Wednesday, 17 December 2014

माओवादी भाजपा की मदद कर रहे हैं -----Jagadishwar Chaturvedi

''अभद्र वामलेखकों'' का कुवाम-खेल

                     
            मैं रायपुर साहित्यमेला में शामिल क्या हुआ,हिन्दी के ''अभद्र वामलेखक'' बागी हो गए! जो लेखक रायपुर गए उनके बारे में फेसबुक पर ये ''अभद्र वामलेखक'' अतार्किक और असभ्य बातें लिखने लगे,  असद जैदी-मंगलेश डबराल आदि ने तो लेखकीय गरिमा को नरक के हवाले कर दिया !सारी शिष्टता-भद्रता की सीमाएं तोड़ दीं। फेसबुक पर गालियां दीं,अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया। हम बलिहारी हैं उन महान सभ्य जनवादी लेखकों के जिन्होंने इस तरह की असभ्यता को अपनी फेसबुक वॉल पर प्रश्रय दिया,प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष समर्थन दिया !!
     गालियां देना,अश्लील,अशालीन भाषा में लिखना ''अभद्र वामलेखकों '' की विशेषता है। इस '' अभद्र वामलेखकों '' के सहयोगी हैं ''भद्रवाम लेखक'', जो ''अभद्रलेखकों'' की अभद्रता को मौन समर्थन दे रहे हैं। फेसबुक पर अभद्रता का 'वाम-खेल' असल में वाम के लिए नुकसानदेह साबित हुआ है । इससे हिन्दी लेखकसमाज कलंकित हुआ है।   ''अभद्र वामलेखक'' ,अपनी 'कु-कलम' से रायपुर साहित्य मेला में शामिल होने वाली मैत्रेयी पुष्पा,रमणिका गुप्ता आदि को सरेआम अपमानित कर रहे हैं । जो लेखक रायपुर गए उनमें से अधिकांश का लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष लेखन में महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें से अधिकांश का साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ लेखन के स्तर पर शानदार रिकॉर्ड  है । किसी भी लेखक ने रायपुर साहित्य मेला में आरएसएस और उसकी विचारधारा का पक्ष नहीं लिया,किसी के पैनल में कोई संघी लेखक शामिल नहीं था,तकरीबन सभी बड़े लेखकों ने खुले तौर पर अपनी बातें कहीं,संघ की भी आलोचना की।  इससे भाजपा और संघ को वैधता नहीं मिलती। बल्कि हमारा यह मानना है कि लेखकों को देश में सभी स्थानों पर बोलने-लिखने और प्रतिवाद करने की आजादी होनी चाहिए और जहां पर यह आजादी नहीं है या बाधित होती है वहां पर प्रतिवाद किया जाना चाहिए।  
    किसी भी साहित्यिक आयोजन में आना-जाना लेखक का लोकतांत्रिक हक है, इस हक को कुत्सा प्रचार के जरिए छीनने का किसी को हक नहीं है।लेखक की विचारधारा कुछ भी हो ,लेकिन लोकतंत्र में लेखक के हकों को छीनने या उस पर हमला करने का किसी को हक नहीं है, जिस तरह लोकतंत्र में प्रतिवाद करने का हक है ,उसी तरह लोकतंत्र में शिरकत करने और शिरकत करके प्रतिवाद करने का भी हक है।
    शिरकत करके प्रतिवाद करना लोकतंत्र का आदर्श प्रतिवादी रुप है,इसके आदर्श हैं संसद और मजदूर आंदोलन। मसलन् ,संसद में विभिन्न दलों के सांसद शिरकत करके प्रतिवाद करते हैं,मजदूर आंदोलन में आरएसएस के मजदूर संगठन के साथ वाम मजदूर संगठन मिलकर प्रतिवाद करते हैं, वे जब मिलकर प्रतिवाद करते हैं तो यह नहीं सोचते कि संघ फासिस्ट है, उसके संगठन के साथ मिलकर लडाई नहीं लड़ेंगे। हाल ही में कई देशव्यापी हड़तालें वाम मजदूर संगठनों ने संघ संचालित भारतीय मजदूर संघ के साथ मिलकर की हैं।
