.#RamaRao ने सितम्बर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। तूफान बहुतेरे उठे, पर हेराल्ड की कश्ती अपना सफर तय करती रही। फिर यदि डूबी भी तो किनारे से टकराकर। उसके प्रबंधक बस तमाशाई बने रहे। क्या वजह है कि कांग्रेस के शासन काल में ही हेराल्ड का अस्तित्व मिट गया जबकि इसकी हस्ती ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही थी, भले ही दौरे जमाना उसका दुश्मन था? इच्छा शाक्ति का अभाव ही है वह वजह। कुछ मिलती जुलती हालत थी 1941 के नवम्बर में जब अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने कागज देने से मना कर दिया था क्योंकि उधार काफी हो गया था। नेहरू ने तब एक रूक्के पर दस्तखत कर हेराल्ड को बचाया था, हालांकि नेहरू ने व्यथा से कहा भी कि ”सारे जीवन भर मैं ऐसा प्रामिसरी नोट न लिखता।“ पिता की भांति पुत्री ने भी हेराल्ड को बचाने के लिए गायिका एम.एस. सुब्बालक्ष्मी का कार्यक्रम रचा था। ताकि धनराशि जमा हो सके। इंदिरा गांधी तब कांग्रेस अध्यक्ष थी। रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेराल्ड राहत कोष के कूपन बेचकर आर्थिक मदद की थी। मगर नेहरू, इंदिरा और राजीव के नाम पर निधि तथा न्यास के संचालकों ने उनकी असली स्मृति (हेराल्ड) को अपनी प्राथमिकता की सूची में कभी शामिल तक नहीं किया।
हेराल्ड ने आज़ाद भारत के समाचारपत्र उद्योग में क्रांति की थी जब 1952 में सम्पादक की अध्यक्षता में सहकारी समिति बनाकर प्रबंध चलाया गया था। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रबन्ध निदेशक मोहन लाल सक्सेना (22 अपै्रल 1952) को लिखे पत्र में इस अभिनव श्रमिक प्रयोग की सफलता की कामना की थी। मगर फिर भी निजी स्वामित्व की लालसा में पंजाब से पी.एल. सोधी नामक व्यवसायी को प्रबंधक बनाया गया जिसने दिवालियापन ला दिया। नौबत यहां तक आ गयी कि नेहरू परिवार द्वारा स्थापित हेराल्ड जननिधि न्यास से छीनकर किसी सेठ जी के हाथ बेचने की विवशता भी आ पड़ी थी। भला हो उमाशंकर दीक्षित का जो कुशल प्रबंध-निदेशक बनकर आये और कश्ती बचा ली। प्रधानमंत्री के तीन मूर्ति आवास में 1957 में निदेशकों की बैठक में सोंधी को बर्खास्त कर दीक्षित की नियुक्ति की गयी। तब हेराल्ड और उसके साथी दैनिक ‘नवजीवन’ (#Navjeevan) और ‘कौमी आवाज’ #KaumiAwaaz की प्रतियां ज्यादा छपी खूब बिकीं। विज्ञापनों का अम्बार लग गया। मुनाफा तेजी से बढ़ा। उमाशंकर दीक्षित बाद में इंदिरा गांधी के गृह मंत्री बने, फिर बंगाल के राज्यपाल। इन्हीं की पतोहू श्रीमती शीला दीक्षित दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर थी। हेराल्ड में दीक्षित जी के आने के पूर्व पहली बार श्रमिकों ने हड़ताल की थी। यह भी एक विडम्बना थी क्योंकि श्रमिक यूनियन का अगुवा हमेशा निदेशक मंडल की बैठक में शिरकत करता था। यह उस जमाने की परम्परा है जब भारतीय प्रबन्धकों के दिमाग में श्रमिकों की भगीदारी की कल्पना भी नहीं हुई थी।
श्रमिक सहयोग का यह नायाब उदाहरण हेराल्ड में एक पुरानी परिपाटी के तहत सृर्जित हुआ था। दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का। छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे। हेराल्ड तीन साल के अन्दर ही बंदी की कगार पर था। अंग्रेजपरस्त दैनिक ‘पायनियर’ इस आस में था कि उसका एक छत्र राज कायम हो जायेगा। तब हेराल्ड पत्रकारों और अन्य कर्मियों ने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा कटवा लिया था। तीन महीने तो बिना वेतन के काम किया। कई अविवाहित कर्मचारी हेराल्ड परिसर में रहते और सोते थे। कामन किचन भी चलता था जहां चंदे से खाना पकता था। संपादक के हम कुटम्बीजन तब (आठ भाई-बहन) माता-पिता के साथ नजरबाग के तीन मंजिला मकान में रहते थे। किराया था तीस रूपये हर माह। तभी अचानक एक दिन पिता जी हम सबको दयानिधान पार्क के सामने वाली गोपालकृष्ण लेन के छोटे से मकाने में ले आये। किराया था सत्रह रूपये। दूध में कटौती की गयी। रोटी ही बनती थी क्योंकि गेहूं रूपये में दस सेर था और चावल बहुत मंहगा था, रूपये में सिर्फ छह सेर मिलता था। दक्षिण भारतीयों की पसन्द चावल है। फिर भी लोभ संवरण कर हमें गेहूं खाना पड़ा। यह सारी बचत, कटौती, कमी बस इसलिए कि हेराल्ड छपता रहे। यह परिपाटी हेराल्ड के श्रमिकों को सदैव उत्प्रेरित करती रही, हर उत्सर्ग के लिए। इसी का ताजा प्रमाण 1995 में फिर मिला जब बाइस महीनों के वेतन न मिलने पर भी सारे कार्मिक हेराल्ड, नवजीवन व कौमी आवाज छापने में सतत यत्नरत रहे। श्रम का अभाव नहीं था। काम तब रूका जब नकारा प्रबन्धन कागज, स्याही, बिजली आदि साधन भी मुहैया न करा पाया। इतने वर्षो से, यह सब सिलसिलेवार होता रहा जब कि दशकों तक हेराल्ड के स्वामी ही प्रधानमंत्री और सत्तासीन पार्टी के नेता रहे। प्रबन्धन में घुसपैठियों का यह आलम था कि राज्य सत्ता का पूरा लाभ निजी तौर पर उठाया गया। श्रमिकों का शोषण अनवरत था। वर्ष 1979 से 1986 तक इन्दिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सहायक यशपाल कपूर प्रबंध निदेशक रहे। साढ़े सात वर्ष तक यशपाल कपूर हेराल्ड पर छाये रहे। उस दौर में पटना, मुंबई, इन्दौर, भोपाल आदि नगरों में कांग्रेसी सरकारों की अनुकम्पा से प्रेस के लिए महंगी जमीन कौड़ी के भाव खरीदी गयी। विज्ञापन भी राज्य सरकारों से बेशुमार आते रहे। नयी मशीने लायी गयी। फिर वही हुआ जो स्कूली बच्चे टिफिन खा लेने के बाद अन्त में चिल्लाकर कहते है: ‘खेल खत्म, पैसा हजम।’ जितना पैसा कांग्रेस-शासित राज्यों और प्रधानमंत्रियों के कार्यालय से आता था सब खत्म, बल्कि हजम होता रहा। श्रमिक बुद्धु बनते रहे। सन् 1998 में हुई नीलामी उसी लूट की परिणति है।
