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विगत 27 जूलाई 2015 को दिल्ली में सम्पन्न एक भव्य समारोह में हिन्दी साहित्य में आलोचक डॉ नामवर सिंह जी द्वारा अपने जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब साहब के छ्ठे उपन्यास - ' रंग राची ' का विमोचन किया गया । समारोह की अध्यक्षता नामवर सिंह जी ने की और संचालन अनुज जी ने। डॉ अदीब साहब व उनकी श्रीमती जी द्वारा नामवर सिंह जी को पुष्प गुच्छ भेंट कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया गया ।
अपने लेखकीय उद्बोद्धन में डॉ अदीब ने बताया कि किंवदंतियों एवं मिथकों का जिनका कि कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं था उन्होने लेखन में परित्याग किया है। उनका उद्देश्य अतीत की उन अचर्चित बातों पर प्रकाश डालना था जिनसे भविष्य में हम प्रेरणा ले सकते हैं। चित्तौड़, भीलवाडा, मेड़ता, वृन्दावन, द्वारिका आदि मीरा बाई से सम्बद्ध स्थानों का परिभ्रमण करके और वहाँ के विद्वानों से संपर्क करके अधिकाधिक प्रामाणिक तथ्यों का उन्होने संग्रह व उनका गहन अध्ययन करके ही इस उपन्यास को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है।
इस कथात्मक उपन्यास द्वारा बताया गया है कि उपलब्ध जानकारी के अनुसार मीरा बाई का जन्म 1504 ई .में तथा देहावसान 1547 ई .में हुआ था। यद्यपि उनका जन्म व विवाह राजकुल में हुआ था। उन्होने सामंती व्यवस्था का वैभव देखा और उसके प्रति उनके मन में तिरस्कार भाव जाग्रत हुआ। दीन, दलितों, स्त्रियों की दुर्दशा देख कर उनको जो वेदना हुई उसी का परिणाम था कि उन्होने सामंती व्यवस्था का विरोध व दमितों के पक्ष में संघर्ष किया जो उनके द्वारा रचित पदों में प्रस्फुटित हुआ है। स्त्री अस्मिता के लिए उनका प्रतिरोध जितना कंटकाकीर्ण तब था आज भी नारी अस्मिता का संघर्ष उससे कुछ कम नहीं है। इसलिए आज भी मीरा बाई उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने काल में थीं। मीरा बाई के भजनों व उपदेशों से दमित वर्ग में जिस चेतना का संचार हो रहा था और वह एक जुट होने लगा था उससे भयभीत होकर शासक सामंती वर्ग ने षड्यंत्र पूर्वक मीरा बाई की हत्या करवा दी । उनके पार्थिव शरीर व अंतिम संस्कार के बारे में गोपनीयता बनाए रखी गई व जनता में भ्रामक तथा अविश्वसनीय बातों को दुष्प्राचारित कर दिया गया। (... मीराँबाई की हत्या करवा दी ...
कुछ लोगों का ऐसा मानना है। वस्तुतः मीराँ का अंत स्वयं में एक रहस्य
है। इसका एक समाधान उपन्यास के अंत में लेखक ने प्रस्तुत किया है।)
डॉ अदीब ने बताया कि महीयसि महादेवी वर्मा ने मीरा बाई को मध्य युगीन नारी के विद्रोह की नायिका बताया है । उन्होने यह भी बताया कि नामवर सिंह जी ने अपने एक लेख में लिखा है कि गांधी जी ने मीरा बाई को 'प्रथम सत्याग्रही ' कहा था। मीरा बाई ने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया उन पर स्वम्य वह ही सर्व प्रथम चलीं जिसके परिणामस्वरूप उनको अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
'रंग राची ' के माध्यम से डॉ सुधाकर अदीब साहब ने जन-जागरण का जो प्रयास किया है वह इसलिए विशेष सराहनीय है कि स्वम्य डॉ साहब प्रशासनिक सेवा से सम्बद्ध होने के कारण जन समस्याओं से जितना निकट से परिचित हैं उनका समाधान पूर्व की भांति ही इस उपन्यास द्वारा भी सहज व सरल भाव से किया है। पाठकों व जनता को अपने ज्ञान का जो प्रसाद अपने उपन्यासों के माध्यम से वह देते आए हैं 'रंग राची ' भी उसका अपवाद नहीं है।
संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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Friday, 21 August 2015
Thursday, 20 August 2015
जयंती पर एक स्मरण : राजीव गांधी
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मणि शंकर अय्यर साहब ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी के जन्मदिवस पर एक भावपूर्ण लेख द्वारा उनका सही ही स्मरण किया है। परंतु उनके राजनीतिक पक्ष को शायद जान बूझ कर ही छोड़ दिया गया है। निष्पक्ष विश्लेषण हेतु उनके कुछ ऐसे निर्णयों का उल्लेख करना भी समीचीन होगा जिनके परिणाम स्वरूप आज देश में सांप्रदायिकता की पक्षधर और कारपोरेट हितैषी सरकार सत्तारूढ़ है।
हालांकि 1980 में सत्ता में पुनर्वापिसी को आतुर उनकी माँ इंदिरा जी ने ही आर एस एस के गुप्त समझौते व समर्थन को हासिल करके नेहरू जी द्वारा स्थापित 'धर्म निरपेक्षता' की नीति के परित्याग की नींव डाल दी थी। किन्तु राजीव जी ने शाहबानों केस की प्रतिक्रिया में 1989 में विवादित स्थल का ताला खुलवा कर पूजा शुरू करवा कर सांप्रदायिकता की विष- बेल को सिंचित किया था। जबकि 1949 में उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा राम मंदिर/बाबरी मस्जिद पर ताला लगवा कर विवाद का पटाक्षेप कर दिया गया था। आडवाणी की विध्वंस यात्रा और 1992 का ढांचा -ध्वंस जिसके परिणाम स्वरूप मुंबई दंगे /गोधरा कांड आदि विभाजनकारी घटनाएँ हुईं । इसी ध्रुवीकरण का दुष्परिणाम है केंद्र में सांप्रदायिक / फासिस्ट सरकार की ताजपोशी।
इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार का कार्पोरेटीकरण भी राजीव शासन द्वारा ही प्रारम्भ किया गया था। शिक्षा मंत्रालय को मानव संसाधन विकास मंत्रालय में परिणित किया जाना उसका जीता जागता प्रमाण है। वाया मनमोहन सिंह जी मोदी साहब का सरकार को कारपोरेट संस्थानों के हित में चलाया जाना 'जनतंत्र'' से 'जन ' का खात्मा करके फासिस्ट तानाशाही में बदलने की प्रक्रिया का प्रारम्भ राजीव शासन से ही हुआ है। इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Tuesday, 18 August 2015
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह' --- विजय राजबली माथुर
