Tuesday, 29 March 2016

प्रेस से सवाल आपने अपनी राय हमारे खिलाफ क्यों बना रखी है? ------ प्रीति रघुनाथ


नई दिल्ली। हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद प्रशासन पर उंगलियां उठने और कुछ मीडिया हाउसों द्वारा सरकार की शह पर खबरों के खेल से आहत हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध की छात्रा प्रीति रघुनाथ ने मीडिया हाउसों के नाम खुला खत लिखा है। उन्होंने दिल्ली में बैठे राष्ट्रीय मीडिया के लिए यह खुला ख़त लिखा है जिसे अंग्रेजी में indiaresists.com ने छापा है। वहीँ से साभार पत्र का हिंदी में अविकल अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है।  

मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के कई छात्रों की चिंताओं को केवल स्वर दे रही हूं। यह प्रतिक्रिया देर से है क्योंकि मैं मानकर चल रही थी कि हमें आखिर में मीडिया की कवरेज ज़रूर मिलेगी चूंकि एचसीयू में हालात ही कुछ ऐसे हैं। मैं यह मानकर चल रही थी कि ब्रेकिंग न्यूज़ के भूखे चैनलों की ओर से यह एक पल भर की चूक भर रही होगी। मैं समझती हूं कि विश्वविद्यालय के परिसर (जिसे हम सब नाज़ से कैंपस कहते हैं) में मीडिया के प्रवेश पर बंदिश लगाई गई है और इसके संबंध में निर्देश जारी किए गए हैं। हमें हालांकि यह बात समझ में नहीं आती कि मीडिया को नागरिक स्वतंत्रता समूहों के साथ संवाद करने या उन्हें कवर करने से क्या चीज़ रोके हुए हैं और जबकि फैकल्टी, वकील और अन्य सरोकारी लोग हमारी ओर से संघर्ष में जुटे हुए हैं, तो इस कानूनी मोर्चे पर विकसित हो रहे घटनाक्रम का फॉलो-अप मीडिया क्यों नहीं कर रहा। दरअसल, हो यह रहा है कि हैदराबाद शहर के छात्रों, उनके मित्रों और देश के अन्य हिस्से के युवाओं को इतने सारे छात्रों पर हुए हमले की प्रामाणिकता से जुड़े सवालों का सामना करना पड़ रहा है। लोग इसे वास्तविक मान ही नहीं रहे। अगर लोगों को फेसबुक पर ट्रेडिंग खबरों के नाम से चलने वाले केवल 11 शब्दों से ही सरोकार है, तो मुझे उनके लिए अफ़सोस है।

इसी मोड़ पर हमारी निगाह दिल्ली में बैठे मीडिया की ओर जाती है कि वह अफ़वाहों और झूठ का परदाफ़ाश कर के देश के लिए एक संतुलित कवरेज मुहैया कराएगा और लोगों को खबरों के हर पहलू से वाकिफ़ कराएगा। हम तो यह भी नहीं मान रहे कि मीडिया उन निहत्थे छात्रों के पक्ष से स्टोरी को सक्रिय तरीके से उठाए जिन्हें कैंपस में सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फोर्स से निपटना पड़ रहा है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि छात्रों को कम से कम इन चीजों का सामना करना पड़ा है:

क) एक ऐसे कुलपति की वापसी का सदमा जिससे अब कोई सहानुभूति नहीं बची और उस प्रशासनिक संस्कृति का कायम होना जो बातचीत के ऊपर आतंकित करने को तरजीह देता है।

ख) छात्रावासों में तकरीबन बंधक बना लिए जाने का भय जहां खाना/पानी/बिजली/इंटरनेट के प्रावधान, शौचालयों तक कम से कम जरूरतमंद छात्राओं की पहुंच, थोड़ी सहानुभूति भी मौजूद नहीं है और यहां तक कि खाना लेकर आने वाले वेंडरों को भी गेट से लौटा दिया जा रहा है।

ग) एक ऐसे सेमेस्टर के नाजुक अंत के कगार पर खड़ा होना जो बहुत संकटग्रस्त रहा है और जिसमें हमने अपने बीच का एक सदस्य प्रशासनिक लापरवाही के हाथों खो दिया है।

घ) एक ऐसे शहर में जीना जहां आने वाली गर्मियों में होने वाले पानी के संकट के साफ संकेत दिख रहे हैं, और जबकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने खुद स्वीकार किया है कि विश्वविद्यालय के क्षेत्र में पानी के संकट के चलते हफ्ते में केवल 6 दिन ही कामकाजी रखे गए हैं।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और उसके बाद के घटनाक्रम के पश्चात छात्रों ने अपने स्तर पर लगातार कोशिश की है कि वे अपने दुख और गुस्से के बीच समन्वय बैठाते हुए किसी तरह नियमित दिनचर्या में लौट आएं और पढाई जारी रखें। मैं यह समझना आपके ऊपर छोड़ती हूं कि ऐसे बुरे हालात में फंसे छात्रों को अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से इतर चल रहे अघोषित राजनीतिक घटनाक्रम को समझने में और उसे पचाने में इतना वक़्त क्यों लगा। ऐसे हालात में हम मीडिया में बैठे आप लोगों की ओर देखते हैं कि आप उन चीजों को दुनिया को बताएंगे जो हम खुद नहीं बता सकते। हम युवा ऐसे आदर्शवादी हैं जो अभी हकीकत की दुनिया में प्रवेश करने की राह देख रहे हैं और मैं पक्के तौर पर कह सकती हूं कि आप भी एक नवाकांक्षी युवा पत्रकार के बतौर किसी न किसी मोड़ पर हमारे जैसे ही रहे होंगे। इस नाते हम उम्मीद कर रहे थे कि आपके नियमित काम में हमारी नुमाइंदगी भी निष्पक्ष तरीके से होगी यानी आप देश में होने वाली खबर योग्य घटनाओं की रिपोर्टिंग ज़रूर करेंगे। मुझे अफ़सोस के साथ पूछना पड़ रहा है कि यदि छात्रों पर ऐसा भयावह दमन और राज्य की मिलीभगत से विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा खुलेआम की जा रही हिंसा दिल्ली के मीडिया में खबर के लायक नहीं है, तो फिर क्या है?

