Saturday, 28 December 2019

ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा ? ------ नवीन जोशी

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लोकतांत्रिक मर्यादा भी प्रशासन का दायित्व है
नवीन जोशी
भारतीय समाज कठिन दौर से गुजर रहा है। कठिन इस मामले में कि राजनैतिक-सामाजिक विचारों का जो द्वंद्व हमेशा सतह के नीचे रहता था, वह उग्र रूप में सतह के ऊपर निकल आया है। वैचारिक आलोड़न-विलोड़न में क्या दिक्कत थी यदि वह समाज के हिंसक विभाजन तक न पहुंचा होता। विचारों की विभिन्नता व्यक्तिगत-राजनैतिक द्वेष से भी आगे निकली जा रही है। वोटों की रोटी चूंकि इसी आग में सेंकी जा रही है, इसलिए वह शांत होने की बजाय उग्रतर हो रही है।

नागरिकता संशोधन कानून और नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति हिंसक और जवाबी दमन में होने लगना बहुत चिंताजनक है। शासन का दायित्व है कि वह हिंसा रोके और हिंसा करने-भड़काने वालों से कानूनन सख्ती से निपटे। इसी में उसका यह गुरुतर दायित्व भी निहित है कि कोई भी निर्दोष उत्पीड़ित न हो।  शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को होने देना भी उसकी जिम्मेदारी है। 

हाल के विरोध–प्रदर्शनों, जिनमें दुर्भाग्य से बड़ी हिंसा भी हुई, के बाद शांति एवं सद्भाव के लिए सक्रिय लोगों के खिलाफ भी प्रशासनिक और पुलिसिया कार्रवाई किए जाने की खबरें मिल रही हैं। ऐसे आरोप भी बहुत लग रहे हैं कि पुलिस बदले की भावना से काम कर रही है। लखनऊ का ही उदाहरण लें तो कुछ मामले चिंता में डालने वाले हैं और पुलिस की भूमिका पर गम्भीर सवाल उठाते हैं।

पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर को उपद्रव भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा जाना अफसोसनाक है। और भी होंगे लेकिन कम से कम ये दो नाम ऐसे हैं जिन्हें समाज में शांति, सद्भाव और रचनात्मक जागरूकता का काम करने के लिए जाना जाता है। कोई नहीं मानेगा कि वे हिंसा भड़का रहे थे। बल्कि, हर अशांति के समय ये अमन कायम करने के लिए आगे आते रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों से इनकी रिहाई की लगातार अपीलें भी इसीलिए हो रही हैं।

चूंकि प्रदर्शनकारियों का सबसे पहला सामना पुलिस से होता है, इसलिए वही सत्ता के प्रतीक रूप मे सामने आती है। इसी कारण कई बार वह गुस्से और हिंसा की चपेट में आती है। उपद्रवी जानबूझकर पुलिस पर हमला करके शांति भंग करते हैं। उनकी पहचान और पकड़ जरूरी है। लेकिन इसके जवाब में  पुलिस बदले की भावना से काम करेगी तो निर्दोष ही मारे जाएंगे, जैसा कि अक्सर होता है। सुरक्षा बलों को धैर्य और संयम की परीक्षा देनी ही होती है। उनका बर्बर हो जाना खतरनाक है। 

ध्यान रहे कि कल का विपक्ष आज सत्ता में है तो कल फिर वह विपक्ष में होगा। तब क्या उसे लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन के अधिकार की आवश्यकता नहीं होगी/ यही पुलिसिया दमन तब उसके हिस्से आएगा, तो/ राजनैतिक दमन के लिए पुलिस और कानून का इस्तेमाल कितना खतरनाक होता है, हम पहले देख चुके हैं।

हिंसा फैलाने वालों से सख्ती से निपटने के निर्देशों का अर्थ यह हरगिज नहीं होना चाहिए कि पुलिस को मनमानी करने या शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त करने वालों के दमन की छूट दे दी गई है। हिंसा न हो, यह देखना उसका दायित्व अवश्य है। इसके लिए उसके पास पर्याप्त अधिकार और कानूनी आधार हैं। इसकी आड़ में शांतिपूर्ण विरोध भी व्यक्त करने न देना, महिलाओं-बच्चों तक को पीट देना, गिरफ्तार कर लेना, धमकाना और तरह-तरह से आतंकित करना जारी रहेगा तो इसके विरोध में आवाजें उठनी चाहिए। ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा, जबकि इसके लिए संविधान उसे संरक्षण और स्वतंत्रता देता है।


समाज को यह आश्वस्ति सरकार से मिलनी ही चाहिए कि उसके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षित एवं सम्मानित हैं। 

http://epaper.navbharattimes.com/details/83371-81582-2.html


संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 24 December 2019

मोहम्मद रफी साहब ( 24 December 1924 ) : उनकी पुत्रवधू की नज़र से

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Born: 24 December 1924, Kotla Sultan Singh
Died: 31 July 1980, Mumbai







 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 7 December 2019

स्त्री की योग्यता, उसका काम ही उसके चरित्र का पैमाना बने और समाज में उसे भी इंसान की हैसियत से आँका जाए ------ सारिका श्रीवास्तव

राजनेताओं के भद्दे बयान। सोशल मीडिया पर महिलाओं की हंसी उड़ाते चुटकुले-वीडियो-कार्टून। टीवी सीरियल्स और फिल्मों में महिलाओं की खराब छवि वाले चरित्रों की प्रधानता। प्रशासनिक अधिकारियों समेत पुलिस, वकील, डॉक्टर, शिक्षक इत्यादि का महिलाओं के प्रति संकीर्ण नजरिया। इन सबके साथ जहां दुनियाभर में महिला अंगों को इंगित करके दी जाने वाली गालियों की भरमार हो; ऐसे समाज में महिलाओं के और महिलाओं के लिए बेहतर हालात की कैसे उम्मीद की जा सकती है? और उस पर सामाजिक बुनावट पुरुष प्रधान हो तो मतलब— करेला और नीम चढ़ा।

जिस समाज में स्त्रियों का चरित्र उनकी योग्यता या काम के आधार पर न आँका जाता हो, बल्कि उनके चरित्र का पैमाना उनकी यौनिकता हो। उनका पहनावा, समय की पाबन्दी और धूम्रपान एवं नशीले पदार्थों का सेवन स्त्रियों के चरित्र के पैमाने हों उस समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति बेहतर होगी, यह उम्मीद कैसे की जा सकती है?

जिस देश की करीब 60 फीसदी महिलाएँ केवल गृहिणी हों लेकिन लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में बराबरी का अधिकार रखने के बावजूद उनके द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा अपने घरों में उनके द्वारा किए जा रहे काम को देश की आर्थिक व्यवस्था/नीति से बाहर रखा जाता हो, जिससे जीडीपी प्रभावित न हो और विश्व परिदृश्य के बाजार में घूम रहे पूंजीपति देशों को लुभाने के लिए देश की आर्थिक स्थिति का सूचकांक ऊपर दिखे और जब वे देश में इन्वेस्ट करें तो सत्तासीन सरकारें उस इन्वेस्ट का फायदा उठाकर अरबों रुपए डकार सकें। जहाँ प्रत्येक सत्तासीन सरकार का चरित्र भी संदिग्ध हो उस देश की आधी आबादी कही जाने वाली प्रजाति आखिर कैसे बेहतर स्थिति हासिल कर सकती है?

जिस समाज में आशाराम, गुरमीत रामरहीम, चिन्मयानंद, कुलदीप सेंगर, जस्टिस गोगोई जैसे लोग बेख़ौफ़ घूम रहे हों या संरक्षण प्राप्त कर रहे हों उस देश में महिलाओं की स्थिति कमतर या दोयम दर्जे की ही नहीं, बल्कि मापी ही नहीं जाएगी।

जिस देश की सरकार खुद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा रही हो उस देश में आम जनता कैसे न्यायपालिका और उसकी कार्यप्रणाली पर यकीन कर सकती है?

जिस देश की सरकार सारी प्रशासनिक, सरकारी और स्वायत्त संस्थाओं तक पर काबिज हो, उन्हें अपने नियंत्रण में रख शिकंजा कसना चाहती हो, या उन्हें निजी संस्थाओं को सौंप देने पर आमादा हो, सरकारी संस्थाओं की शाख जानते-बूझते षड्यंत्र कर गिराई जा रही हो, उन्हें जानबूझकर निजी संस्थानों के समक्ष कमजोर किया जा रहा हो उस देश की संस्थाओं पर उस देश की ही जनता कैसे यकीन कर सकती है?