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कल दिनांक 17 अगस्त 2015 को प्रातः 11 बजे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हज़रत गंज, लखनऊ में 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह' का प्रारम्भ दीप प्रज्वलन,माल्यार्पण और सरस्वती वंदना से हुआ। मंचस्थ अतिथियों डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय , बंधु कुशावर्ती,डॉ दीप्ति गुप्ता,नासिरा शर्मा,डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित,डॉ अचला नगर ,बेकल उत्साही,उदय प्रताप सिंह का अंग वस्त्र प्रदान कर संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब ने स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह जी ने तथा कुशल संचालन डॉ अमिता दुबे जी ने किया। अतिथियों व श्रोताओं का स्वागत भाषण डॉ सुधाकर अदीब जी ने दिया। संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य भारती' के अमृतलाल नागर विशेषांक का विमोचन भी अतिथि गण ने किया।सर्व प्रथम लखनऊ दूर दर्शन द्वारा पूर्व प्रसारित एक वृत्त -चित्र भी नागर जी पर दिखाया गया।
विद्वत जनों ने नागर जी के कहानी,उपन्यास,नाटक,रेडियो नाटक,फिल्मी पट कथा आदि विविध लेखन पर विस्तृत व विशिष्ट प्रकाश डाला। नासिरा शर्मा जी ने श्रोताओं से नागर जी की कहानी 'शकीला 'की माँ' पढ़ने का विशेष आग्रह किया। उदय प्रताप जी ने अपने संस्मरण सुनाते हुये अतिथियों व श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।
भोजनोपरांत दिवतीय सत्र का संचालन भी डॉ अमिता दुबे जी ने किया व अध्यक्षता उदय प्रताप जी ने । प्रारम्भ में नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर जी अपने पिताजी के व्यक्तिगत संस्मरण याद करते हुये कुछ उन पत्रों को भी पढ़ कर सुनाया जिनको बचपन में उनके पिताजी ने उनको लिखा था। उनके बाद उनकी भाभीजी - विभा नगर जी ने भी नागर जी के व्यक्तिगत संस्मरणों की चर्चा की। नागर जी के पौत्र पारिजात अत्यंत भावुक हो जाने के कारण स्वम्य न बोल सके किन्तु हिन्दी संस्थान को आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। अचला जी के पुत्र सन्दीपन विमलकान्त नागर ने अपने नानाजी के संस्मरण सुनाते हुये उनको नई पीढ़ी का प्रेरणादायक बताया और उनके प्रति मुलायम सिंह जी के आदर भाव का वर्णन करना भी वह न भूले तथा उदय प्रताप जी को इस आयोजन की प्रेरणा देने के लिए उन्होने कृत्यज्ञता व्यक्त की। नागर जी की पौत्री डॉ दीक्षा नागर ने बचपन से उनके साथ के संस्मरणों को बताते हुये यह दुख भी व्यक्त किया कि इस अवसर पर उनके ताऊजी(कुमुद नागर),ताई जी व उनके पिता डॉ शरद नागर जी नहीं हैं (वे पहले ही दिवंगत हो चुके हैं)। लेकिन डॉ दीक्षा ने कहा कि अमृतलाल नागर जी सिर्फ अपने निजी परिवार के ही नहीं थे। उनका परिवार विस्तृत था सारे समाज को ही वह अपना परिवार मानते थे।इस संबंध में उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया कि एक बार नागर जी चौक में पान खाने निकले थे वह नौ वर्षीय बालिका थीं और उनके साथ थीं। वह एक चने वाले के पास रुक गए जिसका उनको अचरज हुआ फिर नागर जी ने उनको 'शंकर' कह कर संबोधित किया जिसके जवाब में उन्होने नागर जी को 'अमृत' का सम्बोधन दिया जिससे उनको और भी आश्चर्य हुआ। परंतु बाद में पता चला कि वह उनके सहपाठी थे। नागर जी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं मानते थे। मोहन स्वरूप भाटिया जी व सोम ठाकुर साहब ने भी अपने संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया।
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मेरे बाबूजी (स्व. ताजराज बली माथुर ) लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल में जब पढ़ते थे तब खेल - कूद में सक्रिय थे। टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन की ओर से पंडित अमृत लाल नागर जी खेलते थे तब बाबूजी तत्कालीन छात्र की हैसियत से उनके साथ खेलते थे । पत्रकार राम पाल सिंह जी ( जो नवभारत टाईम्स , भोपाल के संपादक रहे ) भी बाबूजी के खेल के साथी थे। का.भीखा लाल जी तो बाबूजी के रूममेट और सहपाठी थे जो जब तहसीलदार बने तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया। इन तीनों का ज़िक्र अपने बाबूजी से बचपन से सुनता रहा हूँ। बाबू जी के खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी के जन्म शताब्दी समारोह का अवलोकन करने पर अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।
(विजय राज बली माथुर )
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/926781337383843?pnref=story
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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कल दिनांक 17 अगस्त 2015 को प्रातः 11 बजे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हज़रत गंज, लखनऊ में 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह' का प्रारम्भ दीप प्रज्वलन,माल्यार्पण और सरस्वती वंदना से हुआ। मंचस्थ अतिथियों डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय , बंधु कुशावर्ती,डॉ दीप्ति गुप्ता,नासिरा शर्मा,डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित,डॉ अचला नगर ,बेकल उत्साही,उदय प्रताप सिंह का अंग वस्त्र प्रदान कर संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब ने स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह जी ने तथा कुशल संचालन डॉ अमिता दुबे जी ने किया। अतिथियों व श्रोताओं का स्वागत भाषण डॉ सुधाकर अदीब जी ने दिया। संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य भारती' के अमृतलाल नागर विशेषांक का विमोचन भी अतिथि गण ने किया।सर्व प्रथम लखनऊ दूर दर्शन द्वारा पूर्व प्रसारित एक वृत्त -चित्र भी नागर जी पर दिखाया गया।
विद्वत जनों ने नागर जी के कहानी,उपन्यास,नाटक,रेडियो नाटक,फिल्मी पट कथा आदि विविध लेखन पर विस्तृत व विशिष्ट प्रकाश डाला। नासिरा शर्मा जी ने श्रोताओं से नागर जी की कहानी 'शकीला 'की माँ' पढ़ने का विशेष आग्रह किया। उदय प्रताप जी ने अपने संस्मरण सुनाते हुये अतिथियों व श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।
