Thursday 3 September 2015

मेरे मासूम रज़ा !.... आज भी समय के साथ हैं!!------Navendu Kumar

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मेरे मासूम रज़ा !.... (जयंती पर खास) :
तो क्या हुआ, जो मेरा नाम मुसलमानों जैसा है !
डॉ राही मासूम रज़ा का व्यक्तित्व-कृतित्व बेहद सरोकारी था। मैं एक नवलेखक, बिहार के आरा शहर का 1978 में मुम्बई (तब बॉम्बे) गया तो राही साहब को फोन किया। उन्होंने फोन पर न सिर्फ बात की, बल्कि मुझे घर भी बुला लिया। तब मेरी तो कोई साहित्य में वैसी कोई पहचान भी नहीं थी और उनका तो साहित्य के अलावा तब फ़िल्म राइटर के बतौर भी ज़बरदस्त क्रेज़ था।
तब कमलेश्वर जी 'सारिका' छोड़ चुके थे और कथायात्रा' के प्रकाशन की प्लानिंग कर रहे थे। मैं कमलेश्वर जी का स्नेही था। उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी से राही जी के घर के पास छोड़ दिया। जब इस पहली मुलाक़ात में उनसे मिला तो डॉ राही की सहज-सरल जीवन शैली और व्यवस्था बदलाव के प्रति उनके जज़्बाती व प्रतिबद्ध इरादों से बेहद प्रभावित हुआ। तब वे अत्यन्त जिज्ञासु होकर मुझसे पूछने लगे, कहा- आप तो पत्रकार और कथाकार भी हो, भोजपुर की लड़ाई का क्या हाल है?...मुझसे भोजपुर के सशस्त्र किसान आंदोलन के बारे में वे देर तक जानते सुनते रहे। लंबी सीटिंग चली।
'आधा गांव' रचने वाले डॉ राही गांव जीते थे~पूरा गांव! सही अर्थों में गंगा-जमुनी मिज़ाज़ और व्यवहार को जीने, उसके लिए लड़ने वाले इंसान और रचनाकार थे राही। यूँ कहें तो " मैं तुलसी तेरे आँगन की!"
"मैं समय हूँ!"...
उन्हीं के इस संवाद का मर्म ये कि राही आज भी समय के साथ हैं!!


Navendu Kumar दोस्तों, Diwendu Sinha ने डॉ राही से उस खास मुलाक़ात का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रसंग याद दिलाया। तब अमिताभ बच्चन जी अभिनीत फ़िल्म आयी थी- आलाप' जिसके संवाद लिखे थे राही साहब ने। फ़िल्म में एक तांगे वाले(अभिनेता असरानी) का बोला वह संवाद फ़िल्म देखने के दौरान मेरे ज़ेहन में उतर गया था। गाजीपुर स्टेशन पर अमिताभ उतरते हैं। टैक्सी नहीं लेते, तांगा करते हैं तो पता चलता है कि तांगा ज़्यादा महंगा है। 
असरानी से अमिताभ पूछते है~टैक्सी के मुक़ाबले तांगे का भाड़ा ज़्यादा क्यों भाई?तांगेवाला बने असरानी कहते हैं~ टैक्सी में पेट्रोल जलता है साहब और तांगे में घोड़े का खून जलता है!...
मानवीय संवेदना और व्यवस्था की विषमता को उकेरती इस लाइन के बारे में डॉ राही ने बड़ा ही दिलचस्प वाकया सुनाया। उन्होंने बताया कि एक बार जब वे लंबे अरसे बाद अपने गांव जाने को गाजीपुर उतरे तो खुद एक तांगे वाले ने ये अल्फ़ाज़ उनको बोला था, जो तभी उनके ज़ेहन में पैबस्त हो गया था।...उस डायलाग में कोई क्रिएशन नहीं, बिलकुल रीयलिस्टिक था हर शब्द!...सचमुच राही का पूरा रचना संसार सामाजिक सरोकार और यथार्थ के धरातल पर खड़ा है...


आज (१ सितम्बर ) राही मासूम रजा की जयंती है. रज़ा गाजीपुर में पैदा हुए थे और उन्होंने तालीम AMU में पाई. उन्होंने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध और हिंदुस्तानियत के पक्ष में आजीवन संघर्ष किया . उनका उपयास "आधा गांव " विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यासों में श्रेष्ठतम है . टीवी सीरियल महाभारत और नीम का पेड़ की पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी ---
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके
कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया
लहू बनकर दौड़ रही है।





 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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