Sunday, 29 November 2015

बैंक के नियमों के विरुद्ध जनमत तैयार हो वर्ना हम यूं ही अन्याय का शिकार होते रहेंगे ------ प्रकाश सिन्हा

** डिजिटलाईज़ेशन के इस युग में बैंक इन्टरनेट, ATM और मोबाईल  फोन के ज़रिए कार्य करना चाह रहे हैं। अनावश्यक sms भेजते रहते हैं और उसका चार्ज खाताधारक से काट लेते हैं। इन्टरनेट, ATM से लेन-देन पर भी बैंक द्वारा शुल्क काट लिया जाता है और इन शुल्कों पर सर्विस टैक्स भी जोड़ा जाता है। छह माह से अधिक समय तक कोई लेन-देन न होने पर एकाउंट ठप कर दिया जाता है। फिर से वेरिफिकेशन करने को कहा जाता है। आसमान से भी ऊपर उड़ रही मंहगाई में साधारण इंसान कहाँ से और कैसे बचत करे जो बैंक में जमा किया जा सके। जब नई बचत न हो रही हो तब क्या पुरानी किसी बचत को यों ही निकाल कर उड़ाया जा सकता है। अतः छह माह की अनावश्यक पाबंदी, sms शुल्क व ATM/इन्टरनेट पर लगने  वाला चार्ज बैंकों द्वारा समाप्त कराने हेतु साधारण जनता को एकजुट होकर प्रतिवाद करना चाहिए। सरकार बैंकों को केवल धनवानों तक ही सीमित रखना चाहती इसलिए अनावश्यक बोझ जनता पर लाद दिया गया है जबकि पहले चेकबुक, स्टेशनरी आदि सब बैंको की ओर से निशुल्क प्रदान किया जाता था तब भी उनको लाभ रहता था।

यदि प्रतिवाद न किया गया तो साधारण जन का यों ही शोषण होता रहेगा।
Vijai RajBali Mathur shared Prakash Sinha's post.


बैंक आजकल बेमतलब के sms भेजते रहते हैं और फिर sms चार्ज भी काट लेते हैं। छह माह लेनदेन न  होने पर एकाउंट बंद का देते हैं। इतनी मंहगाई में बचत होती नहीं है , जमा कैसे हो और जब जमा नया नहीं हो रहा तब पुराना निकाला क्यों जाये? लेकिन ट्रांज्कशन न होने पर एकाउंट बंद करना ये मुद्दे भी ज्यादती के हैं।------

Prakash Sinha
5 hrsEdited
मेरे मित्रों, अगर कोई चेक बैंक में पर्याप्त रकम न होने की वजह से बाउन्स हो जाता है तो बैंक दोनों पक्षों से फाइन की रकम वसूल करता है । अब अगर चेक पानेवाले से फाइन लिया जाता है तो उसका कसूर क्या है ? एक तो उसे अपने पैसे नहीं मिले और ऊपर से फाइन की रकम भी भरनी पड़ी । क्या यह बैंक का न्यायपूर्ण नियम है ? क्या ऐसे चेक जारी करनेवाले से ही सारी रकम नहीं वसूलनी चाहिए ? हम इन बातों को छोटी बात समझकर नजरअंदाज कर देते हैं । पर क्या आपको भी लगता है कि ऐसी बातें नजरअंदाज कर देनी चाहिए?


Comments
Prakash Sinha बैंक के खिलाफ क्या कोई आंदोलन चलाना चाहिए या हमें पहले जनमत तैयार करना चाहिए?दरअसल हम छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज कर देते हैं । पर बात कोई भी हो, छोटी नहीं होती । आम जनता का जागना जरूरी है वर्ना हम यूं ही छोटी-छोटी बातों की वजह से अन्याय का शिकार होते रहेंगे ।
LikeReply4 hrsEdited
Prakash Sinha विजय जी, आप जो कह रहे हैं, मैं खुद उसका शिकार हो चुका हूं । ट्रांजेक्शन न होने की वजह से मेरा बैंक एकाउंट बंद हो चुका था । जब उसे रि-ओपेन करवाया तो पता चला मेरा चेक बाउंस हो चुका है और दंडस्वरूप 91/- भरने पड़े । अब बताइए, अगर चेक बाउंस हो गया तो इसमें मेरी क्या गलती थी ? एक तो मुझे रकम नहीं मिली और ऊपर से दंड भी भरना पड़ा । कोई भी नियम अगर अन्यायपूर्ण हो तो हमें उसके विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाना चाहिए? मैं चेक जारी करनेवाले के खिलाफ कार्रवाई कर सकता था , पर मैं चाहता हूं कि सबसे पहले बैंक के नियमों के विरुद्ध जनमत तैयार हो । इसलिए मैंने फेसबुक जैसे सोशल साइट का सहारा लिया ताकि कोई जनमत तैयार हो सके ।सभी लोग बैंक के खिलाफ अपनी शिकायतों को यहां शेयर कर सकें ।
LikeReply4 hrs
Vijai RajBali Mathur जी हाँ आपका प्रयास सही है इसीलिए मैंने और बातें जोड़ दी थीं। सबको ही इस अभियान का साथ देना चाहिए।
LikeReply13 hrs
Prakash Sinha जी, धन्यवाद । हम रोज-रोज किसी-न-किसी गलत बातों का शिकार होते रहते हैं, लेकिन चुप रहते हैं । यह सहिष्णुता नहीं बल्कि कायरता है।जो व्यक्ति जहां हैं वहीं से सक्रियतापूर्वक अपनी आवाज उठा सकता है । अगर हर नागरिक जुझारू हो तो बहुत सारी गलत बातें निचले स्तर पर ही खत्म हो सकती हैं । समाज के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और सक्रियता लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी हैं ।

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Friday, 27 November 2015

राजा नहीं फ़क़ीर हैं, देश की तक़दीर हैं ------ कुलदीप कुमार 'निष्पक्ष'


पुण्यतिथि पर स्मरण :