हमारे सहपाठी और साथी, रूममेट और हॉस्टलमेट पहले एक थाने से दूसरे थाने तक खींच कर ले जाए गए और अब (पिछली सूचना तक) चेरलापल्‍ली की जेल में पड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि अधिकारियों ने जान-बूझ कर लंबी सरकारी छुट्टी से ठीक पहले यह सब सुनियोजित ढंग से रचा। छात्रों पर लाठियां बरसाई जा रही थीं, उन्हें पीटा जा रहा था और चुनिंदा गालियों से नवाजा जा रहा था लेकिन इन सब के बीच वे लोगों के लिए इन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करने में जुटे हुए थे। छात्राओं को पकड़ कर यातना दी गई, उन पर नस्ली और भद्दी टिप्पणियाँ की गईं- हमारे जैसे विश्वविद्यालय परिसर में ऐसी चीज़ें नहीं होती थीं। जैसा कि चलन है, उसके हिसाब से भले ही आपको भी यह लगता हो कि हम लोग ''बच्चे'' हैं या फिर ''ऐसे गुंडे और छात्र नेता हैं जो पढ़ते-लिखते नहीं'', लेकिन इसके कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूद चौथे स्तम्भ को हमारे साथ संवाद करने और हमारे बीच की विविध राय को हासिल करने से तो नहीं रोका जा सकता? जाहिर है, नागरिक समाज भी केवल इस वजह से तो इस मसले को उठाना बंद नहीं कर सकता और हमसे उन चीजों के बारे में संवाद को नहीं रोक सकता जो हमारी समझ या तजुर्बे के दायरे से पार मानी जाती हैं। आखिर अब नहीं, तो कब?

हम सभी एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की डिग्री हासिल करने आए हैं और हम में से अधिकतर को सरकारी विश्वविद्यालय में इस स्तर की शिक्षा तक पहुंचने के लिए कठिन हालात का सामना करना पड़ा है- और यह एक ऐसी बात है जिसे हम मौजूदा हालात व जनधारणा के बीच हलके में नहीं ले सकते। हमारी विविध पृष्ठभूमि, तजुर्बे और जिन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक ढांचों का चाहते या न चाहते हुए भी हम हिस्सा हैं उनके बारे में हमारी समझदारी के कारण ही हम सब की कोई न कोई राय कायम है और हमारा एक विश्वदृष्टिकोण भी है। मैं पक्के तौर पर कह सकती हूं कि इस लोकतंत्र का नागरिक होने के नाते और ज़िम्मेदार व नैतिक कार्यप्रणाली की दरकार रखने वाले एक पेशे के शिक्षित अभ्यासी होने के नाते आपके साथ भी ऐसा ही होगा। आखिर आपने अपनी राय हमारे खिलाफ क्यों बना रखी है? छात्रावासों के अधिकतर छात्र हैदराबाद से बाहर के हैं और उनके माता-पिता व परिजन उनकी सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हैं। कई बार उन्हें अपने परिवारों को यह समझाने में दिक्कत हो जाती है कि आखिर विश्वविद्यालय का प्रशासन ऐसी कार्रवाइयों पर क्यों उतर आया है- कई छात्र तो खुद ही इस बात को अब तक नहीं समझ सके हैं। मुझे नहीं लगता वे इस बर्ताव के अधिकारी हैं। कोई भी छात्र इसका अधिकारी नहीं है। कम से कम, लोकतंत्र के पहरुओं की तरफ से तो बिलकुल भी नहीं।

साभार : 
http://www.nationaldastak.com/news-view/view/open-letter-to-mainstream-media-houses-/

Wednesday, 23 March 2016

बुरे-भले की परख में माहिर थे भगत सिंह ------ के सी त्यागी

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Tuesday, 22 March 2016

सेना व सैनिकों का उत्पीड़न करने वाले क्या? : राष्ट्रवादी या देशद्रोही ?



नई दिल्ली। हाल ही में देश की सेवा करने वाले जवानों को श्री श्री की सेवा में लगाया गया। जवानों से उनकी कोई इच्छा नहीं पूछी गई और उन्हें इस काम के लिए लगा दिया गया। देशभर में इसका विरोध हुआ। आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रम में सैकड़ों जवान बाबा की सेवा में लगाए गए थे, वहीं हरिद्वार में भी बाबा रामदेव के फूड पार्क में सेना के 35 जवान सुरक्षा दे रहे हैं। ये जवान देश के लिए कुछ कर गुजरने के सपने लिए हुए सेना में भर्ती हुए थे। लेकिन इस तरह के काम करके उनके अंदर दर्द है, एक व्यथा है। सैनिकों ने अपनी पीढ़ा व्यक्त की है। दिल्ली में आर्ट ऑफ लिविंग के वर्ल्ड कल्चर फेस्टिवल की सुरक्षा में देश की सारी सेनाओं को सिक्युरीटी के लिए नियुक्त किया गया। पुलिस, सीआरपीएफ, बीएसएफ, ब्लैक कैट कमांडो, एनएसजी के जिम्मे सुरक्षा थी तो सेना को पुल बनाने के लिए बुलाया गया। सैनिक बताते हैं कि ‘दुश्मनों से मुकाबला करते हैं तो हमें गर्व होता है। तो वहीं बाढ़-भूकंप जैसी मुसीबत व आपदाओं में फंसे लोगों की मदद करते हैं तो सुकून मिलता है। इसके लिए सेना में आए थे क्या? पढ़िए सैनिकों की व्यथा, उन्हीं की जुबानी...

‘17 साल तीन महीने उमर थी मेरी, जब सेना में आया। कुछ सालों में रिटायर हो जाऊंगा। लेकिन ये पहली ही बार ऐसा काम करना पड़ा। हम दुश्मन से मुकाबला करते हैं तो गर्व होता है। बाढ़-भूकंप जैसी मुसीबत में लोगों की जिंदगी बचाते हैं तो सुकून मिलता है। लेकिन इन मेलों में ड्यूटी में न गर्व मिलता है न सुकून, गुस्सा आया कि इसके लिए तो सेना में नहीं आए थे हम? बाबाओं की ड्यूटी करना पड़े तो आर्मी में रहने का क्या मतलब। दरअसल पीडब्ल्यूडी यहां पुल बना रहा था। एक महीने में जो पुल बनाया था वो टूट गया। उस दिन हमारी प्रैक्टिस चल रही थी मेरठ आर्मी कैम्प में जब हमें दिल्ली आकर ये पुल बनाने का ऑर्डर मिला। पहले तो हम चौंक ही गए। हमें लगा जेसीओ मजाक कर रहे हैं। लेकिन जब चलने को बोला तो हमें बहुत गुस्सा आया। हम ये काम नहीं करना चाहते थे। सीनियर्स ने कहा इसे प्रैक्टिस समझ कर ही डालते हैं। लेकिन यहां आकर लगा इससे अच्छा तो हम वहीं मेरठ में प्रैक्टिस करते रहते।