लखनऊ स्थित उच्च न्यायालय की खण्डपीठ का 1998 में यह नीलामी का निर्णय भी श्रमिकों के कारण नहीं, वरन् निर्मम व ढीठ प्रबंधन के चलते हुई। दिलचस्प घटना है, यह श्रमिक संघर्ष के इतिहास में। 24 अक्टूबर 1998 को हाईकोर्ट के वकीलों ने हड़ताल रखी थी। इससे हेराल्ड के श्रमिकों का भाग्य खुल गया। उसी दिन साल भर से टलती आ रही उनकी रिट याचिका सुनवाई पर लगी थी। याचिका लखनऊ जिलाधिकारी सदाकांत (आज प्रमुख सचिव) की उदासीनता और निष्क्रियता के खिलाफ थी। श्रमिकों ने उपश्रमायुक्त द्वारा वेतन भुगतान के लिए प्रबन्धकों पर लागू रिकवरी प्रमाणपत्र जारी करवाया था। पर जिलाधिकारी ने इसे रूटीन मामला समझ कर दफना दिया था। हाईकोर्ट में भी व्यवस्ता के कारण शीघ्र सनुवाई नहीं हो पा रही थी। उसी दिन (24 अक्टूबर) न्यायामूर्ति डी.के. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला खंडपीठ पर विराजमान थे। हड़ताल के कारण कोई वकील हाजिर नहीं था। बस कौमी आवाज़ के चंद कातिब हाईकोर्ट में उत्सुकतावश पहुंच गये थे। न्यायमूर्ति द्वय ने उन श्रमिकों से जानकारी मांगी। पहले तो वह सब हिचके क्योंकि आज तक वकील के मार्फत ही सारी सुनवाई चलती थी, पर न्यायमूर्ति त्रिवेदी एवं भल्ला के आग्रह से वे श्रमिक आश्वस्त होकर अपनी व्यथा-कथा बयान कर गये। उन्होंने बताया कि बाइस माह से वेतन न मिलने के कारण भुखमरी की स्थिति आ गयी है। हाईकोर्ट ने जिलाधिकारी की ढिलाई पर रोष व्यक्त किया और वेतन भुगतान के लिए फौरी कार्रवाई का आदेश दिया। जिला प्रशासन जागा और दिल्ली में हेराल्ड के प्रबन्धकों को भी जगाया। बजाय आदेशानुसार वेतन भुगतान के, प्रबन्धकों ने नीलामी की कार्यवाही स्थगित करने का असफल प्रयास किया। श्रमिकों से संवाद स्थापित कर सकते थे कि मिलजुल कर समस्या का सामाधान ढूंढे। पर उन्हें परवाह नहीं थी। इसका बुनियादी कारण यह है कि फिरोज गांधी, मोहम्मद यूनुस, उमाशंकर दीक्षित आदि प्रबन्ध निदेशक लखनऊ के मुख्य कार्यालय से काम करते रहे, जबकि बाद में प्रबंधन ने दिल्ली में सत्ता के गलियारे के निकट रह कर मुख्यालय लखनऊ को स्टेपनी बना डाला था। दिल्ली संस्करण के कर्मचारियों को वहां की भव्य इमारत के किराये से वेतन भुगतान हो जाता था। लखनऊ उपेक्षित रहता है।
नीलामी की नौबत आने के पूर्व लखनऊ के श्रमिकों ने प्राण प्रण से काम किया। बिजली का बिल बत्तीस लाख रूपये हो गया था। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से अनुरोध कर बिना भुगतान बिजली चालू रखाई ताकि मशीने बन्द न हो। टेलीफोन कट गये तो पी.सी.ओ. लगवाया ताकि संचार संपर्क बना रहे। संवाद समितियों ने भुगतान न होने पर अपनी लाइनें काट दी तो हेराल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज के सारे रिपोर्टर शहर में घूम-घूम कर समाचार बटोरते रहे ताकि अखबार में पर्याप्त प्रकाशन सामग्री जुटाई जा सके। इस पर भी लखनऊ और दिल्ली का प्रबंधन चेता नही। जब चेता तो बोली लग चुकी थी।
यूं तो हेराल्ड के इतिहास में खास-खास तारीखों की झड़ी लगी है, पर 9 नवम्बर 1998 मार्मिक दिन रहा। उससे दिन प्रथम सम्पादक स्वर्गीय श्री के. रामा राव की 102वीं जन्मगांठ भी थी। लखनऊ के पुराने लोग उस दिन महसूस कर रहे थे कि मानों उनकी अपनी सम्पत्ति नीलाम हो रही हो। वह मशीने भी थी, जिसे फिरोज गांधी अपने कुर्ते से कभी पोछते थे। वह फर्नीचर जिस पर बैठकर इतिहास का क्रम बदलने वाली खबरे लिखी गयी थी। पिछले सत्तर वर्ष का हेराल्ड का दौर उत्तर प्रदेश और भारत के घटनाक्रम से अविभाज्य रहा है। इसकी शुरूआती कड़ी 1938 के गर्मी के मौसम की बनी थी। संयुक्त प्रान्त (तब यू.पी. का यही नाम था) में विधान सभा निर्वाचन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बहुमत मिल गया था। जवाहरलाल नेहरू ने सुझाया कि पार्टी को अपना दैनिक समाचार पत्र छापना चाहिए क्योंकि तब के अंग्रेजी दैनिक साम्राज्यवादी राज के समर्थक थे। एक कम्पनी पंजीकृत हुई। नाम रखा गया एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड #AJL। नेहरू बने अध्यक्ष और निदेशक मण्डल में थे फैजाबाद जिले के आचार्य नरेन्द्र देव (#AcharyaNarendraDev, प्रख्यात समाजवादी चिन्तक), बाराबंकी जिले के रफी अहमद किदवई (#RafiAhmedKidwai, बाद में केन्द्रीय मंत्री), आगरा के श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल (दैनिक सैनिक के सम्पादक), इलाहाबाद के राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन और डा. कैलाश नाथ काटजू, नैनीताल के गोविन्द वल्लभ पन्त (#GovindVallabhPant), गंगाघाट, (उन्नाव), के एम.ए. सोख्ता और अमीनाबाद, लखनऊ, के मोहनलाल सक्सेना (बाद में केन्द्रीय मंत्री)। अब प्रश्न था सम्पादक कैसा हो? राष्ट्रवादी हो और वेतन के बजाय मिशन की भावना से काम करने वाला हो। पहला नाम था पोथन जोसेफ (#PothanJoseph)का, जो तब दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक थे और बाद में जिन्ना के मुस्लिम लीगी दैनिक ‘दि डाॅन’ #TheDon के सम्पादक बने। उन्हीं दिनों अपने कराची अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया था कि सारे कांग्रेसी सरकार के मंत्री सादा जीवनयापन करेंगे और मासिक आय पांच सौ रूपये से अधिक नहीं लेंगे। पोथन जोसेफ खर्चीली आदतों वाले थे। पांच सौ रूपये वेतन कैसे स्वीकारते? हेराल्ड के सम्पादक को कांग्रेस मंत्री से अधिक वेतन देना वाजिब नहीं था। फिर नाम आया मुंबई दैनिक ‘दि फ्री प्रेस जर्नल’ के सम्पादक के. श्रीनिवासन का। वे कांग्रेस की विचारधारा के निकट नहीं थे। तब रफी साहब ने बाम्बे क्रानिकल के मशहूर सम्पादक सैय्यद अहमद ब्रेलवी से सुझाव मांगा। ब्रेलवी के साथ युवा के.