भोजनोपरांत दिवतीय सत्र का संचालन भी डॉ अमिता दुबे जी ने किया व अध्यक्षता उदय प्रताप जी ने । प्रारम्भ में नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर जी अपने पिताजी के व्यक्तिगत संस्मरण याद करते हुये कुछ उन पत्रों को भी पढ़ कर सुनाया जिनको बचपन में उनके पिताजी ने उनको लिखा था। उनके बाद उनकी भाभीजी - विभा नगर जी ने भी नागर जी के व्यक्तिगत संस्मरणों की चर्चा की। नागर जी के पौत्र पारिजात अत्यंत भावुक हो जाने के कारण स्वम्य न बोल सके किन्तु हिन्दी संस्थान को आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। अचला जी के पुत्र सन्दीपन विमलकान्त नागर ने अपने नानाजी के संस्मरण सुनाते हुये उनको नई पीढ़ी का प्रेरणादायक बताया और उनके प्रति मुलायम सिंह जी के आदर भाव का वर्णन करना भी वह न भूले तथा उदय प्रताप जी को इस आयोजन की प्रेरणा देने के लिए उन्होने कृत्यज्ञता व्यक्त की। नागर जी की पौत्री डॉ दीक्षा नागर ने बचपन से उनके साथ के संस्मरणों को बताते हुये यह दुख भी व्यक्त किया कि इस अवसर पर उनके ताऊजी(कुमुद नागर),ताई जी व उनके पिता डॉ शरद नागर जी नहीं हैं (वे पहले ही दिवंगत हो चुके हैं)। लेकिन डॉ दीक्षा ने कहा कि अमृतलाल नागर जी सिर्फ अपने निजी परिवार के ही नहीं थे। उनका परिवार विस्तृत था सारे समाज को ही वह अपना परिवार मानते थे।इस संबंध में उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया कि एक बार नागर जी चौक में पान खाने निकले थे वह नौ वर्षीय बालिका थीं और उनके साथ थीं। वह एक चने वाले के पास रुक गए जिसका उनको अचरज हुआ फिर नागर जी ने उनको 'शंकर' कह कर संबोधित किया जिसके जवाब में उन्होने नागर जी को 'अमृत' का सम्बोधन दिया जिससे उनको और भी आश्चर्य हुआ। परंतु बाद में पता चला कि वह उनके सहपाठी थे। नागर जी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं मानते थे। मोहन स्वरूप भाटिया जी व सोम ठाकुर साहब ने भी अपने संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया।
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मेरे बाबूजी (स्व. ताजराज बली माथुर ) लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल में जब पढ़ते थे तब खेल - कूद में सक्रिय थे। टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन की ओर से पंडित अमृत लाल नागर जी खेलते थे तब बाबूजी तत्कालीन छात्र की हैसियत से उनके साथ खेलते थे । पत्रकार राम पाल सिंह जी ( जो नवभारत टाईम्स , भोपाल के संपादक रहे ) भी बाबूजी के खेल के साथी थे। का.भीखा लाल जी तो बाबूजी के रूममेट और सहपाठी थे जो जब तहसीलदार बने तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया। इन तीनों का ज़िक्र अपने बाबूजी से बचपन से सुनता रहा हूँ। बाबू जी के खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी के जन्म शताब्दी समारोह का अवलोकन करने पर अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।
(विजय राज बली माथुर )
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Saturday, 15 August 2015
इस्मत चुग़ताई - खुद बदनामियों झेल कर औरत को उसका हक़ दिलाया। -वीर विनोद छाबड़ा
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
इस्मत चुग़ताई - खुद बदनामियों झेल कर औरत को उसका हक़ दिलाया।
-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ में तारीख़ १४ अगस्त २०१५ में इस्मत चुग़ताई के जन्म शताब्दी समारोह के सिलसिले में इप्टा, लखनऊ ने 'महत्व इस्मत चुग़ताई' कार्यक्रम आयोजित किया। अध्यक्षता जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू इल्म-ओ-अदब में बहैसियत समालोचक दख़ल रखने वाले शारिब रुदौलवी ने की। अलावा उनके मंच पर आबिद सुहैल, रतन सिंह, सबीहा अनवर, वीरेंद्र यादव और शबनम रिज़वी की मौज़ूदगी थी।
इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने संचालन करते हुए इस्मत चुग़ताई की ज़िंदगी पर रौशनी डालते हुए बताया इस्मत आपा के अफ़साने 'लिहाफ़' ने अदबी दुनिया में ज़बरदस्त हलचल पैदा की। ये अफ़साना औरत की आज़ादी की बात तो करता ही है, पूरे समाज का रचनात्मक आत्मलोचन भी करता है.…उन पर उनके भाई अज़ीम बेग चुग़ताई का और उनके लेखन का ख़ासा असर था। इस्मत ने अज़ीम बेग को पार करके उर्दू अदब में खुद को स्थापित किया। ख़ुद अज़ीम बेग को भी इसका डर था। इस्मत कहती थीं कि क़लम मेरे हाथ में जब आ जाती है तो मैं लिखती ही जाती हूं.…वो १९४७ में मुल्क़ की तक़सीम से पैदा हुए फ़सादात से गुज़री। तक़सीम मुल्क़ की ही नहीं हुई बल्कि अवाम के दिलों की भी हुई.…वो कृष्ण चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत अली मंटो की कड़ी हैं। प्रोग्रेसिव लेखन की अगुवा रहीं। उनका लेखन ऑटोबायोग्राफ़िकल रहा है। उनके अफ़साने बताते हैं वो किसी से भी बात कर लेती हैं। चाहे वो धोबी हो या मोची या सफ़ाई वाला या कामवाली बाई या अस्तबल का साइंस…एक बार मंटो से किसी ने पूछा था कि अगर मंटो की शादी इस्मत से हो गयी होती तो? मंटो ने जवाब दिया था कि निक़ाहनामे पर दस्तख़त करते-करते उनमें इतनी लानत-मलानत होती कि यह वहीं टूट जाती।
करामात हुसैन डिग्री कॉलेज की पूर्व प्रिसिपल और उर्दू की वरिष्ठ लेखिका सबीहा अनवर ने इस्मत आपा के साथ वक़्त वक़्त पर बिताये दिनों को भावुक अंदाज़ से याद किया। इस्मत आपा की राय बेहद बेबाक होती थी। वो दिखावटी बात नहीं करती थीं। प्रैक्टिकल, मुंहफट और आज़ाद ख़्याल। उन्हें दुनिया में होने वाली हर घटना की जानकारी लेने की फ़िक्र रहती। उस पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करती…वो जब कभी लखनऊ आतीं तो मेरे घर ज़रूर आती, क़याम भी फ़रमाती। जब भी मिलीं बड़े ख़लूस से मिलीं। उन्हें मिलने, देखने और सुनने वालों का सिलसिला सुबह से शाम चला करता। भीड़ लगी रहती। वो बेबाक बोलने से बाज़ न आतीं। उनकी शैली व्यंग्यात्मक होती। एक बार बोलीं कि मेरी मां को उसके दसवें बच्चे ने बिलकुल तंग नहीं किया क्योंकि वो पैदा होते ही मर गया....कोई न कोई कंट्रोवर्सी वाला बयान दे देतीं और फंस जाती। अख़बारनवीसों को इसी का इंतज़ार रहता। एक दिन कह बैठीं कि मरने के बाद दफ़न करने के बजाये मुझे जलाया जाए.