इंजीनियरिंग कोर के हम 60 जवान और ऑफिसर भेजे गए इस काम के लिए। एक मार्च को ही आ गए थे हम। 13 तक कार्यक्रम चला। यहां काम आसान था। मुश्किल काम से हम डरते भी नहीं हैं। तीन बार कश्मीर, दो बार जैसलमेर में ड्यूटी कर चुका हूं। हम बाढ़ में या पुल टूटने पर फ्लोटिंग ब्रिज बनाते रहे हैं। हमारे टैंक और ट्रक निकालने के लिए एक से एक उफनती नदियों पर हमने रास्ता बनाया है। पर ये काम मुशकिल नहीं बुरा था। हम अपने हर ऑपरेशन को गर्व से याद करते हैं। लेकिन इसका तो कभी जिक्र भी नहीं करेंगे किसी से। आप बताओ क्या नाम देंगे इसको, ऑपरेशन ऑर्ट ऑफ लिविंग या ऑपरेशन श्री श्री रविशंकर?

हमें पास में ही दिल्ली कैंट में रुकवाया गया है। लेकिन बेस हमने पुल के पास बनाया। जितने दिन ये मेला चला हम सुबह 6 बजे यहां पहुंच जाते थे। और रात 12 बजे के बाद ही बैरक में लौटते। सुबह अपने साथ कैंट से पीने का पानी लेकर आते थे। दोपहर में टिफिन आ जाता। लेकिन बदबू के बीच खाना नहीं खा पाते थे। हर दिन हमारे 7-8 साथी रात को यहीं रुकते थे। टेंट में। पुल को चेक करना पड़ता है। हर 10 मिनट बाद हमारा एक जवान इसकी चेकिंग करता है। 24 घंटे। बोट्स की हवा तो नहीं कम हुई। फिर ये दिल्ली है, जो सामान पड़ा है कहीं कोई ले कर न चल दे इसका भी टेंशन। फंक्शन शुरू होने से एक दिन पहले रात को मैं ड्यूटी पर था। मैंने वो सीआरपीफ वालों से कह दिया था किसी को आने मत देना अंदर। तभी रविशंकर अचानक पहुंच गए। अब उनको कैसे रोकता। आने दिया। उन्होंने कार से ही आर्शीवाद देते हुए हाथ उठाया। मैंने बोला बाबा आ तो गए हो पर मेरे लिए मुसीबत मत करना कोई। पहले ही हमारी बेइज्जती करा दी है काफी। इस राजनीति में हमें नहीं पड़ना। उस दिन घर पर पत्नी से बात हो रही थी। कहने लगी बस ड्यूटी करना बाबे के चक्कर में मत पड़ जाना। ये बाबे झूठे होते हैं। मैं हंस के रह गया। मैंने अपने मेजर को भी ये बात बताई। वो भी जमकर हंसे।’

शर्म आती है कमांडो हूं, बना दिया गया सिक्योरिटी गार्ड 

मई 2015 में बाबा रामदेव के हरिद्वार स्थित पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क में विवाद के दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गई तो केंद्र ने पैरा मिलिट्री फोर्स सीआईएसएफ को तैनात कर दिया। संस्थान इसके एवज में 21 लाख रुपए प्रतिमाह का भुगतान भी करती है, लेकिन देश के लिए कुछ करने और मर मिटने की कसम खाने वाले यहां तैनात 35 दक्ष कमांडो परेशान हैं। उन्हें बार-बार एक ही बात कचोटती है कि वे निजी सिक्योरिटी गार्ड जैसा यह काम करने के लिए तो सीआईएसएफ में नहीं आए थे। वहां तैनात दो जवानों का दर्द...

स्वामीनाथन (परिवर्तित नाम) ने बताया कि दो साल पहले सीआईएसएफ की ट्रेनिंग के दौरान चुस्ती फुर्ती देख अलग से कमांडो की ट्रेनिंग दी गई। उन्हें लगा कि देश के नामी संस्थानों की सुरक्षा का जिम्मा मिलेगा। ट्रेनिंग पूरी हुई तो गाजियाबाद में रिजर्व बटालियन भेज दिया गया। एक माह पहले ही फूड पार्क भेजा गया। यहां आते ही मन में पहली बात यही उठी कि मैं तो किराए का गार्ड बन गया। अब ड्यूटी के बारे में घर और दोस्तों को बताते हुए शर्मिंदगी होती है। सब पूछते हैं कि आजकल कहां हो? जवाब सुनकर उसकी नजरों में फौजी वाला सम्मान तार तार हो जाता है। हमारी यूनिट गाजियाबाद में है। उसकी एक कंपनी हरिद्वार के पास भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड के संयंत्र में तैनात है। वहां अटैचमेंट के तौर पर हम 35 जवानों को यहां लगा रखा है। 24 घंटे में आठ-आठ घंटे की शिफ्ट में ड्यूटी होती है। हाथ में एके-47 लिए गेट के आसपास खड़े रहना, गेट खोलना-बंद करना और हर आने जाने-वाले की रजिस्ट्रर में एंट्री करना, बस हमारा यही काम रह गया है। वह भी प्राइवेट गार्ड के साथ। दिन में सैकड़ों ट्रक कच्चा माल लेकर पार्क में आते-जाते हैं। उनके ड्राइवर भी हमारे साथ चौकीदार जैसा व्यवहार करते हैं। लगता है कि सीआईएसएफ में आकर गलती कर दी। गेट के बाहर ही अस्थाई बैरक बने हुए हैं। एक कमरे में ऑफिस और दूसरे में इंस्पेक्टर रहते हैं। तीसरे कमरे में बाकी जवान बारी-बारी सोते हैं। हमें पार्क की कैंटीन में जाने नहीं दिया जाता, वहां से टिफिन भरकर मिलते हैं। कई बार खुद खाना बनाना पड़ता है या हाइवे पर जाकर खाते हैं। स्नान व शौचालय में अपनी बारी का इंतजार अलग। पता नहीं कब यहां से मुक्ति मिलेगी।