कुलदीप कुमार 'निष्पक्ष'
27-11-2015
राजा नहीं फ़क़ीर हैं, देश की तक़दीर हैं/
शोषित, वंचित और पिछड़ों के नेता और पूर्वप्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी को उनकी पुण्यतिथी पर श्रद्धा सुमन समर्पित।
राज-परिवार में जन्म लेने वालें वीपी सिंह जी की छवि एक ईमानदार, राजनैतिक और सामाजिक दूरदर्शी, कुटिल राजनीतिज्ञ और निर्मल स्वाभाव की है। शाही परिवार में जन्म लेने के कारण छात्र जीवन से ही वे राजनीति में सक्रीय रहें। तथा उसमे सफलत भी रहें। शुरुवाती राजनीति में वे बनारस के उदय प्रताप महाविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष और इलाहाबाद विवि से छात्र संघ उपाधय्क्ष भी रहें। इसके बाद वह इलाहाबाद विवि के कार्यकारणी एवं उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहें। इसके बाद क्रमशः संसद के सदस्य, वाणिज्य उपमंत्री, वाणिज्य संघ राज्यमंत्री, संसद सदस्य, 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहें। इसके पश्चात वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य और उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी रहें।
इसके पश्चात वे केंद्रीय वाणिज्यमंत्री और 1 दिसम्बर 1984 को केंद्रीय वित्त मंत्री बने।
वित्तमंत्री के रूप में यह पूंजीपतियों के प्रति बेहद सख्त रहें, जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इनके मतभेद होने लगे। वीपी सिंह जी के पास सुचना थी की कुछ भारतियों की अवैध संपत्ति विदेशी बैंकों में जमा है। इसके बाद वह उन भारतियों के नाम जानने के लिए अमेरिकी जासूसी कम्पनी 'फेयरफैक्स' को नियुक्त किया। इसी समय बोफोर्स तोपों की खरीददारी पर 60 करोड़ के कमीशन की जानकारी मिलने पर वह मिडिया में इसे लेकर काफी कुछ कहें। उनका इशारा राजीव गांधी के तरफ होने पर उन्हें कांग्रेस से निष्काषित कर दिया गया।
इसके बाद वीपी सिंह जी ने अपना एक अलग दल 'राष्ट्रीय मोर्चा' बनाकर भ्रस्टाचार के नाम पर चुनाव लड़ा और राजीव गांधी पर अप्रत्यक्ष लेकिन करारा प्रहार करते हुए जनता के बीच यह बात फैला दी की कालाधन और बोफोर्स कांड में राजीव गांधी समेत कांग्रेस का शीर्षक्रम इसमें लिप्त हैं।
1989 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को काफी क्षति पहुंचा लेकिन सबसे ज्यादा सीटें उसी के पास रही। लेकिन वीपी सिंह ने देश के इतिहास में पहली बार वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों को एक मंच पर लाकर एक नाटकीय कार्यक्रम में जो पहले से ही तय था, उसमे अपने करीबी प्रतिद्वंदी चंद्रशेखर और देवीलाल पर राजनीतिक विजय प्राप्त करके प्रधानमंत्री की कुर्सी प्राप्त किये।
प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह जी ने देश के इतिहास के सबसे बड़े फैसलों में एक मण्डल कमीशन की सिफारिश को मंजूरी देकर पिछड़ों को आगे आने का अवसर प्रदान किया। जिसका परिणाम आज देखने को मिलता है। मण्डल को मंजूरी देने के साथ ही पुरे देश में व्यापक स्तर पर उग्र प्रदर्शन हुये। जिसको वीपी सिंह जी ने अपने एक साक्षात्कार में मिडिया के दिमागी उपज का हिस्सा बताया। मण्डल कमीशन की मंजूरी के बाद भारतीय जनता पार्टी और वीपी सिंह में मतभेद गहराया और वीपी सिंह की सरकार गिर गयी।
वरिष्ठ पत्रकार बहादुर राय जी ने वीपी सिंह जी के साक्षात्कार के आधार पर 'विश्वनाथ प्रताप सिंह : मंज़िल से ज्यादा सफ़र' नामक एक किताब लिखा है। जिससे वीपी सिंह को समझने में सहायता मिल सकती है।
भू-आंदोलन के दौरान अपनी काफी जमीन दान कर देने वालें वीपी सिंह जी एक अच्छे चित्रकार और कवि भी थे। उनकी एक कविता के साथ उनको श्रद्धा सुमन समर्पित _/\_.
'मुफ़लिस से
अब चोर बन रहा हूँ मैं
पर
इस भरे बाज़ार से
चुराऊँ क्या
यहाँ वही चीजें सजी हैं
जिन्हे लुटाकर
मैं मुफ़लिस बन चुका हूँ।'

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=484919691689979&set=a.102967489885203.3918.100005158561797&type=3&theater

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प्रस्तुत लेख से अतिरिक्त कुछ और बातों की जानकारी भी समीचीन रहेगी। यथा ------
 1 ) विश्वनाथ प्रताप जी आत्म-विश्वासी व स्वाभिमानी भी थे। 1969 में जब इन्दिरा कांग्रेस के पास टिकट मांगने वालों के आभाव में इन्दिरा जी ने उप-चुनाव में भाग न लेने का इरादा किया था तब  युवा वी पी सिंह जी ने इन्दिरा जी के विश्वस्त दिनेश सिंह जी से कहा था कि वह चुनाव न सिर्फ लड़ने के लिए तैयार हैं बल्कि जीतेंगे भी। दिनेश सिंह उनको हवाई जहाज से लेकर दिल्ली गए और इन्दिरा जी से मिलवाया तब इन्दिरा जी ने उनको यह सोच कर टिकट दे दिया कि  यह हार भी जाएँ तो उनको क्या फर्क पड़ेगा कोई तो चुनाव लड़ने वाला ही नहीं था। लेकिन वी पी सिंह जी ने वह चुनाव बड़ी शान से जीत कर इन्दिरा जी का विश्वास अर्जित कर लिया था। 
2 ) आपात काल की समाप्ती के बाद 1977 का चुनाव हारने के बाद जब इंदिराजी उदास थीं तब वी पी सिंह ब्रिटेन आदि का दौरा कर आपात काल के औचित्य को विदेशों में सही सिद्ध कर रहे थे और विदेशों में इन्दिरा जी के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने में वह सफल रहे थे। 
3 ) 1989 में प्रधानमंत्री बनने पर उस IAS को अपना सचिव बनाया जिसने जनता पार्टी के शासन में इलाहाबाद का DM रहते हुये उनको गिरफ्तार करवाया था। 
4 ) अपने 11 माह के शासन में भाजपा के मुरली मनोहर जोशी व तथाकथित साधू-सन्यासियों को अनावश्यक महत्व देना भी वी पी सिंह जी  की सरकार के पतन का कारण रहा। 
5 ) पी एम रहते हुये उस धीरु  अंबानी को उन्होने मिलने का वक्त नहीं दिया था जिसने आठ वर्षों के अल्प समय में पेट्रोल में सालवेंट मिला कर बेचने से अनाप-शनाप मुनाफा अर्जित कर लिया था। नतीजतन उसने आर एस एस को धन देकर आडवाणी साहब के नेतृत्व में 'रथ-यात्रा' निकलवा कर देश को दंगों की भट्टी में झोंक दिया और 50 से अधिक सांसदों को खरीद कर वी पी सिंह सरकार के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त करा दिया। वी पी सरकार के पतन पर चंद्रशेखर व आडवाणी लोकसभा में खुल कर गले मिले थे। 
6 )  डायलेसिस पर चल रहे पूर्व पी एम  वी पी सिंह जी ने फर्स्ट अप्रैल के दिन   घोषणा कर दी कि उनको ब्लड कैंसर हो गया है और इस कारण चंद्रशेखर जी उनके निवास पर जाकर उनसे मिले तब ज्ञात हो सका कि यह उनका 'फर्स्ट अप्रैल' मज़ाक था। 
(विजय राजबली माथुर )

Saturday, 14 November 2015

नेहरू जी की प्रासंगिकता आज और ज़्यादा ------ विजय राजबली माथुर

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इसी ब्लाग के पिछले पोस्ट द्वारा 13 नवंबर 1977 को  धर्मयुग में प्रकाशित पंडित अमृतलाल नागर जी के दृष्टिकोण को रखा है -
http://vijaimathur.blogspot.in/2015/11/blog-post_14.html

जबकि, धर्मयुग  के उसी अंक में डॉ राही मासूम रज़ा साहब के विचार इसी ब्लाग  में  पहले ही दिये जा चुके हैं -
http://vijaimathur.blogspot.in/2015/09/blog-post.html

उसी अंक में शिव प्रसाद सिंह जी ने अपने लेख में ज़िक्र किया है कि ," नेहरू जी का  सांस्कृतिक व्यक्तित्व एक स्वप्न दृष्टा का व्यक्तित्व था " । उन्होने यह भी उल्लेख किया है कि नेहरू जी जनता की उनके प्रति प्रतिक्रिया को काफी महत्व देते थे। इसी क्रम में नेहरू जी ने 'चाणक्य ' नामक छद्यम रूप से एक लेख लिखा था -"एक हल्का सा झटका और बस जवाहर लाल मंथर गति से चलने वाले जनतंत्र के टंट-घंट को एक तरफ करके तानाशाह में बदल सकते हैं। वे तब भी शायद प्रजातन्त्र और समाजवाद की शब्दावली और नारे दोहराते रहेंगे, लेकिन हम जानते हैं कि किस तरह तानाशाहों ने इस तरह के नारों से अपने को मजबूत किया है। और कैसे समय आने पर इन्हें बकवास कह कर एक तरफ झटक दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वे शायद सफल और योग्य शासक बने रहते , परंतु इस  क्रांतिकारी युग में , सीजरशाही हमेशा ताक में बैठी रहती है और क्या यह संभव नहीं है कि नेहरू सीजर की भूमिका में उतरनेकी कल्पना कर रहे हों। "