…जब मैंने उनसे कहा कि आप थोड़ा सोचा-समझ कर बयान दिया करें तो उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे जैसी समझदार नहीं हूं। जो दिल में है वही कहूंगी। मैं सच कहने से डरती नहीं…बहुत ज़िद्दी थीं वो। बोलने पर आतीं तो बेलगाम हो जातीं। यादों का कभी ख़त्म न होने वाला ख़जाना था उनकी झोली में। अपने मरहूम शौहर शाहिद लतीफ़ और भाई अज़ीम बेग का बहुत ज़िक्र करतीं थीं। लेकिन दुःख साझे नहीं करतीं थीं.…'जुनून' की शूटिंग में मिलीं। मैंने पूछा कहां एक्टिंग में फंस गयीं। तो बोलीं क्या जाता है मेरा? फ़ाईव स्टार होटल और शानदार खाना है। मौज मस्ती है.…चटपटे खाने की बहुत शौक़ीन थीं। खाते वक़्त खूब बातें करतीं। एक बार मुझसे बोलीं बड़ी मक्कार हो तुम। हस्बैंड को रवाना करके खूब बढ़िया-बढ़िया खाना खाती हो और गप्पें मारती हो.…छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखतीं। पूरा सूटकेस पलट देतीं। समझौते नहीं कर सकतीं थीं.…मैंने ऊपरी तौर पर उन्हें ज़िंदगी से भरपूर देखा। लेकिन अंदर से मायूस और तनहा पाया। उन्होंने अपनी बेटियों का ज़िक्र बहुत कम किया। हां, नाती को कभी-कभी याद ज़रूर कर लेतीं। किसी को उनकी फ़िक़्र नहीं होती थी कि वो कहां हैं, कैसी हैं और कब लौटेंगी …उन दिनों वो हमारे घर पर रुकीं थीं। उनके लिए बंबई से फ़ोन आया। फलां फ्लाईट से फ़ौरन रवाना कर दें। मैं और मेरे पति अनवर उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गए। वहीं बंबई जा रहे एक दोस्त मिल गए। हमने इस्मत आपा को उनके सिपुर्द कर दिया, इस ताक़ीद के साथ कि रास्ते भर उनका हर क़िस्म का ख्याल रखें और एयरपोर्ट से घर के लिए टैक्सी भी कर दें। दोस्त ने लौट कर बताया कि वो बलां की ज़िद्दी निकलीं। बंबई एयरपोर्ट पर उन्हें लेने कोई नहीं आया। टैक्सी करके सीधा बांद्रा चली गयीं अपने एक दोस्त के घर।
प्रसिद्ध लेखिका शबनम रिज़वी ने इस्मत आपा के अफ़सानों और नावेलों के किरदारों पर बड़े विस्तार से रौशनी डाली। वो खुद अव्वल दरजे की ज़िद्दी थीं। उनके किरदारों में अजीबो-ग़रीब ज़िद्द और इंकार साफ़ दिखता है। मुहब्बत करने वाला नफ़रत का इज़हार करता है। खेल-खेल में बात शुरू होती है। फिर नफ़रत में तब्दील हो जाते हैं। हमला करते हैं। मगर आख़िर आते-आते भावुक हो जाते हैं.…उनके किरदार वक़्त के साथ बदलते भी रहते हैं.… महिलाओं के लिए बहुत लिखा।
हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने रशीद जहां, अतिया हुसैन और कुर्तनलैन हैदर की पंक्ति में इस्मत चुग़ताई को रखते हुए बहुत बड़ी लेखिका बताया। यह सब लखनऊ के आधुनिक आईटी कॉलेज की पढ़ी हुईं थीं। उन्होंने अपने समाज की चिंता के साथ महिलाओं की आज़ादी की बात की है। उनकी प्रसिद्ध कृति 'लिहाफ़' में शोषण के परिप्रेक्ष्य की सिर्फ़ बात नहीं है। उनमें फ़िक्र है कि हालात क्या हैं, रिश्ते क्या हैं और ऐसे रिश्ते क्यों हैं और उनके किरदारों के शौक क्या हैं?…उन्होंने सेक्सुल्टी की बात की। उस भाषा में बात की जो उनके समाज के मिडिल क्लास में बोली जाती है। और उन विषयों पर लिखा जिन पर कभी किसी की निग़ाह नहीं गयी थी.…वो मूल्यों के साथ जुडी रहीं। कभी किसी तहरीक़ के साथ जुड़ कर नहीं लिखा। थोपी हुई बातें नहीं मानीं। जो मन में आया, लिखा…उनके अफ़सानों में १९४७ के पार्टीशन से उपजे सांप्रदायिक दंगों का दर्द है। दिलों में दरारें पड़ने का दर्द है। ऐसे संगीन माहौल में एक लेखक का फ़र्ज़ बनता है कि वो हस्तक्षेप करे। और इस्मत आप ने पूरे समर्पण के साथ बखूबी किया…वो पाखंड की धज्जियां उड़ाती हैं। 'कच्चे धागे' कहानी में उनकी यह फ़िक्र और उनकी विचारधारा दिखती है कि वो किसके साथ खड़ी हैं। बापू की जयंती के रोज़ आत्माएं शुद्द हो रही हैं। गंदी और घिनौनी। मगर लालबाग़ और परेल के इलाकों में एक भी तकली नाचती नज़र नहीं आती है। पच्चीस हज़ार श्रमिक कामगार मैदान में जमा हैं। छटनी की धार से ज़ख्मी मज़दूर, फीसों से कुचले विद्यार्थी, महंगाई के कारक और शिक्षक उम्मीद भरी नज़रों से आज़ाद मुल्क के रहनुमाओं को ताक रहे हैं। इंसान इंसान से नहीं हैवान से लड़ेगा। कामगार मैदान के चारों ओर पुलिस का पहरा है। मगर नाज़ायज़ शराब पर नहीं है, काले बाज़ार और चोर उच्चकों पर नहीं है। मैं इनके साथ हूं। भले मैं इस तूफ़ान में कतरा हूं और हर कतरा एक तूफ़ान है.…आज बहुमतवादी आतंक है। मूल्यों का क्षरण हो रहा है। ऐसे में इस्मत आपा की और उनके समर्पित लेखन की सख़्त ज़रूरत है।
मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार रतन सिंह ने इस्मत आपा को याद करते हुए बताया कि वो बेहद संजीदा औरत थीं। एक वाक़या याद है। एक जलसे में उनको सुनने और देखने वालों से हाल भरा हुआ था। मैं जगह न मिलने की वज़ह से पीछे एक कोने में खड़ा था। इस्मत आपा ने देखा। ज़ोर से बोलीं। पीछे क्यों खड़े हो? आगे आओ। इसके पीछे उनका मक़सद था, नई पीढ़ी के अदीबों आगे आओ। सीनियर अदीब जूनियर के लिए रास्ता साफ़ करो। एक जनरेशन दूसरी जेनरेशन को तैयार करती थी। हमें उनके काम को आगे बढ़ाना चाहिये…आज मुल्क़ में कोई ऐसा रिसाला नहीं है जिसमें पूरे मुल्क़ के अदब को देखा जा सके। कहानी के मामले में हमारा हिंदुस्तान बहुत आगे है।
मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार और सहाफ़ी आबिद सुहैल ने बताया कि इस्मत आपा सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में मशहूर थीं.… पहली मरतबे उन्हें १९६२ में देखा था। लखनऊ के बर्लिंग्टन होटल में एक जलसा हुआ। बेशुमार नौजवान अदीब जमा हुए इस्मत आपा को देखने और सुनने। उन्होंने अपील की। घर से बाहर निकलो। लोगों से मिलो, उन्हें देखो और लिखो…इस्मत आपा शादी के कुछ दिनों बाद तक अपने शौहर शाहिद लतीफ़ के नाम से लिखती रहीं। बाद में अपने नाम से लिखा…औरत जब चुटकी लेती है तो मर्द कसमसा कर रहा जाता है। इस्मत आपा इसमें माहिर थीं.…एक जलसे में जाने से पहले शाहिद ने उनसे कहा, मेरी कहानी के मुतल्लिक कुछ नहीं कहेंगी। मुंह बिलकुल बंद रखना। लेकिन वो अपना वादा नहीं निभा सकीं। कहानी की बखिया उधेड़ कर रख दी। वापसी पर शाहिद ड्राइव कर रहे थे और इस्मत उनका चेहरा देख रहीं थीं कि शाहिद कुछ बोलेंगे। लेकिन बिलकुल ख़ामोश रहे.....