वहीं एक अन्य सैनिक तेजपाल सिंह (परिवर्तित नाम) बताते हैं कि हम गेट खोलने और बंद करने वाले नौकर रह गए हैं। 12 साल के कॅरिअर की यह सबसे खराब तैनाती है। गर्विली फोर्स में देश के नामी हवाईअड्‌डों और कई दुर्दांत स्थानों पर सरकारी संयंत्रों पर सुरक्षा का जिम्मा बखूबी संभाला है। दो माह पहले यहां भेजा गया तो मन मसोसकर आ गया। कुछ घंटों में ही समझ आ गया कि यहां प्रशासन और बाहर से आने वालों की नजरों में हमारी हैसियत गेट खोलने वाले नौकर की तरह है। बेल्ट के अनुशासन से बंधे हैं, इसीलिए कोई जवान अपनी पीड़ा अफसरों के साथ खुलकर नहीं कहना चाहता। पर ऐसे तो कल हमारी फौज को किराए पर कहीं भी, किसी देश या संस्थान को बेच दिया जाएगा। हमारा स्वाभिमान और सम्मान तिल-तिल मर रहा है। हमें गेट के इर्द गिर्द ही रहने को कहा गया है। गेट खोलो-बंद करो, ट्रकों की एंट्री करो। ज्यादा ट्रक आ जाएं तो ट्रैफिक पुलिस की तरह कतारबद्ध खड़े करवाओ। टोल गेट जैसा नजारा हर दिन। ट्रकों की धमक और प्रेशर हॉर्न सुनकर कान पक गए हैं। ड्यूटी के बाद भी चैन से सोना मुहाल है। कभी-कभी बाबा यहां आते हैं तो हमें ऐसे लाइनअप किया जाता है, जैसे हमारे डीजी या एचएम आ रहे हों। सब कुछ हमारी आन-बान-शान के खिलाफ है, लेकिन फौजी हैं तो ड्यूटी निभा रहे हैं।

साभार- दैनिक भास्कर 

http://www.nationaldastak.com/news-view/view/baba-ramdev-and-sri-sri-security-personnel-express-his-pain/

कन्हैया ने राहुल गांधी से आभार जताया

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http://abpnews.abplive.in/india-news/kanhaiya-kumar-to-meet-rahul-gandhi-today-348166/

साभार :
Sindhu Khantwal via ABP News

http://abpnews.abplive.in/india-news/kanhaiya-kumar-to-meet-rahul-gandhi-today-348166/

Sunday, 20 March 2016

How reforms killed Indian manufacturing ------ Ashok Parthasarathi

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How reforms killed Indian manufacturing



“Products that we were manufacturing in the 1990s are being imported now.”
 
 (Ashok Parthasarathi was the Science and Technology Adviser to the late Prime Minister Indira Gandhi.)
As the government pushes for ‘Make in India’, it could begin by unmaking the damage the post-1991 reforms inflicted on domestic industry.
This year marks 25 years since the so-called “economic reforms” were launched in July 1991. By now, broad contours of the policies and practices that characterised such reforms are well known, viz. radical deregulation, marketisation and privatisation of the industrial, technological and financial sectors, and an across-the-board induction of foreign direct investment and foreign institutional investment, and so on.
Basing himself on the erroneous views of India’s IT software and service sector behemoths, the “advice” of Western governments, large foreign companies and the trinity of the World Bank, the International Monetary Fund and the World Trade Organisation, Manmohan Singh, then Finance Minister, concluded around mid-1992 that we could be globally competitive only in IT software and services and not in hardware. Thus he reduced import duties on all IT hardware purportedly to “facilitate” software promotion and growth on a globally competitive basis using imported hardware. Result: by 1994 our fledgling civilian IT hardware industry folded up.
No one seems to have told Dr. Singh that IT hardware far more technologically sophisticated than the commercial hardware being imported by our software companies was being manufactured by Indian defence, atomic energy and space agencies and even exported to other developing countries such as Brazil, Malaysia, and Indonesia.
Death by policyThe “reforms” also dealt a body blow to the indigenous optic fibre telecommunication systems industry, a project begun by the Department of Electronics (DoE) in 1986 with the setting up of the public sector utility, Optel. Based on a global tender, technology-transfer agreements were concluded with two companies, Fujitsu and Furukawa, in 1987 and a blueprint for the Optel plant prepared. It indicated a project cost of Rs.45 crore and a construction period of 30 months; when completed, the actual numbers were Rs.46 crore and 32 months.
All this was possible because I got one of our top technocrat-managers, Bhagwan Khurana, to leave his job as CEO of Punjab Wireless Ltd. (Punwire) and become CEO of Optel. A top-class cluster of three plants was operational by end March 1989. In its very first year of commercial operations Optel’s turnover was Rs.64 crore with a profit of Rs.11 crore. In 1990-91 the turnover zoomed to Rs.298 crore with Rs.35 crore profit.
Around this time, Sterlite, a metallurgical company, and Finolex, a packaging material producer, entered the field. They would import fibres and merely sheath them into cables. Even the sheathing material was imported — the cables had merely 10-15 per cent domestic content. This, however, ran into a roadblock in the form of the graduated customs duties then applicable, which promoted local production. They started lobbying with the government to reduce the import duty on fibre — a manufactured component — from 40 per cent to 10 per cent, which was the duty on raw materials. I was then Secretary of the Electronic Commission and Additional Secretary in the DoE. Despite the DoE’s stout opposition to both the character of the companies’ “projects” and the drastic and irrational reduction of duties, they got their way. Within six months, large quantities of optic fibre began to be imported. Optel had to close down its optic fibre plant and import low-grade fibre from China to be able to compete in our own market with the likes of Sterlite and Finolex!
DeindustrialisationIn 1990-91, there were at least a dozen electronics corporations producing a range of high-tech radio communication equipment, industrial electronics and control and instrumentation equipment worth annually around Rs.6,000 crore. However, the reduction in customs duties from 60 per cent to 30 per cent overall, which led to a glut of imports, forced many of these corporations to halt production and become import agents, a phenomenon repeated in the key solar photovoltaic industry.
“Reforms” also led to large-scale import of cell-phone handsets that could have been easily produced here had a policy of phased manufacture been adopted. Result? The entire market for such handsets was met by unnecessary imports from Day One in 2005-06. In 2013-14 cell-phone imports totalled Rs.35,000 crore.
By 2000, foreign brands grabbed 80 per cent of the television sets market, from a situation where 10 local companies catered almost fully to the demand. Six of the 10 indigenous television makers have folded up, with a ripple effect on the electronic components sector.
My final example is our heavy electrical equipment industry led by Bharat Heavy Electricals Limited (BHEL). Up until 1998-1999 this industry was doing very well. However from the next year onwards, four Chinese power plant equipment manufacturers began to seriously erode BHEL’s market. This erosion was despite the quality and technical reliability of the Chinese equipment being considerably inferior to BHEL’s products. The United States, home to General Electric and Westinghouse, imposed penal anti-dumping duties on Chinese power plant equipment. Yet, the Indian government merely watched as BHEL lost 30 per cent market share by 2014.
These examples indicate that in sector after sector, the “reforms” have led to deindustrialisation. Products that we were manufacturing in the 1990s are being imported now. The negative impact this deindustrialisation has had on employment and on our economy is gigantic. The government must act immediately to halt the destruction of domestic industry on such a massive scale instead of merely tom-tomming its “Make in India” policy.


http://m.thehindu.com/opinion/op-ed/ashok-parthasarathi-how-reforms-killed-indian-manufacturing/article8352882.ece 



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 18 March 2016

Wednesday, 16 March 2016

जेएनयू और कन्हैया कुमार ने एक मिसाल पेश की है ------ ईशा भाटिया


एक घंटे के लंबे भाषण में हर मिनट कन्हैया ने सुनने वालों को बांधे रखा. भाषण की शुरुआत में ही वह रौंगटे खड़े करने वाला माहौल बना चुके थे. सरकारी नीतियों के विरोध को कन्हैया ने जिस तरह आवाज दी वह काम दरअसल विपक्ष का है लेकिन पिछले दो सालों में विपक्ष को कभी भी इस भूमिका में नहीं देखा गया है.


सांसदों के लिए मिसाल कन्हैया का भाषण

कन्हैया कुमार के भाषण की बढ़ चढ़ कर तारीफ हो रही है. ईशा भाटिया का सवाल है कि जो कन्हैया ने किया, क्या वह दरअसल विपक्ष का काम नहीं था.
कन्हैया कुमार और कुछ करने में सफल रहे हों या नहीं लेकिन भाषण कला का बेहतरीन उदाहरण देने में पूरी तरह कामयाब रहे. एक घंटे के लंबे भाषण में हर मिनट कन्हैया ने सुनने वालों को बांधे रखा. भाषण की शुरुआत में ही वह रौंगटे खड़े करने वाला माहौल बना चुके थे. सरकारी नीतियों के विरोध को कन्हैया ने जिस तरह आवाज दी वह काम दरअसल विपक्ष का है लेकिन पिछले दो सालों में विपक्ष को कभी भी इस भूमिका में नहीं देखा गया है.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास अच्छे वक्ता नहीं हैं लेकिन कांग्रेस का हाल उस क्रिकेट टीम जैसा है जो अपने सबसे कमजोर बल्लेबाजों को सबसे पहले फील्ड में भेजती है. अब धीरे धीरे लगता है कि राहुल गांधी ने बल्ला पकड़ना सीख लिया है. लेकिन जब तक वे बैटिंग करना शुरू करेंगे, जनता तो स्टेडियम खाली कर चुकी होगी. शुरुआत करते करते उन्होंने इतनी देर कर दी कि अब वे संजीदगी से भी कुछ कहें, तब भी लोगों को मजाक ही लगता है.
Isha Bhatia
(ईशा भाटिया )
खैर, राहुल गांधी से ज्यादा कन्हैया का भाषण स्मृति ईरानी के लिए जरूरी है. गुस्से में आग बबूली ईरानी ने संसद में जिस अंदाज में भाषण दिया था वह भाषण कम डांट फटकार और गुंडागर्दी ज्यादा लग रहा था. कन्हैया ने दिखाया कि कैसे आप मुस्कुराते हुए, बिना अपना आपा खोए, बिना किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिए, मुद्दों और विचारधाराओं पर बात कर सकते हैं.
अपना मत रखने के लिए ना ही आपको किसी की ओर उंगली उठाने की जरूरत पड़ती है, ना ही आंखों में रोष लाने की. क्या संसद में विवाद का अवसर इसी मकसद से नहीं दिया जाता कि दोनों पक्ष लोकतांत्रिक तरीके से अपना अपना मत रखें और उस पर जनहित में विमर्श करें? लेकिन हमारे सांसद ना तो भाषण देने में निपुण हैं और ना ही उन्हें सुनने में सक्षम. संसद में तर्कसाध्य बहस ना हो सके, इस कोशिश में वे कोई कसर नहीं छोड़ते. फिर भले ही उसके लिए स्पीकर की मेज के सामने आ कर चिल्लाना ही क्यों ना पड़े, जोर जोर से अपनी मेज पीटनी पड़े या जरूरत रहते कुर्सियां उठा कर फेंकनी पड़े. संसद का हाल अक्सर उस क्लासरूम जैसा दिखता है जिसमें टीचर है नहीं और बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं.
एक सभ्य नागरिक समाज वाद विवाद से ही आगे बढ़ता है. जेएनयू और कन्हैया कुमार ने हमारे सांसदों, मंत्रियों और युवाओं के लिए एक मिसाल पेश की है. रात के अंधेरे में कैंपस का माहौल विद्रोह से भरा लेकिन संजीदा था.
स्टूडेंट एकजुट थे, साथ मिल कर आजादी के नारे लगा रहे थे. इस नजारे ने कुछ कुछ 1968 के फ्रांस की याद भी दिलाई. लेकिन बहुत बड़ा फर्क भी था क्योंकि ये संगठित छात्र पूरे देश के नहीं, बल्कि केवल एक छोटी सी यूनिवर्सिटी के थे. हां, कैमरे के फ्रेम में 7,000 या 70,000 में फर्क करना आसान नहीं होता.
बहरहाल कैंपस में परिवर्तन के नारे गूंज रहे हैं पर कैंपस के बाहर की दुनिया का सच अलग ही है. कन्हैया ने सीधी सरल भाषा का इस्तेमाल करते हुए आम नागरिकों को अपनी बात समझाने की कोशिश की है. युवा वर्ग में बदलाव और बेहतर भविष्य की ललक है. उसे आवाज देने की जरूरत है और अगर बदलाव लाना है तो इस कोशिश को जारी रखना होगा, देश के बाकी युवाओं को भी साथ लेना होगा, सरकार के खिलाफ और देश के खिलाफ बोलने के फर्क को और भी आसान शब्दों में समझाना होगा.
सरकार और राजनीतिक दलों को भी समझना होगा कि लोकतंत्र विचारों की प्रतिस्पर्धा है, राष्ट्र और उसके नागरिकों की बेहतरी के लिए अच्छे विचारों की प्रतिस्पर्धा. उसे रोकने की कोशिश लोकतंत्र से द्रोह होगा.
ब्लॉग: ईशा भाटिया