रामा राव काम कर चुके थे। ब्रेलवी ने रफी साहब से कहा कि नया अखबार है तो आलराउण्डर को सम्पादक बनाओ जो प्रूफ रीडिंग से लेकर सम्पादकीय लिखने में हरफनमौला हो। अतः रामाराव ही योग्य होंगे। तब वे दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स में समाचार सम्पादक थे। उन्हें इंटरव्यू के लिए रफी साहब ने लखनऊ के विधान भवन में अपने मंत्री कक्ष में बुलवाया। सवा पांच फुट कदवाले, खादीकुर्ता- पाजामा-चप्पल पहने उस व्यक्ति को कुछ संशय और कौतूहल की मुद्रा में देखकर रफी साहब ने पूछा कि ”आप वाकई में सम्पादन कार्य कर सकेंगें?“ रामाराव का जवाब संक्षिप्त था, ”बस वही काम मैं कर सकता हूं।“ फिर हेराल्ड के संघर्षशील भविष्य की चर्चा कर, रफी साहब ने पूछा, ”जेल जाने में हिचकेंगे तो नहीं?“ रामाराव हंसे, बोले, ”मैं पिकनिक के लिए तैयार हूं।“ बाद में 1942 में रामाराव को उनके सम्पादकीय ‘जेल और जंगल’ के लिए छह माह तक लखनऊ सेन्ट्रल जेल में कैद रखा गया था। रामाराव के सम्पादकीय सहयोगियों में तब थे: त्रिभुवन नारायण सिंह (बाद में संविद सरकार के मुख्यमंत्री और बंगाल के राज्यपाल), नेताजी सुभाष बोस के साथी अंसार हरवानी (बाद में लोकसभा सदस्य) और एम. चलपति राव। एक सादे समारोह में नेशनल हेराल्ड की शुरूआत हुई। पूरी यू.पी. काबीना हाजिर थी। ये सारे मंत्री रोज शाम को हेराल्ड कार्यालय आकर खुद खबरें देते थे। वहीं काफी हाउस जैसा नजारा पेश आता था। जवाहरलाल खबरें देते थे। अपने भाषण को खुद आकर रपट के रूप में लिखते थे। उनका पहला वाक्य होता था, ”प्रमुख कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू ने आज एक सार्वजनिक जनसभा में कहा“ ......आदि। सीमित संसाधनों के कारण हेराल्ड कई संवाद समितियों’ की सेवा से वंचित रहता था। तभी की बात है शनिवार, 3 सितम्बर 1939 हिटलर ने ब्रिटेन पर युद्ध की घोषणा कर दी। अर्द्धसदी की यह सबसे बड़ी खबर थी। देर से आल इंडिया रेडियों (All India Radio) ने सूचना प्रसारित की। नेहरू के जीजा (विजयलक्ष्मी के पति) आर.एस. पण्डित ने टेलीफोन पर हेराल्ड के सम्पादकीय विभाग को यह बात बतायी। रेडियों से खबर उदघृत करना कानूनी जुर्म था। संवाद समिति से यह खबर आयी नहीं थी। उन दिनों रविवार को अखबार नहीं छपता था। अर्थात यदि उस शनिवार की रात युद्ध की खबर न छपती, तो अगला संस्करण तीन दिन बाद मंगलवार को होता। रामाराव ने खबर छाप दी। उधर दिल्ली में स्टेट्समैन ने भी यही किया। पुलिसिया तफतीश हुई। स्टेट्मैन के सम्पादक ने कहा कि समाचार के अत्याधिक महत्वपूर्ण होने के कारण पाठकों के प्रति दायित्व निभाने के लिए रेडियों से खबर उठाना उचित था। हेराल्ड से जवाब तलब करने की हिम्मत ब्रिटिश शासन जुटा नहीं पाया।
सेंशरशिप का शिकार तो हेराल्ड लगातार रहा, पर सरकार विरोधी खबरों के लिए कई बार इस पर जुर्माना हुआ। पहली बार 6,000 रूपये, दुबारा 12,000 रूपये। महात्मा गांधी ने हेराल्ड के पक्ष में अपनी पत्रिका ‘हरिजन’ में लिखा कि ऐसा वित्तीय अन्याय बंद होना चाहिए। जब जब हेराल्ड पर जुर्माना होता, एक सार्वजनिक अपील छपती थी। जनसरोकार इतना अगाध था कि दो दिनों में दुगुनी राशि जमा हो जाती थी। देने वालों में सरकारी अफसर, अवध कोर्ट के जज, मगर बहुतेरे लोग एक, पांच और दस रूपये के नोट देते थे। वे साधारण पाठक थे। अक्सर जवाहरलाल नेहरू ऐसे अवसरों पर खुद अपील निकालते थे। वे इलाहाबाद से तड़के सुबह आने वाली ट्रेन से लखनऊ आते। सह-सम्पादक त्रिभुवन नारायण सिंह के साथ तांगे पर सवार होकर चारबाग से कैसरबाग आते। स्थिति का जायजा लेते।
हेराल्ड की एक परम्परा शुरू से रही है और आजादी के बाद भी बनी रही। वह थी समाचार प्रकाशन में निष्पक्षता बरतना तथा तनिक भी राग-द्वेष न रखना। तब आर्य समाज ने निजाम के खिलाफ आन्दोलन चलाया था। सारे अखबार हैदरबाद की खबरों को खूब छापते रहे। अचानक हेराल्ड के अलावा सभी ने बिल्कुल चुप्पी साध ली। एक दिन निज़ाम का एक दूत सम्पादक रामाराव के कैसरबाग स्थित दफ्तर में आया। पहले उसने आर्य समाज की बुराईयां बतायी। फिर उसने कुछ हेराल्ड के लाभ की बात की। इसके पहले कि वह नोटों का बण्डल खोलता, सम्पादक ने उसे खदेड़ा और फाटक तक दौड़ाया। आर्य समाज ने बाद में रामाराव को एक आभार-पत्र लिखा था। त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी और नेहरू के विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। हेराल्ड ने बोस के समर्थन में काफी लिखा। जब सुभाष बोस लखनऊ आये और बोले, यह नेहरू का अखबार मेरे प्रति बड़ा संवेदनशील रहा। ईमानदार रहा।”
मुस्लिम लीग का गढ़ लखनऊ था। राजा महमूदाबाद उसके पुरोधा थे। मुस्लिम लीग के नेता हेराल्ड में अपने बयानों को प्रमुखता से प्रकाशित होते देखकर प्रफुल्लित होते थे। उन्हें बस एक शिकायत थी कि हेराल्ड के सम्पादकीय अग्रलेखों . में उनकी तीखी आलोचना होती थी। उन्हे घातक करार दिया जाता था। आजादी के बाद का किस्सा है। तब चन्द्रभानु गुप्त प्रदेश के अध्यक्ष पद पर मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द के प्रत्याशी मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को हराकर चुने गये थे। सम्पादक चलपति राव ने यादगार लेख लिखा था कि ”नैतिकता यदि शेष हो तो सम्पूर्णानन्द त्यागपत्र दें।“ इमरजेंसी के दौरान जब संजय गांधी को सारे समाचारपत्र वली अहद के रूप में पेश कर रहे थे, तो लखनऊ हेराल्ड के स्थानीय सम्पादक सी.एन. चितरंजन ने संजय गांधी की तस्वीर छापने पर रोक लगा दी थी। तब के कांगे्रसी मुख्यमंत्री ने प्रबंध निदेशक मोहम्मद युनुस से इसकी शिकायत की तो उन्हें जवाब मिला कि सम्पादकीय मामलों में प्रबंधन का हस्तक्षेप वर्जित है। हेराल्ड के सम्पादक की आत्मा हमेशा उसकी अपनी रही। उसकी कभी कोई बोली नहीं लगा पाया है, चाहे जैसा प्रबंधन रहा हो।
एक शाम (20 अप्रैल 1940) जवाहरलाल नेहरू ने सम्पादक को लिखा कि हेराल्ड का पीछा दुर्भाग्य कर रहा है अथवा अक्षम प्रबंधन है जिससे ये सारे आर्थिक संकट उपजते है? आज सत्तर साल बाद इतना तो स्पष्ट हो गया कि दुर्भाग्य इतनी लम्बी अवधि तक छाया नहीं रहता है। ग्रह दशा बारह वर्ष में तो बदल ही जाती है। अतः यदि प्रबंधन सुधरे तो स्थिति बदले। मगर वहीं फ्रांसीसी क्रांति वाली बात याद आ जाती है। क्रांति की बेला पर पेरिस में भूखों के अपार जन सैलाब को अपने महल के झरोखे से देखकर, महारानी मेरी एन्तियोनेत ने आक्रोश का कारण जानना चाहा। दरबारियेां ने कहा कि प्रदर्शनकारियों को डबल रोटी नहीं मिल रही है। महारानी बोली तो ”कहो वे केक खायें।“ हेराल्ड के प्रबंधकों ने 10 जनपथ की निवासिनी अपनी स्वामिनी को शायद इसी तरह अनभिज्ञ रखा था। तब नीलामी की बोली गोमती के इस पार लगी थी। आज यमुना के उस तट पर हेराल्ड हाउस ही बन्द हो गया। पर हेरल्ड के नाम पर लूट चालू है।
लेखक के विक्रम राव (K Vikram Rao) की किताब "ना रुकी ना झुकी ये कलम " से उद्रित
Saturday, 5 December 2015
Friday, 4 December 2015
समाजवादियों की गंगा में भी अधिकतर ब्राह्मणवादियों का ही कब्जा है ------ जगदीश चंदर
***पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री शैलजा के एक बयान पर कंवल भारती जी के दृष्टिकोण पर मैंने यह टिप्पणी दी थी जिसके जवाब में निम्नांकित दो टिप्पणिया प्रकाश में आईं हैं :---
*********************************************************************************जगदीश चंदर जी ने जिस बात की ओर इंगित किया है वह महत्वपूर्ण है किन्तु उससे निबटने का जो मार्ग उन्होने प्रस्तुत किया है वह एक तो यह कि, सब लोग जाति सूचक शब्दों का प्रयोग स्वतः न करें एवं दूसरा यह कि कानूनन इस प्रयोग को रोका जाये। स्वेच्छा से सभी यों ही मानेंगे नहीं और कानून बनाने के लिए आपके पास बहुमत तो पहले जुटे तब न आप कानून बनाएँगे।
दोनों बातें तभी संभव हैं जब आप लोगों को अपनी बात सही तरीके से समझा सकें। 'एकला चलो रे' की तर्ज पर अपने ब्लाग 'क्रांतिस्वर' के माध्यम से मैंने ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध अनेक लेख दिये हैं किन्तु किसी का भी समर्थन नहीं मिलता है। जो पोंगा-पंथी/पुराण-पंथी/ब्राह्मण वादी हैं वे तो मान ही नहीं सकते, किन्तु 'एथीस्ट ' भी उस पर प्रहार करने में सबसे आगे हैं। वस्तुतः पोंगापंथ और एथीज़्म में कोई अंतर है ही नहीं दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
" आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।"
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/blog-post_16.html
यह उद्धृण एक पुराने लेख से है। परंतु समस्या यह है कि 'मूल निवासी आंदोलन' भी 'मूल सिद्धान्त' को नहीं मानता और आयातित विचारों को ही महत्व देता है। वस्तुतः पाँच हज़ार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद 'धर्म' ='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का लोप हो गया और उसके स्थान पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-शोषण-उत्पीड़न' को धर्म कहा जाने लगा। 'वेदों' का जो मूल मंत्र -'कृणवंतों विश्वमार्यम ...' था अर्थात समस्त विश्व को 'आर्य'=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना था उसे ब्राह्मणों द्वारा शासकों की मिली-भगत से ठुकरा दिया गया। 'अहं','स्वार्थ','उत्पीड़न'को महत्व दिया जाने लगा। 'यज्ञ'=हवन में जीव हिंसा की जाने लगी। इन सब पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुलंद आवाज़ उठाई और लोग उनसे प्रभावित होकर पुनः कल्याण -मार्ग पर चलने लगे तब शोषकों के समर्थक शासकों एवं ब्राह्मणों ने षड्यंत्र पूर्वक महात्मा बुद्ध को 'दशावतार' घोषित करके उनकी ही पूजा शुरू करा दी। 'बौद्ध मठ' और 'विहार' उजाड़ डाले गए बौद्ध साहित्य जला डाला गया। परिणामतः गुमराह हुई जनता पुनः 'वेद' और 'धर्म' से विलग ही रही और लुटेरों तथा ढोंगियों की 'पौ बारह' ही रही।
यह अधर्म को धर्म बताने -मानने का ही परिणाम था कि देश ग्यारह-बारह सौ वर्षों तक गुलाम रहा। गुलाम देश में शासकों की शह पर ब्राह्मणों ने 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराण' को महत्व देकर जनता के दमन -उत्पीड़न व शोषण का मार्ग मजबूत किया था जो आज भी बदस्तूर जारी है। पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी योगीराज श्री कृष्ण की मामी ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं।
एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?
यदि हम समाज की दुर्व्यवस्था से वास्तव में ही चिंतित हैं और उसे दूर करना चाहते हैं तो अधर्म को धर्म कहना बंद करके वास्तविक धर्म के मर्म को जनता को स्पष्ट समझाना होगा तभी सफल हो सकते हैं वर्ना तो जो चल रहा है और बिगड़ता ही जाएगा।
सत्य क्या है?:
'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य'।
अध्यात्म=अध्ययन +आत्मा =अपनी 'आत्मा' का अध्ययन।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
खुदा=चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।
गाड=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना ही इन तत्वों का कार्य है इसलिए ये ही GOD भी हैं।
व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट कारोबारियों के हितों में गठित रिलीजन्स व संप्रदाय जनता को लूटने व उसका शोषण करने हेतु जो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि परोसते हैं वह सब 'अधर्म' है 'धर्म' नहीं। अतः अधर्म का विरोध और धर्म का समर्थन जब तक साम्यवादी व वामपंथी नहीं करेंगे तब तक जन-समर्थन हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि शोषकों को ही मजबूत करते रहेंगे जैसा कि 2014 के चुनाव परिणामों से सिद्ध भी हो चुका है। "
http://krantiswar.blogspot.in/2014/06/blog-post_17.html
जातिवाद के संबंध में जगदीश चंदर जी कहते हैं -"इसका अंत समाजवाद, कम्युनिज्म, (साम्यवाद ) के द्वारा ही होना है, उसको लाने का प्रयास जोरों से करें ???"
1917 से 1991 तक साम्यवाद रूस में रहा और वहाँ विफल ही इसलिए हुआ कि वहाँ 'धर्म='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'।" का कोई स्थान नहीं था वह एथीज़्म पर आधारित था जबकि मजहब या रिलीजन धर्म नहीं होते हैं और मार्क्स ने रिलीजन/मजहब का विरोध किया था उसे 'धर्म ( 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य') का विरोध बता कर एथीस्ट संप्रदाय स्वतः ही ढ़ोंगी संप्रदाय को मजबूत करता रहा और ;साम्यवाद' ढह गया। सरकारी संस्थानों को वहाँ खरीदने वाले वहीं के भ्रष्ट कर्मचारी और नेता थे जिनके पास जनता के शोषण से अकूत संपदा संग्रहीत थी। यदि धर्म का विरोध नहीं होता तो साम्यवाद आज भी बदस्तूर जारी होता। रूस के पतन से सबक सीख कर भारत में साम्यवाद को सही तरीके से लाने के प्रयास किए जाएँ तभी सफलता हासिल हो सकती है अन्यथा नहीं।
(विजय राजबली माथुर )
Kanwal Bharti यह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है. निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. यह राजनीति है.
Jagdish Chander......................................................................................................... इस देश में तथाकथित जातिवाद पूर्ण रूप से ज़िंदा है,न तो यह बृद्ध हुआ है, और न ही बीमार है ? अगर बीमार होता तो सायद उसे मारने के लिए तथाकथित दलित ही अधिक प्रयास करते, किन्तु दुर्भाग्य से दलित भी , तथाकथित कटटरवादी आस्थावादी धार्मिकता और सामंती मानसिकता में पली विचारधारा में ही पैदा हुए और बड़े हुए है, सो वे भी अपने नाम के पश्चात तथाकथित जातिगत नामों का अलंकरण कर तथाकथित जातिवाद को ज़िंदा रखे हुए बढ़ावा दे रहे हैं ! मेरे अनेक रिस्तेदार हैं, और उनमे अनेक के साथ घनिष्टता भी है, मेरे अपने परिवार के अपने चाचा , ताऊ , को छोड़कर बाकी अन्य रिस्तेदार , देश के विभिन्न सहरों में स्थायी निवास कर चुके हैं, शर्म के मारे , हीन भावना से ग्रसित , सभी के समक्ष वे बेचारे हीन भावना से ग्रसित नहीं होना चाहते , इस लिए अपने नामों के पश्चात तथाकथित सवर्ण जाती के नामों का अलंकरण / धारण किये हुए हैं, क्यों है ऐसी स्थिति मंथन करें यह समाजवादी , समरसतावादी बुद्धि जीवियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए ?? , सोचिये कारण आज भी वह चाहे काशी विश्वनाथ का मंदिर हो, या पूरी का, द्वारका का हो या बद्रीनाथ, केदारनाथ को तो बेचारे भूल गए, या गली हो या मोहल्ला सहर का होटल , बस का सफर हो या रेल का सफर , पार्क हो या सड़क, कहीं पर साक्षात्कार हो या नौकरी लगने के पश्चात कार्यालय, बच्चों का स्कूल, हो या कॉलेज, अक्सर आपसे कोई भी अनजान ब्यक्ति जो आपको नहीं जानता पहली बार, बातों बातों में आपका नाम पूछता है, और यदि वह तथाकथित सवर्ण जाती का ब्यक्ति, नवजवान,युवती, स्त्री , पुरुष कोई भी हो, वह अपने नए मुलाकाती स्त्री , पुरुष मित्र है, और अपने नाम के पश्चात तथाकथित सवर्ण जाती के उपनाम के "अलंकार " को अलंकृति करता है, और आप साधारण नामधारी यानी आप नाम के साथ तथाकथित जातीय "अलंकार" का इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो एक बार आपसे ऐसे स्त्री , पुरुष, ब्यक्तित्व की कहीं पर भी उक्त स्थानों में आपकी मुलाक़ात होती हैं, तो पूछ बैठेगा/ बैठेगी की आपके सर- में - नाम क्या है यानी आपका सरनेम क्या है (दुर्भाग्य से उस ब्यक्तित्व का दोष नही है यह दोष तो तथाकथित , सामंती, पूंजीवादी, और तथाकथित कट्टर धार्मिक आस्थावादी संश्कृति , और इससे जुडी, अहंकारी चतुर धूर्त ब्राह्मणवादी जातिब्यवस्था का ही है, उसने इस सवर्णवादी/ ब्राह्मणवादी जातीय अहंकार की मानसिकता का जहर समाज के मष्तिष्क में घोल दिया है उसे ये मूर्ख नहीं निकाल पा रहे हैं , यह कैसे निकलेगा ? एक ही मार्ग है, कि हम तथाकथित जातीय नामों का "अलंकरण" बंद कर दें , बच्चों के विद्यालयों में प्रवेश के समय या तो कानून बनाएं कि बच्चों के साधारण नाम ही प्रवेश के समय लिखे जाएंगे या इसका अंत समाजवाद, कम्युनिज्म, (साम्यवाद ) के द्वारा ही होना है, उसको लाने का प्रयास जोरों से करें ??? . ............... 2 / - .........
वैसे समाजवादियों की गंगा में भी अधिकतर ब्राह्मणवादियों का ही कब्जा है, यानी, कुछ ऐसे ब्यक्तित्व थोड़ा सा ब्राह्मणवादी मानसिकता पाले हुए हैं, फिर भी हमे गंगा की इस तेज धार में तैरना सीखना होगा, यह सत्य के मार्ग का युद्ध है, इसमें सत्य की ही विजय होनी है, और सत्य पीड़ा, उत्पीड़न , दमन, और शोषण के गर्भ में छिपा है, जिस प्रकार सोना, चांदी , हीरा कहाँ छिपा है ) ,अरे मूर्ख तू सरनेम लेकर क्या करेगा ? अगर आपका कुछ भी जबाव नहीं होगा तो समझ जाएगा, और अगर आप सवर्ण हैं तो आप बेझिजक कहेंगे, कि पांडे , सांडे, मिश्रा, फिशरा, ठाकुर वाकुर, आदि, अहंकारी मानसिकता बड़ी तेजी और खुलेपन से जबाव देती है, किन्तु हीन दलित, पीड़ित और शोषित मानसिकता सच्चाई, और दबाव से डर कर सही उत्तर देती है , सायद मेरे तथाकथित जातीय मित्रों , रिश्तेदारों ने अपने जीवन में इस पीड़ा का अहसास नहीं किया है, वे शर्म के मारे सहरों में अपनी तथाकथित दलित जाति के नाम के " अलंकार " को नहीं लगाते और झूटी तथाकथित सवर्ण जातीय नाम के " अलंकार " का प्रयोग करते हैं, ऐसे लोग झूठ पर आधारित जिंदगी जीते हैं, ?
मैं यह मानता हूँ, कि वह शिक्षित और साक्षर ब्यक्ति जो अपनी शिक्षा का सदुपयोग करता है , और एक निररक्षक ब्यक्ति जिसे अक्षर ज्ञान भी न हो किन्तु सभ्य समाज में रह कर ज्ञान हाशिल कर चुका है, जैसे कबीर आदि, और समाज में ज्ञानी ब्यक्ति कहलाता है, चाहे वह साक्षर भी न हो वह हमारे विचारों से ब्रह्म ज्ञानी यानी तथाकथित सूद्र, दलित होते हुए भी ब्राह्मण है ??
और कोई ब्यक्ति शिक्षित है, शिक्षित होते हुए शिक्षा का दुरुपयोग कर रहा है, और अहंकारी है, जहरीली मानसिकता है, समाज में रहते हुए भी समाजवादी नहीं है, यानी सामंती, और लुटेरी प्रवृति का ब्यक्ति है , वह चाहे तथाकथित सवर्ण ब्राह्मण, ब्राह्मणवादी, राजपूत कुछ भी हो या दूसरा कोई अन्यन , वह सूद्र और नीच ही कहलायेगा ? और दुसरे कोई तथाकथित सवर्ण, ब्राह्मण, राजपूत, ठाकुर आदि, और अन्यन , साक्षर नहीं है, किन्तु समाज की संगत में कुछ ज्ञान हाशिल कर चुका है, और समाज की संगत से प्राप्त , उस ज्ञान का सदुपयोग नहीं करता , दुर्भाग्य से समाज में बहुमत में ज्ञान की परिभाषा को न जानने वाले लोग जाने - अनजाने , " अदरक की गाँठ को प्राप्त करने वाले बन्दर का , पन्सारी बनना के सामान " उस ब्यक्ति को जाने - अनजाने में ज्ञानी मान बैठते हैं, जैसे आजकल के बाबाओं का ढोंगी और पाखंडी प्रवचन --- एक निर्मल बाबा भी है, जो हजारों लाखों को मूर्ख बना रहा है " ?? ऐसा ब्यक्ति ज्ञानी होते हुए भी ज्ञान का दुरुपयोग कर रहा है, वह सूद्र यानी नीच बनकर लूट रहा है ? इस प्रकार के अवगुणी /निर्गुणी तत्व दुर्भाग्य से इस देश की तथाकथित जाती ब्यवस्था में पाये जाते हैं ?? और इस प्रकार के कुकर्मों का इस्तेमाल हर वर्ग का ब्यक्ति और तथाकथित जाती का ब्यक्ति कर रहा है, इसमें बहुमत तो तथाकथित नीच ब्राह्मणवादियों का यानी शोषकों, लालचियों,लुटेरों, धूर्तों, चालकों ,और चतुर अन्यनो का ही है ??
वैसे समाजवादियों की गंगा में भी अधिकतर ब्राह्मणवादियों का ही कब्जा है, यानी, कुछ ऐसे ब्यक्तित्व थोड़ा सा ब्राह्मणवादी मानसिकता पाले हुए हैं, फिर भी हमे गंगा की इस तेज धार में तैरना सीखना होगा, यह सत्य के मार्ग का युद्ध है, इसमें सत्य की ही विजय होनी है, और सत्य पीड़ा, उत्पीड़न , दमन, और शोषण के गर्भ में छिपा है, जिस प्रकार सोना, चांदी , हीरा कहाँ छिपा है ) ,अरे मूर्ख तू सरनेम लेकर क्या करेगा ? अगर आपका कुछ भी जबाव नहीं होगा तो समझ जाएगा, और अगर आप सवर्ण हैं तो आप बेझिजक कहेंगे, कि पांडे , सांडे, मिश्रा, फिशरा, ठाकुर वाकुर, आदि, अहंकारी मानसिकता बड़ी तेजी और खुलेपन से जबाव देती है, किन्तु हीन दलित, पीड़ित और शोषित मानसिकता सच्चाई, और दबाव से डर कर सही उत्तर देती है , सायद मेरे तथाकथित जातीय मित्रों , रिश्तेदारों ने अपने जीवन में इस पीड़ा का अहसास नहीं किया है, वे शर्म के मारे सहरों में अपनी तथाकथित दलित जाति के नाम के " अलंकार " को नहीं लगाते और झूटी तथाकथित सवर्ण जातीय नाम के " अलंकार " का प्रयोग करते हैं, ऐसे लोग झूठ पर आधारित जिंदगी जीते हैं, ?
मैं यह मानता हूँ, कि वह शिक्षित और साक्षर ब्यक्ति जो अपनी शिक्षा का सदुपयोग करता है , और एक निररक्षक ब्यक्ति जिसे अक्षर ज्ञान भी न हो किन्तु सभ्य समाज में रह कर ज्ञान हाशिल कर चुका है, जैसे कबीर आदि, और समाज में ज्ञानी ब्यक्ति कहलाता है, चाहे वह साक्षर भी न हो वह हमारे विचारों से ब्रह्म ज्ञानी यानी तथाकथित सूद्र, दलित होते हुए भी ब्राह्मण है ??
और कोई ब्यक्ति शिक्षित है, शिक्षित होते हुए शिक्षा का दुरुपयोग कर रहा है, और अहंकारी है, जहरीली मानसिकता है, समाज में रहते हुए भी समाजवादी नहीं है, यानी सामंती, और लुटेरी प्रवृति का ब्यक्ति है , वह चाहे तथाकथित सवर्ण ब्राह्मण, ब्राह्मणवादी, राजपूत कुछ भी हो या दूसरा कोई अन्यन , वह सूद्र और नीच ही कहलायेगा ? और दुसरे कोई तथाकथित सवर्ण, ब्राह्मण, राजपूत, ठाकुर आदि, और अन्यन , साक्षर नहीं है, किन्तु समाज की संगत में कुछ ज्ञान हाशिल कर चुका है, और समाज की संगत से प्राप्त , उस ज्ञान का सदुपयोग नहीं करता , दुर्भाग्य से समाज में बहुमत में ज्ञान की परिभाषा को न जानने वाले लोग जाने - अनजाने , " अदरक की गाँठ को प्राप्त करने वाले बन्दर का , पन्सारी बनना के सामान " उस ब्यक्ति को जाने - अनजाने में ज्ञानी मान बैठते हैं, जैसे आजकल के बाबाओं का ढोंगी और पाखंडी प्रवचन --- एक निर्मल बाबा भी है, जो हजारों लाखों को मूर्ख बना रहा है " ?? ऐसा ब्यक्ति ज्ञानी होते हुए भी ज्ञान का दुरुपयोग कर रहा है, वह सूद्र यानी नीच बनकर लूट रहा है ? इस प्रकार के अवगुणी /निर्गुणी तत्व दुर्भाग्य से इस देश की तथाकथित जाती ब्यवस्था में पाये जाते हैं ?? और इस प्रकार के कुकर्मों का इस्तेमाल हर वर्ग का ब्यक्ति और तथाकथित जाती का ब्यक्ति कर रहा है, इसमें बहुमत तो तथाकथित नीच ब्राह्मणवादियों का यानी शोषकों, लालचियों,लुटेरों, धूर्तों, चालकों ,और चतुर अन्यनो का ही है ??