शिव प्रसाद जी ने लिखा है कि इस लेख में व्यक्त विचारों के कारण जनता उस 'चाणक्य' को मारने/फांसी देने को इच्छुक हो गई तब नेहरू जी को खुलासा करना पड़ा कि वह खुद इसके लेखक है इस खुलासे ने विस्मय उत्पन्न कर दिया था। 

पूर्व पी एम बाजपेयी साहब ने भी नेहरू जी की उदारता का ज़िक्र करते हुये बताया था कि जब वह पहली बार सांसद बने थे तो लोकसभा की एक बैठक में जम कर नेहरू जी के परखचे उघाड़े थे लेकिन नेहरू जी चुपचाप सुनते रहे थे। उसी शाम राष्ट्रपति भवन में एक भोज था जिसमें वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे, किन्तु नेहरू जी खुद चल कर उनके पास आए और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा 'शाबाश नौजवान' इसी तरह डटे रहो तुम एक दिन ज़रूर इस देश के प्रधानमंत्री बनोगे।  

पीटर रोनाल्ड डिसूजा साहब का उपरोक्त लेख ज़िक्र करता है कि, बाद में नेहरू जी की इस सहिष्णुता का परित्याग कर दिया गया। भीष्म नारायण सिंह जी ने भी उदारीकरण के इस दौर में नेहरू जी की प्रासंगिकता की और ज़रूरत को रेखांकित किया है। 

लेकिन हम व्यवहार में देखते हैं कि 1977 के मुक़ाबले आज 38 वर्षों बाद नेहरू जी और उनकी नीतियों पर आक्रामक प्रहार किए जा रहे हैं। उस समय की  मोरारजी देसाई की जपा सरकार के मुक़ाबले आज की भाजपाई मोदी सरकार तो नेहरू जी का नामोनिशान तक मिटा देने पर आमादा है। नेहरू जी ने यू एस ए अथवा रूस के खेमे में जाने के बजाए यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो तथा मिश्र के कर्नल अब्दुल गामाल नासर के साथ मिल कर एक 'गुट निरपेक्ष' खेमे को खड़ा करके दोनों के मध्य संतुलन बनाने का कार्य किया था। आज की मोदी सरकार ने यू एस ए के समक्ष ही नहीं देश के कारपोरेट घरानों के समक्ष भी आत्म समर्पण कर दिया है। नेहरू जी ने देश में मिश्रित अर्थ व्यवस्था लागू की थी और योजना आयोग के माध्यम से  विकास का खाका खींचा था जिसने देश को आत्म-निर्भर बना दिया था। अब योजना आयोग समाप्त किया जा चुका है और सार्वजानिक क्षेत्र को समाप्त किए जाने की जो प्रक्रिया बाजपेयी नीत  भाजपा सरकार ने शुरू की थी उसे पूर्ण सम्पन्न करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बने क़ानूनों को समाप्त या निष्प्रभावी किया जा रहा है।'चाणक्य' नाम से नेहरू जी ने जो लिखा था वह मोदी साहब पर लागू होने के आसार साफ-साफ नज़र आ रहे हैं।  जनता त्राही-त्राही कर रही है जो नेहरू जी जनता की प्रतिक्रिया को महत्व देते थे उनके आज के उत्तराधिकारी जनता को महत्वहीन मानते हुये कुचलने पर आमादा हैं। ऐसे में वर्तमान शासकों को जनमत के आगे झुकने के लिए मजबूर करने के लिए नेहरू जी के कार्यों व उनकी नीतियों को बहाल करने की मांग उठाना आज वक्त की जोरदार ज़रूरत है। 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणियाँ :

जौहरी परखें जरा जौहर जवाहरलाल के ----- अमृतलाल नागर

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यह लेख धर्मयुग 13 नवंबर 1977 के पृष्ठ 16 पर प्रकाशित है :









 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 10 November 2015

संघी भारतीय संस्कृति में विश्वास ही नहीं रखते इनका गणवेश तक विदेशी है विचारधारा भी आयातित है*** संध्या नवोदिता

***संघियों  की भाषा शैली है...........माँ- बहन की भद्दी गालियाँ, स्त्री का चरित्र हनन, द्विअर्थी संवाद ...खुद इनकी अपनी वाल भी अश्लीलता से भरी होती है | अश्लील तस्वीरें, अश्लील चुटकुले, फूहड़ मज़ाक जो स्त्रियों को लेकर होते हैं और अपनी वाल की इस सडांध भरी गंदगी को वे किसी देवी देवता की तस्वीर से ढंकने का प्रयास करते हैं ......वेद इन्होने कभी पढ़ा नहीं| पढ़ी तो इन्होने मानस और गीता भी नहीं| वरना गार्गी, अपाला, द्रोपदी की तर्क शक्ति ये जानते तो स्त्रियों की वाल पर अपनी कुंठा का वमन न कर रहे होते| इनके लिए स्त्री केवल भोग की वस्तु है ***संघ की ड्रेस काली टोपी, खाकी निक्कर ये सब विदेशी हैं| ये लोग भारतीय संस्कृति में विश्वास ही नहीं रखते| इनका गणवेश तक विदेशी है| विचारधारा भी आयातित है***