इन हालात में सरकार या सरकारी तंत्र जानबूझकर लोगों को उकसाता है। इस तरह के बयान, खबरों, वीडियो, पोस्ट को बढ़ावा दिया जाता, उन्हें विभिन्न तरीकों से वायरल कर जन-जन तक पहुंचाया जाता है जिससे जनता की भावनाओं को भड़काया जा सके। और जब भड़क जाए तो उसे दूसरी तरफ से हवा देकर हवा का रुख अपने मुताबिक कर आग के हवाले कर दिया जाता।

अभी तक केवल मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएँ इसका उदाहरण थीं। लेकिन अब प्रशासनिक गुंडे इन कामों को अंजाम देंगे। तेलंगाना के हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों का एनकाउंटर इसका पहला उदाहरण है।

आगे इस तरह की खबरें सुनने की आदत अब डाल लेना चाहिए। जब किसी भी घटना के आरोपी का एनकाउंटर आम बात होगी। असंतोष न भड़के और अवाम को बरगलाया जा सके, इसके लिए ऐसे एनकाउंटर होते रहेंगे। जब-जब खुद के स्वार्थ के लिए अवाम का उपयोग करना होगा इसी तरह के एनकाउंटर करके लोगों का ध्यान भटकाया जाएगा। और सबसे बड़ी और जरूरी बात जो भी इस सरकारी या सरकारी तंत्र का विरोध करेगा, या उसके खिलाफ जाएगा, जिससे इस सरकार को खतरा महसूस होगा उसका भी एनकाउंटर करने की घटनाओं का सामने आना भी कोई आश्चर्य न होगा।

बेहतर होता कि बलात्कार के इन चारों आरोपियों को फ़ास्ट ट्रेक के जरिए कानूनन सजायाफ्ता कर एक नज़ीर पेश की जाती। लेकिन ऐसा न हुआ। या यूँ कहा जाए कि जानते-बुझते ऐसा नहीं किया गया जिससे न्यायपालिका जैसी सर्वोच्च संस्था पर से लोगों का यकीन हट जाए। संविधान में दर्ज बात झूठी साबित हो और लोगों का संविधान पर से विश्वास उठ जाए। और ये संविधान को अपने अनुसार तोड़-मरोड़ सकें। जिससे यह फासीवादी सरकार संवैधानिक रूप से गुंडागर्दी करने की हकदार हो जाए।
यह बहुत ही खतरनाक शुरुआत है। इसका आगे अंजाम क्या होगा? यह आगे किस तरह का स्वरूप धारण करेगा? पुलिस इस हथियार का उपयोग किस हद तक करेगी? आम जनता वैसे भी पुलिस से डरती-सहमती थी अब यह ख़ौफ़ और बढ़ जाएगा।

उससे भी ज्यादा खतरनाक है लोगों का इस निंदनीय घटना के पक्ष में उत्साह के साथ आना। इस बहाव में अनेक वे भी बह गए जो बुद्धिजीवी होने के साथ ही साथ प्रगतिशील सोच भी रखते हैं। लेकिन बहुत सारे ऐसे युवा भी हैं जो अपनी दुनिया में रमे होने के बावजूद इस घटना की आग की गर्माहट से अपने को बचा नहीं पाए, आश्चर्यजनक तरीक़े से वे इस एनकाउंटर को गलत मान रहे हैं।

बहरहाल, इस सबसे स्त्रियों की बिगड़ी दशा और स्त्रियों के प्रति समाज की घिनौनी सोच को नहीं बदला जा सकता। हमें मिलकर यह सोचना होगा कि हम समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा किस तरह दिला सकते हैं।

किस तरह हम स्त्री को बाजार का खिलौना बनने या बाजार का माल बनने से बचा सकते हैं।

देश में महिलाओं के श्रम को मानव श्रम में किस तरह परिवर्तित कर सकते हैं जिससे उनका श्रम देश के आर्थिक आंकड़ों में दर्ज हो सके।

किस तरह स्त्री की योग्यता, उसका काम ही उसके चरित्र का पैमाना बने और समाज में उसे भी इंसान की हैसियत से आँका जाए।

जिस दिन हम इतना कर लेंगे बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसी घिनोनी घटनाएँ स्वतः ही कम होने लगेंगी और हम उम्मीद कर पाएंगे कि जल्द ही खत्म भी हो जाएंगी।

सारिका श्रीवास्तव
राज्य सचिव
भारतीय महिला फेडरेशन, मध्य प्रदेश

https://www.facebook.com/sarika.shrivastava.7/posts/2489037924478463

Tuesday, 12 November 2019

सम - वेदना ------ हर्षा श्री

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

राम, रामायण,काल्पनिक

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    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 6 November 2019

किसान प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं

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इस वीडियो मेँ भी दो पत्रकारों की रिपोर्टों के जरिए बताया गया है कि प्रदूषण के लिए किसानों का पराली जलाना उत्तरदाई नहीं है और उनको इसे जलाना भी सरकारी कानों की वजह से ही पड़ता है क्योंकि उनके पास समय व धन की कमी  रह जाती है : 


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 30 October 2019

आंतरिक मामले में विदेशी सांसदों का दख़ल क्यों? ------ रवीश कुमार




इंटरनेशनल बिज़नेस ब्रोकर का कश्मीर से क्या लेना देना? भारत सरकार को कश्मीर के मामले में इंटरनेशनल ब्रोकर की ज़रूरत क्यों पड़ी? भारत आए यूरोपियन संघ के सांसदों को कश्मीर ले जाने की योजना जिस अज्ञात एनजीओ के ज़रिए तैयार हुई उसका नाम पता सब बाहर आ गया है. यह समझ से बाहर की बात है कि सांसदों को बुलाकर कश्मीर ले जाने के लिए भारत ने अनौपचारिक चैनल क्यों चुना? क्या इसलिए कि कश्मीर के मसले में तीसरे पक्ष को न्यौतने की औपचारिक शुरूआत हो जाएगी? लेकिन इंटरनेशनल बिज़नेस ब्रोकर कहने वाली मादी(मधु) शर्मा के ज़रिए सांसदों का दौरा कराकर क्या भारत ने कश्मीर के मसले में तीसरे पक्ष की अनौपचारिक भूमिका स्वीकार नहीं की ?
ब्रिटेन के लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद क्रिस डेवीज़ को मादी शर्मा ने ईमेल किया है. सात अक्तूबर को भेजे गए ईमेल में मादी शर्मा कहती हैं कि वे यूरोप भर के दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ले जाने का आयोजन का संचालन कर रही हैं. इस वीआईपी प्रतिनिधिमंडल की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात कराई जाएगी और अगले दिन कश्मीर का दौरा होगा. ईमेल में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात की तारीख़ 28 अक्तूबर है और कश्मीर जाने की तारीख़ 29 अक्तूबर है. ज़ाहिर है ईमेल भेजने से पहले भारत के प्रधानमंत्री मोदी की सहमति ली गई होगी. तभी तो कोई तारीख़ और मुलाक़ात का वादा कर सकता है. बग़ैर सरकार के किसी अज्ञात पक्ष की सक्रियता के यह काम हो ही नहीं सकता.
यह ईमेल कभी बाहर नहीं आता, अगर सांसद क्रिस डेवीज़ ने अपनी तरफ से शर्त न रखी होती. डेवीज़ ने मादी शर्मा को सहमति देते हुए लिखा कि वे कश्मीर में बग़ैर सुरक्षा घेरे के लोगों से बात करना चाहेंगे. बस दस अक्तूबर को मादी शर्मा ने डेविस को लिखा कि बग़ैर सुरक्षा के संभव नहीं होगा क्योंकि वहाँ हथियारबंद दस्ता घूमता रहता है. यही नहीं अब और सांसदों को ले जाना मुमकिन नहीं. इस तरह डेविस का पत्ता कट जाता है. क्रिस डेवीज़ नार्थ वेस्ट ब्रिटेन से यूरोपियन संघ में सांसद हैं. उन्होंने कहा कि उनके क्षेत्र में कश्मीर के लोग रहते हैं जो अपने परिजनों से बात नहीं कर पा रहे. डेवीज़ ने मीडिया से कहा है कि वे मोदी सरकार के जनसंपर्क का हिस्सा नहीं होना चाहते कि कश्मीर में सब ठीक है.


