Tuesday, 17 March 2015

पूंजी के बनावटी रिश्ते को अमान्य करना जायज ---सत्य नारायण त्रिपाठी

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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Tuesday, 10 March 2015

गांधी जी पर लांछन क्यों? --- विजय राजबली माथुर

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http://vijai-vidrohi.blogspot.in/2015/03/gandhi-british-agent-markandey-katju.html 

https://www.facebook.com/justicekatju/posts/933487810025099 
 हालांकि जस्टिस काटजू का यह कहना कि गांधी जी ने 'क्रांतिकारी आंदोलन' की धार कुन्द कर दी और अधिकांश क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई तो सही है परंतु 'भारत-विभाजन' के लिए उनको उत्तरदाई ठहराना उनके साथ अन्याय होगा एवं अप्रत्यक्ष रूप से RSS/भाजपा के गलत विचारों को प्रोत्साहन देना भी  । 1857 की प्रथम क्रान्ति का हश्र गांधी जी के समक्ष था कि किस प्रकार पारस्परिक फूट से उसे विफल किया गया था अतः 'अहिंसा और सत्याग्रह' का मार्ग अपनाना उनकी एक रणनीतिक सफलता थी । विभाजन तो अमेरिकी राष्ट्रपति आईजेन हावर की दुर्नीति के कारण सामने आया था जिसे कमजोर होते जा रहे ब्रिटिश साम्राज्य को भी मानना ज़रूरी हो गया था। 
 यह एक सुनिश्चित ब्राह्मणवादी विचार धारा है कि भारत के प्रतीक महा पुरुषों को बुरी तरह बदनाम कर के जनता को दिग्भ्रमित किया जाये। इसी कारण पौराणिक ग्रन्थों के जरिये 'राम' और 'कृष्ण' के चरित्रों पर लांछन लगाए गए दूसरी ओर उनको अलौकिक घोषित करके उनकी पूजा शुरू करा दी गई जिसके जरिये ब्राह्मणों को रोजगार मिल गया। शेष जनता उनके क्रांतिकारी विचारों से अनभिज्ञ होने के कारण लाभ न उठा सकी। आधुनिक युग में एक बार फिर गैर ब्राह्मण महा पुरुषों पर लांछन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है जिससे उन लोगों को लाभ पहुंचाया जा सके जो साम्राज्यवाद के पिट्ठू रहे हैं और इसी लिए त्याग,बलिदान करने वाले महा पुरुषों पर ये कीचड़ उछाले जा रहे हैं।

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=846099345452043&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1&theater
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जस्टिस काटजू जातिवाद पर चल कर गैर ब्राह्मण महा पुरुषों पर लांछन लगा रहे हैं। अब नेहरू जी को भी गांधी जी के विरुद्ध घसीट लिया है। महात्मा गांधी जी के साथ-साथ नेताजी सुभाष बोस को भी विदेशी एजेंट घोषित करके जस्टिस काटजू RSS के इतिहास पुनरलेखन का कार्य संपादित कर रहे हैं।

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Sunday, 22 February 2015

Stormtroopers of Kejriwal ---Markandey Katju

AAP workers should be made Special Officers


It seems to me that the biggest problem for Kejriwal now is not how to solve the problems of Delhi but how to control the hundreds of thousands of unruly white capped AAP workers, who are spread all over Delhi, and who all now claim to be its kings. Like the hundreds of thousands of stormtroopers ( S.A.) who helped Hitler come to power in January 1933, and then demanded their pound of flesh, the AAP stormtroopers will naturally demand the same, in some form or the other.
Hitler of course solved the problem by bumping of Ernst Roehm and the other top leadership of the S.A. in the ' Night of the Long Knives ', but poor Kejriwal can hardly do the same.
Most of the lumpen elements in Delhi ( and there are hundreds of thousands of them ) now seem to have joined AAP. They shift their loyalties quickly to whichever party comes to power.
In this situation I have a suggestion to make to Kejriwal : he should appoint all AAP workers as Honorary Special officers of Delhi.
These ' Special Officers ' need not be paid anything by the government. But they should be given the power to realize from the people of Delhi as much as they require, by whatever means they think best.

Wednesday, 18 February 2015

Nalini Jaywant (18 February 1926– 20 December 2010) ---Sanjog Waltar

Nalini Jaywant (18 February 1926– 20 December 2010) was an movie actress from Bollywood in the 1940s and 1950s.Jaywant was born in Mumbai (then Bombay) in 1926. She was first cousin of actress Shobhna Samarth, the mother of actresses Nutan and Tanuja.Since 1983, she had been living mostly a reclusive life.
She was married to director Virendra Desai in the 1940s. Later, she married her second husband, actor Prabhu Dayal, with whom she acted in several movies.
Nalini Jaywant died on 20 December 2010, aged 84, at her bungalow of 60 years at Union Park,Chembur, Mumbai.Mystery surrounds the 'death' of yesteryear actress Nalini Jaywant who passed away three days ago (2010) in tragically lonely circumstances at her bungalow in Chembur. Her relatives and those she had once worked with in the film industry were all unaware of the passing of the star who scaled the heights of fame in the 1940s and '50s but had turned into a complete recluse for the last many years. The house is locked and in complete darkness for the past three days, the servants have gone, and Naliniji's pet dogs are on the streets. We neighbours have been taking care of them."n her teens, appeared in Mehboob Khan's Bahen (1941),a film about a brother's obsessive love for his sister. The movie had strong shades of incest. She performed in a few more movies before filming Anokha Pyaar (1948). In 1950, she garnered fame when she became a top star with her performances opposite Ashok Kumar in Samadhi and Sangram. Samadhi was a patriotic drama concerning Subash Chandra Bose and the Indian National Army.Although the leading movie magazine of the day, Film India, called it "politically obsolete", it enjoyed success at the box office. Sangram was a crime drama in which Nalini played the heroine reforming the anti-hero. She and Ashok Kumar performed together in other films, such as Jalpari (1952), Kafila (1952), Nau Bahar (1952), Saloni (1952), Lakeeren (1954), Naaz (1954), Mr. X (1957), Sheroo (1957) and Toofan Mein Pyar Kahan (1963).
Nalini remained an important leading actress through the mid-1950s, appearing in such films as Rahi (1953), Shikast (1953), Railway Platform (1955)), Nastik (1954), Munimji (1955), and Hum Sab Chor Hain (1956). The 1958 film, Kala Pani, directed by Raj Khosla, was Nalini's last successful movie, for which she won the Filmfare Best Supporting Actress Award. Bombay Race Course (1965) was the last film she made, aside from a 1983 film appearance


W B C F :
https://www.facebook.com/sanjog.walter/posts/1039066996119583?pnref=story 

Wednesday, 11 February 2015

यज्ञ का रथ - घोडा उनके ही अंश ने रोका था किसी और ने नहीं ।। तब भी और अब भी ------- अरविन्द विद्रोही

Arvind Vidrohi 59 mins · शुभ संध्या -- मित्रों - मित्रानियों:
https://www.facebook.com/arvind.vidrohi/posts/818892338147018
 दिल्ली विधानसभा का चुनावी परिणाम आने के पश्चात् टी वी पर चर्चाओं में , अख़बारों में और सोशल मीडिया में हर जगह एक बात जरुर इंगित हुई कि नरेन्द्र मोदी - भाजपा के अश्वमेघ यज्ञ का रथ / घोडा दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल - आआपा ने रोक लिया । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी बरबस बोल ही पड़े कि दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने मोदी को सबक सिखाया और हम अब उत्तर प्रदेश में बड़ा दांव देंगे ,पटखनी देंगे । शायद अखिलेश यादव यह भूल गए हैं कि दिल्ली विधानसभा चुनाव से बड़ी विजय समाजवादी पार्टी उनके युवा नेतृत्व में 2012 के आम विधान सभा चुनाव में हासिल कर चुकी है । कुछ समाजवादियों का तो मानों भाग्य उदय हो गया हो दिल्ली में आआपा की जीत से । बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार से लेकर दिल्ली की सड़क तक बिहार के जनता दल यू विधायकों को मानो बगल में दबाये भ्रमण कर रहे हैं , उनको बहुत भय है कि तनिक से ढील हुई तो जो किसी तरह सहेजे हैं वो भी मटियामेट हो जायेगा । लेकिन वे दुसरे पर हर तरह का आरोप लगाने से नही चूक रहे हैं । पुनः बिहार का मुख्यमंत्री बनने के पुरे प्रयास में लगे नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू इस बार दिल्ली में एक भी सीट पर चुनाव नही लड़ी जबकि उनका संगठन भी है और पिछले चुनाव में लडे जीते भी थे । लेकिन बिहार में जीतन राम मांझी के कुर्सी छोड़ने के इंकार से उठे दर्द को तनिक राहत देने के लिए दवा दिल्ली में भाजपा की करारी शिकस्त ने नीतीश कुमार को दे ही दिया । और नीतीश कुमार कहते भी हैं -- दिल्ली ने मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश दिया है ।। एक बात तो सभी के सामने है कि आआपा को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ दिल्ली में और अगर नीतीश कुमार सहित तमाम नेताओं को लगता है कि यह दिल्ली का जनादेश नरेन्द्र मोदी के खिलाफ , केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ पुरे देश का मन है तो क्या यह सत्य नही है कि यह जनादेश अरविन्द केजरीवाल - आआपा को हासिल हुआ है और कांग्रेस को तो बिलकुल ही ख़ारिज कर दिया जनता ने । और अगर दिल्ली का यह जनादेश पुरे देश की जनता के मन को प्रदर्शित करता है तो इस तथ्य को कहने मानने वाले समस्त नेताओं को निश्चित रूप से अब अरविन्द केजरीवाल -- आआपा का नेतृत्व स्वीकारना चाहिए । क्यूंकि इन सभी बधाई पर बधाई प्रेषित करने वाले सभी सामाजिक न्याय के समाजवादी पुरोधाओं की दृष्टि में दिल्ली की भाजपा की करारी हार से मोदी का घमंड टुटा और उनके झूठे वायदों की कलई खुली । खैर हार जीत के कारण के विश्लेषण में न जाकर मैं जनता परिवार के धुरंधरों का ध्यान आआपा नेता योगेन्द्र यादव के कथन कि अब हम पुरे देश में भाजपा मोदी विरोधी दलों को एकजुट करेंगे की तरफ आकृष्ट कराना चाहता हूँ । क्या जनता परिवार के आपके एकीकरण का प्रयास निष्फल हो चुका है ?? 

 अब बात हो अश्वमेघ यज्ञ के रथ / घोड़े की । दिल्ली चुनाव परिणाम के बाद यह उदाहरण अनवरत जारी है सो मेरा भी हस्तक्षेप जरुरी ही है । यह उदाहरण आया अयोध्या के सूर्यवंशी राजा रामचंद्र के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान तत्कालीन परंपरा अनुसार छोड़े गए रथ को दो वनवासी बालक लव एवं कुश के द्वारा अपनी बाल सुलभ चंचलता के कारण रोक लेने से । लंका विजय के पश्चात् वनवासी राम से अयोध्या के राजा बने राम के अनुज लक्ष्मण ,हनुमान सहित सम्पूर्ण वीर अपनी अपनी शक्ति में चूर थे । बाल सुलभ चंचलता में , अश्व - रथ पसंद आने के कारण रथ को रोक चुके लव - कुश से अयोध्या के राजा राम के शक्ति मद में चूर वीर हारे , घायल हुए और मुँह की खाए । अश्वमेघ यज्ञ का रथ घोडा दो वीर बालकों ने रोका था । वे वनवासी बालक थे , अपनी माँ के साथ ऋषि के आश्रम में रहते थे । स्वाभाविक था तमाम वीरों को शिकस्त देने के पश्चात् माँ और ऋषि गुरु को सूचित करना ।। अंत में अब होता क्या है ? ऋषि अश्वमेघ यज्ञ का रथ घोडा देखकर वीर लव कुश को बताते हैं कि यह तो तुमने गलत किया । यह तो उनका रथ है जिनके तुम अंश हो । यह अश्वमेघ यज्ञ का रथ घोडा तो अयोध्या के सूर्यवंशी राजा राम का है और इसे छोड़ दो । यह यज्ञ पूरा होना अति आवश्यक है और ऋषि गुरु के आदेश को शिरोधार्य करते हुए वीर लव- कुश अश्वमेघ यज्ञ के रथ - घोड़े को छोड़ देते हैं । तत्कालीन कथा के अनुसार ही लव - कुश के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के इस रथ - घोड़े को पकड़ कर फिर छोड़ने के पश्चात् किसी ने भी उस वक़्त अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को पकड़ने की चेष्टा नही की थी । लंका विजय करने वाले सभी वीरों का गर्व भी चकनाचूर हुआ , अयोध्या के राजा राम के वनवासी पुत्रों लव - कुश का बाहुबल भी स्थापित हुआ और अश्वमेघ यज्ञ भी पूरा हुआ ।। तो दिल्ली के चुनावी परिणामों के पश्चात् अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की उपमा से क्या समझा जाये ? पत्रकारों की कलम ने भी अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े का जिक्र किया और श्री मुख ने भी । समाजवादियों ने भी खूब यह बात दोहराई तो क्या अब भी यह बात आप के समझ में न आई कि जब चर्चा अश्वमेघ यज्ञ के रथ घोड़े को रोकने की होगी तो ध्यान देना चाहिए कि रथ रूका तो परन्तु क्या रूका ही रहा ? और रथ रोका किसने था उस युग में भी और इस युग में भी ?? रथ रुका तो पर छोड़ने के पश्चात् अयोध्या के राजा राम का अश्वमेघ यज्ञ सकुशल विधिवत पूरा भी हुआ और रथ - घोडा रोककर ख्याति अर्जित करने वाले वीर बालक लव - कुश अयोध्या समारोह में शामिल भी हुए और कालांतर में अयोध्या के शासक भी हुए । और यह उदाहरण पेश करने वालों को क्या यह कथा ज्ञात नही थी ? अगर नही थी तो जान लीजिये कि अयोध्या के राजा राम के अश्वमेघ यज्ञ का रथ - घोडा उनके ही अंश ने रोका था किसी और ने नहीं ।। तब भी और अब भी
 ------- अरविन्द विद्रोही

Wednesday, 28 January 2015

सुमन कल्याणपुर : संगीत-राजनीति का निर्मम शिकार --- ध्रुव गुप्त






 जन्मदिन पर  विशेष -----
साभार : 

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यूं ही दिल ने चाहा था रोना रुलाना
तेरी याद तो बन गई एक बहाना !


सुमन कल्याणपुर, मुबारक बेगम और शमशाद बेगम हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की उन बेहतरीन गायिकाओं में थीं जो अपनी आवाज़ और अदायगी की बेपनाह नेमतों के बावजूद उस दौर की संगीत-राजनीति का निर्मम शिकार हो गईं| सुमन जी की रेशमी, कांपती आवाज़ रूमानी और विरह गीतों के लिए सबसे उपयुक्त आवाज़ थी, लेकिन उन्हें अपना जादू चलाने के पर्याप्त मौके नहीं मिले| उन्होंने लता जी और आशा जी की तुलना में बहुत कम गीत गाए, लेकिन बावजूद इसके उनके पचासों गीत हमारी अनमोल संगीत-धरोहर का मूल्यवान हिस्सा है |1954 में अपनी फिल्मी पारी की शुरूआत करने वाली सुमन जी के कुछ कालजयी एकल और युगल गीत हैं - न तुम हमें जानो न हम तुम्हें जानें, दिल गम से जल रहा है जले पर धुआं न हो, यूं ही दिल ने चाहा था रोना रुलाना, मेरे महबूब न जा आज की रात न जा, बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों मुहब्बतों के दीये जला के, तुम अगर आ सको तो आ जाओ, सावरिया रे अपनी मीरा को भूल न जाना, ज़िंदगी ज़ुल्म सही ज़बर सही गम ही सही, इतने बड़े ज़हां में अपना भी कोई होता, जूही की कली मेरी लाडली, बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है, शराबी शराबी ये सावन का मौसम, तुम्ही मेरे मीत हो, ना ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे, अजहू न आए बालमा सावन बीता जाए, तुमने पुकारा और हम चले आए, चुरा ले न तुमको ये मौसम सुहाना, दिल ने फिर याद किया बर्क सी लहराई है, अंखियों का नूर है तू अंखियों से दूर है तू, आपसे हमको बिछड़े हुए एक ज़माना बीत गया, आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जुबान पर, दिल एक मंदिर है, इतना है तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार, तुझे प्यार करते हैं करते रहेंगे, मेरा प्यार भी तू है ये बहार भी तू है !

जन्मदिन पर सुमन कल्याणपुर के लंबे, स्वस्थ और सृजनात्मक जीवन की शुभकामनाएं !

Friday, 23 January 2015

राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय धन का समान बंटवारा हो --- नेताजी सुभाष चंद्र बोस

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 8 January 2015

मीठी-मीठी बातों से बचना :Nanda

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Nanda was born in a Maharashtrian 8 January 1938 show-business family to Vinayak Damodar Karnataki (Master Vinayak), a successful Marathi actor-director. Her father died when Nanda was a child. The family faced hard times. She became a child artiste and helped them by working in films like Jaggu in the early 1950s. She was tutored at home by renowned schoolteacher and Bombay Scouts commissioner, Gokuldas V. Makhi. Her brother is Marathi film director Jaiprakash Karnataki and Jayashree Talpade is her sister-in-law.
Nanda's paternal uncle V. Shantaram gave Nanda a big break by casting her in a successful brother-sister saga Toofan Aur Diya (1956). She received her first Filmfare Award nomination as Best Supporting Actress for Bhabhi (1957); she claims that the reason she didn't win was because there was lobbying involved. She then played supporting roles to stars like Dev Anand in Kala Bazar, and did small roles in big films like Dhool Ka Phool.
She played the title role in L.V. Prasad's Chhoti Bahen (1959). The movie was a big hit, making her a star. She then played lead roles, such as one of Dev Anand’s heroines in Hum Dono (1961) and Teen Deviyan. Both films were acclaimed as 'hits'. She was the heroine in B R Chopra's Kanoon (1960), a film that was very unusual back then, because it had no songs. She won the Filmfare Best Supporting Actress Award for Anchal (1960).
Nanda was known to encourage newcomers. She signed 8 films with Shashi Kapoor at a time when he was yet to become successful in Hindi Cinema. Their first 2 films as a pair - the critically acclaimed romantic film Char Diwari (1961) and "Mehndi Lagi Mere Haath" (1962) - did not work but the rest were successful at the box office. Shashi, who though had achieved success in English films in 1963 and in 2 Hindi films in 1965, had 5 flops as solo lead hero from his debut in 1961 till 1965 in Hindi films. In Jab Jab Phool Khile (1965), Nanda played a westernised role for the first time and it helped her image. Her favorite song that was famously picturized on her in the film was "Yeh Samaa." Shashi would later declare that Nanda was his favorite heroine. Nanda, too, declared Kapoor as her favourite hero. In early seventies, it was Nanda who suggested Rajendra Kumar, co-producer of The Train, to take Rajesh Khanna as the main lead.
A poster of the Hit film Jab Jan phhol khile starring Nanda and Shashi kapoor
She had another hit film in 1965 with Gumnaam, which helped put her in the top league of heroines.With Manoj Kumar, she further worked in Mera Kasoor Kya Hai. She played heroine roles throughout the 1960s but offers dried up in early 70s. She signed with new leading man Rajesh Khanna in the songless suspense thriller Ittefaq (1969) for which she received a Filmfare nomination as Best Actress. After Khanna became a super-star, he signed two more films with her: the thriller The Train (1970) and a comedy Joroo Ka Ghulam (1972) which became hits. Jeetendra, too, had some hit films with her like Parivar, Dharti Kahe Pukarke Ke; with Sanjay Khan, she had a hit in Beti.
After a small role in Manoj Kumar's Shor (1972), Nanda did few more films such as Chhalia (1973), Naya Nasha (1974), which flopped and she then stopped acting. In 1982, she came back with three successful films, all coincidentally having her play Padmini Kolhapure's mother in Ahista Ahista, Mazdoor and Raj Kapoor's Prem Rog. Then she permanently retired from acting career.
She died in Mumbai on 25 March 2014 at her Versova residence, aged 75, following a heart attack,



Sunday, 4 January 2015

प्रेम और विरह के यशस्वी गीतकार गोपाल दास नीरज ----- ध्रुव गुप्त


जन्मदिन / नीरज (4 जनवरी):
फूलों के रंग से, दिल के कलम से तुझको लिखी रोज पाती !
प्रेम और विरह के यशस्वी गीतकार गोपाल दास नीरज के गीतों के श्रृंगार ने कभी हमारे युवा सपनों को आसमान और परवाज़ बख़्शा था। उनके गीतों में बड़ी खामोशी से चीखती विगत प्रेम की वेदना और टीस कभी हमारी नम आंखों के लिए रूमाल हुआ करती थी। हिंदी कविता के पूर्वग्रहग्रस्त वामपंथी आलोचकों द्वारा निरंतर हाशिए पर रखे गए नीरज जी ने हिंदी गीतों और ग़ज़लों को समृद्ध करने के अलावा मेरा नाम जोकर, गैम्बलर, तेरे मेरे सपने, पहचान, नई उमर की नई फसल, पतंगा, चा चा चा, दुनिया, शर्मीली, प्रेम पुजारी, छुपा रुस्तम जैसी फिल्मों के गीतों को जो तेवर, कोमलता, विचार और संस्कार दिए, वह अभूतपूर्व था। अगाध प्रेम और शाश्वत विरह के इस महाकवि के जन्मदिन पर उनके लंबे और सृजनशील जीवन की अशेष शुभकामनाएं, उन्हीं की पंक्तियों के साथ !

 "प्यार अगर थामता न पथ में ऊंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता !

मन तो मौसम सा चंचल है, सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का कभी शाम का, अभी रुदन का अभी हंसी का
और इसी भौरे की गलती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता, पूरा खेल दुबारा होता !

हर घर-आंगन रंगमंच है, औ' हर एक सांस कठपुतली
प्यार सिर्फ वह डोर कि जिसपर नाचे बादल, नाचे बिजली
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूंगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता !
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