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मुझे संघियों से क्या समस्या है ? क्योंकि वे निहायत पिछड़ी और सामन्ती मानसिकता के होते हैं | उनसे इस मंच पर बहुत संवाद करने का प्रयास किया है, पर वे तर्क और तथ्य के बजाय फ़ौरन गाली गलौज, चरित्र हनन और अश्लीलता पर उतर आते हैं |
माँ- बहन की भद्दी गालियाँ, स्त्री का चरित्र हनन, द्विअर्थी संवाद ही इनकी भाषा शैली है |
ये वेद वेद बस चिल्लाते ही हैं, वेद इन्होने कभी पढ़ा नहीं| पढ़ी तो इन्होने मानस और गीता भी नहीं| वरना गार्गी, अपाला, द्रोपदी की तर्क शक्ति ये जानते तो स्त्रियों की वाल पर अपनी कुंठा का वमन न कर रहे होते| इनके लिए स्त्री केवल भोग की वस्तु है, ये उसे फैसलों में शामिल नहीं करते|
कम से कम मेरा अनुभव तो यही है | मुझे दर्जनों संघियों को ब्लॉक करना पड़ा है| खुद इनकी अपनी वाल भी अश्लीलता से भरी होती है | अश्लील तस्वीरें, अश्लील चुटकुले, फूहड़ मज़ाक जो स्त्रियों को लेकर होते हैं और अपनी वाल की इस सडांध भरी गंदगी को वे किसी देवी देवता की तस्वीर से ढंकने का प्रयास करते हैं |
इसका कारण उनके संस्कारों में है. अक्सर वे निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि के बेरोजगार नौजवान या अधेड़ हैं| या फिर अपने व्यवसाय में बहुत सफल लोग नहीं हैं | वे अपने काम में सफल नहीं हैं | और बहुत बार खाली दिमाग शैतान का घर होता है, सो वे खूब खुराफाती हैं |
अपनी कम अकली और गैर तार्किक सोच के कारण वे ठस्स दिमाग के हैं| उनका आई क्यू स्तर कम है| वे गणित और विज्ञान और दुनिया की तमाम भाषाओं से अपरिचित हैं| वे दारू पीते हैं , जगराता करते हैं, सड़क पर निकलते हैं लडकी छेड़ते हैं, फेसबुक पर आते हैं अश्लील टिप्पणी करते हैं| रिश्तेदारों के घर जाते हैं अपने माँ बाप को जलील करते हैं| वे अपने मोहल्ले में अराजक गुंडे की पहचान लिए होते हैं|
आप उन्हें हिन्दू न समझें| इस देश का बहुसंख्यक हिन्दू बहुत उदार और सर्व धर्म समभाव वाला है | ऐसे हिन्दुओं के कारण ही भारत का राष्ट्रीय चरित्र सुरक्षित है| यही हिन्दू हैं जिनके कारण यह देश कई संस्कृतियों और कई धर्मो का देश है| यही हिन्दू हैं जिनके कारण यह देश महकता है |
बहुसंख्यक हिन्दू तो संघियों को पसंद ही नहीं करता| उनसे एक सुरक्षित दूरी बना के चलता है| वह अपने बच्चों को कूप मण्डूक स्कूलों में नहीं पढ़ाता और ज्ञान विज्ञान की शिक्षा देता है| वह अपने बच्चों को एक उदार और ज़िम्मेदार नागरिक बनाता है| वह दंगों और साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलता है| वह धार्मिक है, मंदिर जाता है पर गैर धर्मियों से नफरत नहीं करता, वह विधर्मियों को मारने काटने की वकालत नहीं करता| यही वह हिन्दू है जो वैज्ञानिक भी है, साहित्य भी रचता है, फ़िल्में बनाता है और स्त्रियों से बराबरी से बात भी करता है|
पर नौजवान अगर संघी सोच के बने तो इसमें सिर्फ उनका कुसूर नहीं है| गैर तार्किक शिक्षा और बेरोजगारी तमाम नौजवानों को बम, गोला, बारूद में तब्दील कर रही है| अगर इन्हीं नौजवानों को बेहतर शिक्षा के साथ मनचाहा काम मिला होता, कुछ सर्जनात्मक टास्क जीवन में होता तो ये एक पल यहाँ न रहते|
तार्किक होने के लिए पढ़ना पड़ता है| बहुत सारा इतिहास, विज्ञान, भूगोल, राजनीति, दर्शन कला.... जब कोई भी खूब पढता है, दुनिया को जानता और समझता है तो वह खुद ही संकीर्णता से ऊपर उठ जाता है|
प्रेम करें... लेकिन संघ में तो प्रेम होता ही नहीं | वहां स्त्री सदस्य नहीं बन सकती| वहां स्त्री पुरुष बराबर दर्जे पर नहीं होते| वहाँ स्त्री को तर्क का अधिकार ही नहीं, जब सदस्यता ही नहीं, तो तर्क कैसा? संघ के सरसंघचालक हमेशा पुरुष ही होते हैं, वह भी एक ख़ास किस्म के ब्राह्मण के लिए पद आरक्षित है| वहां सरसंघ चालक चुना नहीं जाता, बल्कि मनोनीत होता है| संघ लोकतंत्र में यकीन नहीं रखता|
और दूसरा संघ की ड्रेस काली टोपी, खाकी निक्कर ये सब विदेशी हैं| ये लोग भारतीय संस्कृति में विश्वास ही नहीं रखते| इनका गणवेश तक विदेशी है| विचारधारा भी आयातित है|
ये ठेठ सामन्ती मूल्य हैं| इनमे पला व्यक्ति कैसे किसी का आदर करना सीखेगा| वह रिजिड ही होगा|

Monday, 9 November 2015

मोदी : अशांति का नायक ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी

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हिन्दुत्ववादी तानाशाही के 15 लक्ष्य-
जो लोग फेसबुक से लेकर मोदी की रैलियों तक मोदी-मोदी का नारा लगाते रहते हैं वे सोचें कि मोदी में नारे के अलावा क्या है ,वह जब बोलता है तो स्कूली बच्चों की तरह बोलता है,कपड़े पहनता है फैशन डिजायनरों के मॉडल की तरह, दावे करता है तो भोंदुओं की तरह, इतिहास पर बोलता है तो इतिहासअज्ञानी की तरह ।
मोदी में अभी तक पीएम के सामान्य लक्षणों ,संस्कारों, आदतों और भाषण की भाषा का बोध पैदा नहीं हुआ है। मसलन् पीएम को दिल्ली मेट्रो में सैर करने की क्या जरुरत थी ? वे क्या मेट्रो से कहीं रैली में जा रहे थे ?मेट्रो सफर करने का साधन है, सैर-सपाटे का नहीं।
मोदी सरकार के लिए भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपराएं बेकार की चीज है। असल है देश की महानता का नकली नशा। उसके लिए शांति,सद्भाव महत्वपूर्ण नहीं है ,उसके लिए तो विकास महत्वपूर्ण है, वह मानती है शांति खोकर,सामाजिक तानेबाने को नष्ट करके भी विकास को पैदा किया जाय। जाहिर है इससे अशांति फैलेगी और यही चीज मोदी को अशांति का नायक बनाती है।
मोदी की समझ है स्वतंत्रता महत्वपूर्ण नहीं है, विकास महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता और उससे जुड़े सभी पैरामीटरों को मोदी सरकार एकसिरे से ठुकरा रही है और यही वह बिंदु है जहां से उसके अंदर मौजूद फासिज्म की पोल खुलती है।
फासिस्ट विचारकों की तरह संघियों का मानना है नागरिकों को अपनी आत्मा को स्वतंत्रता और नागरिकचेतना के हवाले नहीं करना चाहिए, बल्कि कुटुम्ब,राज्य और ईश्वर के हवाले कर देना चाहिए. संघी लोग नागरिकचेतना और लोकतंत्र की शक्ति में विश्वास नहीं करते बल्कि थोथी नैतिकता और लाठी की ताकत में विश्वास करते हैं।
पीएम मोदी की अधिनायकवादी खूबी है- तर्कवितर्क नहीं आज्ञा पालन करो। इस मनोदशा के कारण समूचे मंत्रीमंडल और सांसदों को भेड़-बकरी की तरह आज्ञापालन करने की दिशा में ठेल दिया गया है, क्रमशःमोदीभक्तों और संघियों में यह भावना पैदा कर दी गयी है कि मोदी जो कहता है सही कहता है, आंख बंद करके मानो। तर्क-वितर्क मत करो। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं विकास में बाधक है,तेजगति से काम करने में बाधक हैं,अतः उनको मत मानो। सोचो मत काम करो। धर्मनिरपेक्ष दलों-व्यक्तियों की अनदेखी करो, उन पर हो रहे हमलों की अनदेखी करो।राफेल डील से लेकर लैंड बिल तक मोदी का यह नजरिया साफतौर पर दिखाई दे रहा है।
हिन्दुत्ववादी तानाशाही के 15 लक्ष्य -

-1- पूर्व शासकों को कलंकित करो, 2.स्वाधीनता आंदोलन की विरासत को करप्ट बनाओ,3.हमेशा अतिरंजित बोलो,4. विज्ञान की बजाय पोंगापंथियों के ज्ञान को प्रतिष्ठित करो,5. भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरों को संरक्षण दो, 6.सार्वजनिकतंत्र का तेजी से निजीकरण करो,7. विपक्ष को नेस्तनाबूद करो,8.विपक्ष के बारे में का हमेशा बाजार गर्म रखो,9.अल्पसंख्यकों पर वैचारिक-राजनीतिक -आर्थिक और सांस्कृतिक हमले तेज करो,10.मतदान को मखौल बनाओ. 11.युवाओं को उन्मादी नारों में मशगूल रखो,12. खबरों और सूचनाओं को आरोपों-प्रत्यारोपों के जरिए अपदस्थ करो,13.भ्रमित करने के लिए रंग-बिरंगी भीड़ जमा रखो,लेकिन मूल लक्ष्य सामने रखो,बार-बार कहो हिन्दुत्व महान है,जो इसका विरोध करे उस पर कानूनी -राजनीतिक-सामाजिक और नेट हमले तेज करो,14.धनवानों से चंदे वसूलो,व्यापारियों को मुनाफाखोरी की खुली छूट दो।15.पालतू न्यायपालिका का निर्माण करो।

https://www.facebook.com/jagadishwar9/posts/1157953267566712


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 8 November 2015

अनुपम खेर के मार्च में महिला पत्रकार से बदसूलकी (terrorising ) ------ अमर उजाला, नई दिल्‍ली