मादी शर्मा का ट्विटर अकाउंट है, उन्हें तीन हज़ार लोग भी फोलो नहीं करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी तस्वीरें हैं. उनकी स्वतंत्र हैसियत भी है. उनकी प्रोफ़ाइल बताती है कि वे म्यानमार में रोहिंग्या से लेकर चीन में उघूर मुसलमानों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी से चिन्तित हैं और ग़लत मानती हैं. ऐसी सोच रखने वाली मादी शर्मा ऐसे सांसदों को क्यों बुलाती हैं जो इस्लाम से नफ़रत करते हैं और कट्टर ईसाई हैं? जो माइग्रेंट को कोई अधिकार न दिए जाने की वकालत करते हैं. मादी शर्मा खुद को गांधीवादी बताती हैं. उनकी साइट पर गांधी के वचन हैं.
मादी शर्मा का एक एनजीओ है. WESTT women's economic and social Think Tank. इस एनजीओ की तरफ से वे सांसदों को ईमेल करती हैं और लिखती हैं कि आने जाने का किराया और ठहरने का प्रबंध कोई और संस्था करेगा जिसका नाम है International Institute for Non-Aligned Studies. इस संस्था का दफ्तर दिल्ली के सफ़दरजंग में है. 1980 में बनी यह संस्था निर्गुट देशों के आंदोलन को लेकर सभा-सेमिनार कराना है. दौर में आपने कब निर्गुट देशों के बारे में सुना है? निर्गुट आंदोलन के लिए बनी यह संस्था यूरोपियन संघ के 27 सांसदों का किराया क्यों देगी? इसकी वेबसाइट से पता नहीं चलता कि इसका अध्यक्ष कौन है?
अब सवाल है भारत ने मादी शर्मा का सहारा क्यों लिया? कई दफ़ा राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि अगर भारत पाकिस्तान चाहें तो वे बीच-बचाव के लिए तैयार हैं. भारत ने ठुकरा दिया. संयुक्त राष्ट्र संघ में इमरान खान के भाषण से भारत प्रभावित नहीं हुआ. कश्मीर पर टर्की और मलेशिया की आलोचना से भारत ने ऐसे जताया जैसे फ़र्क़ न पड़ा हो.जब अमरीकी कांग्रेस के विदेश मामलों की समिति में कश्मीर को लेकर सवाल उठे तब भी भारत ने ऐसे जताया कि उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. भारत की तरफ से जताया जाता रहा कि कई देशों को ब्रीफ़ किया गया है और वे भारत के साथ हैं. ऊपर ज़्यादातर देशों ने भारत से कुछ ख़ास ऐसा नहीं कहा जिससे ज़्यादा परेशानी हो. बल्कि जब पाकिस्तान ने विदेशी राजनयिकों और पत्रकारों को अपने अधिकृत कश्मीर का दौरा कराया तो भारत में मज़ाक़ उड़ाया गया. इतना सब होने के बाद भारत को क्या पड़ी कि एक इंटरनेशनल बिज़नेस ब्रोकर के ज़रिए विदेशी सांसदों को कश्मीर आने की भूमिका तैयार की गई ?
जो सांसद बुलाए गए हैं वो धुर दक्षिणपंथी दलों के हैं. इनमें कोई ऐसी पार्टी नहीं है जिनकी सरकार हो या प्रमुख आवाज़ रखते हों. यूरोपियन संघ के 751 सीटों में से ऐसे सांसदों की संख्या 73 से अधिक नहीं है. तो भारत ने कश्मीर पर एक कमजोर पक्ष को क्यों चुना? क्या प्रमुख दलों से मन मुताबिक़ साथ नहीं मिला? अमरीकी सिनेटर को कश्मीर जाने की अनुमति न देकर भारत ने इस मामले में अमरीकी दबाव को ख़ारिज कर दिया. फिर भारत को इन सांसदों को बुलाने की भूमिका क्यों तैयार करनी पड़ी?
क्या डेवीज़ ने मादी शर्मा के ईमेल को सार्वजनिक कर भारत के पक्ष को कमजोर नहीं कर दिया? क्या यह सब करने से कश्मीर के मसले का अंतर्राष्ट्रीयकरण नहीं होता है ? क्या कश्मीर का पहले से अधिक अंतर्राष्ट्रीयकरण नहीं हो गया है? आज ही संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति ने ट्विट किया है कि कश्मीर में मानवाधिकार का हनन हो रहा है. भारत के लिए कश्मीर अभिन्न अंग है. आंतरिक मामला है तो फिर भारत विदेशी सांसदों को बुलाने के मामले में पिछले दरवाज़े से क्यों तैयारी करता है?

इसका सही जवाब तभी मिलेगा तब प्रेस कांफ्रेंस होगी. अभी तक कोई बयान भी नहीं आया है. चिन्ता की बात है कि इन सब सूचनाओं को करोड़ों हिन्दी पाठकों से दूर रखा जा रहा है. उन्हें कश्मीर पर अंधेरे में रखा जा रहा है. ऐसा क्यों ? आप कश्मीर को लेकर हिन्दी अख़बारों की रिपोर्टिंग पर नज़र रखें. बुधवार के अख़बार में यूरोपियन संघ के सांसदों के दौरे की ख़बर को ग़ौर से पढ़ें और देखें कि क्या ये सब जानकारी दी गई है? कश्मीर पर राजनीतिक सफलता तभी मिलेगी जब यूपी बिहार को अंधेरे में रखा जाएगा.

जो चैनल कल तक कश्मीर पर लिखे लेख के किसी दूसरे मुल्क में री-ट्विट हो जाने पर लेखक या नेता को देशद्रोही बता रहे थे, जो चैनल दूसरे देश में कश्मीर पर बोलने को देशद्रोही बता रहे थे आज वही इन विदेशी सांसदों के श्रीनगर दौरे का स्वागत कर रहे हैं. क्यों?
साभार :

https://khabar.ndtv.com/news/blogs/ravish-kumar-blog-over-european-union-mps-kashmir-visit-and-chris-davies-mail-2124308

Sunday, 27 October 2019

पर्व - त्योहारों पर हम एक दूसरे को किस बात की बधाई देते हैं ? ------ नवीन जोशी

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 18 October 2019

जन के नाम पर जन को छलने का काम ------ चंद्रेश्वर

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 5 October 2019

गांधी की मूर्ति पर फूल और विचारों पर धूल ------ नवीन जोशी

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गांधी की मूर्ति पर फूल और विचारों पर धूल


तमाशा
सिटी
नवीन जोशी
जमाना हुआ, गांधी-स्मरण एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं रह गया। सच्चाई, सादगी, क्षमा, अहिंसा और प्रेम को जीवन में उतार लेने वाले महात्मा की स्मृति का भव्य तमाशा करने वालों का आचरण सर्वथा उनके मूल्यों के विपरीत है। उनके वास्तविक अनुयायी तो अब शायद ही कहीं हों। प्रत्येक राजनैतिक दल उनका असली वारिस होने का दावा कर रहा है, लेकिन सभी ने गांधी के मूल्य और विचार बिल्कुल ही त्याग दिए।

गांधी कहते थे, विशेष रूप से सत्ता में बैठे लोगों के लिए कि जब कभी यह असमंजस हो कि क्या फैसला लें तो सबसे पिछड़े और गरीब इंसान का ध्यान करो और उसके हित के लिए फैसला करो। होता इसके ठीक विपरीत है। यहां नाम गरीब और असहाय का लिया जाता है, लेकिन अधिसंख्य फैसले उन्हें लाभ पहुंचाते हैं, जो कतार में काफी आगे पहुंच चुके हैं। गरीब और असहाय को न्याय मिलने की उम्मीद दिन पर दिन कम होती जा रही है। 

देश के गरीबों को देखकर गांधी ने अपने आधे वस्त्र त्याग दिए थे। आज गांधी के तथाकथित भक्त गरीबों-असहायों का रहा-बचा भी लूट ले रहे हैं। गांधी दूसरे की गलती से व्यथित होकर और दंगा शांत करवाने के लिए अपने को सजा देते थे। 

आज अपने तमाम दोषों को छुपाकर, पीड़ित को ही दोषी साबित करने और सजा दिलवाने की साजिश होती है।

अन्याय करने वाला जितना बड़ा है, कानून के हाथ उस तक पहुंचने में उतनी ही टालमटोल करते हैं या पहुंचते ही नहीं। चिन्मयानंद पर संगीन आरोप होने के बावजूद उसकी गिरफ्तारी बहुत देर और बड़ी मुश्किल में हुई। पीड़िता फौरन जेल भेज दी गई। हो सकता है कि लड़की के खिलाफ कुछ मामला बनता हो, लेकिन क्या चिन्मयानंद के खिलाफ उससे कहीं अधिक गंभीर मामला शुरू से ही नहीं बनता था/ गिरफ्तार करने के बाद भी उन्हें कई दिन अस्पताल की सुविधाओं में रखा गया। लड़की तुरंत जेल की कोठरी में बंद कर दी गई।

