Wednesday, 26 June 2019

सन् 75 से भी ज्यादा ख़राब अघोषित आपातकाल की स्थिति है ------ प्रोबीर पुरकायस्थ

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इमरजेंसी यानी आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास के काले दौर के तौर पर याद किया जाता है। 25 जून की आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल की घोषणा की थी। यह आपातकाल 26 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 तक रहा। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे और तमाम तरह के नागरिक अधिकारों को कुचल दिया गया था। ये दौर तो बुरा था ही लेकिन तमाम राजनीतिक दल और नागरिक समाज आज लोकतंत्र को लेकर पहले से भी ज़्यादा चिंतित है। कई लोगों का मानना है कि देश में पिछले करीब 5 साल से एक अघोषित आपातकाल की स्थिति है, जो सन् 75 से भी ज्यादा ख़राब है। और इसका पूरी मजबूती से सामना करने की ज़रूरत है।


* इंदिरा गांधी ने निलम्बित लोकतंत्र को सक्रिय करने का विकल्प चुनने का जो फैसला किया, वह आपातकाल थोपने से कहीं बड़ा फैसला था। शायद उसी फैसले के कारण जनता ने दंडित करने के बाद दोबारा उन्हें मौका दिया।
**गलत तरीके से चुनाव जीतकर आने की वजह से इंदिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द किया था जिसके बाद की घटना है आपातकाल। सवाल ये है कि गलत तरीके से चुनाव जीतने की कोशिशें क्या बंद हो गयी हैं? उद्योगपतियों से राजनीतिक चंदे को अपने नाम कर लेने की कोशिशें, मीडिया पर कब्जा जमाए रखना, सूचना और तकनीक के दूसरे साधनों का दुरुपयोग, चुनाव जीतने में बड़े पैमाने पर धन का इस्तेमाल, ईवीएम की हैकिंग और ईवीएम की स्वैपिंग को लेकर आशंकाएं जैसी बातें बताती हैं कि गलत तरीके से चुनाव जीतने के हथकंडे बढ़े हैं। इनकी पुष्टि के लिए किसी अदालत का फैसला आना भर बाकी है। अगर ऐसा होता है तो हुक्मरान आपातकाल से कोई अलग प्रतिक्रिया देगा, यह भी देखने की बात होगी।
***उत्तराखण्ड में गलत तरीके से हरीश रावत की सरकार बर्खास्त की गयी, कर्नाटक में गलत तरीके से वीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी, गोवा में सबसे बड़ी पार्टी के बजाए जोड़-तोड़ करने वाली पार्टी को सरकार बनाने का मौका दे दिया गया, मणिपुर में भी लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली घटनाएं घटीं। यह सिलसिला अगर नहीं रुक रहा है तो समझिए कि आपातकाल की जड़ें देश में मजबूत हैं और मजबूत हो रही हैं। 

****संसद भवन में ‘जय़ श्रीराम’ और ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारों का लगना बताता है कि आपातकाल प्रेमी रूप बदलकर न सिर्फ पैदा हो चुके हैं बल्कि खुद को मजबूत कर चुके हैं। मॉब लिंचिंग पर देश की संसद और विधानसभाओं की खामोशी भी यही बात डंके की चोट पर कह रही है। गोरखपुर के बाद मुजफ्फरपुर में बच्चों की लगातार मौत को आपदा मान लेने वाली सोच लोकतांत्रिक नहीं हो सकती। एक ही समय में रांची में प्रधानमंत्री की योग क्रीड़ा और मुजफ्फरपुर में मौत का तांडव बताता है कि देश में लोकतंत्र की संवेदनशीलता सो रही है।
***** बहुत आसान है कि आपातकाल की बरसी पर सारा ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ दिया जाए, उसे लोकतंत्र विरोधी घोषित कर दिया जाए। मगर, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 से पहले जनता पार्टी की सरकार समेत जितनी भी सरकारें बनीं वह कांग्रेस की कोख से निकली हुई सरकारें थीं। यहां तक कि बीजेपी जिस श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना आदर्श मानती है वह भी कांग्रेस की सरकार में मंत्री रह चुके थे। कहने का अर्थ ये है कि आपातकाल के बीज राजनीति पर वर्चस्व रखने वाली पार्टी में निहित होती है। वह कांग्रेस भी हो सकती है और कोई दूसरी पार्टी भी। 
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार )
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  संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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