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Being proud Hindu means terrorising anyone  : 




दिल्ली में एनडीटीवी की महिला पत्रकार के साथ अनुपम खेर के मार्च में बदसलूकी की गई है। पत्रकार भैरवी सिंह ने ट्विट कर इसकी जानकारी दी और बताया कि उन्हें अपशब्द भी कहे गए।

निजी टीवी की पत्रकार ने ट्विट किया कि पहले उन्हें वेश्या कहा गया और अपशब्द कहते हुए धक्का दिया गया। इतना ही नहीं, ये कहते हुए उनका पीछा भी किया गया कि भारतीय रचनात्मक समाज इस मुद्दे पर बंटा हुआ है।

भैरवी ने बदसलूकी करने वाले लोगों को गुंडे करार देते हुए लिखा कि इस घटना ने उन्हें हिला दिया है।

First was called a prostitute, heckled, chased just for saying that the Indian creative world is divided on this issue @AnupamPkher
— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015

http://delhincr.amarujala.com/feature/delhi-news-ncr/female-journalist-heckled-in-anupam-kher-s-march-hindi-news/

घटना के दौरान उनके चेहरे पर पोस्टर भी फेंका गया और कहा गया कि वे पैसे के लिए काम करने वाली पत्रकार हैं, उन्हें कांग्रेस की टोपी पहन लेनी चाहिए।

अनुपम खेर के मार्च में महिला पत्रकार से हुई इस घटना की दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने निंदा की है। दिल्ली के सीएम ने सोशल साइट पर लिखा,� "इस तरह का बुरा बर्ताव हम स्वीकार नहीं करेंगे। मैडम मैं आपकी हिम्मत की दाद देता हूं।"

वहीं भैरवी के मुताबिक उनके साथ इस तरह का बर्ताव शिक्षित लोगों के द्वारा किया गया। जबकि धक्का देने और अपशब्द कहने के बावजूद भी लोगों ने उन्हें झूठी रिपोर्टिंग करने वाली रिपोर्टर कहते हुए दोषी करार दिया।

गौरतलब है कि बॉलीवुड अभिनेता अनुपम खेर ने साहित्यकारों और अभिनेताओं के अवॉर्ड वापसी के खिलाफ मार्च फॉर इंडिया के नाम से मार्च निकाला। 

After being heckled, told your fault - you deserved it as you were reporting false things @AnupamPkher @imbhandarkar

— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015

टीवी पत्रकार भैरवी सिंह ने अनुपम खेर को संबोधित करते हुए कई ट्वीट किए जिन्हें आप नीचे पढ़ सकते हैं...

Shaken, scared by goons who didn't understand a word of what I said at the March @AnupamPkher

— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015

I was thrust a poster in my face, told I'm a paid journalist- asked to wear a congress cap @AnupamPkher @imbhandarkar
— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015

Being proud Hindu means terrorising anyone who says anything @AnupamPkher I was abused, heckled, pushed by educated people and a mob
— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015

Now of course being terrorised on Twitter as well... @AnupamPkher just for giving my point of view !
— Bhairavi Singh (@Bhairavi_NDTV) November 7, 2015


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 7 November 2015

इरोम शर्मिला का संघर्ष आखिर कब तक ? ------ कौशल किशोर

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जन संदेश टाईम्स , लखनऊ  दिनांक 06 नवंबर 2015 में  प्रकाशित कौशल किशोर जी का सारगर्भित लेख  एवं उनका संकलित समाचार  ------






 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 5 November 2015

हानूष : कलाकारों पर शासकों के अत्याचार की कहानी

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

संविधान के ढांचे को बचाने की जरूरत है ------ वीरेंद्र यादव

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आरएसएस के प्रवक्ताओं का कहना है कि आज जो लेखक-बुद्धिजीवी प्रतिरोध कर रहे हैं उनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने बनारस में नरेन्द्र मोदी का लोकसभा चुनाव के दौरान विरोध किया था. यह सच भी है क्योंकि बहुतों के साथ बनारस से लेकर दिल्ली तक के प्रतिरोध में मैं स्वयं शामिल रहा हूँ. मोदी के गुजरात के हिंदुत्व माडल को देखते हुए यह अंदेशा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद समूचे देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियां बेलगाम होकर बहुसंख्यकवाद को आक्रामक ढंग से अमल में लायेंगीं . आज देश में कलबुर्गी ,पानसरे सरीखे लेखकों-बुद्धिजीवियों और गाय , .गोमांस व पाकिस्तान के नाम पर निर्दोष अख़लाकों की हत्या से असहिष्णुता का जो वातावरण निर्मित हुआ है इससे चुनाव-पूर्व की आशंका सच साबित हुयी है. देश के बौद्धिक समुदाय का प्रतिरोध चुनाव के पूर्व और चुनाव के बाद देश के संविधान सम्मत जनतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाने के सामूहिक दायित्व का निर्वहन था और है. जरूरत है इसे जन-आन्दोलन का रूप देने की .
https://www.facebook.com/virendra.yadav.50159836/posts/1014079911976041?pnref=story



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 2 November 2015

डॉ राही मासूम रज़ा और उनके उपन्यास : कार्यक्रम की परिचर्चा --- विजय राजबली माथुर




लखनऊ,02 नवंबर 2015 : कल साँय  क़ैसर बाग स्थित राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में डॉ सादिया सिद्दीकी की पुस्तक ' डॉ राही मासूम रज़ा और उनके उपन्यास ' का विमोचन व एक परिचर्चा का आयोजन डॉ राही मासूम रज़ा साहित्य एकेडमी के तत्वावधान में किया गया। कार्यक्रम का संचालन प्रज्ञा पांडे जी  ने कुशलतापूर्वक सम्पन्न किया।

मंचस्थ विद्वानों में डॉ श्रद्धा सिंह,नरेश सक्सेना और वंदना  मिश्र जी शामिल रहे ।

प्रारम्भ में डॉ सादिया सिद्दीकी ने पुस्तक का परिचय देते हुये बताया कि, भारतीय मुसलमानों की संवेदनाओं का वर्णन डॉ राही के उपन्यासों में मिलता है । मुस्लिम समाज राष्ट्रीय धारा से कट कर सिमटता जा रहा था उसे डॉ राही ने  अपनी मृत्यु ( 15 मार्च 1992 ) पर्यंत अपने उपन्यासों का केंद्र बनाया है। उनके उपन्यासों पर प्रकाश डालना और उनका मूल्यांकन समाज के समक्ष करना ही उनकी पुस्तक का उद्देश्य रहा है।

अखिलेश श्रीवास्तव'चमन' का कहना था कि कबीर दास जी की आत्मा ने मानों डॉ राही में पुनर्जन्म ले लिया था। इस पुस्तक में नई दृष्टि से राही का मूल्यांकन किया गया है। प्रेमचंद,वृन्दावन लाल वर्मा और जेनेन्द्र से तुलना कर राही को उनसे आगे इस पुस्तक के माध्यम से बताया गया है। उनका कहना था कि राही के साहित्य में तत्कालीन समाज का इतिहास भी उपलब्ध है और उनका साहित्य जन-भाषा का साहित्य है। समाज में मुस्लिम वर्ग की स्थिति 'अधर ' में थी राही ने इसे ही रेखांकित किया है।

नरेश सक्सेना जी ने कहा की राही का उपन्यास ' आधा गाँव ' आधे हिंदुस्तान की कथा है। देश के बँटवारे को राही ने 'इंसानियत का बंटवारा' कहा है। आज इस खाई को और चौड़ा किया जा रहा है। आज भाषा को सरकारी स्तर पर बर्बाद किया जा रहा है। विलोम को वे परिवार कहते हैं। साहित्य व संस्कृति को गड्ढे में डालने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में राही की प्रासांगिकता बढ़ जाती है और इस पुस्तक के माध्यम इस ओर प्रयास किया गया है।

नसीम साकेती साहब ने कहा कि सादिया ने राही के अनछुये रहे पहलुओं पर प्रकाश डाला है। राही द्वारा मुस्लिम त्रासदी पर लिखा हुआ आज मील का पत्थर साबित हो रहा है। यह पुस्तक विवेचनापूर्ण व सार्थक है। आधा गाँव में बताया गया है कि दंगे स्वतः स्फूर्त नहीं उकसाने से होते हैं और आज भी यही हो रहा है।

डॉ रेश्मा ने कहा कि सादिया ने राही-साहित्य पर जो कड़ी मेहनत की है वह  इस पुस्तक के जरिये कामयाब  रही है। उन्होने पुस्तक को ज़रूरी बताया। लेकिन पुस्तक में संदर्भों के आभाव की ओर भी उन्होने इंगित किया।

डॉ लारी ने सादिया की माता के साथ अपने सम्बन्धों की चर्चा करते हुये कहा कि सादिया को 'सच्चाई' का एहसास हुआ तभी उन्होने कलम उठाई । यह अच्छा कदम है वह चाहती थीं कि सच्छाई को सामने लाने के लिए और भी लोग आगे आयें।

उन्नाव से पधारे दिनेश जी चाहते थे कि कानपुर, उन्नाव और लखनऊ के साहित्यकार और संस्कृति कर्मी मिल कर डॉ राही के अभियान को आगे बढ़ाने की पहल करें। लेखक बंदिश नहीं मानता है और डॉ राही मासूम रज़ा केवल मुस्लिमों के ही लेखक नहीं थे उन्होने समग्र रूप से साहित्य -सृजन किया है। सिलसिलेवार रूप से सारी चिंताओं को इस पुस्तक में उठाया गया है।
रामविलास शर्मा शताब्दी  वर्ष 2012 में डॉ श्रद्धा सिंह जी को उन्नाव में सम्मानित किया गया था किन्तु तब वह अपना पुरस्कार ग्रहण न कर पाईं थी। इस कार्यक्रम के दौरान दिनेश जी ने उनको प्रतीक चिन्ह भेंट किया व सादिया सिद्दीकी जी द्वारा श्रद्धा सिंह जी को शाल ओढ़वाया।

डॉ भारती सिंह जी ने ज़ोर देकर कहा कि  राही ने इंसानियत की बात उठाई थी और उसकी आज भी  ज़रूरत है।

शकील सिद्धीकी साहब का कहना था कि सादिया ने अहम काम किया है। राही की समवेदनाओं को जनता तक संप्रेषित करने का काम पहले भी हुआ है लेकिन जितना होना चाहिए था उतना नहीं हुआ है। इस दिशा में यह पुस्तक अच्छी पहल है। उनका कहना था कि आधा गाँव के माध्यम से मुस्लिम समाज में भी सम्पन्न व विपन्न की खाई को उजागर किया गया है। इस उपन्यास में वर्ग-विभाजन की स्पष्ट झलक मिलती है। राही ने ज़्यादा से ज़्यादा चिंताओं को समेटा है। सादिया ने बड़े करीने से हिन्दी में उर्दू साहित्य का विवेचन डॉ राही के बहाने से किया है जो तारीफ की बात है। उनका साफ कहना था कि कुछ बातों के छूट जाने के बाद भी सादिया की यह किताब प्रासांगिक होगी।

शकील सिद्दीकी साहब ने ध्यान दिलाया कि लखनऊ वासी 'राम लाल' साहब का भी उर्दू साहित्य में  काफी योगदान रहा है।  वह चाहते थे कि ,  नगरवासियों को ऐसे साहित्यकारों की जन्मतिथि व पुण्यतिथि पर स्मरण करना चाहिए।

डॉ श्रद्धा सिंह का कहना था कि जो खुशी एक किसान को अपना लहलहाता खेत देख कर होती है वैसी ही खुशी सादिया की पुस्तक - विमोचन के अवसर पर उनको हुई है। उनका कहना था कि स्वाधीनता संघर्ष सामूहिक  था लेकिन आज़ादी त्रासदी रही और इसी बात को राही ने अपने उपन्यासों के माध्यम से उठाया है जिनकी मीमांसा इस पुस्तक में की गई है। 1857 के संघर्ष के समय हम भारतीय थे किन्तु साम्राज्यवादियों की साजिश से सांप्रदायिक त्रासदी सामने आई। उन्होने कहा कि किसी भी समुदाय की हैसियत सत्ता में भागीदारी और आर्थिक स्थिति से निर्धारित होती है । मुस्लिम समुदाय इन दोनों से ही वंचित है। उनका कहना था कि भारत का मुसलमान भारतीय है और उसकी तुलना विदेश के मुसलमानों से करना गलत है और आज यही गलत हो रहा है। राही ने इसी बात को अपने उपन्यासों द्वारा उठाया है।  आज जब जाने-अनजाने साहित्य को हिन्दू-मुस्लिम,स्त्री,दलित,जनवादी और जनवादी में भी जलेस, प्रलेस, जसम में बाँट दिया गया है ; ऐसे में  सादिया ने शोध में मुस्लिम पक्ष को उठाया तो कुछ गलत नहीं किया है। इसे सामाजिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है।

उनका मत था कि 'टोपी शुक्ला' में राही ने त्रासदी के कारणों का वर्णन नहीं किया बल्कि लोगों के मानवीय रिश्तों पर उसका क्या प्रभाव पड़ा था उसका वर्णन है। लेखक के मूल मन्तव्य को शोधकर्ता को पकड़ना चाहिए और सादिया ने यही किया है। राही के अनुसार  विभाजन की त्रासदी ने नफरत, शक और डर को पैदा किया है जिस पर उनके उपन्यास रोशनी डालते हैं। टोपी शुक्ला में दर्शाया गया है कि 1) दादा-दादी की पीढ़ी में साझापन है जबकि, 2) विभाजन के बाद नफरत, शक और डर पनपा साथ ही साथ सामूहिक प्रभाव भी रहा है। 3 ) राजनीति के धर्म में घालमेल से सांप्रदायिकता पनपी और बढ़ी है और 4 ) सियासतदारी ने समझौता  न कर पाने वालों के लिए 'आत्म-हत्या' की स्थिति उत्पन्न कर दी है और इसी सब को टोपी शुक्ला में समेटा गया है।

डॉ श्रद्धा सिंह का कहना था कि, उपन्यासों के अतिरिक्त भी राही का वैचारिक लेखन है, वह इंसानियत के पक्षधर थे। आगे के क्रम में सादिया को राही की पाँच कहानियों पर भी समीक्षा लिखवा कर प्रकाशित कराना चाहिए । उनका आशीर्वाद साथ है।