कितने ही मामले हैं, जिनमें कमजोर और उत्पीड़ित का पक्ष सुना नहीं जाता या इतनी देर कर दी जाती है कि ताकतवर अभियुक्त के खिलाफ प्रमाण ही न मिल पाएं। विधायक कुलदीप सेंगर का 

मामला देख लीजिए। शिकायत दर्ज करवाने के बाद पीड़ित लड़की और उसके परिवार पर कितने अत्याचार होते रहे। विधायक की गिरफ्तारी में यथासंभव देर की गई। वह लड़की, उसके परिवार और गवाहों को तोड़ने व रास्ते से हटाने की साजिश रचता रहा। जो उत्पीड़क है, प्रभावशाली अपराधी है, वह निश्चिंत है। भय ही नहीं उसे। भागा-भागा वह फिर रहा है, जो सताया गया है। यह अपवाद नहीं, आम है।

झाड़ू लगाकर और शौचालय बनवाकर गांधी का अनुयायी बना जा सकता है क्या ? गांधी भौतिक नहीं, आत्मिक शुचिता को जीवन में उतारने की बात करते थे। सत्य की दृढ़ता से गांधी ने जग जीत लिया। आज कोई नेता सच का सामना करना ही नहीं चाहता। निर्दोषों की मॉब लिंचिंग जैसे भयानक अपराध को सत्तापक्ष सुनने-समझने को तैयार नहीं है। एक चौरी-चौरा कांड के कारण गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया था। यहां मॉब लिंचिंग के साथ-साथ गांधी की मूर्ति के चरणों में शीश नवाया जा रहा है।

गांधी से बड़ा हिंदू और राम-भक्त कौन है ?  हिंदू गांधी गाय से भी प्रेम करते थे और राम से भी, लेकिन गाय या राम के नाम पर किसी की हत्या उन्हें हरगिज मंजूर न थी। उनके लिए हिंदू होने का अर्थ उतना ही मुसलमान, सिख और ईसाई होना भी था।


अजब विडंबना है कि गांधी को पूजने वाले जान-बूझकर गांधी को समझना नहीं चाहते। 30 जनवरी 1948 के बाद से लगातार गांधी की हत्या जारी है।



http://epaper.navbharattimes.com/details/64429-79591-1.html
मरने वाले को भी श्रद्धांजलि और मारने वाले को भी 


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 2 October 2019

गांधी जी की 150 वीं जयंती

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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 30 September 2019

ट्रेंड फोर्स को नेशनल सिक्योरिटी से दूर करने का प्रयास ------ पूनम पाण्डे

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 22 September 2019

नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे , बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे ------ रवीश कुमार द्वारा प्रणव प्रियदर्शी

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http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html

मैगसायसाय से बदल नहीं गई मेरी दुनिया
सप्ताह का इंटरव्यू

रवीश कुमार
न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये बहसें वही चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं


आप उनसे सहमत हो सकते हैं, आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। शैली और तेवर ही नहीं, उनका कंटेंट भी उन्हें और उनकी पत्रकारिता को खास बनाता है। और अब तो वह मैगसायसाय पुरस्कार हासिल करने वाले हिंदी के पहले पत्रकार हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं रवीश कुमार की। तीखा विरोध झेलकर और कठिन अवरोधों से गुजर कर मैगसायसाय पुरस्कार समिति के शब्दों में ‘बेजुबानों की आवाज’ बने रवीश कुमार से बातचीत की है प्रणव प्रियदर्शी ने। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:


• पहले तो आपको बहुत बधाई। मैगसायसाय पुरस्कार पाकर लौटने के बाद जब आप दोबारा काम में जुटे तो आसपास की दुनिया में, कामकाज के माहौल में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं/ 


शुक्रिया। कोई बदलाव नहीं है। वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। चूंकि संसाधन नहीं हैं तो बहुत सारे मैसेज यूं ही पड़े रह जाते हैं, हम उन पर काम नहीं कर पाते। मैसेज तो बहुत सारे आते हैं। ट्रोल करने वालों ने मेरा नंबर गांव-गांव पहुंचा दिया है। अब लोग उसी नंबर को अपना हथियार बना रहे हैं। वे अपनी खबरें मुझे भेजते हैं, चाहते हैं कि मैं दिखाऊं। पूरे मीडिया का काम कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। फिर भी, जितना हो सकता है, उतना तो किया जाए, इसी सूत्र पर मैं चल रहा हूं।


• आपने हाल में बताया कि पुरस्कार के बाद जितने भी मैसेज मिले, वे सब पॉजिटिव थे। क्या इस पुरस्कार ने झटके में सबकी सोच बदल दी या पहले से ही उसमें अंतर आ रहा था धीरे-धीरे


दोनों ही बातें थीं। जो मुझे देखते हैं उनका एक बड़ा हिस्सा खुद भी दबाव में रहता है। रिश्तेदारों-मित्रों के नाराज होने का डर रहता है। तो ये सब साइलेंट थे और इन्हें पुरस्कार के सहारे अपनी बात कहने का मौका मिला। दूसरी बात, बहुत से लोग बदल भी रहे हैं। पुरस्कार से पहले भी मेरे पास ऐसे कई मैसेज आते थे कि मैं आपको गाली देता था पर अब लगता है कि मैंने गलती की, क्या आप मुझे माफ कर सकते हैं/ यह बड़ी सुंदर बात है। वे माफी नहीं मांगते, मेरे सामने स्वीकार नहीं करते तो भी उनका काम चल जाता।


• यह तो मनुष्य में विश्वास बढ़ाने वाली बात है...


बिल्कुल। यह ऐसी बात है जो साबित करती है कि लोग बदलते हैं। हमें अपना काम पूरी निष्ठा से करना चाहिए क्योंकि हमारे पाठकों और दर्शकों पर देर-सबेर उसका असर होता है।• एक बात आजकल नोट की जा रही है कि लोगों की सोच निर्धारित करने में सूचनाओं की भूमिका लगातार कम हो रही है। इसकी क्या वजह है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं/


सचाई यह है कि न्यूजरूम से सूचनाएं गायब ही हो गई हैं। वहां धारणाओं पर काम होता है। तो जो चीज रहेगी नहीं, उसकी भूमिका कैसे बढ़ेगी/ चैनलों में रिपोर्टर ही नहीं हैं। सो सूचनाओं तक पहुंचने की चिंता छोड़कर वे धारणाओं पर बहस कराते रहते हैं। यह भयावह है। सूचनाओं के बगैर नागरिक धर्म नहीं निभाया जा सकता। नागरिकों को ही इसकी चिंता करनी पड़ेगी।


• इस पोस्ट ट्रुथ दौर में खबरों के स्वरूप को लेकर भी बहस चल रही है। कहते हैं, खबर वही है जो लोग सुनना चाहते हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं/


दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं है जो न्यूज के बगैर रह सके। और न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये सारी बहसें वही लोग चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। उसकी एक ही परिभाषा हो सकती है, हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, वह अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है।

• सरकारें तो हमेशा से पत्रकारिता के सामने एक चुनौती के रूप में रही हैं। आज सत्ता तंत्र से लड़ना पत्रकारिता के लिए ज्यादा मुश्किल क्यों साबित हो रहा है/

देखिए, पिछली सरकारों का जिक्र करके आज की सरकार को रियायत नहीं दी जा सकती। कभी ऐसा नहीं था कि सभी चैनल एक तरह की बहस चला रहे हैं। समझना होगा कि यह संपूर्ण नियंत्रण का दौर है। आपात काल की बात हम करते हैं, पर आपात काल में जनता सरकार के साथ नहीं थी, वह मीडिया के साथ थी। इस बार जनता के भी एक हिस्से को मीडिया के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है।


• जब आप पत्रकारिता में आए थे तब क्या लक्ष्य थे आपके सामने/


कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था। नौकरी मिल जाए, मैं अच्छा लिखूं, मेरा लिखा पसंद किया जाए…... यही बातें थीं। पर रिपोर्टिंग के दौरान जब भी बाहर जाता तो लोग बड़ी उम्मीद से देखते। देखता, अनजान आदमी मेरे लिए कुर्सी ला रहा है, कोई भाग कर पानी ला रहा है। मन में सवाल उठता कि यह आदमी मुझे जानता भी नहीं है क्यों मेरे लिए इतना कर रहा है। धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सरकार से, प्रशासन से इसे कोई उम्मीद नहीं है। जानता है कि सत्ता का तंत्र मेरे बारे में नहीं सोचेगा, पर पत्रकार सोचेगा क्योंकि वह हमारे बीच का है, हमारा आदमी है। लोगों की ये भावनाएं, उनकी उम्मीदें मुझे जिम्मेदार बनाती गईं।


• अब आगे का क्या लक्ष्य है/



आगे के लिए भी वही है नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे और मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे…, बस।

http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 17 September 2019

पर्दा अपनी जगह यथावत है ------ हेमंत कुमार झा

Hemant Kumar Jha
3 hrs

कितने मासूम हैं वे...! बिल्कुल उस बच्चे की तरह जिसे चावल का भूंजा 'कुरकुर' भी चाहिये और 'मुरमुर' भी चाहिये।
उसी तरह उन्हें भी...एक खास तरह का राष्ट्रवाद भी चाहिये, नकारात्मक किस्म के सांस्कृतिक वर्चस्व की मनोवैज्ञानिक संतुष्टि भी चाहिये, धारणाओं में सुनियोजित तरीके से स्थापित 'मजबूत' नेता भी चाहिये और...अपनी स्थायी सरकारी नौकरी में किसी तरह की विघ्न-बाधा भी नहीं चाहिये।
वे रेलवे में नौकरी करते हैं, एयरपोर्ट में नौकरी करते हैं, बैंकों, विश्वविद्यालयों, आयुध निर्माण केंद्रों, बीएसएनएल, एमटीएनएल, ओएनजीसी सहित पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों में नौकरी करते हैं।
उन्हें अपनी नौकरी में स्थायित्व पर कोई सवाल नहीं चाहिये, समयबद्ध तरक्की भी चाहिये और पेंशन तो चाहिये ही चाहिये... वह भी 'ओल्ड' वाला।
लेकिन यह क्या?
अभी वे बालाकोट में पाकिस्तान के मानमर्दन का जश्न मना कर, केंद्र में मजबूत नेता के फिर से और अधिक मजबूत होकर आने का स्वागत गान गा कर अपने-अपने ऑफिसों में निश्चिंत हो कर बैठे भी नहीं थे कि खुद उनके अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे।
बिना सही तथ्य जाने एनआरसी विवाद पर अपनी कीमती राय रखते हुए, मजबूत सरकार द्वारा कश्मीरियों को 'सीधा' करने की कवायदों पर अपना उत्साह ही नहीं, उल्लास व्यक्त करते हुए अपनी गद्देदार कुर्सियों की पुश्तों से गर्दन टिका कर उन्होंने ऑफिस कैंटीन में कॉफी का ऑर्डर भेजा ही था कि पता चला...उसी मजबूत सरकार ने उनकी कुर्सी के नीचे पटाखों की लड़ियों में माचिस की तीली सुलगा दी है।
अब क्या बैंक, क्या रेलवे, क्या कॉलेज, क्या एयरपोर्ट, क्या ये, क्या वो...सब हैरान हैं। ये क्या हो रहा है,?
एयरपोर्ट वाले बाबू लोग तो बहुत हैरान हैं। उनकी हैरानी नाराजगी का रूप ले रही है। सरकार ने देश के बड़े हवाई अड्डों के निजीकरण का निर्णय लिया है। बाबू लोग सकते में हैं। वे कह रहे हैं कि जो सरकारी एयरपोर्ट अच्छे-भले मुनाफे में चल रहे हैं उनको कारपोरेट के हाथों में सौंपने का क्या मतलब है? वे गिनाते हैं कि सरकारी नियंत्रण में रहते इन एयरपोर्ट्स ने आधारभूत संरचना के विकास में कितने उच्च मानदंडों को छुआ है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार अब वे बाबू लोग आरोप लगा रहे हैं कि बने-बनाए, मुनाफे में चल रहे एयरपोर्ट्स को बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों सौंप कर सरकार सिर्फ उन उद्योगपतियों के हित साध रही है। अब उन्हें अपना भविष्य अंधेरा नजर आ रहा है।
आह...कितने मासूम हैं ये बाबू लोग। जब कभी कोई कहता या लिखता था कि जिस नेता को वे 'डायनेमिक' कह रहे हैं उसके आभामंडल के निर्माण में उन्हीं बड़े औद्योगिक घरानों ने बड़ी मेहनत की है, अकूत पैसा खर्च किया है, कि तमाम भावनात्मक मुद्दे आंखों में धूल झोंकने के हथियार मात्र हैं और उनसे किसी के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं आने वाला, कि यह मजबूत नेता दोबारा आने के बाद दुगुने जतन से कारपोरेट की शक्तियों का हित पोषण करेगा...तो वे हिकारत के भावों के साथ टिप्पणियां करते थे, ऐसा कहने वालों को वे वामी आदि के संबोधनों से तो नवाजते ही थे, अक्सर उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठा दिया करते थे।
अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और ज्यां द्रेज सरीखे अर्थशास्त्रियों के बयानों को किसी 'साजिश' का हिस्सा बताने में उन बाबुओं को भी कोई संकोच नहीं होता था जिन्होंने दसवीं तक के अर्थशास्त्र को भी ठीक से नहीं पढ़ा था।
सितम यह कि सरकारी विश्वविद्यालयों के अधिकतर प्रोफेसरों को बैंक निजी चाहिये, रेलवे-एयरपोर्ट के निजीकरण से उन्हें कोई आपत्ति नहीं, आयुष्मान भारत योजना को वे गरीबों की चिकित्सा के लिये ऐतिहासिक कदम बताते हैं, सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की बदहाली का कोई संज्ञान लेने तक को वे तैयार नहीं और ऊंची तनख्वाह के साथ ही मेडिकल बीमा के बल पर लकदक निजी अस्पतालों में अपनी चिकित्सा के प्रति वे निश्चिंत हैं।
उनकी दिक्कत तब शुरू हुई जब सरकार सरकारी कॉलेजों को भी एक-एक कर बाकायदा कारपोरेट के हाथों में सौंपने की तैयारी करने लगी। शुरुआत हो चुकी है और पिछले सप्ताह कुछ कॉलेजों के बिकने का टेंडर भी हो चुका है। आने वाले 10-15 सालों में देश की उच्च शिक्षा का संरचनात्मक स्वरूप पूरी तरह बदल जाने वाला है। जिन्हें इस पर संशय हो वे प्रस्तावित 'नई शिक्षा नीति' के विस्तृत मसौदे को पढ़ने का कष्ट उठा लें। यह प्रस्तावित नीति और कुछ नहीं, उच्च शिक्षा तंत्र के कारपोरेटीकरण और इसकी जिम्मेवारियों से सरकार के हाथ खींच लेने का घोषणा पत्र है।
अधिकतर बैंक वाले खुश हैं कि सरकारी कालेजों का निजीकरण किया जा रहा है। वे इस परसेप्शन के शिकार हैं कि सरकारी स्कूल-कालेजों के मास्टर लोग बिना कुछ किये-धरे ऊंची तनख्वाहें उठाते हैं और कि...ये सारे मास्टर सरकार पर बेवजह के बोझ हैं।
एक-एक कर सार्वजनिक संपत्तियों को कौड़ी के मोल कारपोरेट के हाथों बेचा जा रहा है और इन खबरों को कहीं कोई तवज्जो नहीं मिल रही। अखबारों के किसी पन्ने के कोने में चार-आठ लाइनों की कोई छोटी सी खबर आती है, जिसका संज्ञान भी अधिकतर लोग नहीं लेते कि पब्लिक सेक्टर की फलां इकाई फलां उद्योगपति के हाथों बेच दी गई।
अधिकतर बाबू लोगों के प्रिय न्यूज चैनलों में वे चैनल ही हैं जो प्राइम टाइम में नियम से पाकिस्तान, कश्मीर, तीन तलाक, एनआरसी आदि पर बहसें करते-कराते हैं, जिनके एंकरों की चीखों से इन बाबुओं की रगों में भी देशभक्ति का जोश कुलांचें भरने लगता है। टीवी में एंकरों/एंकरानियों की चीखें जितनी जोर से गूंजती हैं, बाबू लोगों का जोश उतना बढ़ता है। उतना ही उनके बच्चों का मस्तिष्क प्रदूषित होता है जो अभी छठी, आठवीं या बारहवीं क्लास में हैं और कारपोरेट संचालित लोकतंत्र के छल-छद्मों से नितांत अनभिज्ञ हैं।
नहीं, ऐसा नहीं है कि अब उनकी आंखों पर पड़ा पर्दा हट रहा है। पर्दा अपनी जगह यथावत है और मोबाइल न्यूज एप्स पर आ रही उन प्रायोजित खबरों को देख-पढ़ कर वे अब भी मुदित-हर्षित हो रहे हैं जिनमें बताया जाता है कि इमरान मोदी के डर से थर-थर कांप रहे हैं, कि अब कश्मीर तो क्या, पीओके भी बस हासिल ही होने वाला है, कि असम की जमीन की पवित्रता अब लौटने ही वाली है जहां सिर्फ 'मां भारती के सपूत' ही रह जाएंगे और तमाम सौतेलों को खदेड़ दिया जाएगा।
उनकी आंखों पर पड़े पर्दों ने उन्हें इंसानियत से, भारतीयता से कितना विलग कर दिया है, यह उन्हें अहसास भी नहीं। तबरेज के हत्यारों को दोषमुक्त कर दिए जाने से तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं ही हुई, दोषमुक्त आरोपियों को फूल-मालाओं से लदा देख कर भी उन्हें कोई हैरत नहीं हुई।
तमाम खुली आँखों पर पड़े गर्द भरे पर्दे यथावत हैं। उन्हें तो विरोध बस अपने हितों पर हो रहे आघातों से है। उनका विभाग सलामत रहे, सरकारी बना रहे, उनका वेतन-पेंशन कायम रहे, बाकी सारे के सारे विभागों का निजीकरण हो जाए, फर्क नहीं पड़ता।
ये सिर्फ बाबू लोग हैं। इनमें अधिकारी भी हैं, कर्मचारी भी हैं, पियून साहब लोग भी हैं, प्रोफेसर/मास्टर भी हैं। वे न सवर्ण हैं, न पिछड़े, न अति पिछड़े, न दलित आदि। वे सिर्फ मध्यवर्गीय बाबू हैं जिन्हें अपने वर्गीय हितों से इतर कुछ नहीं सूझता।
उनमें से बहुत सारे लोग अब आंदोलित हैं लेकिन अलग-अलग जमीन पर। एक दूसरे के आंदोलनों के प्रति उनमें कोई सहानुभूति नहीं, बल्कि, अपना छोड़ बाकी अन्यों के आंदोलनों को वे संदेह की दृष्टि से देखते हैं और अवसर पड़ने पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने से भी कोई गुरेज नहीं करते।
कितने मासूम हैं वे !
वे सोचते हैं कि आसमान गिर पड़े तो गिरे, बस उनकी छत सलामत रहे, जिसकी सुरक्षा का जिम्मा सरकार का है क्योंकि वे तो सरकारी हैं। उनका ऑफिस सरकारी है और उसकी छत सरकार ने ही बनाई थी।
हितों के अलग-अलग द्वीपों पर खड़े वे तमाम लोग पराजित होने को अभिशप्त हैं। उनके बीच सामूहिक मानस का निर्माण सम्भव ही नहीं क्योंकि वे सारे एक-दूसरे के विभागों को सरकार पर बोझ मानते हैं।
वे आंदोलन कर रहे हैं। कुछ लोग, कुछ विभाग तो जोरदार आंदोलन की राह पर हैं। लेकिन, उनका वैचारिक खोखलापन तब सामने आता है जब दिन भर 'इंकलाब जिंदाबाद' करते-करते वे शाम को जब घर लौटते हैं तो चाय/कॉफी पीते उन्हीं न्यूज चैनलों पर उन्हीं दलाल एंकरों की चीखें सुनते हैं जो उन्हें बताते हैं कि पाकिस्तान तो अब बर्बाद होने ही वाला है और भारत...? यह तो विश्व गुरु था और फलां जी के नेतृत्व में फिर से विश्व गुरु बनने की राह पर है, कि बस, विश्व गुरु बनने को ही है। दुनिया के शीर्ष 300 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में भारत का कोई संस्थान अगर जगह नहीं पा सका तो लिस्ट बनाने वालों की कसौटियां ही संदिग्ध हैं। जिस देश में 'जियो' नामक अवतारी यूनिवर्सिटी हो जिसने जन्म से पहले ही एक्सीलेंस की कसौटियों को पूरा कर लिया हो उसे विश्वगुरु बनने से कोई रोक भी कैसे सकता है?

