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14-09-2015 :
आज दिन के प्रारम्भ से ही 'हिन्दी' विषयक विभिन्न टिप्पणियों का अवलोकन करने का अवसर मिलता रहा है। विभिन्न लोग विभिन्न मत व्यक्त कर रहे हैं। कुछ 'हर्ष' व्यक्त कर रहे हैं तो कुछ 'लांच्छन' लगा रहे व तंज़ कस रहे हैं। कुछ को शिकायत है कि हिन्दी राष्ट्र भाषा घोषित होने के बावजूद अभी तक 'न्याय' व 'विज्ञान' की भाषा नहीं बन पाई है।
हिन्दी के विकास और उद्भव के इतिहास का अध्यन किए बगैर ही विभिन्न टिप्पणियाँ अपनी-अपनी सोच व इच्छा के अनुसार लोगों ने की हैं। भारत देश में हर ज़िले के बाद बोलियों में अंतर आ जाता है जो कि हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी है और वे सब बोलियाँ हिन्दी का अंग हैं। हालांकि अब कुछ विभाजन कारी शक्तियाँ इनमें से कुछ बोलियों को अलग भाषा के रूप में संविधान में दर्ज कराना चाहती हैं। हिन्दी जिस रूप में आज है 'भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र' जी के युग में वैसी न थी किन्तु उनकी भाषा भी हिन्दी ही है। हिन्दी निरंतर विकसित व समृद्ध होती जा रही है जब इसमें अन्य भाषाओं के शब्द भी समाहित होते जाते हैं। कुछ लोग सरकार संचालकों को गुमराह करके 'रेल' के स्थान पर 'लौह पथ गामिनी' इत्यादि -इत्यादि जैसे शब्द हिन्दी में प्रयोग करने के सुझाव देते हैं। लेकिन जनता के लिए अब 'रेल','यूनिवर्सिटी','बैंक' सरीखे शब्द हिन्दी के ही हैं।
विज्ञान व कानून के लिए शब्दों को या तो अङ्ग्रेज़ी या फिर संस्कृत में अपनाना होगा तभी हिन्दी में सार्थकता आएगी। अन्यथा जटिल व क्लिष्ट शब्द गढ़ने पर हिन्दी का नुकसान ही होगा भला नहीं।
' हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा ' लिखने वाले इकबाल साहब की भाषा भी हिन्दी ही समझी जानी चाहिए।
हिन्दी दिवस की अनंत शुभकामनायें।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/942085149186795?pnref=story
जगदीश्वर चतुर्वेदी जी और कंवल भारती जी अलग-अलग शब्दों के जरिये एक ही बात कह रहे हैं और उन दोनों के निष्कर्ष 'सत्य ' भी हैं। लेकिन क्या कोई भी शासक अपने आलोचक को सम्मानित करेगा? और क्यों? क्यों 'तुलसी दास जी ' को बनारस के पंडों ने उनकी पांडुलिपियाँ जला कर 'मस्जिद' में छिपते हुये जान बचा कर भागने पर मजबूर किया था ? क्यों अब उनके साहित्य की क्रांतिकारिता को नष्ट करने के लिए इन पंडों ने 'रामचरितमानस' को धार्मिक ग्रंथ घोषित करके अपनी उदर पूरती का साधन बना कर जनता को ठगा हुआ है? पोंगापंथी ब्राह्मण वादियों ने 'प्रक्षेपकों' के जरिये तुलसीदास जी को जनता के एक वर्ग के बीच 'हेय ' क्यों बना दिया है? ज़ाहिर है तुलसी की जन पक्षधरता ने पहले उनको तिरस्कृत करके व बाद में उनके 'विद्रोहात्मक' व 'क्रांतिकारी' साहित्य जिसके जरिये साम्राज्यवाद का कडा प्रतिवाद किया गया था को लक्ष्य से च्युत कर दिया है। आज न तो विद्वान न ही चिंतक तुलसी को क्रांतिकारी जन चेतना का पक्षधर मानने को तैयार हैं बल्कि ब्राह्मण जाति में जन्में लोग ही ज़ोर-शोर से तुलसीदास को 'पथ -भ्रष्टक' सिद्ध करने में तल्लीन हैं।
सब शासक देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी जैसे 'उदार' या 'दूरदर्शी' नहीं हो सकते हैं। जैसा कि, स्वम्य ए बी वाजपेयी साहब ने उल्लेख किया है कि एक दिन 'लोकसभा' में उन्होने नेहरूजी जी की 'कटु आलोचना' की थी और उसी शाम राष्ट्रपति भवन में भोजन के समय नेहरू जी खुद चल कर वाजपेयी साहब के पास आए और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा -शाबाश नौजवान ऐसे ही डटे रहो एक दिन तुम भारत के प्रधानमंत्री ज़रूर बनोगे। और सच में ही नेहरू जी के आशीर्वाद ने वाजपेयी साहब को पी एम बनवा भी दिया।
खुद नेहरू जी की पुत्री अपनी आलोचना नहीं सह सकती थीं। अब तो फ़ासिस्टी प्रवृति के शासक हैं फिर भला वे कैसे नेहरू जी का अनुसरण कर सकते हैं? शासकों से पहुँच 'पुरस्कार' प्राप्ति में सहायक तो हो सकती है परंतु यह कहना कि जिनको पुरस्कार मिला वे इसके योग्य नहीं थे सरासर 'अन्याय' होगा। जिनको भी पुरस्कार मिला वे सब बधाई व शुभकामना के पात्र हैं।(संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश)
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14-09-2015 :
आज दिन के प्रारम्भ से ही 'हिन्दी' विषयक विभिन्न टिप्पणियों का अवलोकन करने का अवसर मिलता रहा है। विभिन्न लोग विभिन्न मत व्यक्त कर रहे हैं। कुछ 'हर्ष' व्यक्त कर रहे हैं तो कुछ 'लांच्छन' लगा रहे व तंज़ कस रहे हैं। कुछ को शिकायत है कि हिन्दी राष्ट्र भाषा घोषित होने के बावजूद अभी तक 'न्याय' व 'विज्ञान' की भाषा नहीं बन पाई है।
हिन्दी के विकास और उद्भव के इतिहास का अध्यन किए बगैर ही विभिन्न टिप्पणियाँ अपनी-अपनी सोच व इच्छा के अनुसार लोगों ने की हैं। भारत देश में हर ज़िले के बाद बोलियों में अंतर आ जाता है जो कि हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी है और वे सब बोलियाँ हिन्दी का अंग हैं। हालांकि अब कुछ विभाजन कारी शक्तियाँ इनमें से कुछ बोलियों को अलग भाषा के रूप में संविधान में दर्ज कराना चाहती हैं। हिन्दी जिस रूप में आज है 'भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र' जी के युग में वैसी न थी किन्तु उनकी भाषा भी हिन्दी ही है। हिन्दी निरंतर विकसित व समृद्ध होती जा रही है जब इसमें अन्य भाषाओं के शब्द भी समाहित होते जाते हैं। कुछ लोग सरकार संचालकों को गुमराह करके 'रेल' के स्थान पर 'लौह पथ गामिनी' इत्यादि -इत्यादि जैसे शब्द हिन्दी में प्रयोग करने के सुझाव देते हैं। लेकिन जनता के लिए अब 'रेल','यूनिवर्सिटी','बैंक' सरीखे शब्द हिन्दी के ही हैं।
विज्ञान व कानून के लिए शब्दों को या तो अङ्ग्रेज़ी या फिर संस्कृत में अपनाना होगा तभी हिन्दी में सार्थकता आएगी। अन्यथा जटिल व क्लिष्ट शब्द गढ़ने पर हिन्दी का नुकसान ही होगा भला नहीं।
' हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा ' लिखने वाले इकबाल साहब की भाषा भी हिन्दी ही समझी जानी चाहिए।
हिन्दी दिवस की अनंत शुभकामनायें।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/942085149186795?pnref=story
जगदीश्वर चतुर्वेदी जी और कंवल भारती जी अलग-अलग शब्दों के जरिये एक ही बात कह रहे हैं और उन दोनों के निष्कर्ष 'सत्य ' भी हैं। लेकिन क्या कोई भी शासक अपने आलोचक को सम्मानित करेगा? और क्यों? क्यों 'तुलसी दास जी ' को बनारस के पंडों ने उनकी पांडुलिपियाँ जला कर 'मस्जिद' में छिपते हुये जान बचा कर भागने पर मजबूर किया था ? क्यों अब उनके साहित्य की क्रांतिकारिता को नष्ट करने के लिए इन पंडों ने 'रामचरितमानस' को धार्मिक ग्रंथ घोषित करके अपनी उदर पूरती का साधन बना कर जनता को ठगा हुआ है? पोंगापंथी ब्राह्मण वादियों ने 'प्रक्षेपकों' के जरिये तुलसीदास जी को जनता के एक वर्ग के बीच 'हेय ' क्यों बना दिया है? ज़ाहिर है तुलसी की जन पक्षधरता ने पहले उनको तिरस्कृत करके व बाद में उनके 'विद्रोहात्मक' व 'क्रांतिकारी' साहित्य जिसके जरिये साम्राज्यवाद का कडा प्रतिवाद किया गया था को लक्ष्य से च्युत कर दिया है। आज न तो विद्वान न ही चिंतक तुलसी को क्रांतिकारी जन चेतना का पक्षधर मानने को तैयार हैं बल्कि ब्राह्मण जाति में जन्में लोग ही ज़ोर-शोर से तुलसीदास को 'पथ -भ्रष्टक' सिद्ध करने में तल्लीन हैं।
सब शासक देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी जैसे 'उदार' या 'दूरदर्शी' नहीं हो सकते हैं। जैसा कि, स्वम्य ए बी वाजपेयी साहब ने उल्लेख किया है कि एक दिन 'लोकसभा' में उन्होने नेहरूजी जी की 'कटु आलोचना' की थी और उसी शाम राष्ट्रपति भवन में भोजन के समय नेहरू जी खुद चल कर वाजपेयी साहब के पास आए और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा -शाबाश नौजवान ऐसे ही डटे रहो एक दिन तुम भारत के प्रधानमंत्री ज़रूर बनोगे। और सच में ही नेहरू जी के आशीर्वाद ने वाजपेयी साहब को पी एम बनवा भी दिया।
खुद नेहरू जी की पुत्री अपनी आलोचना नहीं सह सकती थीं। अब तो फ़ासिस्टी प्रवृति के शासक हैं फिर भला वे कैसे नेहरू जी का अनुसरण कर सकते हैं? शासकों से पहुँच 'पुरस्कार' प्राप्ति में सहायक तो हो सकती है परंतु यह कहना कि जिनको पुरस्कार मिला वे इसके योग्य नहीं थे सरासर 'अन्याय' होगा। जिनको भी पुरस्कार मिला वे सब बधाई व शुभकामना के पात्र हैं।(संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश)
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