एक वाकया रामलाल के घर पर हुआ। हम सब वहां पहुंचे। रामलाल वो तमाम खतूत संभालने और खंगालने में लगे थे जिन्हें तमाम अदीबों ने उन्हें लिखे थे। इस्मत बोलीं यह सब बेकार मेहनत क्यों कर रहे हो। तुम्हारे जाने के बाद सब ख़त्म हो जायेगा। कोई इन्हें संभाल नहीं रखेगा… इस्मत के अफ़सानों में डायलॉग बहुत कम हैं। कहानी बनाई नहीं जाती, बल्कि चलती रहती है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष और ,जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू समालोचक शारिब रुदौलवी की निग़ाह में इस्मत चुग़ताई की कहानियां के ख़ास तरह की थीं। तरक़्क़ीपसंद अफ़साने लिखे। फ़िक्री कहानियां लिखीं, जिनकी बुनियाद मसायल हैं। मसायल में इंसान के काम की अहमियत है.…उर्दू में भंगी समाज पर सिर्फ़ दो अफ़साने लिखे गए हैं। एक कृष्ण चंदर ने लिखा - कालू भंगी। और दूसरा लिखा इस्मत ने - दो हाथ। यह इस्मत की ही हिम्मत थी कि उन्होंने उस किरदार की समाज में अहमियत बताई…उनके अफ़सानों को पढ़ कर लोग हैरान होते थे जब उन्हें यह पता चलता था कि ये खातून ने लिखे हैं। उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.…अफ़साना तो कोई भी लिख सकता है। सवाल यह है कि मसला क्या है? इस्मत ऐसे मसायल लेकर चलती हैं जिनमें औरत की जद्दोजहद पूरी शिद्दत के साथ पेश की जाती है। उसे समाज में हक़ दिलाती हैं। इस्मत ने बदनामियों को झेल कर औरत को उसका मुक़ाम दिलाया। आज़ादी दिलाई… अफ़साने आते रहेंगे और अफ़सानानिगार भी। लेकिन इस्मत का आना मुश्किल है।
और आख़िर में मैं। इस्मत आपा वाक़ई अद्भुत थीं। वो मेरे मरहूम वालिद, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार रामलाल. की दोस्त थीं। हमारे घर पर रहीं भी.…मैंने उन्हें पहली मरतबे १९६२ में देखा था। वो चारबाग़ वाले हमारे घर आईं थीं। बेहद खूबसूरत। मैं तो उन पर फ़िदा हो गया था। उस वक़्त मेरी उम्र १२ साल थी.…१९८७ में वो हमारे इंदिरा नगर घर आयीं। दो रोज़ रहीं भी। उनसे मैंने सिनेमा के बारे बहुत लंबी बात की। खास तौर पर दिलीप कुमार के बारे में। उनके शौहर शाहिद लतीफ़ ने दिलीप कुमार को 'शहीद' और 'आरज़ू' में डायरेक्ट किया था। इसकी कहानी इस्मत आपा ने लिखी थी। उन्होंने गुरुदत्त की 'बहारें फिर भी आयेंगी' भी डायरेक्ट की थी.…एक बार जब मैं बंबई घूमने गया था तो इस्मत आपा से तो घर पर मुलाक़ात हुई लेकिन शाहिद लतीफ़ साहब से मिलने हमें श्री साउंड स्टूडियो जाना पड़ा, जहां वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए 'जवाब आएगा' के शूटिंग कर रहे थे.…इस्मत आपा बहुत बिंदास थीं और जो बात उन्हें पसंद नहीं थी तो लाख बहस के वो हां नहीं करती थीं। मैंने उनसे कहा रामायण सीरियल का राम अरुण गोविल मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता। इस पर वो बहुत नाराज़ हुईं… वो थ्री कैसल विदेशी सिगरेट पी रही थी। मैं उन्हें ललचाई आंखो से देख रहा था। वो समझ गयीं। अपने पर्स से एक डिब्बी निकाल कर मुझे पकड़ा दी। मैंने इसे किसी से शेयर नहीं किया। रोज़ एक एक करके पी डाली…उनके इंतक़ाल की ख़बर ने हतप्रद कर दिया। बड़ा अजीब लगता है और ख़ालीपन सा भी, जब कोई ऐसा गुज़र जाए जिसे बहुत करीब से देखा और समझा हो। और फिर इस्मत आपा तो हमारे परिवार की थीं।
कार्यक्रम में साहित्य, रंगमंच और पत्रकारिता से जुड़े जुगल किशोर, के.के.चतुर्वेदी, सुशीला पुरी, विजय राज बली, ऋषि श्रीवास्तव आदि तमाम जानी-मानी हस्तियों मौजूद थीं।
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१५-०८-२०१५
साभार :-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ में तारीख़ १४ अगस्त २०१५ में इस्मत चुग़ताई के जन्म शताब्दी समारोह के सिलसिले में इप्टा, लखनऊ ने 'महत्व इस्मत चुग़ताई' कार्यक्रम आयोजित किया। अध्यक्षता जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू इल्म-ओ-अदब में बहैसियत समालोचक दख़ल रखने वाले शारिब रुदौलवी ने की। अलावा उनके मंच पर आबिद सुहैल, रतन सिंह, सबीहा अनवर, वीरेंद्र यादव और शबनम रिज़वी की मौज़ूदगी थी।
इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने संचालन करते हुए इस्मत चुग़ताई की ज़िंदगी पर रौशनी डालते हुए बताया इस्मत आपा के अफ़साने 'लिहाफ़' ने अदबी दुनिया में ज़बरदस्त हलचल पैदा की। ये अफ़साना औरत की आज़ादी की बात तो करता ही है, पूरे समाज का रचनात्मक आत्मलोचन भी करता है.…उन पर उनके भाई अज़ीम बेग चुग़ताई का और उनके लेखन का ख़ासा असर था। इस्मत ने अज़ीम बेग को पार करके उर्दू अदब में खुद को स्थापित किया। ख़ुद अज़ीम बेग को भी इसका डर था। इस्मत कहती थीं कि क़लम मेरे हाथ में जब आ जाती है तो मैं लिखती ही जाती हूं.…वो १९४७ में मुल्क़ की तक़सीम से पैदा हुए फ़सादात से गुज़री। तक़सीम मुल्क़ की ही नहीं हुई बल्कि अवाम के दिलों की भी हुई.…वो कृष्ण चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत अली मंटो की कड़ी हैं। प्रोग्रेसिव लेखन की अगुवा रहीं। उनका लेखन ऑटोबायोग्राफ़िकल रहा है। उनके अफ़साने बताते हैं वो किसी से भी बात कर लेती हैं। चाहे वो धोबी हो या मोची या सफ़ाई वाला या कामवाली बाई या अस्तबल का साइंस…एक बार मंटो से किसी ने पूछा था कि अगर मंटो की शादी इस्मत से हो गयी होती तो? मंटो ने जवाब दिया था कि निक़ाहनामे पर दस्तख़त करते-करते उनमें इतनी लानत-मलानत होती कि यह वहीं टूट जाती।