   सवाल यह है  संघ के मजदूर संगठन के साथ वाम क्यों जाता है ? कम से कम हमारे लेखकों को संसद और मजदूर आंदोलन से सीखना चाहिए कि किस तरह अपने से भिन्न विचारधारा के लोगों के साथ आचरण करें ।वाम मजदूर संगठन कभी संयुक्त लड़ाई में अन्य संगठन के शामिल न होने पर उस पर  हमले नहीं करते। उस संगठन के नेता का चरित्रहनन नहीं करते, गालियां नहीं देते। लेकिन अफसोस है ये ''अभद्र वामलेखक'' गालियां देते हैं, गालियां लिखते हैं,लेखक का अपमान करते हैं। गालियां देना ,अपमान करना लेखक की नहीं, लंपटों की प्रवृत्ति है। मैं कई सालों से फेसबुक पर हूँ और असदजैदी-मंगलेश डबराल की तरह कभी असभ्यभाषा का किसी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया। मैं हमेशा सम्मान के साथ पेश आता हूँ और संवाद करता हूँ। अपने विरोधी का सम्मान करना और उसके साथ शिरकत करना,यह मैंने जेएनयू में राजनीति करते हुए सीखा। लेकिन दुर्भाग्यजनक है कि असदजैदी टाइप "असभ्यलेखक" जेएनयू में रहकर भी सभ्यता नहीं सीख पाया, उसने वहां से गालियां सीखीं ,अहंकार में रहना सीखा, मेल-मिलाप की संस्कृति की बजाय असभ्यभाषा का सार्वजनिक मीडियम में प्रयोग करना सीखा। मैं असद जैदी को उस समय से जानता हूँ वह जब जेएनयू में एमए उर्दू में पढ़ते थे, वे जिस संगठन के सदस्य थे ,मैं उसकाअध्यक्ष हुआ करता था और यह नेतृत्व मैंने अवसरवादी तरीकों से नहीं बल्कि संघर्षों में शिरकत करके हासिल किया था। जनाब मंगलेश डबराल को मैं लेखक के नाते जानता हूँ लेकिन असभ्यलेखक के रुप में मैंने उनको पहलीबार फेसबुक पर रायपुर मेले के प्रसंग में देखा है। मंगलेश डबराल जिस तरह के लेखक हैं,उनका असभ्य आचरण अक्षम्य अपराध है,मैं आसानी से असद जैदी-मंगलेश डबराल टाइप लेखकों को गालियां दे सकता हूँ ,लेकिन मजबूर हूँ कि मैं असभ्य नहीं हूँ। असभ्य होना आसान है,सभ्य होना और आचरण में  सभ्यता को बचाए रखना बेहद मुश्किल काम है।मंगलेश डबराल-असद जैदी टाइप लेखक जब गालियां देने लगें तो समझो कहीं बहुत गहरे तक लंपटसमाज ने हमारे लेखकों को अपनी असभ्यता से प्रभावित कर लिया है। हमें इस समस्या की जड़ों को खोजना चाहिए।
    लेखक के नाते हम ध्यान रखें फेसबुक बेहद ताकतवर माध्यम है,यह कम्युनिकेशन का माध्यम है, यह असामाजिकता और लंपटई का माध्यम नहीं है। जिन असभ्य लेखकों को असभ्यता दिखाने की आदत है वे जरा प्रिटमीडिया में किसी लेखक पर गालियां लिखकर दिखाएं ,मैं फिर कह रहा हूँ मंगलेश डबराल-असद जैदी जैसे लेखक किसी अखबार में किसी लेखक को गालियां लिखकर दें . फिर देखते हैं उस संपादक की क्या गति होती है और इन कलमलंपटों का क्या हश्र होता है ! फेसबुक पर असभ्यभाषा में लिखना सामाजिक अपराध है।