साभार :

http://www.dw.com/hi/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%A3/a-19093780?maca=hi-Facebook-sharing

Monday, 14 March 2016

Delhi HC must explain Kanhaiya bail order ------ Rajeev Dhavan

Kanhaiya Kumar’s bail order is stunning. A patriotic judge’s patriotic lament. Lyricist Indeevar opens the first page of Justice Pratibha Rani’s judgment on Kanhaiya’s bail order. Imagine a chorus in court praising Hari Singh Nalwa, Lal Bahadur (Congress), Bhagat Singh (martyr), Jawahar (Congress), and the great nation swallowing up gold, diamonds and pearls. Imagine, too, shouts of encore to repeat — as the song’s tune reverberates in your mind.
What you don’t hear is Justice Krishna Iyer’s judicially consecrated slogan “Bail not jail”. Imagine the slogan “Bail not jail” being chanted, with encores galore.
If permissible, would the latter have been more appropriate? The case for bail should have been simple, based on the principles of prima facie case, seriousness of crime, prevention of the accused from absconding, non-tampering of evidence, and the requirement of cooperation with the investigation. Perhaps something could have been said about the failure of the police to protect Kanhaiya, and the intimidation of sloganeering goonda lawyers who beat him up, attacked journalists, and did not even spare a committee sent by the Supreme Court.
Bail granted, conditions imposed. Protection not ordered despite threats.
Kapil Sibal’s argument denied any slogan-raising by Kanhaiya. Additional Solicitor General Tushar Mehta, appearing for the “state”, (which state? Perhaps the State of the Nation), elaborated on the entire JNU incident, including on the posters, slogans and photographs to establish atmosphere. He even said Kanhaiya’s speech on February 11 “was part of his strategy to create a defence”. A view echoed by Justice Rani even though it was something that could not be examined at that stage.
On prima facie case, it remains a mystery as to why the learned judge cited the Gujarat High Court’s decision in Hardik Patel (2016) rather than the Supreme Court’s celebrated judgment in Kedar Nath (1962). The reference to Justice Rohinton Nariman’s view in Shreya Singhal (2015) on the “level of incitement” when restriction on free speech “kicks in” should have been a reminder for caution.
And so, was there a prima facie case? We will not exactly know because the next paragraph in the Kanhaiya bail case refers to the “vision and object of Jawaharlal Nehru University”, quoting lavishly from its website. This was to suggest that Kanhaiya betrayed his alma mater and, as emphasised later, “Our forces… protecting our frontiers in the most difficult terrain in the world, that is, Siachen Glacier or Rann of Kutch”.
The judge’s geography may be confused. The point made by the judge was that JNU protesters, too, must introspect on their slogans and displaying of photos of Afzal Guru and Maqbool Bhatt.
Indeed, the judge prescribes that JNU must take remedial steps to investigate and avoid recurrence. The general prescription suggested by the judge is “Whenever some infection is spread in a limb… [give] antibiotics orally and if that does not work… it may require surgical intervention also. [and] if the infection results in… gangrene, amputation is the only treatment”.
To whom is this advice given? To JNU? Or the state to use antibiotics and amputation to avoid the spread of this gangrene? Where? In JNU or in India — perhaps every nook and cranny of the great nation? This is in addition to her plea for introspection by all, especially the “faculty of JNU… to play its role in guiding them to the right path” for India and the university.
I guess in one sense, JNU and its staff were also on trial for failing in their national duty, as indeed Kanhaiya as president of the students’ union.
The actual discussion on bail is sparse as the learned judge found herself “standing on a cross road”, posing the question: “in view of the nature of serious allegations against him, the anti-national attitude [emphasis added] which can be gathered from the material relied upon by the state should be a ground to keep him in jail”.
Coming back to the law, the learned judge is right in saying that it was for the “investigating agency to unearth the truth” and that his later speech “cannot be examined by this court at this stage”. Then why this judicial exhortation to cure the infection which such students are suffering?
The criminal case against Kanhaiya is yet to be examined. But clearly he was morally culpable as an erring JNU student, as the president of its students’ union and as one possibly infected and who needs antibiotics and, who knows, amputation.
Not literally of course. His bail takes into account the monetary aspect that his mother is an anganwadi worker who earns Rs 3,000, and prescribes a bail bond of Rs 10,000 and a surety preferably from the teaching faculty of JNU. But morally, Kanhaiya is pronounced as being on the wrong side.
One of the considerations for his bail was that during his judicial custody, “he might have introspected about the events that had taken place… [to] enable him to remain in the mainstream”. Kanhaiya is told that as a condition for bail, he will not participate “actively or passively in any activity which may be termed as anti-national”, and as president of the JNU students’ union, he was to “make all efforts within his power to control anti-national activities in the campus”. His surety must also “exercise control… to ensure that his thoughts and energy are channelised in a constructive manner”.
It seems to me that his surety, as indeed Kanhaiya himself, must wear a hypothetical intellectual dog collar of the mind.
Justice Pratibha Rani has more to explain than Kanhaiya.