एकेडमी की अध्यक्ष वंदना मिश्र ने  डॉ श्रद्धा से असहमति व्यक्त करते हुये कहा कि 1857 में हिन्दू और मुस्लिम मिल कर लड़े थे तब धर्म-निरपेक्षता का आविर्भाव नहीं हुआ था। उनका कहना था कि मुस्लिम समाज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तौर पर पिछड़ने के बावजूद मुस्लिम साहित्यकार पूर्ण रूप से सम्मानित रहे हैं। रसखान, जायसी, रहीम तब भी सम्मानित थे आज भी हैं। राही तो मुस्लिम नहीं 'इंसान' थे। उन्होने सादिया की पुस्तक से उद्धृत करते हुये कहा कि,  त्रुटियाँ किसी कार्य की शर्त होती हैं । भावक तथा भावुक यदि इस ओर ध्यान दिलाएँ तो  सादिया के प्रति उनका अतिरिक्त स्नेह होगा। इस संदर्भ में उन्होने पुस्तक में 'प्रूफ' की गलतियों की ओर इंगित करते हुये कहा कि अगले संस्करण के प्रकाशन से पूर्व सादिया इन अशुद्धियों को ठीक करा लें। राही के मशहूर उपन्यास 'कटरा बी आरजू' जो कि, एक राजनीतिक उपन्यास है का ज़िक्र करते हुये उन्होने कहा कि इस पुस्तक जो शोध का एक हिस्सा है में अनदेखी हुई है। इसके राजनीतिक महत्व को आगे रेखांकित किया जाना चाहिए। 'दिल एक सादा कागज' उपन्यास भी शोध की अपेक्षा रखता है । इसमें आज की अप-संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम प्रयास के लिए उन्होने सादिया को अपना आशीर्वाद दिया और आगे और कुछ करने की उम्मीद भी ज़ाहिर की।

धन्यवाद ज्ञापन शबनम जी ने किया। उन्होने आगंतुकों के अतिरिक्त विशेष रूप से सादिया जी के पति महोदय के  अपनी पत्नी को सहयोग देने के लिए आभार भी व्यक्त किया। वंदना मिश्र, रामकिशोर जी, अनीता श्रीवास्तव, प्रज्ञा पांडे, कौशल किशोर, जन संदेश टाईम्स  के प्रधान संपादक सुभाष राय, ओ पी सिन्हा, के के शुक्ला जी के नाम भी उन्होने विशेष रूप से लिए।

   


Sunday, 1 November 2015

जो व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर नहीं उठाता वह लेखक ही नहीं होता ------ वीर विनोद छाबड़ा

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सुशीला पूरी जी उदघाटन भाषण देते हुये 



