मेरा रँग दे बसन्ती चोला...मेरा रँग दे बसन्ती चोला...
"काकोरी काण्ड 9 अगस्त 1925" जिस लखनऊ जेल में पण्डित राम प्रसाद
'बिस्मिल' ने मेरा रँग दे बसन्ती चोला.... जैसी यादगार नज्म लिखी वो लखनऊ
जेल मायावती सरकार में तोड़ दी गयी,अंग्रेजों के "नाच घर" यानी आज के
"जीपीओ"में क्रान्तिकारियों पर मुकद्दमा चला,उसे धरोहर घोषित करने की
मांग की जाती रही है,जो अब तक पूरी नहीं हुई.पण्डित जगतनारायण मुल्ला
सरकारी वकील ने क्रान्तिकारियों पर चले
मुकद्दमे की पैरवी की उनके नाम पर अंग्रेजी हुकूमत ने लखनऊ में एक सड़क को
नाम दिया "जगतनारायण रोड" जो आज भी कायम है,काकोरी स्मारक बदहाली का शिकार
हो चुका है,आइये अब क्रान्तिकारियों को श्रधान्जली दें.
भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के
आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर
शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का
खजाना लूटने की योजना बनाई।इस योजना को अंजाम देते हुए राजेन्द्रनाथ
लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी आठ
डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन को चेन खींच कर रोक लिया और
क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर
आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया।
बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन
के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड के नाम पर सम्राट के विरुद्ध
सशस्त्र युद्ध छेड़ने,सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का
मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,
अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई। इस मुकदमें
में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम
काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया। हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र
संघ की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के
दोनों नेता- शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये
जब वे यह इश्तहार अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार
योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन
पर ट्रेन से उतरे कि एच०आर०ए० के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ
पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख
नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर उत्तर
प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ
गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और
यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी
के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो वह आवश्यकता और भी
अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925
को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं
तो परन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका। इन दोनों डकैतियों
में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक
कष्ट हुआ। आखिरकार उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी
खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न
डालेंगे। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर की फोटो ऐसे चार माउजर इस ऐक्शन
में प्रयोग किये गये थे। 8 अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई
इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और अगले ही दिन 9 अगस्त 1925
को शाहजहाँपुर शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग,
जिनमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा
तथा बनवारीलाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव
चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवम्
औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे, 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर
रेलगाड़ी में सवार हुए। इन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त
जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी
आटोमेटिक रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता
था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की
ए०के०-47 रायफल की तरह चर्चित हुआ करते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे
स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर
उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया।
पहले तो उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला
खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा
तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रैगर दबा दिया
जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो
गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में
बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के
माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती
को गम्भीरता से लिया और सी०आई०डी० इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व
में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और तहकीकात करके
बरतानिया सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती
क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के
सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को
गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों
पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में
लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी
व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर
बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती
का सारा भेद प्राप्त कर लिया। पुलिस को उससे यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त
1925 को शाहजहाँपुर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर
से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पूरी
पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद 'बिस्मिल', जो हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ
(एच०आर०ए०) का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो 26 सितम्बर 1925 की रात
में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 लोगों को गिरफ्तार कर लिया
गया। आगरा से चन्द्रधर जौहरी,चन्द्रभाल जौहरी,इलाहाबाद से शीतला
सहाय,ज्योतिशंकर दीक्षित,भूपेंद्रनाथ सान्याल,उरई से वीरभद्र तिवारी,बनारस
से मन्मथनाथ गुप्त,दामोदरस्वरूप सेठ,रामनाथ पाण्डे,देवदत्त
भट्टाचार्य,इन्द्रविक्रम सिंह,मुकुन्दी लाल,बंगाल से शचीन्द्रनाथ
सान्याल,योगेशचन्द्र चटर्जी,राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,शरतचन्द्र गुहा,कालिदास
बोस,एटा से,बाबूराम वर्मा,हरदोई से,भैरों सिंह, जबलपुर से प्रणवेश कुमार
चटर्जी,कानपुर से रामदुलारे त्रिवेदी,गोपी मोहन,राजकुमार
सिन्हा,सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य,लाहौर से मोहनलाल गौतम,लखीमपुर से हरनाम
सुन्दरलाल, लखनऊ से गोविंदचरण कार,शचीन्द्रनाथ विश्वासमथुरा से,शिवचरण लाल
शर्मा मेरठ से, विष्णुशरण दुब्लिश,पूना से रामकृष्ण खत्री,रायबरेली से,
शाहजहाँपुर से, रामप्रसाद बिस्मिल, बनारसी लाल,लाला हरगोविन्द,प्रेमकृष्ण
खन्ना,इन्दुभूषण मित्रा, ठाकुर रोशन सिंह, रामदत्त शुक्ला,मदनलाल,रामरत्न
शुक्ला दिल्ली से, अशफाक उल्ला खाँ,प्रतापगढ़ से शचीन्द्रनाथ बख्शी,40
व्यक्तियों में से तीन लोग शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में, योगेशचन्द्र
चटर्जी हावडा में तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बम विस्फोट मामले
में कलकत्ता से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दो लोग अशफाक उल्ला खाँ और
शचीन्द्रनाथ बख्शी को बाद में तब गिरफ्तार किया गया जब मुख्य काकोरी
षड्यन्त्र केस का फैसला हो चुका था। इन दोनों पर अलग से पूरक मुकदमा दायर
किया गया। काकोरी-काण्ड में केवल 10 लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे,
पुलिस की ओर से उन सभी को भी इस केस में नामजद किया गया। इन 10 लोगों में
से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक
उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ
नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के
नाम से ऐतिहासिक मुकदमा चला और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की
सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच० आर०
ए० का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से
16 को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्टेट
ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं
रक्खी और केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व
गवाह एकत्र कर लिये थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई अपील भी
की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये। लखनऊ जेल में काकोरी
षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का
त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के
दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे।
उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये
कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।" अगले दिन कविता
तैयार थी मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....इसी
रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप
ने घोला;नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,किस मस्ती से पहन के
निकला यह बासन्ती चोला। मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती
चोला....भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में
ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं: इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम्"
बोला, यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;इसी रंग को हम मस्तों ने, हम
मस्तों ने;दूर फिरंगी को करने को, को करने को;लहू में अपने घोला। मेरा रँग
दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....माय! रँग दे बसन्ती
चोला....हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....मेरा रँग दे बसन्ती चोला....राम
प्रसाद 'बिस्मिल' की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत
जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल
आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह
रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी । सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे
दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है ! वक़्त आने दे बता
देंगे तुझे ऐ आसमाँ ! हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है ! खीँच
कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल
में है ! ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का
चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है ! अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ! पाँच फरार
क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्र नाथ बख्शी को
भागलपुर से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे
का फैसला सुनाया जा चुका था। स्पेशल जज जे० आर० डब्लू० बैनेट की अदालत में
काकोरी-काण्ड का पूरक मुकदमा दर्ज हुआ और 13 जुलाई 1927 को इन दोनों पर भी
सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को
फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज
के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी।
चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा
के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का
काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी०
दत्त,जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,
ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने
अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम
का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर
दिया। बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के
खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस
पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा -
राम प्रसाद ! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ? इस पर
बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था-"एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग
मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री ।" काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा
था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे।
उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह"मुलाजिम" शब्द बोल दिया।
फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती
कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम
यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;कि हमने
आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि
मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं।
वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें।
साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरें अपने दुस्साहस से पलटने का
दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी
हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने
कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर
उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल! बिस्मिल
द्वारा की गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गयी। मुल्ला जी ने
सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। अतएव अदालत ने
बिस्मिल की18 जुलाई 1927 को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी।
उसके बाद उन्होंने 76 पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर
जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी
विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस
करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी
अदालत और सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि
अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप
से मुकदमा हार जाती। 22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम
प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई०पी०सी० की
दफा 121(ए) व 120 (बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा 302 व 396 के अनुसार
फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में 5,5 कुल 10 वर्ष की कड़ी
कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल,
जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए
भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे
चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई
भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट
की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने
अपील नहीं की और दोनों को 5,5 वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट
में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण
कार की सजायें 10-10 वर्ष से बढाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र
भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत् (7-7 वर्ष) रहीं।
खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की
सजा को 5 वर्ष से घटाकर 4 वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (3
वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा
गया, की सजा बढाकर 14 वर्ष कर दी गयी,अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर
दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने
सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड
प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का
प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस
समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र
भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उसने उस प्रार्थना
को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय
व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त
मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पं० मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली
जिन्ना, एन० सी० केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने
हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।इसके बाद मदन
मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला
जाकर वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो
अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में
इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर
पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार
किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया। अन्ततः
बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के
दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस० एल० पोलक के पास
भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस
पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद 'बिस्मिल' बड़ा ही
खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में
इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में बरतानिया सरकार को
हिन्दुस्तान में हुकूमत करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि
प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।
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