करामात हुसैन डिग्री कॉलेज की पूर्व प्रिसिपल और उर्दू की वरिष्ठ लेखिका सबीहा अनवर ने इस्मत आपा के साथ वक़्त वक़्त पर बिताये दिनों को भावुक अंदाज़ से याद किया। इस्मत आपा की राय बेहद बेबाक होती थी। वो दिखावटी बात नहीं करती थीं। प्रैक्टिकल, मुंहफट और आज़ाद ख़्याल। उन्हें दुनिया में होने वाली हर घटना की जानकारी लेने की फ़िक्र रहती। उस पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करती…वो जब कभी लखनऊ आतीं तो मेरे घर ज़रूर आती, क़याम भी फ़रमाती। जब भी मिलीं बड़े ख़लूस से मिलीं। उन्हें मिलने, देखने और सुनने वालों का सिलसिला सुबह से शाम चला करता। भीड़ लगी रहती। वो बेबाक बोलने से बाज़ न आतीं। उनकी शैली व्यंग्यात्मक होती। एक बार बोलीं कि मेरी मां को उसके दसवें बच्चे ने बिलकुल तंग नहीं किया क्योंकि वो पैदा होते ही मर गया....कोई न कोई कंट्रोवर्सी वाला बयान दे देतीं और फंस जाती। अख़बारनवीसों को इसी का इंतज़ार रहता। एक दिन कह बैठीं कि मरने के बाद दफ़न करने के बजाये मुझे जलाया जाए.…जब मैंने उनसे कहा कि आप थोड़ा सोचा-समझ कर बयान दिया करें तो उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे जैसी समझदार नहीं हूं। जो दिल में है वही कहूंगी। मैं सच कहने से डरती नहीं…बहुत ज़िद्दी थीं वो। बोलने पर आतीं तो बेलगाम हो जातीं। यादों का कभी ख़त्म न होने वाला ख़जाना था उनकी झोली में। अपने मरहूम शौहर शाहिद लतीफ़ और भाई अज़ीम बेग का बहुत ज़िक्र करतीं थीं। लेकिन दुःख साझे नहीं करतीं थीं.…'जुनून' की शूटिंग में मिलीं। मैंने पूछा कहां एक्टिंग में फंस गयीं। तो बोलीं क्या जाता है मेरा? फ़ाईव स्टार होटल और शानदार खाना है। मौज मस्ती है.…चटपटे खाने की बहुत शौक़ीन थीं। खाते वक़्त खूब बातें करतीं। एक बार मुझसे बोलीं बड़ी मक्कार हो तुम। हस्बैंड को रवाना करके खूब बढ़िया-बढ़िया खाना खाती हो और गप्पें मारती हो.…छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखतीं। पूरा सूटकेस पलट देतीं। समझौते नहीं कर सकतीं थीं.…मैंने ऊपरी तौर पर उन्हें ज़िंदगी से भरपूर देखा। लेकिन अंदर से मायूस और तनहा पाया। उन्होंने अपनी बेटियों का ज़िक्र बहुत कम किया। हां, नाती को कभी-कभी याद ज़रूर कर लेतीं। किसी को उनकी फ़िक़्र नहीं होती थी कि वो कहां हैं, कैसी हैं और कब लौटेंगी …उन दिनों वो हमारे घर पर रुकीं थीं। उनके लिए बंबई से फ़ोन आया। फलां फ्लाईट से फ़ौरन रवाना कर दें। मैं और मेरे पति अनवर उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गए। वहीं बंबई जा रहे एक दोस्त मिल गए। हमने इस्मत आपा को उनके सिपुर्द कर दिया, इस ताक़ीद के साथ कि रास्ते भर उनका हर क़िस्म का ख्याल रखें और एयरपोर्ट से घर के लिए टैक्सी भी कर दें। दोस्त ने लौट कर बताया कि वो बलां की ज़िद्दी निकलीं। बंबई एयरपोर्ट पर उन्हें लेने कोई नहीं आया। टैक्सी करके सीधा बांद्रा चली गयीं अपने एक दोस्त के घर।
प्रसिद्ध लेखिका शबनम रिज़वी ने इस्मत आपा के अफ़सानों और नावेलों के किरदारों पर बड़े विस्तार से रौशनी डाली। वो खुद अव्वल दरजे की ज़िद्दी थीं। उनके किरदारों में अजीबो-ग़रीब ज़िद्द और इंकार साफ़ दिखता है। मुहब्बत करने वाला नफ़रत का इज़हार करता है। खेल-खेल में बात शुरू होती है। फिर नफ़रत में तब्दील हो जाते हैं। हमला करते हैं। मगर आख़िर आते-आते भावुक हो जाते हैं.…उनके किरदार वक़्त के साथ बदलते भी रहते हैं.… महिलाओं के लिए बहुत लिखा।
हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने रशीद जहां, अतिया हुसैन और कुर्तनलैन हैदर की पंक्ति में इस्मत चुग़ताई को रखते हुए बहुत बड़ी लेखिका बताया। यह सब लखनऊ के आधुनिक आईटी कॉलेज की पढ़ी हुईं थीं। उन्होंने अपने समाज की चिंता के साथ महिलाओं की आज़ादी की बात की है। उनकी प्रसिद्ध कृति 'लिहाफ़' में शोषण के परिप्रेक्ष्य की सिर्फ़ बात नहीं है। उनमें फ़िक्र है कि हालात क्या हैं, रिश्ते क्या हैं और ऐसे रिश्ते क्यों हैं और उनके किरदारों के शौक क्या हैं?…उन्होंने सेक्सुल्टी की बात की। उस भाषा में बात की जो उनके समाज के मिडिल क्लास में बोली जाती है। और उन विषयों पर लिखा जिन पर कभी किसी की निग़ाह नहीं गयी थी.…वो मूल्यों के साथ जुडी रहीं। कभी किसी तहरीक़ के साथ जुड़ कर नहीं लिखा। थोपी हुई बातें नहीं मानीं। जो मन में आया, लिखा…उनके अफ़सानों में १९४७ के पार्टीशन से उपजे सांप्रदायिक दंगों का दर्द है। दिलों में दरारें पड़ने का दर्द है। ऐसे संगीन माहौल में एक लेखक का फ़र्ज़ बनता है कि वो हस्तक्षेप करे। और इस्मत आप ने पूरे समर्पण के साथ बखूबी किया…वो पाखंड की धज्जियां उड़ाती हैं। 'कच्चे धागे' कहानी में उनकी यह फ़िक्र और उनकी विचारधारा दिखती है कि वो किसके साथ खड़ी हैं। बापू की जयंती के रोज़ आत्माएं शुद्द हो रही हैं। गंदी और घिनौनी। मगर लालबाग़ और परेल के इलाकों में एक भी तकली नाचती नज़र नहीं आती है। पच्चीस हज़ार श्रमिक कामगार मैदान में जमा हैं। छटनी की धार से ज़ख्मी मज़दूर, फीसों से कुचले विद्यार्थी, महंगाई के कारक और शिक्षक उम्मीद भरी नज़रों से आज़ाद मुल्क के रहनुमाओं को ताक रहे हैं। इंसान इंसान से नहीं हैवान से लड़ेगा। कामगार मैदान के चारों ओर पुलिस का पहरा है। मगर नाज़ायज़ शराब पर नहीं है, काले बाज़ार और चोर उच्चकों पर नहीं है। मैं इनके साथ हूं। भले मैं इस तूफ़ान में कतरा हूं और हर कतरा एक तूफ़ान है.…आज बहुमतवादी आतंक है। मूल्यों का क्षरण हो रहा है। ऐसे में इस्मत आपा की और उनके समर्पित लेखन की सख़्त ज़रूरत है।
मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार रतन सिंह ने इस्मत आपा को याद करते हुए बताया कि वो बेहद संजीदा औरत थीं। एक वाक़या याद है। एक जलसे में उनको सुनने और देखने वालों से हाल भरा हुआ था। मैं जगह न मिलने की वज़ह से पीछे एक कोने में खड़ा था। इस्मत आपा ने देखा। ज़ोर से बोलीं। पीछे क्यों खड़े हो? आगे आओ। इसके पीछे उनका मक़सद था, नई पीढ़ी के अदीबों आगे आओ। सीनियर अदीब जूनियर के लिए रास्ता साफ़ करो। एक जनरेशन दूसरी जेनरेशन को तैयार करती थी। हमें उनके काम को आगे बढ़ाना चाहिये…आज मुल्क़ में कोई ऐसा रिसाला नहीं है जिसमें पूरे मुल्क़ के अदब को देखा जा सके। कहानी के मामले में हमारा हिंदुस्तान बहुत आगे है।
मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार और सहाफ़ी आबिद सुहैल ने बताया कि इस्मत आपा सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में मशहूर थीं.… पहली मरतबे उन्हें १९६२ में देखा था। लखनऊ के बर्लिंग्टन होटल में एक जलसा हुआ। बेशुमार नौजवान अदीब जमा हुए इस्मत आपा को देखने और सुनने। उन्होंने अपील की। घर से बाहर निकलो। लोगों से मिलो, उन्हें देखो और लिखो…इस्मत आपा शादी के कुछ दिनों बाद तक अपने शौहर शाहिद लतीफ़ के नाम से लिखती रहीं। बाद में अपने नाम से लिखा…औरत जब चुटकी लेती है तो मर्द कसमसा कर रहा जाता है। इस्मत आपा इसमें माहिर थीं.…एक जलसे में जाने से पहले शाहिद ने उनसे कहा, मेरी कहानी के मुतल्लिक कुछ नहीं कहेंगी। मुंह बिलकुल बंद रखना। लेकिन वो अपना वादा नहीं निभा सकीं। कहानी की बखिया उधेड़ कर रख दी। वापसी पर शाहिद ड्राइव कर रहे थे और इस्मत उनका चेहरा देख रहीं थीं कि शाहिद कुछ बोलेंगे। लेकिन बिलकुल ख़ामोश रहे.....एक वाकया रामलाल के घर पर हुआ। हम सब वहां पहुंचे। रामलाल वो तमाम खतूत संभालने और खंगालने में लगे थे जिन्हें तमाम अदीबों ने उन्हें लिखे थे। इस्मत बोलीं यह सब बेकार मेहनत क्यों कर रहे हो। तुम्हारे जाने के बाद सब ख़त्म हो जायेगा। कोई इन्हें संभाल नहीं रखेगा… इस्मत के अफ़सानों में डायलॉग बहुत कम हैं। कहानी बनाई नहीं जाती, बल्कि चलती रहती है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष और ,जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू समालोचक शारिब रुदौलवी की निग़ाह में इस्मत चुग़ताई की कहानियां के ख़ास तरह की थीं। तरक़्क़ीपसंद अफ़साने लिखे। फ़िक्री कहानियां लिखीं, जिनकी बुनियाद मसायल हैं। मसायल में इंसान के काम की अहमियत है.…उर्दू में भंगी समाज पर सिर्फ़ दो अफ़साने लिखे गए हैं। एक कृष्ण चंदर ने लिखा - कालू भंगी। और दूसरा लिखा इस्मत ने - दो हाथ। यह इस्मत की ही हिम्मत थी कि उन्होंने उस किरदार की समाज में अहमियत बताई…उनके अफ़सानों को पढ़ कर लोग हैरान होते थे जब उन्हें यह पता चलता था कि ये खातून ने लिखे हैं। उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.…अफ़साना तो कोई भी लिख सकता है। सवाल यह है कि मसला क्या है? इस्मत ऐसे मसायल लेकर चलती हैं जिनमें औरत की जद्दोजहद पूरी शिद्दत के साथ पेश की जाती है। उसे समाज में हक़ दिलाती हैं। इस्मत ने बदनामियों को झेल कर औरत को उसका मुक़ाम दिलाया। आज़ादी दिलाई… अफ़साने आते रहेंगे और अफ़सानानिगार भी। लेकिन इस्मत का आना मुश्किल है।
और आख़िर में मैं। इस्मत आपा वाक़ई अद्भुत थीं। वो मेरे मरहूम वालिद, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार रामलाल. की दोस्त थीं। हमारे घर पर रहीं भी.…मैंने उन्हें पहली मरतबे १९६२ में देखा था। वो चारबाग़ वाले हमारे घर आईं थीं। बेहद खूबसूरत। मैं तो उन पर फ़िदा हो गया था। उस वक़्त मेरी उम्र १२ साल थी.…१९८७ में वो हमारे इंदिरा नगर घर आयीं। दो रोज़ रहीं भी। उनसे मैंने सिनेमा के बारे बहुत लंबी बात की। खास तौर पर दिलीप कुमार के बारे में। उनके शौहर शाहिद लतीफ़ ने दिलीप कुमार को 'शहीद' और 'आरज़ू' में डायरेक्ट किया था। इसकी कहानी इस्मत आपा ने लिखी थी। उन्होंने गुरुदत्त की 'बहारें फिर भी आयेंगी' भी डायरेक्ट की थी.…एक बार जब मैं बंबई घूमने गया था तो इस्मत आपा से तो घर पर मुलाक़ात हुई लेकिन शाहिद लतीफ़ साहब से मिलने हमें श्री साउंड स्टूडियो जाना पड़ा, जहां वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए 'जवाब आएगा' के शूटिंग कर रहे थे.…इस्मत आपा बहुत बिंदास थीं और जो बात उन्हें पसंद नहीं थी तो लाख बहस के वो हां नहीं करती थीं। मैंने उनसे कहा रामायण सीरियल का राम अरुण गोविल मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता। इस पर वो बहुत नाराज़ हुईं… वो थ्री कैसल विदेशी सिगरेट पी रही थी। मैं उन्हें ललचाई आंखो से देख रहा था। वो समझ गयीं। अपने पर्स से एक डिब्बी निकाल कर मुझे पकड़ा दी। मैंने इसे किसी से शेयर नहीं किया। रोज़ एक एक करके पी डाली…उनके इंतक़ाल की ख़बर ने हतप्रद कर दिया। बड़ा अजीब लगता है और ख़ालीपन सा भी, जब कोई ऐसा गुज़र जाए जिसे बहुत करीब से देखा और समझा हो। और फिर इस्मत आपा तो हमारे परिवार की थीं।
कार्यक्रम में साहित्य, रंगमंच और पत्रकारिता से जुड़े जुगल किशोर, के.के.चतुर्वेदी, सुशीला पुरी, विजय राज बली, ऋषि श्रीवास्तव आदि तमाम जानी-मानी हस्तियों मौजूद थीं।
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१५-०८-२०१५
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Sunday, 9 August 2015
काकोरी ट्रेन एक्शन और भारत छोड़ो आंदोलन --- विजय राजबली माथुर
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*** अङ्ग्रेज सरकार ने तो क्रांतिकारियों द्वारा 09-08-1925 को लखनऊ के काकोरी स्टेशन पर ट्रेन से ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को आज़ादी के संघर्ष के लिए हथियार खरीदने के उद्देश्य से 'हस्तगत' करने को 'लूट' व 'डकैती' की संज्ञा देकर राजद्रोह में कुछ को फांसी व अन्य सजाएँ दी थीं। आज़ादी के 68 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं और आज़ाद भारत की सरकार ने भी इन क्रांतिकारियों को शहीद का दर्जा नहीं दिया है। सिर्फ फूल चढ़ा कर चित्रों पर मालाएँ पहना कर उनकी रस्मी पूजा भर ही की जाती है। न तो उनके 'त्याग' व 'बलिदान' से कोई सीख ली जाती है न उनका अनुसरण करने का कोई प्रयास किया जाता है नतीजा है-भुखमरी,बेरोजगारी,शोषण,उत्पीड़न व लूट का जस का तस बरकरार रहना।
इसी प्रकार 09-08-1942 से प्रारम्भ हुये गांधी जी के आंदोलन से भी कोई सबक नहीं लिया गया है । यह देशव्यापी आंदोलन भी कई बलिदानों का गवाह बना है।बलिया में तो ब्रिटिश सरकार का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया था। बदले में दमन और उत्पीड़न का सामना जनता को करना पड़ा था। पटना सचिवालय से छात्रों ने 'यूनियन जैक' को उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। सात वीर छात्र अंग्रेज़ सरकार की पुलिस द्वारा शहीद कर दिये गए थे और असंख्य को गिरफ्तार कर कड़ी सजाएँ दी गईं थीं। उनकी स्मृति में वहाँ आर ब्लाक चौराहे पर 'सप्त मूर्ति' बनी हुई हैं। वहाँ भी फूल और मालाएँ चढ़ा कर उनका गुण गान करके खाना पूरती ही की जाती है। आज देश में कहीं भी 'देशप्रेम' की भावना दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। लोग परस्पर खून के प्यासे हो रहे हैं एक दूसरे का गला काटने व निजी तिजोरियाँ भरने की कवायद चारों ओर दिखाई दे रही है। जिस उद्देश्य से क्रांतिकारियों व सत्याग्रहियों ने अपनी कुर्बानी दी थी वह विफल हो रहा है।