इस रिपोरताज के लेखक वीर विनोद छाबड़ा साहब दूसरी पंक्ति में सबसे दायें ध्यान मग्न 



Vir Vinod Chhabra
01-11-2015  
समकालीन कविता - कविता फूल खिलने की तरह है
-वीर विनोद छाबड़ा 
३१ अक्टूबर से लखनऊ में समकालीन कविता पर केंद्रित एक कार्यक्रम हुआ। आयोजन जनवादी लेखक संघ ने किया। 
उद्घाटन सत्र में सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका सुशीला पुरी ने अपने स्वागत भाषण में कहा - कविता के बिना जीवन संभव नहीं है। मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं। संस्कृति के केंद्र लखनऊ में। 
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए बताया - १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में प्रेमचंद ने कहा था, साहित्य का मयार बदलना है। जो समझ में आने से पहले पहुंच जाए वो कविता है। कविता को किसान-मज़दूर के बीच जाना चाहिए, भले उसे समझ में न आये। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए। आज की स्थिति में हस्तक्षेप ज़रूरी है। प्रतिरोध का एक ढंग है, पुरुस्कार लौटना। सरकार को मैसेज देना है। और यह निष्फल नहीं हुआ। सरकार परेशान है। मैं भी आक्रोशित हूं। एक पुरुस्कार मेरे पास भी है। मैंने इसे बचा कर रखा है। किसी सही मौके पर विरोध दर्ज कराऊंगा। भीड़ का हिस्सा नहीं बनूंगा। कितना अच्छा हुआ कि बुद्ध पांच हज़ार साल पहले पैदा हुए। आज पैदा होते तो उनका वही हश्र होता जो आज कुलबुर्गी का हुआ है। बहुत सारे लोग हैं जो कविता को इग्नोर करते हैं, लेकिन कविता भी बहुत लोगों को इग्नोर करती है। इस माहौल में कविता होना बहुत मुश्किल है। बेहतर होगा कि पॉपुलर भाषा में लिखी जाये। लोकगीतों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाई जाए। कविता वही होती है जो आसानी से लोगों तक पहुंच जाये। आज डिमांड बहुत बड़ी है। बहुत बड़ा दौर है। पिछले पचास साल से समकालीन कविता का अंदाज़, भाषा, और विषयवस्तु में काफ़ी बदलाव आया है। ज़रूरत है समकालीन कविता का नाम भी बदला जाए। नामकरण हो। आज बोलने में भी डर लगता है। पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर कहते हैं मैं पहली पंक्ति लिखता हूं और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से.…पंक्ति लिखता हूं काट देता हूं.… कितनी पंक्तियों की हत्या करता हूं.… उनकी आत्मायें मंडराती हैं.… आप कवि हैं या कविताओं के हत्यारे? 
उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि राजेश जोशी बताते हैं - बौद्धिक संपदा आमतौर पर वाम या डेमोक्रेट्स के हाथ में रही है। कांग्रेस के राज्य में कोई दिक्कत नहीं रही क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा ही नहीं थी। आज बीजेपी सत्ता में है। उसके पास बौद्धिक संपदा संभालने के लिये बौद्धिक गुण नहीं हैं। कोई अनुभव भी नहीं है। अहम जगह पर मिडियाकर किस्म के लोग बैठाये गए हैं। क़ाबिल लोग हैं ही नहीं। सर्जरी करके हाथी के सिर लगाने की बात करते हैं। कोई उनसे पूछे, हमेशा जानवरों के सर ही क्यों लगाये गए? सीनियर मंत्री जी कहते हैं जेएनयू में नक्सली भरे पड़े हैं। वहां बीएसएफ बैठा देनी चाहिए। धर्म की सत्ता लाने की कोशिश चल रही है। लोकतंत्र का अंत हो, धर्मनिरपेक्षता का अंत हो। जागरूक लोग प्रतीक्षा नहीं करते। जनजागृति करते हैं। टकराव की स्थिति बेहतरी के लिए है। हमें हमारी कविता को नया नाम देने की ज़रूरत है। मुश्किल है काम, लेकिन करना ज़रूरी है। 
कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध कवि और लेखक नलिन रंजन सिंह ने किया।
उद्घाटन सत्र के पश्चात एक परिचर्चा हुई - समकालीन कविता, संवेदना और दृष्टि। इसकी अध्यक्षता इब्बार रब्बी ने की। 
सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका प्रीति चौधरी कहती हैं - जब भी कविता की बात होती है तो लगता है मनुष्य ही कविता है। जिसमें मनुष्यता है, वही कविता करता है और समझता है। बौद्धिक संपदा कभी ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में रही। लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसीलिए प्रतिरोध हो रहा है। ज्ञान संवेदना की और ले जाता है और संवेदना ज्ञान की ओर ले जाती है। आज जब समय की विभीषिका की बात होती है तो मुझे लगता है गहरी रात है। भूमंडलीकरण की रात है। संकट है, लेकिन मैं निराश नहीं हूं। संकट मित्र के भेष में है। पता नहीं चलता कि नायक कब खलनायक में बदल जाता है। चौंका देता है। हम सब एक बिंदु पर रुक जाते हैं। मैं मनुष्य हूं लेकिन स्त्री होना ज्यादा संवेदनशील है। स्त्रियां आज स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। कविता ने सांप्रदायिकता को छोड़ा है, बहुत सारी ऐसी जगह हैं जहां कविता नहीं पहुंची है। जब किसी कविता से प्रेम करते हैं तो उसे जादू बना देते हैं, इबादत करने लगते हैं। लेकिन जब उस कवि से मिलते हैं तो लगता है यह तो बहुत कमजोर आदमी है, घृणा योग्य है। रह वही जाता है जो रचा जाता है। संप्रेषणीयता बहुत सीमित क्यों है? प्रभावशाली लोग इससे अपरिचित क्यों हैं? साहित्य नीति नहीं बना सकता। हमें ही किसानों के बीच जाना होगा। भूमंडलीकरण की रात है। कविता लिखना कठिन है लेकिन आज की पीढ़ी ने उसे स्वीकार किया है। अंधेरा कितना घना क्यों न हो, कविता कभी ख़त्म नहीं होती है। 
समालोचक, चिंतक और कवि जीतेंद्र श्रीवास्तव ने कहा - आज़ादी के बाद से सब समकालीन है। १९८० के बाद की कविता भी समकालीन है। लेकिन १९९० के बाद के समय ने कविता को बहुत प्रभावित किया है। मंडल और कमंडल इसी काल में आया। भूमंडलीकरण का परिवारों पर प्रभाव पड़ा। एकल परिवारों का चलन बढ़ा। बाबरी मस्जिद विध्वंस भी इस दौर की बड़ी घटना है। धर्मवाद और जातिवाद गहरा हुआ। दलितों के विरुद्ध हिंसा को याद रखना होगा। इन्हीं के बीच से कविता निकल कर आई है। मुख्य धारा की कविता। आज की स्थिति यह है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है और जनता की ही चीज़ों को और उनके अधिकारों को छीन रही है। समकालीन तभी होंगे जब समकालीन लोगों के साथ खड़े होंगे, उनके लिए लड़ रहे होंगे। कवियों के सरोकार का विस्तार हो रहा है। समय को परिभाषित किया जा रहा है और समय से परिभाषित हो रहे हैं। यह स्वांता-सुखाय का दौर नहीं है। पैसे के लिए लिखा जा रहा है। लेकिन बहुत से लोग सर्व-कल्याण से जुड़े हैं। यह पहले भी था और अब भी है। वृहत्तर चिंताओं से जुड़ रही है आज की कविता। दलित व स्त्री विमर्श की कविता आई है। बहुत मुखर हो कर सामने आई है। इसे उसी वर्ग ने लिखा है। सांप्रदायिकता के विरुद्ध कविता आई है। यही संवेदना की दृष्टि है। आज जो लोग भारतीय दर्शन की बात करते हैं वो भारतीयता को जानते ही नहीं। परस्पर विरोधों के साथ चली है भारतीयता। यदि एक दृष्टि हावी होगी तो वो भारतीयता नहीं होगी। समकालीन कविता समझ रही है। सहचर्य व सौंदर्यबोध बड़ी उपलब्धियां हैं। दाम्पत्य जीवन को कविता में खूबसूरती रखा गया है। भविष्य का जीवन द्रव्य है। आत्महत्या बढ़ी हैं। परिवार विघठित हुए हैं। एकल परिवार बढे हैं। कविता के पास मध्यवर्गीय परिवार है। लेकिन गांव नहीं है। लेकिन कविता की विश्वसनीयता बढ़ी है। 
सुप्रसिद्ध कवि अनिल कुमार सिंह ने कहा समकालीन कविता को लेकर भ्रम है। समकालीन का एक्सटेंशन हो रहा है। युवा शब्द का भी एक्सटेंशन हो रहा है। आज जो फासिस्ट उभार है वो चिंतित कर रहा। यह नया नहीं है। ऐसा पिछले २५-३० साल से चल रहा। मंडल-कमंडल और बाबरी मस्जिद विध्वसं भी फासीवादी था। इसने कविता को बहुत प्रभावित किया। बौद्धिक संपदा पर वाम का प्रभाव रहा है। इसी के बीच में रहे हैं ऐसे तत्व जो फासिस्ट रहे हैं। गंभीर प्रयास होना चाहिए। बने-बनाये फ्रेम में नहीं बैठे रहना चाहिए। 
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि और प्रोफ़ेसर सदानंद शाही ने कहा - लगता है कबीर भी हमारे समकालीन हैं। समकालीनता नाम बहुत लंबा खिंच गया है। कुछ नया होना चाहिए। अब तक हमने काम चलाऊ नाम रखे हैं। पचास का दशक, साठ का दशक.…नब्बे का दशक। सोवियत संघ के विघटन से प्रतिबद्धता का दबाव कम हुआ है। यह शुभ है। कवि का दायरा बढ़ा है। आदिवासी कविता ने हमें झिंझोड़ा है। उसके सपनों में रहा है - एक जोड़ी बैल और खेत। पेड़ की जगह पेड़ हो और समुंद्र की जगह समुंद्र। विकास का रोड-रोलर चीज़ों को एक जगह नहीं रहने देता। यह मिथक भी टूट रहा है कि भारत कृषि प्रधान देश है। भारत एक धर्म प्रधान देश है, ये मिथक भी नहीं रहा। भारत एक पाखंड प्रधान देश है। जीवन के हर हिस्से में पाखंड है। देखना होगा कि समकालीन कविता में प्रतिरोध कितना है और पाखंड कितना। राजेश जोशी ग़लत नहीं कहते हैं कि जो अपराधी नहीं होगा, वो मारा जायेगा। यह सच्चाई है। समकालीन कविता की उपलब्धि है। कलजुग के चौथे चरण में आदमी इतना छोटा हो जायेगा कि लग्घी से घंटा तोड़ेगा। आज वही समय है। कविता आज एक फूल के खिलने की तरह है, जिससे अंधरे के पहाड़ दरक जाएं। 
प्रथम पंक्ति के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा - हमारे सामने संकट है और उससे निपटना भी है। फासीवाद की चुनौती है। हो सकता है सब ख़त्म भी हो जाए। पुरुस्कार वापसी से सरकार बौखलाई हुई है। जवाब साहित्य अकादेमी नहीं दे रही है राजनेता दे रहे हैं। आरएसएस द्वारा दिया जा रहा है। कहते हैं लेखक राजनीति कर रहे हैं। अगर राजनीति इतनी ही ख़राब है आप क्यों राजनीति में हैं? कांग्रेसी होने का आरोप लगाते हैं। अगर तुम्हें आएसएस का होने में गर्व है तो दूसरों को भी वाम और कांग्रेसी होने का गर्व क्यों नहीं हो सकता? अगर मैं कुछ लौटा रहा हूं बौखलाहट क्यों है। यह कविता का विषय है कि मैं प्रेम नहीं कर रहा हूं। यह लोग कहते हैं पुरुस्कार लौटाने से देश की छवि ख़राब होती है। लेकिन क्या हत्याएं करने से शर्म नहीं आती? नाक नहीं कटती? प्रेमचंद ने कहा था साहित्य मशाल है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मश्री लौटाई थी। लेखक इमरजेंसी के विरोध में जेल भी गए। सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने साहित्य अकादेमी पुरुस्कार लेने से ही मना कर दिया था। जिसको कुछ ख़राब लगता है वही क़लम उठाता है। मीरा को भी विरोध का सामना करना पड़ा। ज़हर का प्याला भेजा गया था उसको। बीफ़ का विरोध करने वाले ही उसके सबसे बड़े निर्यातक व्यापारी हैं। मौजूदा सरकार ने उन्हें सब्सिडी दी है। निर्यात बढ़ाया जा रहा। सच्चाई से लोगों को रूबरू कराने की सख़्त ज़रूरत है। 
इस सत्र का संचालन सुप्रसिद्ध अजीत प्रियदर्शी ने किया। 
समारोह में वीरेंद्र यादव, रविंद्र वर्मा, नवीन जोशी, तद्भव के अखिलेश, शक़ील सिद्दीक़ी, केके चतुर्वेदी, अशोक गर्ग, रामकिशोर, दीपक कबीर आदि अनेक जाने-माने लेखक, कवि और साहित्य से सरोकार रखने वाली हस्तियां मौजूद थीं। 
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०१-११-२०१५
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1690240527876236
 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश