**प्रश्न उठता है कि भारत का विभाजन क्यों हुआ जब मुस्लिम लीग मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर दर्जा देने की बात कर रही थी। यह स्थिति 1946 की गर्मियों में बदल गई। ब्रिटिश उपनिवेशवाद नहीं चाहता था कि भारत अखंड रहे और एक सुदृढ़ देश बन कर उभरे। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों चाहते थे कि उनकी निजी पूंजी को चरने का पूरा मौका मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रस्तावों तथा प्रस्तावित औद्योगिक नीति को देखते हुए उन्हें संदेह था कि भारत में शायद उनकी निजी पूंजी को बेधड़क चरने का अवसर न मिले इसीलिए वे भारत के विभाजन के पक्षधर बने। उनकी रणनीति थी कि पाकिस्तान बनाकर उसे भारत से भिड़ा दिया जाए और उनको बेरोकटोक काम करने का मौका मिले।**
***आयशा जलाल के अनुसार इतिहास की जगह एक कुपरिभाषित इस्लामी विचारधारा को थोपने के कारण एक आलोचनात्मक ऐतिहासिक परंपरा न विकसित हो पाई है और न ही तर्कसंगत सार्वजनिक बहस संभव है। पाकिस्तान के स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह कृत्रिम राष्ट्रीय मिथकों को बढ़ावा देता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंतर पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार पाकिस्तान के अस्तित्व को उचित ठहराया जाता है।***
इन दिनों पाकिस्तान को लेकर काफी चर्चा हो रही है किन्तु ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि पूरी चर्चा सतही है क्योंकि किसी ने भी पाकिस्तान के अंदररूनी हालात और शक्ति-संतुलन पर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई है।
यहां हम अनेक पुस्तकों में से सिर्फ दो का जिक्र करेंगे। पहली पुस्तक है: ''ए केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगो•ाÓÓ जिसके लेखक हैं- मोहम्मद हनीफ। दूसरी पुस्तक है: ''द स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान: ए मुस्लिम होमलैंड एंड ग्लोबल पॉलिटिक्सÓÓ जिसकी लेखिका हैं- आयशा जलाल। दोनों पाकिस्तानी मूल के हैं और काफी प्रतिष्ठित हैं।
आइए हम पहली पुस्तक से अपनी चर्चा शुरु करें। यह पुस्तक उपन्यास बतौर लिखी गई है और लेखक ने तथ्यों को रोचक बनाकर पेश किया है यद्यपि इसके सारे चरित्र वास्तविक हैं। जून 1988 का पाकिस्तान। जनरल जिया को पक्का विश्वास है कि उनकी हत्या की साजिश रची जा रही है इसलिए उन्होंने अपने सरकारी आवास आर्मी हाउस के चारों ओर बाड़ा लगवाने के साथ ही कड़ी सुरक्षा कर ली है। ऐसे अनेक लोग हैं जो उन्हें मृत देखना चाहते हैं उनमें राजनेताओं के अतिरिक्त फौजी जनरल भी हैं जो अपनी पदोन्नति के लिए बेताब हैं। फौजी जनरल चाहते हैं कि यदि जनरल मिया को खत्म कर दिया जाय तो उनके ऊपर बढऩे का मार्ग प्रशस्त हो जाय। इतना ही नहीं, उनके सीआईए, आईएसआई और रॉ से भी खतरा दिख रहा है। मिलिटरी अकादमी के एक जूनियर अफसर की हत्या फौज ने कर दी है क्योंकि अली शिगरी से जिया भयभीत थे।
जिया को लगता है कि उनकी मृत्यु से कई लोगों को फायदा होगा। कुछ को प्रभाव बढ़ाने की ललक है तो कुछ लोग अपनी पहचान बनाने के लिए आतुर हैं।
महज दो महीने बाद जनरल जिया राष्ट्रपति के लिए निर्दिष्ट विमान पाक वन में बैठकर यात्रा पर निकलते हैं मगर विमान में उड़ान के समय विस्फोट हो जाता है जिसमें जिया और उनके साथ जा रहे सबकी मौत हो जाती है।
पाकिस्तानी टेलीविजन पर विमान हादसे के बाद दो बुलेटिनों के बाद उसके प्रसारण पर रोक लगा दी जाती है क्योंकि कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना का हौसला पस्त हो सकता है।
उपर्युक्त विमान बहावलपुर रेगिस्तान से उड़ा था जो अरब सागर से करीब 600 मील की दूरी पर है। थोड़ी देर के लिए जनरल जिया न•ार आते हैं और लगता है कि वे कुछ परेशान हैं। उनकी दाईं ओर पाकिस्तान स्थित अमरीकी राजदूत न•ार आ रहे हैं। बाईं ओर पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था (इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) के प्रमुख जनरल अख्तर हैं। उनको देखने से लगता है कि संभावित हादसे को देखते हुए उन्हें विमान में नहीं सवार होना चाहिए। जो भी हो उन सहित दस व्यक्ति विमान में सवार होते हैं। विमान हादसे का शिकार हो जाता है और जनरल जिया, पाकिस्तानी राजदूत तथा जनरल जिया के सहयोगी समेत दस के दस लोग मर जाते हैं।
विमान बनाने वालों अमेरिकी कंपनी लॉकहीड के विशेषज्ञ विमान के उडऩे के मात्र चार मिनट बाद वह हादसे का शिकार होने के कारणों का विश्लेषण करते हैं। इस कंपनी के सी-190 विमान में प्रत्यक्षतया कोई खामी न•ार नहीं आती है फिर भी वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। फलित ज्योतिष में विश्वास रखने वाले मानते हैं कि काफी अरसे पहले ही भविष्यवाणी सामने आई थी कि पाकिस्तानी फौज के शीर्ष पर बैठे लोग और अमेरिकी राजदूत विमान हादसे के शिकार हो जाएंगे। उपन्यासकार मोहम्मद हनीफ के अनुसार वामपंथी बुद्धिजीवी मानते हैं कि एक क्रूर तानाशाही का खात्मा होना ही था और इसे वे ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं। उधर अफगानिस्तान से सोवियत फौज के सिपाही घर वापसी की तैयारी में जुटे हैं। खाने-पीने और बहावलपुर में खरीदारी कर झूमते-झामते विमान में सवार होकर जा रहे हैं। उनका मनोभाव काफी बदल गया है। वे यही सोचकर आए थे कि उनकी घर वापसी शायद ही हो पाएगी।
अब बहावलपुर से उडऩे वाले पाकिस्तानी विमान की ओर देखें। महज कुछ पलों में वह हादसे का शिकार हो जाता है। उसमें सारे के सारे लोग मर जाते हैं। जनरल जिया समेत सभी जनरलों के परिवारों को पूरा मुआवजा मिलता है। उनके परिवारों को यह सख्त हिदायत है कि वे मृत व्यक्तियों के ताबूतों को न खोलें। विमान चालकों के परिवार वालों को अलग बंद रखा जाता है और कुछ दिनों के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता है। अमेरिकी राजदूत के शव को अर्लिंग्टन कब्रिस्तान में दफनाकर उसके इर्द-गिर्द कतिपय सुशिष्ट शब्द लिख दिए जाते हैं। किसी भी मृत व्यक्ति की शव परीक्षा नहीं होती है। इस प्रकार मृत्यु के कारणों पर पर्दा डाल दिया जाता है। अमेरिकी पत्रिका ''वैनिटी फेयरÓÓ और ''न्यूयार्क टाइम्सÓÓ ने जरूर संपादकीय लिखकर उनकी मृत्यु से जुड़े कुछ सवाल उठाए। इसके बाद मृतकों के घरवालों ने कोर्ट में मुकदमे दर्ज करवाए किन्तु उन्हें उच्च पद देकर उनका मुंह बंद करवा दिया गया। मोहम्मद हनीफ का मानना है कि विमानन के इतिहास में पूरी घटना पर पर्दा डालने का प्रयास शायद ही कभी हुआ है। विमान हादसे के बाद न मृतकों का शव मिला और न ही कोई फोटो खींचकर प्रदर्शित किया जा सका। विमान के मलबे में हड्डियों के टुकड़े जरूर यत्र-तत्र मिले किन्तु उसमें सवार लोगों की ठीक से पहचान असंभव थी। किसी प्रकार से सबको दफना दिया गया।
उपन्यास के अनुसार अली शिगरी पूरी घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। बतलाया गया कि एक अनजानी वस्तु ने विमान को टक्कर मारी जिससे वह क्षतिग्रस्त होकर गिर गया। एक छोटे अफसर अली शिगरी के बयान के अनुसार, 31 मई 1988 की सुबह वह ड्यूटी पर ठीक साढ़े छ: बजे आया और उसने अपना काम शुरु किया। तभी उसने महसूस किया कि उसका तलवार को बांधने वाला बेल्ट ढीला हो गया है। जब उसने कसने की कोशिश की तो वह टूट गया। वह अपने बैरक की ओर उसके बदले नए बेल्ट के लिए गया मगर उसने अतिक नामक व्यक्ति को अपना काम सौंप कर बैरक में चला गया।
उधर 15 जून 1988 को जनरल जिया कुरान शरीफ पढ़ते समय आयत 21:87 पर आ गए और उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। वे अपने आधिकारिक आवास आर्मी हाउस में ही बने रहे और उसे छोड़कर राष्ट्रपति निवास में जाने को तैयार नहीं थे। दो महीने और दो दिन बाद पहली बार आर्मी हाउस से निकलकर हवाई जहाज में बैठे और उसके हादसे में उनकी मृत्यु हो गई। यद्यपि राष्ट्र भर में खुशी हुई किन्तु कुरान शरीफ की उपर्युक्त आयत को दुबारा पढऩे पर उनके मन में भ्रम पैदा हो गया क्योंकि उसमें कहा गया था कि वे उन लोगों में हैं जिन्होंने अपनी आत्मा को उत्पीडि़त किया है। सुबह के समय जनरल जिया कुरान शरीफ का अंग्रेजी अनुवाद पढऩे लगे थे जिससे नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनके द्वारा उसे स्वीकारने के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण को तैयार करने में मदद मिलती। वे कुरान शरीफ से कोई उपयुक्त पैराग्राफ को उद्धृत करना चाहते थे जिससे उनका भाषण दमदार बन सके। जनरल जिया अपना भाषण उर्दू में देना चाहते थे मगर बीच-बीच में अरबी उद्धरण देकर अपने सऊदी मित्रों को प्रभावित करना चाहते थे। किन्तु उन्हें असली चिंता रोनाल्ड रीगन की थी जो शायद उनके उर्दू-अरबी मिश्रित भाषण को नहीं समझ पाएं। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में ही भाषण देने का निर्णय लिया। जनरल जिया ने सैनिक इतिहास संबंधी सारी पुस्तकों और अपने पूर्ववर्ती जनरलों की तस्वीरों को अतिथिगृह में लगवा कर वर्तमान कमरे को प्रार्थनागृह बना दिया था। साथ ही वही मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक का दफ्तर भी बन गया था। वे जहां रहते थे वह एक औपनिवेशिक युग का बंगला था जिसमें 14 शयन कक्ष, अठारह एकड़ का लॉन और एक छोटी मस्जिद थी।
नया राष्ट्रपति निवास तो तैयार था मगर वे वहां नहीं जाना चाहते थे। वहां विदेशी अतिथियों और स्थानीय मुल्ला लोगों का आदर-सत्कार किया जाता था। उन्हें डर था कि कहीं आर्मी हाउस से निकल कर वहां जाने पर उनकी सुरक्षा खतरे में न पड़ जाए। जनरल जिया सदैव कुरान शरीफ में अपना पथ प्रदर्शन ढूंढते थे। ग्यारह वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से अपदस्थ करने के पहले उन्होंने कुरान शरीफ का मनन कर पथ प्रदर्शन लिया था। उनको सत्ता से हटाकर मुकदमा चलाया था। फांसी की सजा को निरस्त करने की अपील को ठुकराकर फांसी पर लटकाने का फैसला लेने के बाद उन्होंने कुरान शरीफ से ही पथ प्रदर्शन लेने की कोशिश की थी। जनरल जिया इतिहास के चौराहे पर खड़े थे। पिछले ग्यारह वर्षों से वे प्रतिदिन कुरान शरीफ से पथ प्रदर्शन पाने की कोशिश में लगे थे। वे आर्मी हाउस की मस्जिद के इमाम से पथ प्रदर्शन चाहते थे मगर उनसे मिलने के पूर्व वे अपने शयन कक्ष से गुजरे जहां उनकी पत्नी सोई हुई थीं। उनकी पत्नी उन पर दबाव डाल रही थीं कि वे राष्ट्रपति निवास में चलें मगर वे अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे।
वे अपने निवास के साथ जुड़ी मस्जिद में नमाज के लिए पहुंचे। इमाम ने प्रार्थना शुरु की और उनके पीछे जनरल जिया बैठे थे और उन्हें साथ ही इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस के प्रधान जनरल अख्तर थे।
जनरल जिया को आर्मी चीफ बने मात्र 16 महीने हुए थे। उनको भुट्टो ने ही इस पद पर बैठाया था। उन्होंने भुट्टो को अपस्थ कर चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेशन के रूप में अपने को पदस्थापित कर दिया था। भुट्टो को जेल में डाल दिया गया। सारे देश में आंतक का माहौल था। अब एक ही रास्ता था: षडय़ंत्र के जरिए जनरल जिया को उखाड़ फेंका जाय। कहना न होगा कि साजिश के जरिए ही जनरल जिया को समाप्त किया जा सकता है।
मिलिटरी अकादमी के अली शिगरी को आगे किया गया। उसके पिता जो सेना के अधिकारी थे उनकी हत्या कर दी गई थी। अली शिगरी जनरल जिया से बदला लेना चाहता था। अली के कारण भले ही कई लोगों का भला होगा मगर वह तो सिर्फ बदला लेना चाहता है।
उपर्युक्त उपन्यास ''ए केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोजÓÓ काफी रोचक है यद्यपि उसने पाकिस्तान की तत्कालीन स्थिति को अपना आधार बनाया है। दूसरी पुस्तक की चर्चा हम अगली बार करेंगे।
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/5714/10/330
आज पाकिस्तान की स्थिति काफी दयनीय बन गई है। उसे आतंकवादी विचारधारा और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त हिंसा का उद्गम बताया जा रहा है। इसी से जुड़ा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान का इतिहास वर्ष 1947 से आरंभ होता है अथवा इस्लाम के जन्म के समय से राज्य की इस्लामी पहचान का तालमेल आधुनिक राष्ट्र-राज्य के साथ कैसे बैठाया जाय? मुस्लिम राष्ट्रवाद के सामने यह एक बड़ा सवाल है। यहां एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि भारत के अल्पसंख्यक मुसलमान कैसे एक राष्ट्र के रूप में तब्दील हो गए और फिर दो राज्यों के बीच विभाजित होगा।
मोहम्मद अली जिन्ना का उदय एक उपनिषदवाद-विरोधी राष्ट्रवादी के रूप में हुआ। वर्ष 1916 में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के जन्म का स्वागत करते हुए कहा था कि ''एक संयुक्त भारत जन्म के पीछे यह एक बड़ा कारक होगा।ÓÓ यहां तक कि वर्ष 1937 तक उनकी दिलचस्पी अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस के साथ गंठजोड़ करने की थी। उनका नजरिया अधिकतर मुस्लिम राजनेताओं से अलग था। मुसलामानों की दिलचस्पी उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में स्वायत्त राज्यों तक ही सीमित थी। शेष जगहों में वे चाहते थे कि अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा की जाय। उस समय तक मुद्दा स्वायत्त राज्यों तक सीमित था जिससे एक राज्य दूसरे पर धौंस नहीं दिखायें।
इसमें बदलाव 1940 के लाहौर अधिवेशन में दिखा जब मुस्लिम लीग ने मांग की कि उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में मुसलमानों का दबदबा स्वीकार किया जाय। लीग ने सारे भारतीय मुसलमानों की ओर से बोलने का दावा किया। तब तक उनकी ओर से पाकिस्तान की मांग नहीं उठी थी बल्कि उनका जोर मुस्लिम हितों की रक्षा तक ही सीमित था। लाहौर प्रस्ताव में जिन्ना ने देश-विभाजन और पाकिस्तान का कोई जिक्र नहीं किया था। उनका कहना था कि तथाकथित हिन्दू प्रेस ने यह शब्द उनके ऊपर थोपा था। 'पाकिस्तानÓ शब्द वर्ष 1933 में कैम्ब्रिज के एक विद्यार्थी चौधरी रहमत अली की देन है। रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान में पंजाब, अफगानिस्तान (उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत सहित) कश्मीर, सिंध और बलोचिस्तान शामिल थे। ध्यान रहे कि इसमें बंगाल का कोई हिस्सा शामिल न था। यहां पर मुहम्मद इकबाल का जिक्र जरूरी है। उन्होंने देश के विभाजन की कोई बात नहीं की थी। उनका मानना था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। उनका ख्याल था कि मुसलमान अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए वहां रहें। हिन्दुओं के साथ उनका कोई टकराव न हो। इकबाल हर तरह की मुस्लिम दकियानूसी के खिलाफ थे। भारत में स्थापित मुस्लिम राज्य इस्लाम को नई ऊंचाईयों पर ले जाएगा जिसमें ''अरबी साम्राज्यवादÓÓ कोई खलल पैदा नहीं कर पाएगा।
याद रहे कि रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान को खतरनाक और अव्यवहारिक धारणा बतलाकर दरकिनार कर दिया गया। फिर भी शहरी पंजाबी मुसलमानों के एक तबके ने उसे लोक लिया और उसे इकबाल की मुस्लिम राज्य की अवधारणा से जोड़कर देखना आंरभ किया। याद रहे कि इस अवधारणा को बढ़ावा देने में पंजाब और यूपी के हिन्दू स्वामित्व कै अंतर्गत संचालित समाचार पत्रों ने कम भूमिका नहीं निभाई। जहां तक मोहम्मद अली जिन्ना का सवाल है वे काफी हद तक पश्चिमी रंग में रंगे हुए वकील थे और धार्मिक रूढि़वाद से उनका कोई वास्ता नहीं था। किन्तु उन्हें अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस्लाम का सहारा लेना पड़ा। यदि वे ग्रामीण मुस्लिम जनता को उभारने की कोशिश करते तो उनका टकराव हिन्दू और मुसलमान दोनों भूमिपतियों से होता। वे इस स्थिति से बचना चाहते थे। उन्होंने यहां पाकिस्तान का सहारा लिया जिससे मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा किया जा सके।