The writer is a senior advocate at the Supreme Court
Written by Rajeev Dhavan 
Updated: Mar 14, 2016, 9:04 
http://indianexpress.com/article/opinion/columns/decode-this-jnu-jnu-row-kanhaiya-kumar/

Friday, 11 March 2016

जेएनयू के कन्हैया कुमार, खालिद उम्र और अन्य देश के होनहार और क्षमता स्वस्थ छात्र हैं : अशोक कुमारगांगुली,पूर्व न्यायाधीश

***** अंग्रेजों ने गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद जैसे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया था मगर कॉलेजों और विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ कभी भी इस अधिनियम को लागू नहीं किया गया मगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार देश के शैक्षिक संस्थानों में एक विशेष सिद्धांत और चिंता को थोपने के लिए इस बदनाम ज़माने के अधिनियम का उपयोग कर रही है। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया है और देश विभाजन की ओर बढ़ रहा है।*****

मौजूदा मोदी सरकार अंग्रेजी उपनिवेशवादियों से भी बदतर है : पूर्व न्यायाधीश अशोक कुमारगांगुली

कोलकाता: जेएनयू के छात्र कन्हैया कुमार, खालिद उम्र और अन्य लोगों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप आयद किए जाने का कड़ा विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व और पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने कहा कि इंडियन पैनल कोड में 124 ए में जो धारा शामिल है वह अंग्रेजी सम्राज्य की देन है जो स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल की जाती थी।

मगर कांग्रेस के इन्तहा पसंद विचारधारा से संबंधित लोगों के दबाव के कारण यह कोड भारत की आजादी के बाद भी हमारे संविधान और कानून का हिस्सा रह गया। पूर्व न्यायाधीश अशोक कुमार गांगुली ने इंडियन पैनल कोड के 124-A में संशोधन की वकालत करते हुए कहा कि इस बार राजनीतिक हितों के अधिग्रहण के लिए इस्तेमाल हो रहा है।

उन्होंने कहा कि जेएनयू के जिन छात्रों विशेषकर कन्हैया कुमार, खालिद उम्र व अन्य के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया है वह देश के होनहार और क्षमता स्वस्थ छात्र हैं।

उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय शिक्षा की जगह होती है जहां चिंता और विचार, बहस और वैज्ञानिक जांच होते रहे हैं। विद्यालय में अगर बहस और विचार का माहौल खत्म कर दिया जाएगा तो छात्रों में रचनात्मकता समाप्त हो जाएगी।

कोलकाता प्रेस क्लब में आयोजित ” फार्म फॉर डेमोक्रेसी एंड कम्युनल अमीटी ” द्वारा आयोजित संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति गांगुली ने मौजूदा भाजपा सरकार को अंग्रेजी उपनिवेशवादियों से भी बदतर करार दिया और कहा कि अंग्रेजों ने गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद जैसे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया था मगर कॉलेजों और विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ कभी भी इस अधिनियम को लागू नहीं किया गया मगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार देश के शैक्षिक संस्थानों में एक विशेष सिद्धांत और चिंता को थोपने के लिए इस बदनाम ज़माने के अधिनियम का उपयोग कर रही है। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया है और देश विभाजन की ओर बढ़ रहा है।

http://sadaebharat.com/2016/03/07/the-current-government-is-worse-than-the-english-colonists-former-justice-ashok-kumarganguli/

Tuesday, 8 March 2016

महिला दिवस पर जानें समृद्ध देश में महिला उपेक्षा की दास्तान ------ हेली बेरी से

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 6 March 2016

जे एन यू विवाद सरकार का रचा षड्यंत्र था ------ जयंती घोष

जेएनयू की एक प्रोफेसर ने आरोप लगाया है कि संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी को लेकर जेएनयू में उस कार्यक्रम आयोजन पर विवाद विश्वविद्यालय को बदनाम करने का सरकार का रचा षड्यंत्र था जिस दौरान कथित तौर पर देश विरोधी नारेबाजी हुई थी। उन्होंने कहा कि सरकार विशेष तौर पर विश्वविद्यालयों को निशाना बना रही है क्योंकि उसे छात्रों से भय है जो सोच सकते हैं और विश्लेषण कर सकते हैं। जेएनयू प्रोफेसर और जानी-मानी अर्थशास्त्री जयंती घोष ने ‘एनडीए की देश विरोधी नीतियां’ विषय पर एक व्याख्यान के दौरान छात्रों को संबोधित करते हुए कहा, ‘वह विश्वविद्यालय को बदनाम करने के लिए रचा गया षड्यंत्र था और इसकी योजना एक उच्च स्तर पर बनाई गई थी। कार्यक्रम के दौरान जो लोग मौजूद थे उनमें तीन नकाबपोश लोग थे जिन्होंने ‘देश विरोधी’ नारेबाजी की और ये परोक्ष रूप से गुप्तचर ब्यूरो से थे। हमारा यही संदेह है।’ यह व्याख्यान उस जेएनयू में आयोजित होने वाले ‘राष्ट्रवादी अध्यापन’ का हिस्सा है जो कि 9 फरवरी के कार्यक्रम को लेकर विवादों में है। कक्षाओं का आयोजन विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ब्लॉक में हो रहा है जो कि विवादास्पद कार्यक्रम को लेकर छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की राजद्रोह के मामले में गिरफ्तारी के बाद विरोध प्रदर्शन का स्थल रहा है। घोष ने कहा, ‘हमारा यही संदेह है। हम उससे अधिक महत्वपूर्ण है जितना कि हम मानते हैं- हम वास्तव में निशाने पर हैं। इसी कारण से हमें स्वयं का बचाव करना होगा।’
जेएनयू प्रोफेसर और जानी-मानी अर्थशास्त्री जयंती घोष

http://www.jansatta.com/national/afzal-guru-row-constructed-conspiracy-by-state-jnu-professor/74385/

Saturday, 5 March 2016

कन्हैया कुमार के विचार : जन-अभिव्यक्ति ------ विजय राजबली माथुर

कन्हैया कुमार ने जो राह दिखा दी है उसको अपना कर ,उसको मान-सम्मान के साथ अनुकरण में लाकर जनता को अपने साथ जोड़ने का कार्य वामपंथ को अविलंब करना चाहिए। उसके विचार जन-अभिव्यक्ति हैं तभी तो अब मीडिया भी उनको स्थान देने लगा है। 
(विजय राजबली माथुर )
कन्‍हैया के भाषण में सबक लेने लायक कोई बात थी तो वह वामपंथियों के लिए ही थी। उन्‍होंने कहा, ‘जेएनयू में हम सभी को सेल्फ क्रिटिसिज्‍म की जरूरत है क्योंकि हम जिस तरह से यहां बात करते हैं वो बात आम जनता को समझ में नहीं आती है। हमें इस पर सोचना चाहिए।’ देश में वामपंथ राजनीति सालों से इस समस्‍या से जूझ रही है। वह जनता के हितों की बात करती है, फिर भी जनता उनकी सुनती नहीं है। कन्हैया ने अपने जेल के अनुभव गिनाते हुए संकेत दिया कि वामपंथियों को दलितों को साथ लेकर चलना होगा। वामपंथी पार्टियां इस पर सोच सकती हैं।



नई दिल्‍ली: देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार होने के बाद कल (गुरुवार को) जमानत पर रिहा होकर जेएनयू वापस लौटे जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने NDTV से खास बातचीत में कहा कि '9 फरवरी का कार्यक्रम मैंने आयोजित नहीं किया था। देश‍विरोधी नारे लगे या नहीं लगे, इसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता, क्योंकि मैं वहां मौजूद नहीं था।'

कन्हैया द्वारा कही गई मुख्‍य बातें...
मेरी उस कार्यक्रम के प्रति परोक्ष रूप से कोई सहमति नहीं थी। मुझे उस कार्यक्रम की सूचना नहीं दी गई थी। कार्यक्रम की इजाजत देना मेरा काम नहीं है।
चार-पांच लोग वहां नारे लगा रहे थे। नारे लगाना गलत है। नारे लगाने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए।
पुलिस कहती है कि मेरी रज़ामंदी से कार्यक्रम हुआ, इसलिए गिरफ़्तार किया।
पहले से इस तरह की गतिविधियां होती आ रही है। उस कार्यक्रम को रोकना मेरे अधिकार से बाहर था।
अध्यक्ष होने के नाते मैं छात्रों की नुमाइंदगी करता हूं। छात्रों की बात करना मेरा काम, कार्यक्रम की इजाज़त देना नहीं।
कुछ छात्रों को निशाना बनाने की कोशिश हो रही है।
जो नारे लगाए गए, मैं उसकी निंदा करता हूं। ये सिर्फ़ नारे का मामला नहीं है, उससे ज़्यादा गंभीर है। नारों से लोगों का पेट नहीं भरता।
देश के सिस्‍टम पर मेरा भरोसा है।
मामला कोर्ट में है, इसलिए मैं ज्‍यादा बोल नहीं सकता।
हमारा देश इतना कमजोर है, जो नारों से हिल जाएगा?
हैदराबाद की कहानी जेएनयू में दोहराने की कोशिश हुई।
जेएनयू में दक्षिणपंथी ताकतें अलग-थलग हैं।
हर मामले को हिंदू-मुसलमान रंग दिया जाता है।
हम अफजल गुरु पर कोर्ट के आदेशों का सम्‍मान करते हैं।
मेरा भाई सीआरपीएफ में था, जो नक्‍सली हमले में मारा गया।
किसी को नक्‍सली बताकर गलत तरीके से मारने का भी समर्थन नहीं करता।
ये लड़ाई देश के खिलाफ नहीं, बल्कि सरकार के खिलाफ है।
जेएनयू के छात्रों को देशद्रोही बताया जा रहा है।
पिछड़े लोगों को निशाना बनाया जा रहा है।
पटियाला हाउस कोर्ट में जो मैंने देखा वो ख़तरनाक परंपरा है।
हाथ में झंडा लेकर संविधान की धज्जियां उड़ा रहे थे।
देशद्रोह का क़ानून अंग्रेज़ों के ज़माने का है।
भगत सिंह देश के लिए लड़ रहे थे। भगत सिंह को अंग्रेज़ देशद्रोही मानते थे।
सरकार आपके पास के थाने से लेकर संसद तक है।
विचारधारा को रणनीतिक रूप नहीं देने से वो ख़त्म हो जाती है।
केजरीवाल, राहुल गांधी को देश से प्यार है तो आंदोलन करना होगा।
भगत सिंह और गांधी जैसे सुधारक हुए। ये वो लोग थे जो साम्राज्यवाद से लड़े।
दक्षिणपंथी मुद्दों पर फ़ोकस करतें है, विचारधारा पर नहीं।
जब तक आप डरेंगे नहीं तो लड़ेंगे नहीं।
मुझे आरएसएस से डर लगा इसलिए उसके ख़िलाफ़ लड़ा।
अब पुलिस से दोस्ती हो गई है।
मैं आगे चलकर शिक्षक ही बनूंगा।
मैं मुद्दों पर बहस करूंगा, अपनी विचारधारा के लिए लडूंगा।
मैं अपने अनुभवों पर किताब लिखना चाहता हूं।
मामला कोर्ट में है, अभी फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद पर बहस न हो।
जब आरएसएस में वैचारिक बदलाव हो रहा है तो कांग्रेस, लेफ़्ट में भी होगा। हमें इस बदलाव को बारीकी से देखने की ज़रूरत है। तभी हम लेफ़्ट, बीजेपी, कांग्रेस, केजरीवाल में फ़र्क कर पाएंगे
सबको एक ब्रश से मत रंगिए।
http://khabar.ndtv.com/news/india/exclusive-kanhaiya-kumar-interview-by-ravish-kumar-1283995?site=full
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05-03-2016 

http://epaper.telegraphindia.com/details/173713-175741306.html

नीतीश कुमार ::
युवाओं के आगे आने से देश में लोकतंत्र मजबूत होगा। देश में पनप रहे अंसतोष को दबाने के लिए देशभक्ति का नारा छेड़ा है। उनको और कम्युनिस्ट पार्टी को शुभकामना देता हूं, ऐसे विचारों को बल मिलेगा।

http://www.livegaya.com/…/in…/id/3118/kanhaiya-nitish-kumar… 


भाषण में क्‍या था:  
कन्‍हैया के भाषण में सबक लेने लायक कोई बात थी तो वह वामपंथियों के लिए ही थी। उन्‍होंने कहा, ‘जेएनयू में हम सभी को सेल्फ क्रिटिसिज्‍म की जरूरत है क्योंकि हम जिस तरह से यहां बात करते हैं वो बात आम जनता को समझ में नहीं आती है। हमें इस पर सोचना चाहिए।’ देश में वामपंथ राजनीति सालों से इस समस्‍या से जूझ रही है। वह जनता के हितों की बात करती है, फिर भी जनता उनकी सुनती नहीं है। कन्हैया ने अपने जेल के अनुभव गिनाते हुए संकेत दिया कि वामपंथियों को दलितों को साथ लेकर चलना होगा। वामपंथी पार्टियां इस पर सोच सकती हैं।   

http://www.jansatta.com/national/why-jnusu-president-kanhaiya-kumar-not-a-hero/73955/?utm_source=JansattaHP&utm_medium=referral&utm_campaign=jaroorpadhe_story

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05-03-2016