Tuesday, 10 September 2019

सरकार की आलोचना करने वाला व्यक्ति कम देशभक्त नहीं होता ------ जस्टिस दीपक गुप्ता

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Pankaj Chaturvedi
08-09*-2019 
कोई सात मिनट लगेंगे, इसके एक एक शब्द को ध्यान से पढ़ें।
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जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा, सरकार की आलोचना करने वाला व्यक्ति कम देशभक्त नहीं होता।

प्रेलेन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में वकीलों को संबोधित करते हुए, सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने "लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एंड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन" विषय पर लंबी बात की। न्यायमूर्ति गुप्ता ने अपने भाषण में कई पहलुओं पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा;
"बातचीत की कला खुद ही मर रही है। कोई स्वस्थ चर्चा नहीं है, सिद्धांतों और मुद्दों की कोई वकालत नहीं करता। केवल चिल्लाहट और गाली-गलौच है। दुर्भाग्य से आम धारणा यह बन रही है कि या तो आप मुझसे सहमत हैं या आप मेरे दुश्मन हैं और इससे भी बदतर कि एक आप राष्ट्रद्रोही हैं। "
उन्होंने कहा, "एक धर्मनिरपेक्ष देश में प्रत्येक विश्वास को धार्मिक होना जरूरी नहीं है। यहां तक कि नास्तिक भी हमारे संविधान के तहत समान अधिकारों का आनंद लेते हैं। चाहे वह एक आस्तिक हो, एक अज्ञेयवादी या नास्तिक हो, कोई भी हमारे संविधान के तहत विश्वास और विवेक की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। संविधान द्वारा अनुमत लोगों को छोड़कर उपरोक्त अधिकारों पर कोई बाधा नहीं है। "
उन्होंने असहमत होने के अधिकार के महत्व बताते हुए कहा कि;
"जब तक कोई व्यक्ति कानून को नहीं तोड़ता है या संघर्ष को प्रोत्साहित नहीं करता है, तब तक उसके पास हर दूसरे नागरिकों और सत्ता के लोगों से असहमत होने का अधिकार है और जो वह मानता है उस विश्वास का प्रचार करने का अधिकार है।"
उन्होंने ए.डी.एम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, (1976) 2 एससीसी 521 में जस्टिस एच. आर खन्ना के असहमतिपूर्ण फैसले का हवाला दिया, जो अंततः बहुमत की राय से बहुत अधिक मूल्यवान निकला।
"असहमति का अधिकार हमारे संविधान द्वारा गारंटीकृत सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है। जब तक कोई व्यक्ति कानून को नहीं तोड़ता है या संघर्ष को प्रोत्साहित नहीं करता है, तब तक उसके पास हर दूसरे नागरिकों और सत्ता के लोगों से असहमत होने का अधिकार है और जो वह मानता है उस विश्वास का प्रचार करने का अधिकार है।"
एडीएम जबलपुर मामले में एचआर खन्ना, का निर्णय एक असहमति का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो बहुमत की राय से बहुत अधिक मूल्यवान है। यह एक निडर न्यायाधीश द्वारा दिया गया निर्णय है। न्यायाधीशों को जो शपथ दिलाई जाती है, उसमें वे बिना किसी डर या पक्षपात, स्नेह या दूषित इच्छा के अपनी क्षमता के अनुसार कर्तव्यों को पूरा करने की शपथ लेते हैं। कर्तव्य का पहला और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बिना किसी डर के कर्तव्य निभाना है।
"लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नागरिकों को सरकार से कोई डर नहीं होना चाहिए। उन्हें उन विचारों को व्यक्त करने से डरना नहीं चाहिए, जो सत्ता में बैठे लोगों को पसंद नहीं हों। इसमें कोई संदेह नहीं कि विचारों को सभ्य तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए। हिंसा को उकसाए बिना, लेकिन इस तरह के विचारों की केवल अभिव्यक्ति अपराध नहीं हो सकती और इसे नागरिकों के खिलाफ नहीं होना चाहिए।
अभियोजन पक्ष से डरने या सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के डर के बिना लोग अगर अपनी राय व्यक्त कर पाएंगे तो दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। यह वास्तव में दुखद है कि हमारी एक सिलेब्रिटी को सोशल मीडिया से दूर जाना पड़ा क्योंकि उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को गंभीर रूप से ट्रोल किया गया और धमकी दी गई। "
उन्होंने अवगत कराया कि विद्रोहियों की आवाज को चुप कराने के लिए ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजद्रोह का कानून पेश किया गया था। जबकि उन्होंने यह तय किया कि यह प्रावधान लोगों को उनकी ताकत और अधिकार के इस्तेमाल से रोकने के लिए था। यह कानून प्रकट रूप से वैध असंतोष या स्वतंत्रता की किसी भी मांग को रोकने के लिए इस्तेमाल किया गया था।
वास्तव में क्वीन इम्प्रेसेस बनाम बालगंगाधर तिलक, ILR (1898) 22 बॉम्बे 112 के मामले में 'राजद्रोह' शब्द को बहुत व्यापक अर्थ में समझाया गया था। "इन लेखों के कारण कोई गड़बड़ी या प्रकोप हुआ या नहीं, यह पूरी तरह से सारहीन है। यदि अभियुक्त का इरादा लेख द्वारा विद्रोह या अशांति फैलाना था तो उसका कृत्य निस्संदेह धारा 124 ए के अंतर्गत अपराध होगा।"
इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा;
"हिंसा के लिए उकसावे के बिना आलोचना करना राजद्रोह की श्रेणी में नहीं होगा"। महात्मा गांधी के शब्दों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि "स्नेह कानून द्वारा निर्मित या विनियमित नहीं किया जा सकता। यदि किसी को किसी व्यक्ति या प्रणाली के लिए कोई स्नेह नहीं है और जब तक कि वह उकसाने का कार्य नहीं करता, हिंसा को बढ़ावा नहीं देता, उसे अपने असंतोष के लिए पूर्ण अभिव्यक्ति देने के लिए उसे स्वतंत्र होना चाहिए।"
जस्टिस गुप्ता ने कहा,
"आप लोगों को सरकार के प्रति स्नेह करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते और केवल इसलिए कि लोगों में सरकार के विचारों के प्रति असहमति या लोग दृढ़ता से असहमत हैं या मजबूत शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त करते हैं, उन पर राजद्रोही होने का आरोप नहीं लगा सकते, जब तक कि वे या उनके शब्द प्रचार या झुकाव या प्रवृति हिंसा को बढ़ावा नहीं देते या लोक शांति को खतरे में नहीं डालते।"