              ''अभद्र वाम लेखक'' की लाक्षणिक विशेषता है  वह न तो मजदूरों से सीखता है और न बुर्जुआजी से सीखता है, उसका प्रेरणा स्रोत तो लंपटसमाज है। लंपटसमाज में गालियां देना अलंकार है,शेखी बघारना ,अहंकार में रहना, अन्य लेखकों को हेय दृष्टि से देखना, असभ्य भाषायी पदबंधों में गरियाना उसकी नेचर है। फतबे जारी करना,कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है,यह तय करना वस्तुतः लंपटसमाज से उधार ली गयी साहित्यिक दादागिरी है। लंपटसमाज में लंपटों के छोटे-छोटे समूह होते हैं और वे तय इलाकों में सक्रिय रहते हैं। ठीक यही दशा''अभद्र वाम लेखकों'' की है। ''अभद्र वाम लेखक'' अपने लघुसमाज को 'साहित्य समाज'कहते हैं, असल में यह साहित्य समाज न होकर ''लंपट साहित्य समाज'' है , दलाली ,अवसरवाद,चमचागिरी इसके सामान्य लक्षण हैं। इन ''अभद्र वामलेखकों'' को सहज ही कांग्रेस -भाजपा के नेताओं के चैम्बरों में राजनीतिक चरण चुम्बन लेते सहज ही देखा जा सकता है। यहां तक प्रमाण है कि इण्डियन एक्सप्रेस की एक जमाने में हड़ताल तुड़वाने में ये ''अभद्रवामलेखक'' अग्रणी भूमिका निभा चुके हैं।
   दुखद बात यह है कि ''वाम अभद्रलेखक'' जब गाली देते हैं तो ''भद्र वामलेखक''चुपचाप रहते हैं, गालियां सुनकर चुप रहना,गाली देने वाले की निंदा न करना भी प्रच्छन्न अभद्रता है। ये वे लोग हैं जो लेखक संघ चला रहे हैं!  हम अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि यह कौन सा जनवाद है जो लेखकों को गाली देने को प्रश्रय देता है। अपमानित करने को महानता समझता है।लेखकों पर निजी हमले की रक्षा में यदि लेखक संघ के नेतागण खड़े रहेंगे तो यह तय है कि इससे जनवादी लेखक संघ-प्रगतिशील लेखक संघ भी कलंकित होंगे। मेरा जनवादी लेखक संघ में काम करने का शानदार रिकार्ड रहा है ,स्थापना के समय मैं जेएनयू शाखा का सचिव था, कोलकाता आने पर कोलकाता जिला सचिव रहा हूँ,इस संगठन को लाखों रुपये चंदा भी एकत्रित करके दिया है,पचासों लेखकों को इस संगठन से जोड़ा है। लेकिन मैंने कभी अपनी आँखों के सामने किसी लेखक को अपमानित नहीं होने दिया। किसी को असभ्यता नहीं करने दी। हमने यह नहीं सीखा कि जो असहमत हो उसे गालियां दो, जो हमारी न माने उसके बारे में मूल्य-निर्णय करो।
   जनवादी लेखक संघ बुनियादी तौर पर लेखकों के हकों के लिए प्रतिबद्ध संगठन है,वह राजनीतिक संगठन नहीं है, वह माकपा की राजनीतिक लाइन के अनुरुप लिखने-पढ़नेवालों का संगठन नहीं है, उसमें विभिन्न विचारधारा के लेखक हैं। रायपुर साहित्यमेला के प्रसंग में '' अभद्र वामलेखकों” के नजरिए की जनवादी लेखक संघ के कुछ लेखकों ने जिस तरह हिमायत की है वह जनवादी लेखक संघ के बुनियादी लक्ष्य का उल्लंघन हैं। यदि हमारी बात कोई लेखक न माने तो उस पर निजी हमले करो। इसे साहित्यिक गुण्डागर्दी कहते हैं।लोकतंत्र में यह संभावना सब समय रहती है कि लेखकों के अलग-अलग नजरिए हों और वे अलग-अलग ढ़ंग से एक ही मसले पर सोचें और आचरण करें,उनके वैचारिक सरोकारों में भी अंतर हो सकता है, लेकिन यह किस तरह का जनवाद है जो जनवादी लेखक संघ ,प्रगति लेखक संघ और जसम के लेखक संगठन के कुछ सदस्य फेसबुक पर व्यक्त कर रहे हैं कि जो रायपुर गया वह भाजपा का हो गया, भाजपा की दलाली करने लगा।
      देखें सच क्या है ? मसलन् मोदी के आगमन को लेकर फेसबुक पर लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद जितनी  पोस्ट मैंने संघपरिवार और मोदी की आलोचना में लिखी हैं,संभवतः किसी और लेखक ने नहीं लिखीं। अब आप जरा इन दोनों लेखकों ( मंगलेश डबराल और असद जैदी) या जनवादी लेखक संघ या प्रगतिशीललेखक संघ के नामी लेखकों की फेसबुक वॉल पर जाएं और देखें कि इनका फेसबुक पर मोदी के प्रति क्या रवैय्या  है ? मोदी एंड कंपनी जब इंटरनेट से बमबारी कर रही थी,मंगलेश डबराल-असदजैदी चुपचाप बैठकर आनंद ले रहे थे। यह सवाल तो उठता ही है कि लेखक के नाते मोदी के हमलों के खिलाफ इन लेखकों ने फेसबुक पर क्यों नहीं लिखा ? जब जनता पर मोदी एंड कंपनी हमला कर रही थी उस समय चुप रहना ,उसके उठाए मुद्दों पर न बोलना लोकतंत्र की मदद करना है या मोदी की मदद करना है ? यह अचानक नहीं है कि जिन इलाकों या राज्यों में माओवादी सक्रिय हैं वहां पर वामपंथी आंदोलन सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुआ है और कांग्रेस-भाजपा सबसे ज्यादा लाभान्वित हुए हैं। पश्चिम बंगाल में नक्सलबाडी आंदोलन से सबसे ज्यादा लाभ कांग्रेस को मिला ,माकपा नुकसान में रही। छत्तीसगढ़ में भाजपा लाभान्वित हो रही है,आंध्र में कांग्रेस लाभान्वित हुई,यह अचानक नहीं है कि छत्तीसगढ़ में कोई बड़ा भाजपानेता माओवादियों का शिकार नहीं बना,स्थिति यह है कांग्रेसनेता दिग्विजय सिंह ने माओवादियों से कांग्रेस में शामिल होने की अपील की है।
    यह नियम है अराजकता का ,शासकवर्ग हमेशा अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है। माओवादी हिंसा और अराजकता की भी यही मूल परिणति है, इसलिए रमन सरकार को माओवादियों से बुनियादी तौर पर कोई परेशानी नहीं है,क्योंकि समग्रता में माओवादी भाजपा की मदद कर रहे हैं। माओवादी हिंसा और राजनीति की किसी भी तर्क से हिमायत संभव नहीं है। मूलतःऐसे किसी भी संगठन की हिमायत नहीं की जा सकती जिसका हमारे देश के संविधान में विश्वास न हो। हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि माओवादी राजनीति से क्या वामपंथ का विकास होगा या वामपंथ क्षतिग्रस्त होगा ? अब तक का अनुभव बताता है कि माओवादी राजनीति से वामपंथ क्षतिग्रस्त हुआ है। उनके राजनीतिक एक्शन बुर्जुआदलों की मदद करते रहे हैं और लोकतांत्रिक आंदोलन को कमजोर करते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में माओवादी सीधे माकपा को निशाना बनाते रहे हैं।नक्सलबाड़ी से लेकर लालगढ़ का अनुभव इसकीपुष्टि करता है। 
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