आ•ाादी के कुछ समय पहले क्रिप्स मिशन भारत आया जिसका उद्देश्य किसी न किसी तरह वायसराय की कार्यकारी समिति में कांग्रेस को लाना था। साथ ही उसने प्रांतों को भारत से अलग होने का अधिकार देने की बात की जिससे वे पाकिस्तान की अपनी मांग पर बल दे सकें। क्रिप्स मिशन का प्रयास विफल हो गया। वर्ष 1944 में दक्षिण के नेता राज गोपालाचारी ने पाकिस्तान का प्रस्ताव फिर से आगे रखा जिसमें पंजाब और बंगाल के मुस्लिम बहुमत वाले जिलों को काफी कुछ केन्द्र में स्वायत्तता देने की बात की गई। कहा गया कि वे भारत में रहें और केन्द्र सरकार को रक्षा, संचार और वाणिज्य को छोड़कर अन्य मामलों में उनकी स्वायत्तता बनी रहे। मगर जिन्ना को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया। जिन्ना ने मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा किया और पाकिस्तान की मांग को जोरदार ढंग से दुहराया। उन्होंने पंजाब, बंगाल, सिंघ, और उत्तर- पश्चिम सीमा प्रांत के मुसलमानों को परस्पर जोडऩे की कोशिश की और इस प्रकार पाकिस्तान की अवधारणा को मृर्तरूप देकर आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में अल्प संख्यकों के हितों की रक्षा उसी प्रकार की जाएगी जैसे भारत में होती है।
प्रश्न उठता है कि भारत का विभाजन क्यों हुआ जब मुस्लिम लीग मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर दर्जा देने की बात कर रही थी। यह स्थिति 1946 की गर्मियों में बदल गई। ब्रिटिश उपनिवेशवाद नहीं चाहता था कि भारत अखंड रहे और एक सुदृढ़ देश बन कर उभरे। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों चाहते थे कि उनकी निजी पूंजी को चरने का पूरा मौका मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रस्तावों तथा प्रस्तावित औद्योगिक नीति को देखते हुए उन्हें संदेह था कि भारत में शायद उनकी निजी पूंजी को बेधड़क चरने का अवसर न मिले इसीलिए वे भारत के विभाजन के पक्षधर बने। उनकी रणनीति थी कि पाकिस्तान बनाकर उसे भारत से भिड़ा दिया जाए और उनको बेरोकटोक काम करने का मौका मिले।
***आयशा जलाल के अनुसार इतिहास की जगह एक कुपरिभाषित इस्लामी विचारधारा को थोपने के कारण एक आलोचनात्मक ऐतिहासिक परंपरा न विकसित हो पाई है और न ही तर्कसंगत सार्वजनिक बहस संभव है। पाकिस्तान के स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह कृत्रिम राष्ट्रीय मिथकों को बढ़ावा देता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंतर पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार पाकिस्तान के अस्तित्व को उचित ठहराया जाता है।***
12, FEB, 2016, FRIDAY 11:05:55 PM
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यहां हम अनेक पुस्तकों में से सिर्फ दो का जिक्र करेंगे। पहली पुस्तक है: ''ए केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगो•ाÓÓ जिसके लेखक हैं- मोहम्मद हनीफ। दूसरी पुस्तक है: ''द स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान: ए मुस्लिम होमलैंड एंड ग्लोबल पॉलिटिक्सÓÓ जिसकी लेखिका हैं- आयशा जलाल। दोनों पाकिस्तानी मूल के हैं और काफी प्रतिष्ठित हैं।
आइए हम पहली पुस्तक से अपनी चर्चा शुरु करें। यह पुस्तक उपन्यास बतौर लिखी गई है और लेखक ने तथ्यों को रोचक बनाकर पेश किया है यद्यपि इसके सारे चरित्र वास्तविक हैं। जून 1988 का पाकिस्तान। जनरल जिया को पक्का विश्वास है कि उनकी हत्या की साजिश रची जा रही है इसलिए उन्होंने अपने सरकारी आवास आर्मी हाउस के चारों ओर बाड़ा लगवाने के साथ ही कड़ी सुरक्षा कर ली है। ऐसे अनेक लोग हैं जो उन्हें मृत देखना चाहते हैं उनमें राजनेताओं के अतिरिक्त फौजी जनरल भी हैं जो अपनी पदोन्नति के लिए बेताब हैं। फौजी जनरल चाहते हैं कि यदि जनरल मिया को खत्म कर दिया जाय तो उनके ऊपर बढऩे का मार्ग प्रशस्त हो जाय। इतना ही नहीं, उनके सीआईए, आईएसआई और रॉ से भी खतरा दिख रहा है। मिलिटरी अकादमी के एक जूनियर अफसर की हत्या फौज ने कर दी है क्योंकि अली शिगरी से जिया भयभीत थे।
जिया को लगता है कि उनकी मृत्यु से कई लोगों को फायदा होगा। कुछ को प्रभाव बढ़ाने की ललक है तो कुछ लोग अपनी पहचान बनाने के लिए आतुर हैं।
महज दो महीने बाद जनरल जिया राष्ट्रपति के लिए निर्दिष्ट विमान पाक वन में बैठकर यात्रा पर निकलते हैं मगर विमान में उड़ान के समय विस्फोट हो जाता है जिसमें जिया और उनके साथ जा रहे सबकी मौत हो जाती है।
पाकिस्तानी टेलीविजन पर विमान हादसे के बाद दो बुलेटिनों के बाद उसके प्रसारण पर रोक लगा दी जाती है क्योंकि कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना का हौसला पस्त हो सकता है।
उपर्युक्त विमान बहावलपुर रेगिस्तान से उड़ा था जो अरब सागर से करीब 600 मील की दूरी पर है। थोड़ी देर के लिए जनरल जिया न•ार आते हैं और लगता है कि वे कुछ परेशान हैं। उनकी दाईं ओर पाकिस्तान स्थित अमरीकी राजदूत न•ार आ रहे हैं। बाईं ओर पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था (इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) के प्रमुख जनरल अख्तर हैं। उनको देखने से लगता है कि संभावित हादसे को देखते हुए उन्हें विमान में नहीं सवार होना चाहिए। जो भी हो उन सहित दस व्यक्ति विमान में सवार होते हैं। विमान हादसे का शिकार हो जाता है और जनरल जिया, पाकिस्तानी राजदूत तथा जनरल जिया के सहयोगी समेत दस के दस लोग मर जाते हैं।
विमान बनाने वालों अमेरिकी कंपनी लॉकहीड के विशेषज्ञ विमान के उडऩे के मात्र चार मिनट बाद वह हादसे का शिकार होने के कारणों का विश्लेषण करते हैं। इस कंपनी के सी-190 विमान में प्रत्यक्षतया कोई खामी न•ार नहीं आती है फिर भी वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। फलित ज्योतिष में विश्वास रखने वाले मानते हैं कि काफी अरसे पहले ही भविष्यवाणी सामने आई थी कि पाकिस्तानी फौज के शीर्ष पर बैठे लोग और अमेरिकी राजदूत विमान हादसे के शिकार हो जाएंगे। उपन्यासकार मोहम्मद हनीफ के अनुसार वामपंथी बुद्धिजीवी मानते हैं कि एक क्रूर तानाशाही का खात्मा होना ही था और इसे वे ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं। उधर अफगानिस्तान से सोवियत फौज के सिपाही घर वापसी की तैयारी में जुटे हैं। खाने-पीने और बहावलपुर में खरीदारी कर झूमते-झामते विमान में सवार होकर जा रहे हैं। उनका मनोभाव काफी बदल गया है। वे यही सोचकर आए थे कि उनकी घर वापसी शायद ही हो पाएगी।
अब बहावलपुर से उडऩे वाले पाकिस्तानी विमान की ओर देखें। महज कुछ पलों में वह हादसे का शिकार हो जाता है। उसमें सारे के सारे लोग मर जाते हैं। जनरल जिया समेत सभी जनरलों के परिवारों को पूरा मुआवजा मिलता है। उनके परिवारों को यह सख्त हिदायत है कि वे मृत व्यक्तियों के ताबूतों को न खोलें। विमान चालकों के परिवार वालों को अलग बंद रखा जाता है और कुछ दिनों के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता है। अमेरिकी राजदूत के शव को अर्लिंग्टन कब्रिस्तान में दफनाकर उसके इर्द-गिर्द कतिपय सुशिष्ट शब्द लिख दिए जाते हैं। किसी भी मृत व्यक्ति की शव परीक्षा नहीं होती है। इस प्रकार मृत्यु के कारणों पर पर्दा डाल दिया जाता है। अमेरिकी पत्रिका ''वैनिटी फेयरÓÓ और ''न्यूयार्क टाइम्सÓÓ ने जरूर संपादकीय लिखकर उनकी मृत्यु से जुड़े कुछ सवाल उठाए। इसके बाद मृतकों के घरवालों ने कोर्ट में मुकदमे दर्ज करवाए किन्तु उन्हें उच्च पद देकर उनका मुंह बंद करवा दिया गया। मोहम्मद हनीफ का मानना है कि विमानन के इतिहास में पूरी घटना पर पर्दा डालने का प्रयास शायद ही कभी हुआ है। विमान हादसे के बाद न मृतकों का शव मिला और न ही कोई फोटो खींचकर प्रदर्शित किया जा सका। विमान के मलबे में हड्डियों के टुकड़े जरूर यत्र-तत्र मिले किन्तु उसमें सवार लोगों की ठीक से पहचान असंभव थी। किसी प्रकार से सबको दफना दिया गया।
उपन्यास के अनुसार अली शिगरी पूरी घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। बतलाया गया कि एक अनजानी वस्तु ने विमान को टक्कर मारी जिससे वह क्षतिग्रस्त होकर गिर गया। एक छोटे अफसर अली शिगरी के बयान के अनुसार, 31 मई 1988 की सुबह वह ड्यूटी पर ठीक साढ़े छ: बजे आया और उसने अपना काम शुरु किया। तभी उसने महसूस किया कि उसका तलवार को बांधने वाला बेल्ट ढीला हो गया है। जब उसने कसने की कोशिश की तो वह टूट गया। वह अपने बैरक की ओर उसके बदले नए बेल्ट के लिए गया मगर उसने अतिक नामक व्यक्ति को अपना काम सौंप कर बैरक में चला गया।
उधर 15 जून 1988 को जनरल जिया कुरान शरीफ पढ़ते समय आयत 21:87 पर आ गए और उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। वे अपने आधिकारिक आवास आर्मी हाउस में ही बने रहे और उसे छोड़कर राष्ट्रपति निवास में जाने को तैयार नहीं थे। दो महीने और दो दिन बाद पहली बार आर्मी हाउस से निकलकर हवाई जहाज में बैठे और उसके हादसे में उनकी मृत्यु हो गई। यद्यपि राष्ट्र भर में खुशी हुई किन्तु कुरान शरीफ की उपर्युक्त आयत को दुबारा पढऩे पर उनके मन में भ्रम पैदा हो गया क्योंकि उसमें कहा गया था कि वे उन लोगों में हैं जिन्होंने अपनी आत्मा को उत्पीडि़त किया है। सुबह के समय जनरल जिया कुरान शरीफ का अंग्रेजी अनुवाद पढऩे लगे थे जिससे नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनके द्वारा उसे स्वीकारने के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण को तैयार करने में मदद मिलती। वे कुरान शरीफ से कोई उपयुक्त पैराग्राफ को उद्धृत करना चाहते थे जिससे उनका भाषण दमदार बन सके। जनरल जिया अपना भाषण उर्दू में देना चाहते थे मगर बीच-बीच में अरबी उद्धरण देकर अपने सऊदी मित्रों को प्रभावित करना चाहते थे। किन्तु उन्हें असली चिंता रोनाल्ड रीगन की थी जो शायद उनके उर्दू-अरबी मिश्रित भाषण को नहीं समझ पाएं। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में ही भाषण देने का निर्णय लिया। जनरल जिया ने सैनिक इतिहास संबंधी सारी पुस्तकों और अपने पूर्ववर्ती जनरलों की तस्वीरों को अतिथिगृह में लगवा कर वर्तमान कमरे को प्रार्थनागृह बना दिया था। साथ ही वही मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक का दफ्तर भी बन गया था। वे जहां रहते थे वह एक औपनिवेशिक युग का बंगला था जिसमें 14 शयन कक्ष, अठारह एकड़ का लॉन और एक छोटी मस्जिद थी।
नया राष्ट्रपति निवास तो तैयार था मगर वे वहां नहीं जाना चाहते थे। वहां विदेशी अतिथियों और स्थानीय मुल्ला लोगों का आदर-सत्कार किया जाता था। उन्हें डर था कि कहीं आर्मी हाउस से निकल कर वहां जाने पर उनकी सुरक्षा खतरे में न पड़ जाए। जनरल जिया सदैव कुरान शरीफ में अपना पथ प्रदर्शन ढूंढते थे। ग्यारह वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से अपदस्थ करने के पहले उन्होंने कुरान शरीफ का मनन कर पथ प्रदर्शन लिया था। उनको सत्ता से हटाकर मुकदमा चलाया था। फांसी की सजा को निरस्त करने की अपील को ठुकराकर फांसी पर लटकाने का फैसला लेने के बाद उन्होंने कुरान शरीफ से ही पथ प्रदर्शन लेने की कोशिश की थी। जनरल जिया इतिहास के चौराहे पर खड़े थे। पिछले ग्यारह वर्षों से वे प्रतिदिन कुरान शरीफ से पथ प्रदर्शन पाने की कोशिश में लगे थे। वे आर्मी हाउस की मस्जिद के इमाम से पथ प्रदर्शन चाहते थे मगर उनसे मिलने के पूर्व वे अपने शयन कक्ष से गुजरे जहां उनकी पत्नी सोई हुई थीं। उनकी पत्नी उन पर दबाव डाल रही थीं कि वे राष्ट्रपति निवास में चलें मगर वे अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे।
वे अपने निवास के साथ जुड़ी मस्जिद में नमाज के लिए पहुंचे। इमाम ने प्रार्थना शुरु की और उनके पीछे जनरल जिया बैठे थे और उन्हें साथ ही इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस के प्रधान जनरल अख्तर थे।
जनरल जिया को आर्मी चीफ बने मात्र 16 महीने हुए थे। उनको भुट्टो ने ही इस पद पर बैठाया था। उन्होंने भुट्टो को अपस्थ कर चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेशन के रूप में अपने को पदस्थापित कर दिया था। भुट्टो को जेल में डाल दिया गया। सारे देश में आंतक का माहौल था। अब एक ही रास्ता था: षडय़ंत्र के जरिए जनरल जिया को उखाड़ फेंका जाय। कहना न होगा कि साजिश के जरिए ही जनरल जिया को समाप्त किया जा सकता है।
मिलिटरी अकादमी के अली शिगरी को आगे किया गया। उसके पिता जो सेना के अधिकारी थे उनकी हत्या कर दी गई थी। अली शिगरी जनरल जिया से बदला लेना चाहता था। अली के कारण भले ही कई लोगों का भला होगा मगर वह तो सिर्फ बदला लेना चाहता है।
उपर्युक्त उपन्यास ''ए केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोजÓÓ काफी रोचक है यद्यपि उसने पाकिस्तान की तत्कालीन स्थिति को अपना आधार बनाया है। दूसरी पुस्तक की चर्चा हम अगली बार करेंगे।
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/5714/10/330
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद फौजी शासन की अहमियत बहुत कुछ समाप्त हो चुकी है। अब वह जमाना जा चुका है जब लियाकत अली खां से लेकर बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी। इसी दौरान डॉ. खां साहब को मौत के घाट उतार दिया गया और जुल्फिकार अली भुट्टो को भी फांसी पर लटका दिया गया। वर्ष 1988 में जनरल जिया की जीवन-लीला समाप्त हो गई। कालक्रम में बेनजीर भुट्टो काफी संघर्ष के बाद सत्ता में आईं मगर उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया गया। उनकी मौत की जांच करने वाले आयोग का मानना था कि उन्हें मारने वालों के पीछे बड़ी ताकतें सक्रिय थीं।
भारत के साथ निरंतर तनाव और अफगानिस्तान के लड़ाई ने पाकिस्तान को काफी नुकसान पहुंचाया। वर्ष 2003 और 2013 के बीच 40 हजार से अधिक लोग आतंकवाद के शिकार हुए हैं। साथ ही पाकिस्तान की सुरक्षा पर खर्च बढ़ा है यद्यपि इसका भार बहुत कुछ अमेरिका ने उठाया है। जो भी हो एक आम पाकिस्तानी का देश के बाहर संदेह की निगाह से देखा जाता है। देश के अंदर ऊर्जा का भारी संकट है, चोरी और राज्य ही नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों द्वारा सरकारी संस्थानों के बिलों का भुगतान न करना भारी समस्या है। देश के अंदर रोजगार के अवसर घट रहे हैं इसलिए शिक्षित मध्य वर्ग ही नहीं बल्कि अन्य लोग भी देश के बाहर नौकरियों की तलाश का रहे हैं। अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई से पाकिस्तानियों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। तालिवानीकरण के बढ़ते खतरे से लोग च्ंिातित हैं। आम लोगों के सामने एक बड़ा सवाल है कि वे एक दकियानूसी और कट्टर धार्मिक राज्य चाहते हैं या एक आधुनिक, प्रबुद्ध राज्य। इस प्रश्न पर विचार विमर्श एक लम्बे समय तक सैनिक सत्तावाद के कारण बाधित रहा है। वह जुझारू इस्लाम को बढ़ावा देता रहा है। कहना न होगा कि विश्व भर में लोग उसे शक की न•ार से देखते हैं।
लोग चिंतित हैं कि पड़ोसी देश भारत में आ•ाादी के बाद से ही जनतंत्र पनपा है और उसकी जड़ें मजबूत हुई हैं वहीं पाकिस्तान में एक लम्बे समय तक सैनिक शासन रहा है। अब भी सेना का दबदबा बना हुआ है और उसकी गुप्तचर संस्था देश पर हावी है। सेना देश के आंतरिक और बाहरी विरोधियों को दबाने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल कर रहा है। आम पाकिस्तानी को न जीवन और न ही संपत्ति की सुरक्षा है। उसे सामाजिक एवं आर्थिक अवसर राज्य की ओर से नहीं मिलते हैं। हिंसा और अनिश्चितता का खतरा लगतार बना हुआ है। पिछले 67 वर्षों के दौरान अब तक पाकिस्तानी यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि वे देश की इस्लामी पहचान बनाए रखना चाहते हैं या उसे एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में देखना चाहते हैं। बंगलादेश के अलग होने के बाद पाकिस्तान में भारत की तुलना में काफी कम मुस्लिम आबादी रह गई है। भारत में तो देशी रियासतें कब की खत्म हो चुकी हैं मगर पाकिस्तान में उनका अस्तित्व बना हुआ है। वहां अब भी दस रियासतें मौजूद हैं। पाकिस्तान का धार्मिक आधार 1971 में तब धराशायी हो गया जब बंगलादेश अलग हो गया।
आज पािकस्तान की हालत काफी दयनीय है। वहां शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। जहां तक मीडिया का प्रश्न है वह सरकारी नियंत्रण और बढ़ते वाणिज्यिकरण के बीच झूल रहा है। सैनिक एवं अर्ध सैनिक नियंत्रण के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। अभी हाल तक प्रेस को दबाकर और घूस के जरिए नियंत्रण में रखा जाता रहा है। देश के सामने आनेवाली समस्याओं पर शायद ही स्वतंत्र विचार विमर्श की गुंजाइश है। पाकिस्तान के अंदर शायद ही कभी अकादमिक या राजनीतिक बहस-मुबाहसें की गुंजाइश बनी है।
भारत के साथ निरंतर तनाव और अफगानिस्तान के लड़ाई ने पाकिस्तान को काफी नुकसान पहुंचाया। वर्ष 2003 और 2013 के बीच 40 हजार से अधिक लोग आतंकवाद के शिकार हुए हैं। साथ ही पाकिस्तान की सुरक्षा पर खर्च बढ़ा है यद्यपि इसका भार बहुत कुछ अमेरिका ने उठाया है। जो भी हो एक आम पाकिस्तानी का देश के बाहर संदेह की निगाह से देखा जाता है। देश के अंदर ऊर्जा का भारी संकट है, चोरी और राज्य ही नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों द्वारा सरकारी संस्थानों के बिलों का भुगतान न करना भारी समस्या है। देश के अंदर रोजगार के अवसर घट रहे हैं इसलिए शिक्षित मध्य वर्ग ही नहीं बल्कि अन्य लोग भी देश के बाहर नौकरियों की तलाश का रहे हैं। अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई से पाकिस्तानियों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। तालिवानीकरण के बढ़ते खतरे से लोग च्ंिातित हैं। आम लोगों के सामने एक बड़ा सवाल है कि वे एक दकियानूसी और कट्टर धार्मिक राज्य चाहते हैं या एक आधुनिक, प्रबुद्ध राज्य। इस प्रश्न पर विचार विमर्श एक लम्बे समय तक सैनिक सत्तावाद के कारण बाधित रहा है। वह जुझारू इस्लाम को बढ़ावा देता रहा है। कहना न होगा कि विश्व भर में लोग उसे शक की न•ार से देखते हैं।
लोग चिंतित हैं कि पड़ोसी देश भारत में आ•ाादी के बाद से ही जनतंत्र पनपा है और उसकी जड़ें मजबूत हुई हैं वहीं पाकिस्तान में एक लम्बे समय तक सैनिक शासन रहा है। अब भी सेना का दबदबा बना हुआ है और उसकी गुप्तचर संस्था देश पर हावी है। सेना देश के आंतरिक और बाहरी विरोधियों को दबाने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल कर रहा है। आम पाकिस्तानी को न जीवन और न ही संपत्ति की सुरक्षा है। उसे सामाजिक एवं आर्थिक अवसर राज्य की ओर से नहीं मिलते हैं। हिंसा और अनिश्चितता का खतरा लगतार बना हुआ है। पिछले 67 वर्षों के दौरान अब तक पाकिस्तानी यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि वे देश की इस्लामी पहचान बनाए रखना चाहते हैं या उसे एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में देखना चाहते हैं। बंगलादेश के अलग होने के बाद पाकिस्तान में भारत की तुलना में काफी कम मुस्लिम आबादी रह गई है। भारत में तो देशी रियासतें कब की खत्म हो चुकी हैं मगर पाकिस्तान में उनका अस्तित्व बना हुआ है। वहां अब भी दस रियासतें मौजूद हैं। पाकिस्तान का धार्मिक आधार 1971 में तब धराशायी हो गया जब बंगलादेश अलग हो गया।
आज पािकस्तान की हालत काफी दयनीय है। वहां शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। जहां तक मीडिया का प्रश्न है वह सरकारी नियंत्रण और बढ़ते वाणिज्यिकरण के बीच झूल रहा है। सैनिक एवं अर्ध सैनिक नियंत्रण के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। अभी हाल तक प्रेस को दबाकर और घूस के जरिए नियंत्रण में रखा जाता रहा है। देश के सामने आनेवाली समस्याओं पर शायद ही स्वतंत्र विचार विमर्श की गुंजाइश है। पाकिस्तान के अंदर शायद ही कभी अकादमिक या राजनीतिक बहस-मुबाहसें की गुंजाइश बनी है।
आयशा जलाल के अनुसार इतिहास की जगह एक कुपरिभाषित इस्लामी विचारधारा को थोपने के कारण एक आलोचनात्मक ऐतिहासिक परंपरा न विकसित हो पाई है और न ही तर्कसंगत सार्वजनिक बहस संभव है। पाकिस्तान के स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह कृत्रिम राष्ट्रीय मिथकों को बढ़ावा देता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंतर पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार पाकिस्तान के अस्तित्व को उचित ठहराया जाता है।
आज पाकिस्तान की स्थिति काफी दयनीय बन गई है। उसे आतंकवादी विचारधारा और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त हिंसा का उद्गम बताया जा रहा है। इसी से जुड़ा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान का इतिहास वर्ष 1947 से आरंभ होता है अथवा इस्लाम के जन्म के समय से राज्य की इस्लामी पहचान का तालमेल आधुनिक राष्ट्र-राज्य के साथ कैसे बैठाया जाय? मुस्लिम राष्ट्रवाद के सामने यह एक बड़ा सवाल है। यहां एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि भारत के अल्पसंख्यक मुसलमान कैसे एक राष्ट्र के रूप में तब्दील हो गए और फिर दो राज्यों के बीच विभाजित होगा।
मोहम्मद अली जिन्ना का उदय एक उपनिषदवाद-विरोधी राष्ट्रवादी के रूप में हुआ। वर्ष 1916 में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के जन्म का स्वागत करते हुए कहा था कि ''एक संयुक्त भारत जन्म के पीछे यह एक बड़ा कारक होगा।ÓÓ यहां तक कि वर्ष 1937 तक उनकी दिलचस्पी अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस के साथ गंठजोड़ करने की थी। उनका नजरिया अधिकतर मुस्लिम राजनेताओं से अलग था। मुसलामानों की दिलचस्पी उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में स्वायत्त राज्यों तक ही सीमित थी। शेष जगहों में वे चाहते थे कि अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा की जाय। उस समय तक मुद्दा स्वायत्त राज्यों तक सीमित था जिससे एक राज्य दूसरे पर धौंस नहीं दिखायें।
इसमें बदलाव 1940 के लाहौर अधिवेशन में दिखा जब मुस्लिम लीग ने मांग की कि उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में मुसलमानों का दबदबा स्वीकार किया जाय। लीग ने सारे भारतीय मुसलमानों की ओर से बोलने का दावा किया। तब तक उनकी ओर से पाकिस्तान की मांग नहीं उठी थी बल्कि उनका जोर मुस्लिम हितों की रक्षा तक ही सीमित था। लाहौर प्रस्ताव में जिन्ना ने देश-विभाजन और पाकिस्तान का कोई जिक्र नहीं किया था। उनका कहना था कि तथाकथित हिन्दू प्रेस ने यह शब्द उनके ऊपर थोपा था। 'पाकिस्तानÓ शब्द वर्ष 1933 में कैम्ब्रिज के एक विद्यार्थी चौधरी रहमत अली की देन है। रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान में पंजाब, अफगानिस्तान (उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत सहित) कश्मीर, सिंध और बलोचिस्तान शामिल थे। ध्यान रहे कि इसमें बंगाल का कोई हिस्सा शामिल न था। यहां पर मुहम्मद इकबाल का जिक्र जरूरी है। उन्होंने देश के विभाजन की कोई बात नहीं की थी। उनका मानना था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। उनका ख्याल था कि मुसलमान अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए वहां रहें। हिन्दुओं के साथ उनका कोई टकराव न हो। इकबाल हर तरह की मुस्लिम दकियानूसी के खिलाफ थे। भारत में स्थापित मुस्लिम राज्य इस्लाम को नई ऊंचाईयों पर ले जाएगा जिसमें ''अरबी साम्राज्यवादÓÓ कोई खलल पैदा नहीं कर पाएगा।
याद रहे कि रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान को खतरनाक और अव्यवहारिक धारणा बतलाकर दरकिनार कर दिया गया। फिर भी शहरी पंजाबी मुसलमानों के एक तबके ने उसे लोक लिया और उसे इकबाल की मुस्लिम राज्य की अवधारणा से जोड़कर देखना आंरभ किया। याद रहे कि इस अवधारणा को बढ़ावा देने में पंजाब और यूपी के हिन्दू स्वामित्व कै अंतर्गत संचालित समाचार पत्रों ने कम भूमिका नहीं निभाई। जहां तक मोहम्मद अली जिन्ना का सवाल है वे काफी हद तक पश्चिमी रंग में रंगे हुए वकील थे और धार्मिक रूढि़वाद से उनका कोई वास्ता नहीं था। किन्तु उन्हें अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस्लाम का सहारा लेना पड़ा। यदि वे ग्रामीण मुस्लिम जनता को उभारने की कोशिश करते तो उनका टकराव हिन्दू और मुसलमान दोनों भूमिपतियों से होता। वे इस स्थिति से बचना चाहते थे। उन्होंने यहां पाकिस्तान का सहारा लिया जिससे मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा किया जा सके।
आ•ाादी के कुछ समय पहले क्रिप्स मिशन भारत आया जिसका उद्देश्य किसी न किसी तरह वायसराय की कार्यकारी समिति में कांग्रेस को लाना था। साथ ही उसने प्रांतों को भारत से अलग होने का अधिकार देने की बात की जिससे वे पाकिस्तान की अपनी मांग पर बल दे सकें। क्रिप्स मिशन का प्रयास विफल हो गया। वर्ष 1944 में दक्षिण के नेता राज गोपालाचारी ने पाकिस्तान का प्रस्ताव फिर से आगे रखा जिसमें पंजाब और बंगाल के मुस्लिम बहुमत वाले जिलों को काफी कुछ केन्द्र में स्वायत्तता देने की बात की गई। कहा गया कि वे भारत में रहें और केन्द्र सरकार को रक्षा, संचार और वाणिज्य को छोड़कर अन्य मामलों में उनकी स्वायत्तता बनी रहे। मगर जिन्ना को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया। जिन्ना ने मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा किया और पाकिस्तान की मांग को जोरदार ढंग से दुहराया। उन्होंने पंजाब, बंगाल, सिंघ, और उत्तर- पश्चिम सीमा प्रांत के मुसलमानों को परस्पर जोडऩे की कोशिश की और इस प्रकार पाकिस्तान की अवधारणा को मृर्तरूप देकर आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में अल्प संख्यकों के हितों की रक्षा उसी प्रकार की जाएगी जैसे भारत में होती है।
प्रश्न उठता है कि भारत का विभाजन क्यों हुआ जब मुस्लिम लीग मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर दर्जा देने की बात कर रही थी। यह स्थिति 1946 की गर्मियों में बदल गई। ब्रिटिश उपनिवेशवाद नहीं चाहता था कि भारत अखंड रहे और एक सुदृढ़ देश बन कर उभरे। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों चाहते थे कि उनकी निजी पूंजी को चरने का पूरा मौका मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रस्तावों तथा प्रस्तावित औद्योगिक नीति को देखते हुए उन्हें संदेह था कि भारत में शायद उनकी निजी पूंजी को बेधड़क चरने का अवसर न मिले इसीलिए वे भारत के विभाजन के पक्षधर बने। उनकी रणनीति थी कि पाकिस्तान बनाकर उसे भारत से भिड़ा दिया जाए और उनको बेरोकटोक काम करने का मौका मिले।
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