अपने पूर्वजों की कुर्बानी की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। देश अपना है और इसके प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिलें यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। आपाधापी और सिर्फ अपने लिए जीने की पृवृति को त्यागना होगा तभी देश में खुशहाली लाई जा सकेगी।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
*** अङ्ग्रेज सरकार ने तो क्रांतिकारियों द्वारा 09-08-1925 को लखनऊ के काकोरी स्टेशन पर ट्रेन से ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को आज़ादी के संघर्ष के लिए हथियार खरीदने के उद्देश्य से 'हस्तगत' करने को 'लूट' व 'डकैती' की संज्ञा देकर राजद्रोह में कुछ को फांसी व अन्य सजाएँ दी थीं। आज़ादी के 68 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं और आज़ाद भारत की सरकार ने भी इन क्रांतिकारियों को शहीद का दर्जा नहीं दिया है। सिर्फ फूल चढ़ा कर चित्रों पर मालाएँ पहना कर उनकी रस्मी पूजा भर ही की जाती है। न तो उनके 'त्याग' व 'बलिदान' से कोई सीख ली जाती है न उनका अनुसरण करने का कोई प्रयास किया जाता है नतीजा है-भुखमरी,बेरोजगारी,शोषण,उत्पीड़न व लूट का जस का तस बरकरार रहना।
इसी प्रकार 09-08-1942 से प्रारम्भ हुये गांधी जी के आंदोलन से भी कोई सबक नहीं लिया गया है । यह देशव्यापी आंदोलन भी कई बलिदानों का गवाह बना है।बलिया में तो ब्रिटिश सरकार का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया था। बदले में दमन और उत्पीड़न का सामना जनता को करना पड़ा था। पटना सचिवालय से छात्रों ने 'यूनियन जैक' को उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। सात वीर छात्र अंग्रेज़ सरकार की पुलिस द्वारा शहीद कर दिये गए थे और असंख्य को गिरफ्तार कर कड़ी सजाएँ दी गईं थीं। उनकी स्मृति में वहाँ आर ब्लाक चौराहे पर 'सप्त मूर्ति' बनी हुई हैं। वहाँ भी फूल और मालाएँ चढ़ा कर उनका गुण गान करके खाना पूरती ही की जाती है। आज देश में कहीं भी 'देशप्रेम' की भावना दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। लोग परस्पर खून के प्यासे हो रहे हैं एक दूसरे का गला काटने व निजी तिजोरियाँ भरने की कवायद चारों ओर दिखाई दे रही है। जिस उद्देश्य से क्रांतिकारियों व सत्याग्रहियों ने अपनी कुर्बानी दी थी वह विफल हो रहा है।
अपने पूर्वजों की कुर्बानी की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। देश अपना है और इसके प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिलें यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। आपाधापी और सिर्फ अपने लिए जीने की पृवृति को त्यागना होगा तभी देश में खुशहाली लाई जा सकेगी।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Saturday, 1 August 2015
इप्टा व प्रलेस द्वारा प्रेमचंद का स्मरण
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कल दिनांक 31 जुलाई 2015 को क़ैसर बाग, लखनऊ स्थित उमानाथ बली प्रेक्षागृह में इप्टा व प्रलेस द्वारा कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी का स्मरण उनकी दो कहानियों के नाट्य मंचन द्वारा किया गया। समारोह संचालन राकेश जी द्वारा किया गया जिन्होने प्रेमचंद जी की आज की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला जबकि 'पंच परमेश्वर' का निर्देशन ओ पी अवस्थी जी द्वारा तथा 'शूद्र' का प्रदीप घोष साहब द्वारा किया गया। समारोह निर्धारित समय से प्रारम्भ हुआ जिसमें आरंभ में सुमन श्रीवास्तव जी के निर्देशन में मलिन बस्तियों की नन्ही-नन्ही बालिकाओं द्वारा सुंदर व मनमोहक गीत प्रस्तुति की गई।
'शूद्र' नाटक को दर्शकों की विशेष वाहवाही मिली। हाल खचाखच भरा होने के कारण खड़े होकर भी लोगों ने अति-उत्साह से अवलोकन किया व प्रस्तुति को सराहा।
राकेश जी ने घोषणा की कि शीघ्र ही इप्टा द्वारा जन-जागरण का अभियान प्रारम्भ किया जाएगा उसमें लोगों से सहयोग की उन्होने अपेक्षा भी की। उन्होने यह भी घोषणा की कि 08 अगस्त 2015 को इसी प्रांगण के 'जयशंकर प्रसाद ' सभागार में 'भीष्म साहनी' जी की जन्मशती के सिलसिले में दिन के साढ़े चार बजे एक गोष्ठी होने जा रही है जिसमें सभी जनों की उपस्थिती आमंत्रित है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
कल दिनांक 31 जुलाई 2015 को क़ैसर बाग, लखनऊ स्थित उमानाथ बली प्रेक्षागृह में इप्टा व प्रलेस द्वारा कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी का स्मरण उनकी दो कहानियों के नाट्य मंचन द्वारा किया गया। समारोह संचालन राकेश जी द्वारा किया गया जिन्होने प्रेमचंद जी की आज की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला जबकि 'पंच परमेश्वर' का निर्देशन ओ पी अवस्थी जी द्वारा तथा 'शूद्र' का प्रदीप घोष साहब द्वारा किया गया। समारोह निर्धारित समय से प्रारम्भ हुआ जिसमें आरंभ में सुमन श्रीवास्तव जी के निर्देशन में मलिन बस्तियों की नन्ही-नन्ही बालिकाओं द्वारा सुंदर व मनमोहक गीत प्रस्तुति की गई।
'शूद्र' नाटक को दर्शकों की विशेष वाहवाही मिली। हाल खचाखच भरा होने के कारण खड़े होकर भी लोगों ने अति-उत्साह से अवलोकन किया व प्रस्तुति को सराहा।
राकेश जी ने घोषणा की कि शीघ्र ही इप्टा द्वारा जन-जागरण का अभियान प्रारम्भ किया जाएगा उसमें लोगों से सहयोग की उन्होने अपेक्षा भी की। उन्होने यह भी घोषणा की कि 08 अगस्त 2015 को इसी प्रांगण के 'जयशंकर प्रसाद ' सभागार में 'भीष्म साहनी' जी की जन्मशती के सिलसिले में दिन के साढ़े चार बजे एक गोष्ठी होने जा रही है जिसमें सभी जनों की उपस्थिती आमंत्रित है।
(चित्र में गौरा के रूप में किरण सिंह व शेफाली के वेश में ऊषा राय तथा मंगरू की भूमिका में राजीव भटनागर ) |
(चित्र में गौरा के रूप में किरण सिंह व शेफाली के वेश में ऊषा राय ) |
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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