उन्होंने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्र भाषण के अधिकार के अपवाद के रूप में राजद्रोह को शामिल नहीं किया, क्योंकि वे कहते थे कि राजद्रोह केवल तभी अपराध हो सकता है जब वह सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा के लिए प्रेरित करे या भड़काए।
उन्होंने कहा, "केवल हिंसा या विद्रोह के लिए उकसावे पर रोक लगाई जानी चाहिए और इसलिए, अनुच्छेद 19 के अपवादों में 'राजद्रोह' शब्द शामिल नहीं है, लेकिन राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक अव्यवस्था या अपराध के लिए उकसाना शामिल है।"
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, 1962 सुप्रीम कोर्ट 2 एससीआर 769 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि केवल सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करने के लिए देशद्रोह के आरोप नहीं लगाए जा सकते। धारा 124 ए के तहत कोई मामला तभी बनाया जा सकता है जब ऐसे शब्द बोले गए या लिखे गए हों, जिसमें हिंसा का सहारा लेकर लोक शांति को भंग करने या गड़बड़ी पैदा करने की प्रवृत्ति रही हो।
इस फैसले की सावधानीपूर्वक जांच करने पर, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा,
"यह स्पष्ट है कि यदि अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाना नहीं किया गया होता तो यह संभावना होती कि संविधान पीठ सभी में धारा 124 ए नहीं लगाती। हिंसा के लिए उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने के संदर्भ में इसे पढ़े जाने पर संवैधानिक माना गया था।"
2011 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी की बात करते हुए उन्होंने कहा,

"मुझे लगता है कि हमारा देश, हमारा संविधान और हमारे राष्ट्रीय प्रतीक राजद्रोह के कानून की सहायता के बिना अपने कंधों पर खड़े होने के लिए पर्याप्त मजबूत हैं। सम्मान, स्नेह और प्यार अर्जित किया जाता है और इसके लिए कभी मजबूर नहीं किया जा सकता। आप किसी व्यक्ति को राष्ट्रगान के समय खड़े होने पर मजबूर कर सकते हैं, लेकिन आप उसके दिल में उसके लिए सम्मान होने के लिए उसे मजबूर नहीं कर सकते। आप कैसे इस बात का निर्णय करेंगे कि किसी व्यक्ति के मन में क्या है? "

https://www.facebook.com/pankaj.chaturvedi2/posts/10217832261991614





 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 7 September 2019

चंदा रे ये क्या ------ चंद्रशेखर जोशी

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Chandrashekhar Joshi
07-09-2019 
चंदा रे ये क्या : 
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किसी का मामा, किसी का दुलारा, किसी का प्यारा सितारा है। समझ न आया, युग भी न बीता, अब हुड़ी तमाशा क्यों। 
...दुनिया में चंद्र अभियान 30 फीसदी ही सफल रहे हैं। विज्ञानी जल्द बड़े चंद्रमिशन सफल करेंगे। यह विश्व गुरु बनने जैसा भी कुछ नहीं था, चंद्रमा के सभी अभियान दुनिया के साझा हैं। मानव के चंद्र अभियान का पहला चरण वो था जब चांद की धरती के गुरुत्व त्वरण 1.62 m/s² का पता चला। तभी से चांद पर जाने की कोशिशें चलती रहीं। कई देश जब चांद पर कदम रख आए तब भारत भी ऊपर चढ़ा। इसरो के अध्यक्ष के.सिवन भी रोज कह रहे हैं कि चंद्रयान-2 की यह साफ्ट लैंडिंग है, पर नेताओं ने इसे हार्ड बना दिया। 
...कोई बात नहीं, चांद से ज्यादा चालाकी भला कौन समझता है। चंदा कभी आधा दिखता, कभी पूरा और कभी गायब रहता। दुनिया के राजनेता ही बाधक हैं कि चांद ने अब तक अपना अंधेरा हिस्सा किसी को न दिखाया। धरती का मानव ऐसा ही रहा तो अंधेरा हिस्सा खोजना संभव भी न होगा। इस तस्तरी का पिछला हिस्सा अब तक कोई नहीं जान पाया। असल में धरती के अलावा कोई भी ग्रह बाजार नहीं, किसी को बेचना संभव नहीं। नेता और नन्हे बच्चे इसरो मेें न जाने किस चक्कर में डटे रहे, सारी बातें इनकी समझ से परे थी।
...जो भी हो, धरती पर मानव की उत्पत्ति के बाद से ही सूर्य से ज्यादा इज्जत शीतल चांद ने पाई। सूर्य की तरफ फटकना संभव नहीं। चंद्रमा पृथ्वी का नजदीकी उपग्रह है, जिसके माध्यम से अंतरिक्ष की लिखित खोज के प्रयास गैलीलियो और आर्यभट के जमाने से चलते रहे। कोशिशें उससे पहले भी हुईं, पर तब की जानकारी जुटाना संभव नहीं। ग्रहों की बातें गहन अंतरिक्ष मिशन है, बच्चे इसकी गहराई समझें, नेता इस तरफ ध्यान न दें।
...बता रहे हैं चंद्रयान-2 चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव तक पहुंचा। यह दिलचस्प है क्योंकि इसकी सतह का बड़ा हिस्सा सूर्य की रोशनी नहीं ले पाता। विज्ञानी चाहते हैं कि चंद्रमा हमें पृथ्वी के क्रमिक विकास और सौर मंडल के पर्यावरण के बारे में बताए, यहां जीवन की उम्मीद बताए। खास मौके पर नेक चाह रखने वाले विज्ञानी किसी को नहीं दिखे, बेअक्ल नेता और नन्हे बच्चे ईवेंट का हिस्सा बन गए।
...खैर बांकी बातें कुछ दिनों बाद पता चलेंगी। फिलवक्त यह मिशन चंद्रयान-1 के बाद भारत का दूसरा चन्द्र अन्वेषण अभियान है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिक इसे और विकसित करेंगे। इस अभियान में भारत में निर्मित एक चंद्रकक्ष यान, एक रोवर एवं एक लैंडर शामिल हैं। चंद्रयान-2 के लैंडर और रोवर चंद्रमा पर लगभग 70 दक्षिण के अक्षांश पर स्थित दो क्रेटरों मजिनस-सी और सिमपेलियस-एन के बीच एक उच्च मैदान पर उतरा। उम्मीद है कुछ चूकें जल्द सुधार ली जाएंगी फिर से इसका रोवर चंद्र सतह पर चलेगा और चंद्रधरा का रासायनिक विश्लेषण करेगा। 
...इससे पहले चंद्रयान-1 ऑर्बिटर का मून इम्पैक्ट प्रोब 14 नवंबर 2008 को चंद्र सतह पर उतरा था। तब भी सैकड़ों लोग अद्भुत नजारे देखने पहुंचे थे। चंद्रयान-1 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के चंद्र अन्वेषण कार्यक्रम का पहला अंतरिक्ष यान था। इसमें एक मानवरहित यान को 22 अक्टूबर को चन्द्रमा पर भेजा गया। यह यान संशोधित संस्करण वाले राकेट की सहायता से सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से भेजा गया था। इसे चन्द्रमा तक पहुंचने में 5 दिन लगे और चन्द्रमा की कक्षा में स्थापित करने में 15 दिन लगे थे। सदियों से विज्ञानी चंद्रमा की सतह के विस्तृत नक्शे, पानी के अंश और हीलियम की तलाश करना चाहते हैं। चंद्रयान-2 का मकसद भी यही है।