दोनों बातें तभी संभव हैं जब आप लोगों को अपनी बात सही तरीके से समझा सकें। 'एकला चलो रे' की तर्ज पर अपने ब्लाग 'क्रांतिस्वर' के माध्यम से मैंने ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध अनेक लेख दिये हैं किन्तु किसी का भी समर्थन नहीं मिलता है। जो पोंगा-पंथी/पुराण-पंथी/ब्राह्मण वादी हैं वे तो मान ही नहीं सकते, किन्तु 'एथीस्ट ' भी उस पर प्रहार करने में सबसे आगे हैं। वस्तुतः पोंगापंथ और एथीज़्म में कोई अंतर है ही नहीं दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
" आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।"
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यह उद्धृण एक पुराने लेख से है। परंतु समस्या यह है कि 'मूल निवासी आंदोलन' भी 'मूल सिद्धान्त' को नहीं मानता और आयातित विचारों को ही महत्व देता है। वस्तुतः पाँच हज़ार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद 'धर्म' ='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का लोप हो गया और उसके स्थान पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-शोषण-उत्पीड़न' को धर्म कहा जाने लगा। 'वेदों' का जो मूल मंत्र -'कृणवंतों विश्वमार्यम ...' था अर्थात समस्त विश्व को 'आर्य'=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना था उसे ब्राह्मणों द्वारा शासकों की मिली-भगत से ठुकरा दिया गया। 'अहं','स्वार्थ','उत्पीड़न'को महत्व दिया जाने लगा। 'यज्ञ'=हवन में जीव हिंसा की जाने लगी। इन सब पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुलंद आवाज़ उठाई और लोग उनसे प्रभावित होकर पुनः कल्याण -मार्ग पर चलने लगे तब शोषकों के समर्थक शासकों एवं ब्राह्मणों ने षड्यंत्र पूर्वक महात्मा बुद्ध को 'दशावतार' घोषित करके उनकी ही पूजा शुरू करा दी। 'बौद्ध मठ' और 'विहार' उजाड़ डाले गए बौद्ध साहित्य जला डाला गया। परिणामतः गुमराह हुई जनता पुनः 'वेद' और 'धर्म' से विलग ही रही और लुटेरों तथा ढोंगियों की 'पौ बारह' ही रही।
यह अधर्म को धर्म बताने -मानने का ही परिणाम था कि देश ग्यारह-बारह सौ वर्षों तक गुलाम रहा। गुलाम देश में शासकों की शह पर ब्राह्मणों ने 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराण' को महत्व देकर जनता के दमन -उत्पीड़न व शोषण का मार्ग मजबूत किया था जो आज भी बदस्तूर जारी है। पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी योगीराज श्री कृष्ण की मामी ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं।
एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?
यदि हम समाज की दुर्व्यवस्था से वास्तव में ही चिंतित हैं और उसे दूर करना चाहते हैं तो अधर्म को धर्म कहना बंद करके वास्तविक धर्म के मर्म को जनता को स्पष्ट समझाना होगा तभी सफल हो सकते हैं वर्ना तो जो चल रहा है और बिगड़ता ही जाएगा।
सत्य क्या है?:
'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य'।
अध्यात्म=अध्ययन +आत्मा =अपनी 'आत्मा' का अध्ययन।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
खुदा=चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।
गाड=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना ही इन तत्वों का कार्य है इसलिए ये ही GOD भी हैं।
व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट कारोबारियों के हितों में गठित रिलीजन्स व संप्रदाय जनता को लूटने व उसका शोषण करने हेतु जो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि परोसते हैं वह सब 'अधर्म' है 'धर्म' नहीं। अतः अधर्म का विरोध और धर्म का समर्थन जब तक साम्यवादी व वामपंथी नहीं करेंगे तब तक जन-समर्थन हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि शोषकों को ही मजबूत करते रहेंगे जैसा कि 2014 के चुनाव परिणामों से सिद्ध भी हो चुका है। "
http://krantiswar.blogspot.in/2014/06/blog-post_17.html
जातिवाद के संबंध में जगदीश चंदर जी कहते हैं -"इसका अंत समाजवाद, कम्युनिज्म, (साम्यवाद ) के द्वारा ही होना है, उसको लाने का प्रयास जोरों से करें ???"
1917 से 1991 तक साम्यवाद रूस में रहा और वहाँ विफल ही इसलिए हुआ कि वहाँ 'धर्म='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'।" का कोई स्थान नहीं था वह एथीज़्म पर आधारित था जबकि मजहब या रिलीजन धर्म नहीं होते हैं और मार्क्स ने रिलीजन/मजहब का विरोध किया था उसे 'धर्म ( 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य') का विरोध बता कर एथीस्ट संप्रदाय स्वतः ही ढ़ोंगी संप्रदाय को मजबूत करता रहा और ;साम्यवाद' ढह गया। सरकारी संस्थानों को वहाँ खरीदने वाले वहीं के भ्रष्ट कर्मचारी और नेता थे जिनके पास जनता के शोषण से अकूत संपदा संग्रहीत थी। यदि धर्म का विरोध नहीं होता तो साम्यवाद आज भी बदस्तूर जारी होता। रूस के पतन से सबक सीख कर भारत में साम्यवाद को सही तरीके से लाने के प्रयास किए जाएँ तभी सफलता हासिल हो सकती है अन्यथा नहीं।
(विजय राजबली माथुर )
Thursday, 3 December 2015
श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान: डॉ० राजेंद्र प्रसाद
देशरत्न
बिहार के गौरव, भारत के प्रथम राष्ट्रपति, जिनका परिचय देना उनकी महानता
का अपमान है, उस महापुरुष को उनके जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें।
डॉ० राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को हुआ था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने सर्चलाईट और देश जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।"
सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
Admin : Shivi Snigdh
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डॉ० राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को हुआ था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने सर्चलाईट और देश जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।"
सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
Admin : Shivi Snigdh
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Vir Vinod Chhabra
21-10-2015 ·
विधवा की हाय मत लो - डॉ राजेंद्र प्रसाद।
प्रस्तुति - वीर विनोद छाबड़ा
डॉ राजेंद्र प्रसाद (०३ दिसंबर १८८४ से २८ फरवरी १९६३ तक) का जन्म बिहार के जिला सारन के एक छोटे से गांव जिरादेई में हुआ था।
वो भारत के प्रथम राष्ट्रपति (१९५० से १९६२) रहे। १९६२ में उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उच्च श्रेणी में वक़ालत पास की। पहले कलकत्ता और फिर पटना हाई कोर्ट में वक़ालत करने लगे। ईमानदारी और निष्ठा में उनका कोई सानी नहीं था। सदैव सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखे। बड़ा नाम था उनका।
एक दिन एक व्यक्ति किसी परिचित के हवाले से राजेंद्र बाबू से मिलने आया। किसी विधवा महिला से ज़मीन का मामला था। बोला - मुंहमांगी फीस देने का लिए तैयार हूं। बस किसी तरह केस मेरे पक्ष में करा दें। मुझे मालूम है यह काम बड़ी आसानी से आप कर सकते हैं।
राजेंद्र बाबू ने कागज़ात देखे। उनकी माथे बल पड़ गए। फिर उस व्यक्ति से मुख़ातिब हुए - यह कागज़ात बता तो रहे हैं कि इस ज़मीन के मालिक तुम हो। यह बात अदालत में साबित भी हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। असली मालकिन विधवा महिला है, तुम नहीं हो। यह कागज़ात नकली हैं। मेरा सिद्धांत और मेरा ज़मीर यह केस लेने का लिए इजाज़त नहीं देता। और मेरा मश्विरा है कि किसी विधवा की 'हाय' मत लो। पाप लगेगा। सुख-शांति नहीं मिलेगी।
राजेंद्र बाबू की बातें और सलाह सुन कर वो व्यक्ति इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने वो सारे नकली कागज़ात उनके सामने ही फाड़ दिए।
राजेंद्र बाबू ने अनेक लोगों अपने विचारों से प्रभावित किया। बिना मुक़दमा के कई मामले सुलटा दिए। इस तरह समय, ऊर्जा और धन तीनों की बचत। भले उनका अपना आर्थिक नुकसान हुआ।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए महात्मा गांधी कहा करते थे - अमृत पीने वाले तो बहुत हैं मगर विष पीने वाला सिर्फ़ एक है।
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२१-१०-२०१५
प्रस्तुति - वीर विनोद छाबड़ा
डॉ राजेंद्र प्रसाद (०३ दिसंबर १८८४ से २८ फरवरी १९६३ तक) का जन्म बिहार के जिला सारन के एक छोटे से गांव जिरादेई में हुआ था।
वो भारत के प्रथम राष्ट्रपति (१९५० से १९६२) रहे। १९६२ में उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उच्च श्रेणी में वक़ालत पास की। पहले कलकत्ता और फिर पटना हाई कोर्ट में वक़ालत करने लगे। ईमानदारी और निष्ठा में उनका कोई सानी नहीं था। सदैव सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखे। बड़ा नाम था उनका।
एक दिन एक व्यक्ति किसी परिचित के हवाले से राजेंद्र बाबू से मिलने आया। किसी विधवा महिला से ज़मीन का मामला था। बोला - मुंहमांगी फीस देने का लिए तैयार हूं। बस किसी तरह केस मेरे पक्ष में करा दें। मुझे मालूम है यह काम बड़ी आसानी से आप कर सकते हैं।
राजेंद्र बाबू ने कागज़ात देखे। उनकी माथे बल पड़ गए। फिर उस व्यक्ति से मुख़ातिब हुए - यह कागज़ात बता तो रहे हैं कि इस ज़मीन के मालिक तुम हो। यह बात अदालत में साबित भी हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। असली मालकिन विधवा महिला है, तुम नहीं हो। यह कागज़ात नकली हैं। मेरा सिद्धांत और मेरा ज़मीर यह केस लेने का लिए इजाज़त नहीं देता। और मेरा मश्विरा है कि किसी विधवा की 'हाय' मत लो। पाप लगेगा। सुख-शांति नहीं मिलेगी।
राजेंद्र बाबू की बातें और सलाह सुन कर वो व्यक्ति इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने वो सारे नकली कागज़ात उनके सामने ही फाड़ दिए।
राजेंद्र बाबू ने अनेक लोगों अपने विचारों से प्रभावित किया। बिना मुक़दमा के कई मामले सुलटा दिए। इस तरह समय, ऊर्जा और धन तीनों की बचत। भले उनका अपना आर्थिक नुकसान हुआ।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए महात्मा गांधी कहा करते थे - अमृत पीने वाले तो बहुत हैं मगर विष पीने वाला सिर्फ़ एक है।
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२१-१०-२०१५
Wednesday, 2 December 2015
The Indo-Pakistani War of 1971 :Bangladesh --- Sanjog Walter
The Indo-Pakistani War of 1971 was a military conflict between India and Pakistan. Indian, Bangladeshi and international sources consider the beginning of the war to be Operation Chengiz Khan, Pakistan's 3 December 1971 preemptive strike on 11 Indian airbases.Lasting just 13 days it is considered one of the shortest wars in history.
During the course of the war, Indian and Pakistani forces clashed on the eastern and western fronts. The war effectively came to an end after the Eastern Command of the Pakistani Armed Forces signed the Instrument of Surrender,on 16 December 1971 following which East Pakistan seceded as the independent state of Bangladesh. Between 90,000 and 93,000 members of the Pakistan Armed Forces including paramilitary personnel were taken as Prisoners of War by the Indian Army It is estimated that between 2,000,000 and 3,000,000 civilians were killed in Bangladesh, and up to four hundred thousand women raped by the Pakistani armed forces,especially Bengali Hindus.As a result of the conflict, a further eight to ten million people fled the country at the time to seek refuge in neighbouring India.
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=561524513873836&set=a.213322672027357.71686.100000488781382&type=3&theater
'आयौ -आयौ ' से 'आई- आई ' तक ------ डॉ अचला नगर
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अचला नागर ( Achala Nagar) प्रसिद्ध फ़िल्म पटकथा एवं संवाद लेखिका हैं। डॉ. अचला नागर का जन्म 2 दिसंबर, 1939 को लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ। ये प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर की पुत्री हैं।
जन्मदिन 02 दिसंबर के अवसर पर डॉ अचला नागर की एक राजनीतिक व्यंग्य रचना :
22 जून, 1980 के 'धर्मयुग' में प्रकाशित डॉ अचला नागर जी की यह रचना व्यंग्यात्मक पुट लिए उस समय की राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण करती है। यह वह समय था जब जनता पार्टी के दोनों गुट अपनी-अपनी सरकारें गंवा चुके थे और मध्यावधि चुनावों से इंदिरा कांग्रेस जो उस समय 'कांग्रेस आई' के नाम से जानी जाती थी प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौट आई थी।
डॉ अचला जी ने मंदिर के बंदर से शुरू करके केंद्र व राज्यों में पुनः कांग्रेस आई की सरकारों के गठन का बड़ा ही रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। जनता पार्टी की बंदर-बाट को लेखिका ने बंदर की घटना से जोड़ कर बेजोड़ बना दिया है।
(विजय राजबली माथुर )
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
अचला नागर ( Achala Nagar) प्रसिद्ध फ़िल्म पटकथा एवं संवाद लेखिका हैं। डॉ. अचला नागर का जन्म 2 दिसंबर, 1939 को लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ। ये प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर की पुत्री हैं।
जन्मदिन 02 दिसंबर के अवसर पर डॉ अचला नागर की एक राजनीतिक व्यंग्य रचना :
22 जून, 1980 के 'धर्मयुग' में प्रकाशित डॉ अचला नागर जी की यह रचना व्यंग्यात्मक पुट लिए उस समय की राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण करती है। यह वह समय था जब जनता पार्टी के दोनों गुट अपनी-अपनी सरकारें गंवा चुके थे और मध्यावधि चुनावों से इंदिरा कांग्रेस जो उस समय 'कांग्रेस आई' के नाम से जानी जाती थी प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौट आई थी।
डॉ अचला जी ने मंदिर के बंदर से शुरू करके केंद्र व राज्यों में पुनः कांग्रेस आई की सरकारों के गठन का बड़ा ही रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। जनता पार्टी की बंदर-बाट को लेखिका ने बंदर की घटना से जोड़ कर बेजोड़ बना दिया है।
(विजय राजबली माथुर )
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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