राही मासूम रजा साहब की जयंती पर :
'धर्मयुग', 13 नवंबर 1977, पृष्ठ -17 पर प्रकाशित उनका एक महत्वपूर्ण लेख ।इस लेख का महत्व आज 38 वर्ष बाद और अधिक बढ़ गया है क्योंकि आज नेहरू और उनकी 'धर्म निरपेक्ष अवधारणा' पर व्यापक और तीव्र प्रहार किए जा रहे हैं। राही मासूम रजा साहब ने तब भविष्य के लिए नेहरू पर भरोसा किया था जो आज भी प्रासांगिक है।
(विजय राजबली माथुर )
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धर्मयुग के 29 अक्तूबर 1978 के अंक में प्रकाशित उनकी चार गज़लें :
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कच्चा आँगन बिस्तर खोले, दरवाजा विश्राम करे
राही जी कुछ दिन को अपने घर हो आयें राम करे
दिल की मौत पे पुरसा देने तो नहीं आया कोई हमें
और हमीं से जोड़ के नाता, बस्ती अपना नाम करे
मेरी घायल आँखों ने तो जोड़ लिए हैं हाथ अपने
बंजारे सपनों की टोली किन आँखों में शाम करे
शहर में इज़्ज़तदार बहुत हैं पुरखों की पगड़ीवाले
कोई चाक गरीबांबाला भी तो अपना नाम करे
आँखों में कुछ वहशत पाले, तलवों में कांटे बोये
दीवाना क्यों घर बैठे, बाहर निकले, कुछ काम करे
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वक्त से पूछ लो सूरज का पता रात गये
वक्त इस शहर में रुकता है, ज़रा रात गये
दिल के रस्ते में जो ज़ख़्मों की गली पड़ती है
उस गली में कोई देता है सदा रात गये
मेरे घर की कोई आवाज़, मेरे शहर का शोर
कुछ-न-कुछ लाती है सौगात हवा रात गये
ख्वाब लहराते हैं,याद आते हैं बिछड़े हुए लोग
आँख बन जाता है हर ज़ख्मे-वफा रात गये
देखे हर पेड़ से परछाईं उतर सकती है
मत जलाना कभी यादों का दिया रात गये
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डूबता सूरज देख कर लगी वह दिल को ठेस
साँझ भये परदेस में, हम गाते हैं देस
यह काली पगडंडियाँ, भटक न जाये चाँद
दिन से कहिए संवार दे, घनी रात के केस
ओढ़े कमली ख्वाब की, लिये चाँद का चंग
राही जी बतलाइए, क्यों बदला यह भेस
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ओस की बूंदें हंसी उड़ायेँ, आए न दरिया पास
मेरे होठों की किस्मत में लिखी है कैसी प्यास
कब तक यह बेमंज़र दिन, कब तक यह खाली रात
कब तक आख़िर और चलेगा आँखों का उपवास
हम तन्हा घर में बैठे हैं, चाँद गया है देस
कोई नहीं है आज हमारी काली रात के पास
बरगद के साये में बैठी सिर निहुड़ाये धूप
सूरज जी बेचारे भी लगते हैं आज उदास
सूरज डूबा, सब घरवाले लौट रहे हैं, हम भी
पूंछें किसी से घर का रस्ता, ख़त्म करें वनवास
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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