..ये रात बड़ी थी, बात बड़ी, हम बड़ी-बड़ी बातें समझेंगे..

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( नौ लाख वर्ष पूर्व साईबेरिया के शासक ' कुंभकर्ण ' द्वारा कराये शोद्ध के अनुसार चंद्रमा ' राख़ व चट्टानों का ढेर ' है जिसकी पुष्टि अब की इस खबर से भी होती है कि, चंद्रमा की सतह समतल नहीं है )
 ------विजय  राजबली माथुर

Wednesday, 4 September 2019

ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जाता, जिससे लोग बीमार ही न पड़ें : समीक्षा ------योगेश मिश्र

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घर जैसा ही लगा लखनऊ : समीक्षा


टीवी की ऑडियंस फिल्मों से अलग है : 


जब मेरे करियर की शुरुआत हुई तो मुझे साउथ इंडस्ट्री की फिल्में मिलीं। इस पर मेरे घरवालों से लोग पूछते कि आपकी बेटी इतने दिनों से काम कर रही है पर अभी तक टीवी में दिखी नहीं। मैं भी टीवी सीरियल्स में काम करना चाहती थी। दरअसल, टॉलिवुड, बॉलिवुड और टीवी की ऑडियंस अलग-अलग होती है। मैं सभी ऑडियंस से जुड़ी रहना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि अपने काम को बेहतर तरीके से करूं। इसके लिए मैंने एक फिल्म करने के बाद दूसरी का इंतजार नहीं किया बल्कि टीवी में चली गई। मैंने टीवी को कभी छोटा नहीं माना।



वेलनेस कंसल्टेंट बनना चाहती थी :


मैं बचपन में वेलनेस कंसल्टेंट बनना चाहती थी। मेरी तब सोच थी कि लोगों के बीमार पड़ने के बाद ही डॉक्टर दवा क्यों देते हैं। ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जाता, जिससे लोग बीमार ही न पड़ें। मैं सोचती थी कि बड़ी होकर इसी की पढ़ाई करूंगी। पर जब बड़ी हुई तो पता चला कि इसकी कोई पढ़ाई नहीं होती है। अगर स्वस्थ रहना है तो अच्छा खाना, अच्छा सोचना, रोजाना योग और एक्सरसाइज करनी पड़ेगी। 



साउथ की फिल्मों में डायलॉग्स


रटने पड़ते हैं   :


मेरे ऐक्टिंग करियर की शुरुआत साउथ की फिल्मों से हुई थी। वहां के हीरो के साथ नार्थ इंडिया की हिरोइनों को ही तवज्जो दी जाती है। यही वजह रही कि मुझे टॉलिवुड में खूब काम मिला और मिल भी रहा है। हालांकि, तमिल और कन्नड़ फिल्मों के डायलॉग्स में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती है। तमिल शब्दों का मतलब पता नहीं होता इसलिए ध्यान देना पड़ता है कि बोलते समय हाव-भाव सही हों। ऐसा न हो कि हम बात खुशी की कर रहे हों और हमारा चेहरा उदास लग रहा हो। डायलॉग रटने पड़ते हैं। बाकी सारी चीजें डब की जाती हैं।

क्रिएटिविटी से कोई समझौता नहीं

मैंने शो ‘जारा’ किया। यह करीबन दो साल का शो था। इसके बाद टीवी शो ‘यहां मैं घर घर खेली’ में काम किया। बाद में पता चला कि वह एक डेली सोप शो था। मुझे लगने लगा था कि वहां मेरी क्रिएटिविटी खत्म हो रही थी। वह डेली रूटीन वाली जॉब जैसा था। जीवन निरंतर चलने वाली यात्रा है। मैं एक जगह रुक नहीं सकती। इसलिए उस शो को मैंने एक महीने बाद छोड़ दिया। सोप शो में एक टारगेट मिल जाता है कि इतना आपको करना ही है। उसमें आप खुद से कोई क्रिएटिव ऐक्ट नहीं कर सकते।



विज्ञापन करने के बाद किस्मत ने ली करवट: 


मैं जब इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग कर रही थी, तभी एक ऐड के लिए ऑडिशन हो रहा था। ऑडिशन दिया और मुझे वो ऐड मिल गया। उसके होर्डिंग्स जगह-जगह लगाए गए। मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि उस ऐड से मुझे फिल्मों में काम मिलने वाला था। एक दिन मुझसे तेलुगू फिल्म डायरेक्टर पुरी जगन्नाधजी ने संपर्क किया। उन्होंने फिल्म 143 में मुझसे लीड रोल के लिए कहा। मैं तमिलनाडु गई। वहां ऑडिशन के तौर पर केवल लुक टेस्ट होता है। डायरेक्टर के मन में उनकी कहानी के अनुसार, अगर आपका लुक है और प्लॉट के हिसाब से आप ऐक्टिंग कर लेते हैं, तो आपकी आधी परेशानी खत्म। इसी तरह संजीव जी को फिल्म प्रणाम के लिए मेरे भीतर ‘मंजरी’ दिखी। इसमें मंजरी आईएएस की तैयारी करती है। ऐसी लड़की चुलबुली नहीं हो सकती। संजीव जी को मेरे अंदर वो गंभीरता दिखी, जिसकी उन्हें जरूरत थी। बस इसी तरह मुझे फिल्म में लीड हिरोइन का किरदार मिल गया। 



‘प्रणाम’ में दिख रहा है


रियल इंडिया : 


आज के दौर में हर कोई मसाला फिल्में बना रहा है या कर रहा है। उनमें कहानियां चलती हैं और आखिर में हीरो गे निकलता है या हिरोइन लेस्बियन निकल जाती है। फिल्मों में ढेर सारी सेक्सुआलिटी और रोमांस परोसा जा रहा है। सबने अलग कहानी देने के चक्कर में रियल इंडिया को भुला दिया है। फिल्में मसालेदार, तड़केदार सब्जी की तरह हो गई हैं। वहीं, फिल्म प्रणाम साधारण दाल-चावल है। जब आदमी तरह-तरह के व्यंजन खाकर ऊब जाता है तो उसे दाल-चावल भी अच्छा लगता है। इस फिल्म में कोई वीएफएक्स इस्तेमाल नहीं हुआ। सारे सीन्स लखनऊ की रियल लोकेशंस पर शूट हुए हैं। इसकी कहानी मध्यम वर्गीय परिवार की है। इसमें रियल इंडिया है।


पढ़ाई में नहीं लगा मन : 


मेरी साइंस और मैथ्स अच्छी है तो इस वजह से घरवालों ने मुझे बीटेक में एडमिशन दिलवा दिया था। उसी दौरान मुझे एक ऐड मिला फिर साउथ की मूवी भी मिल गई। उसके बाद ऐक्टिंग का सफर शुरू हो गया। मुझे क्रिएटिविटी पसंद है। मेरे पास सभी सेमेस्टर के रिजल्ट हैं पर आखिर में मैंने घरवालों को बोल दिया था कि आगे मुझे टीवी और फिल्मों में ही करियर बनाना है। इसलिए अब पढ़ाई नहीं कर पाऊंगी। उसके बाद से कॉलेज वाली पढ़ाई नहीं की लेकिन खाली समय में किताबें जरूर पढ़ती हूं। आज मैं अपने सपनों को जी रही हूं।



योगेश मिश्र, लखनऊ



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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश