Thursday, 30 June 2016

ब्राहमणवाद है असली जातिवाद ------ महेश राठी


Mahesh Rathi
30 जून 2016  · 
ब्राहमणवाद है असली जातिवाद 
जातिवाद का लांछन यथास्थिति बनाये रखने की एक ब्राहमणवादी साजिश है। देश का बहुजन एकजुट होगा और अपने हक की बात करेगा तो ब्राहमणवादी बुद्धिजीवी उन पर जातिवादी होने का आरोप लगायेंगे और इस आरोप प्रत्यारोप का शोर मचाकर प्रचार भी करेंगे। और अपने शोर को इतना स्वाभाविक और मौलिक दिखाने की कोशिश करेंगे कि कई भ्रमित अथवा अपने हितों को साधने वाले बहुजन भी उनके इस जाति राग में शामिल हो जाते हैं। वास्तव में जातिवाद का यह शोर यथास्थिति को बनाये रखने की एक सोची समझी राजनीति है, साजिश है। 
इस साजिश में सभी खुले और छुपे ब्राहमणवादी शामिल रहते हैं धुर दक्षिणपंथ से लेकर दिग्गज प्रगतिशील तक। यह क्रान्तिकारी कभी यह सवाल नही उठाते हैं कि वर्तमान मीड़िया पर 95 प्रतिशत के लगभग अगड़े ब्राहमणवादियों का कब्जा क्यों हैं और न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और रक्षा क्षेत्र में देश के शीर्ष पदों अर्थात नीति निर्माता पदों पर इन अगड़ी जातियों के ब्राहमणवादियों का कब्जा क्यों हैं। यदि वह योग्यता को पैमाना बताते हैं तो बताये कि शादी विवाह और तमाम तरह के धार्मिक कर्मकाण्ड़ करने वाले ब्राहमणों में 90 प्रतिशत का संस्कृत उच्चारण गलत होता है और 95 प्रतिशत बोले जाने वाले श्लोंकों का अर्थ भी नही जानते हैं। फिर भी धार्मिक कर्मकाण्ड़ों पर उन्ही का कब्जा क्यों हैं? क्या यह जातिवाद नही है? 
इसके अलावा देश के किसी भी हिस्से में जहां ब्राहमणवाद दंगों के बीज बोता है। वहां दंगे का एक खास किस्म का डिजाइन काम करता है जिसमें मुस्लिम बस्तियों के पास दलित बस्तियों को बसाया जाता है और दंगा होने पर वही दोनों समुदाय हिंसा का शिकार होते हैं। ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नही है विगत वर्षों में दिल्ली के त्रिलोकपुरी में हुआ फसाद इसका उदाहरण है। जहां वाल्मिकी और मुसलमानों को आपस में लड़ाया गया और यह अधिकतर शहरों में पाया जाने वाला एकसमान डिजाइन है। यदि आप दंगों में दलितों आदिवासियों का इस्तेमाल कर सकते हैं और वो इतने बहादुर हैं (जोकि वो वास्तव में हैं) तो उन्हें सेना में आरक्षण क्यों नही? क्यों उन जातियों की देश की रक्षा का भार दिया जाता है अथवा उन्हें देश रक्षा की रणनीति बनाने का महत्ती कार्यभार दिया जाता है। क्या यह जातिवाद नही है और जो इस जातिवाद पर खामोश है और बहुजन की एकता से डरता है वो ही असली जातिवादी है। जो मीड़िया के जातिवाद पर उंगली उठाने से डरता है और बहुजन की एकता पर शोर मचाता है वही असली जातिवादी है। क्योंकि वह यथास्थिति बनाये रखकर अपने हितों को साधना चाहता है। वह विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं में ब्राहमणवादी पक्षपात पर खामोश है विश्वविद्यालयों में छात्रों और शिक्षकों की भर्ती के अवसरों को रोकने की ब्राहमणवादी साजिश पर आंखें मूंद लेता है और अगड़े वर्चस्व को बनाये रखने के लिए काम करता है। वह सरवाइवल आॅफ फिटेस्ट वाले निजीकरण के इस दौर में कमजोर बहुजनों के रेस से बाहर जाने पर गंूगा है परंतु अपने हक के लिए बहुजन एकता पर जातिवाद जातिवाद कहकर चिल्लाता है वही असली जातिवादी अथवा जातिवादियों का दलाल है।
https://www.facebook.com/mahesh.rathi.33/posts/10204833061144688

Tuesday, 28 June 2016

ब्राहमणवाद : प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों एवं उत्पादन और वितरण को नियत्रित करने का अधिकार भारतीय समाज की अगड़ी जातियों के पास ------ महेश राठी


Mahesh Rathi with Ameeque Jamei and 10 others.
27 june 2016 at 5:33pm · 
ब्राहमणवाद को लेकर कईं भ्रम पैदा करने वाली परिभाषाएं फैलाईं जाती हैं। जब ब्राहमणवादियों अथवा ब्राहमणवाद पर चोट की जाती है तो विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े कईं साथी और मित्र विभिन्न दलित और पिछड़े वर्ग के स्थापित नेताओं को भी निशाना बनाकर उन्हें भी ब्राहमणवादी बताकर ब्राहमणवाद को एक सामान्य अवधारणा अथवा सामान्य मानसिकता बताने की कोशिश करते हैं कि इस ब्राहमणवाद का शिकार कोई भी हो सकता है। 
परंतु भारतीय संदर्भों में ब्राहमणवाद वर्ण व्यवस्था पर आधारित अगड़ी जातियों के वर्चस्व को बनाये रखने की ऐसी शोषणकारी व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों एवं उत्पादन और वितरण को नियत्रित करने का अनौपचारिक अधिकार भारतीय समाज की अगड़ी जातियों के पास रहता है और बाकी निम्न मध्य और निम्न जातियां सेवा कार्यो में संलग्न रहती हैं। अब जहां तक सवाल पिछड़े और दलित नेताओं के तथाकथित ब्राहमणवादी होने का है वह ब्राहमणवाद द्वारा गढ़ा गया एक नया मिथक है। अग्रणी पिछड़े और दलित नेताओं का व्यवहार सामंती प्रवृति तो कहा जा सकता है, ब्राहमणवादी नही। परंतु उनके सामंती और निरंकुश व्यवहार को ब्राहमणवादी घोषित करना ब्राहमणवाद की ही एक ऐसी चाल है जो एक तरफ तो पिछड़ी और दलित राजनीति को लांछित कर देती है और दूसरी तरफ अपनी भयावह भेदभाव की शोषणकारी प्रणाली को स्वाभाविक मानसिक अवस्था बताकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश करती है। यहां दो उदाहरण देकर मैं इस अंतर को स्पष्ट करना चाहंूगा। 
भाकपा के पूर्व महासचिव ए बी बर्धन द्वारा 2008-09 में मायावती को प्रधानमंत्री पद का योग्य उम्मीदवार कहे जाने पर रेणुका चैधरी सहित सभी अगड़े नेताओं ने जिस प्रकार की कटु और अवांछित प्रतिक्रिया दी थी उससे उनके जातीय दुराग्रह साफ जाहिर हो रहे थे और उस एक घटना से यह सिद्ध होता है कि मायावती बेशक बड़े जनाधार वाली और मजबूत नेता हों वे ब्राहमणवादी नेता कभी नही हो सकती क्योंकि वे अगड़ी जाति से नही आती हैं और अगड़ी जतियों में उनके प्रति हमेशा दुराग्रह बना रहेगा। 
इसी प्रकार अन्ना आंदोलन के समय रामलीला मैदान में एक ब्राहमण मंचीय कवि ने अपना दर्द जाहिर करते हुए कहा था कि देखिए देश का क्या हाल हो गया है भैंस चराने वाले राज चला रहे हैं। जाहिर है भैंस चराने वाले पिछड़े नेता कितने ही ताकतवर और जनाधार वाले नेता हो जायें मगर वो अगड़े नही हो सकते हैं और ब्राहमणवादी जातिगत कारणों से उनकी योग्यता पर सवाल उठाते ही रहेंगे। दो अलग अलग समयों पर ब्राहमणवादियों की यह प्रतिक्रिया बताती है कि पिछड़े और दलित नेता दबंग सामंती व्यवहार वाले नेता तो हो सकते हैं वो ब्राहमणवादी नही हो सकते हैं क्योंकि वो अगड़ी जातियों से नही आते हैं और वो हमेशा जातिगत कारणों से अगड़ों के निशाने पर रहने वाले पिछड़े और दलित नेता ही रहेंगे। 
यही कारण है कि जब कभी भी ब्राहमणवाद की बात की जाती है तो उसका अर्थ भारतीय समाज की अगड़ी जातियों की जातिगत श्रेष्ठता आधारित वर्चस्व की पुरातन शोषण व्यवस्था से जोड़कर ही समझा जाना चाहिए।

Sunday, 26 June 2016

यह देश तभी आगे बढ़ेगा जब महिलाएं आगे बढ़ेंगी ------ कृष्णा यादव

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    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 24 June 2016

मोदी का विकास एजेंडा :मारकाट कर वोट हासिल करना ------ तीस्ता सीतलवाड

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Arvind Raj Swarup Cpi
लखनऊ, 23 जून 2016.
आज सीपीएम के प्रमुख नेता कॉम अर्जुन प्रसाद स्म्रति समाहरोह में जयशंकर प्रसाद सभागार में दो प्रमुख कार्यक्रम संपन्न हुए।
कॉम को श्रधांजलि देने के साथ एक सेमिनार आयोजित की गई।
विषय था :
"वर्तमान दौर में साम्प्रदायिकता की चुनौती और जनपक्षधर मीडिया"
तीस्ता सीतलवाड़ प्रमुख वक्ता थीं।
लघु फ़िल्म"खाल" भी दिखाई गई जिसमे लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने एक्टिंग की थी।
एक फोटो:
(L to R)

नाइश हसन,तीस्ता सीतलवाड़,प्रदीप घोष,अरविन्द राज स्वरुप,आर एस बाजपाई।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1762198577331606&set=a.1488613171356816.1073741825.100006244413046&type=3






    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 21 June 2016

ये सारे कम्युनिस्ट लेखक अपनी मानसिकता में ब्राह्मणवादी थे: मुद्रा राक्षस ------ कॅंवल भारती




Kanwal Bharti

अविस्मरणीय मुद्रा जी 
कॅंवल भारती
‘जाने वाले लौटकर नहीं आते, जाने वालों की याद आती है।’ मेरे ही शहर के मशहूर शाइर दिवाकर राही का यह मकबूल शे‘र आज मुद्रा राक्षस के निधन पर रह-रहकर याद आ रहा है। सचमुच मुद्रा जी लौटकर नहीं आयेंगे, पर उनकी याद हमेशा आयेगी। जब भी लखनऊ जाना होगा, उनकी याद आयेगी और एक सूनापन महसूस होगा।
मुद्रा जी को पढ़ते हुए उनसे मिलने की इच्छा होती थी, पर उनके घर का कोई पता-ठिकाना मेरे पास नहीं था। उस समय तक लखनऊ में मेरा किसी भी लेखक से खास परिचय नहीं हुआ था। एक दारापुरी जी से जरूर परिचय हो गया था, जिनसे कभी-कभार उनके इन्दिरा भवन स्थित आफिस में जाकर मिल भी लेता था। मैं सम्भवतः सुलतानपुर में तैनात था। मैं वहाँ से अपने निजी या सरकारी कार्य से विभाग के मुख्यालय में आता रहता था। मुख्यालय प्रागनारायण मार्ग पर कल्याण भवन में था। चारबाग से आते हुए मैं अक्सर जीपीओ, नरही, सिकन्दर बाग और गोखले मार्ग के रास्तों पर नजर रखता था कि शायद फ्रेंच कट दाढ़ी में कोई व्यक्ति नजर आ जाय, और वह मुद्रा जी हों। अखबारों में उनके लेख के साथ जो फोटो छपता था, उसमें उनकी फ्रेंच कट दाढ़ी होती थी, इसलिए उनका यही चित्र मेरे दिमाग में बसा हुआ था। एक बार गोखले मार्ग से ही एक फ्रेंच कट दाढ़ी वाला व्यक्ति विक्रम में चढ़ा, तो मैं बहुत देर तक उस व्यक्ति को देखता रहा और समझने की कोशिश करता रहा कि क्या यही मुद्रा जी हैं। पर वह नहीं थे, वह शरीर से भी भारी थे। एक बार अमीनाबाद के इलाके में भी मैं इसी पागलपन के साथ मुद्रा जी से अचानक मिलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन इस तरह से कोई चमत्कार कभी नहीं हुआ, पर जब सालों बाद हकीकत में उनके घर जाना हुआ, तो पता चला कि वह तो सचमुच अमीनाबाद के ही करीब थे। लेकिन यह उनसे मेरी पहली मुलाकात नहीं थी, अलबत्ता उनके घर पहली बार ही जाना हुआ था। 
मुद्राजी से मेरी पहली मुलाकात काफी देर से हुई थी। वर्ष ठीक से याद नहीं है। शायद वह 2000 या उससे पहले का कोई वर्ष हो सकता है, जब कथाक्रम के किसी आयोजन में मैंने पहली दफा उनको देखा और सुना था। वर्णव्यवस्था, वेद, उपनिषद, कौत्स, मनु और प्रेमचन्द आदि पर उनका व्याख्यान विचारोत्तेजक था। मैंने देखा कि अपनी टिप्पणियों से दलित विमर्श को उरोज पर पहुंचा देने वाले गैर दलित वक्ताओं में वही एक मात्र वक्ता थे। रात को खाने से पूर्व वहाँ व्हिस्की और बीयर पीने की व्यवस्था थी। कुछ अपवादों कों छोड़कर, जिनमें अदम गोंडवी और एक-दो महिलायें थीं, सभी पी रहे थे। सच्ची कहूँ तो इस तरह के माहौल से मेरा वास्ता पहली दफा पड़ा था। अपनी जन्मजात हीनता की ग्रन्थी के कारण मैं उस माहौल में स्वयं को अनफिट सा महसूस कर रहा था। मुझे तब पीने का शऊर भी असल में नहीं था। साल में कभी-कभार कुछ देशी पीने वालों के साथ जरूर बैठ जाता था, एकाध गिलास आँख मींचकर हलक में उतार भी लेता था। पर यहाँ पूरा बार ही सजा हुआ था। मैंने व्हिस्की का एक गिलास उठाया और उसमें पानी की जगह बीयर डालने के लिए जैसे ही बोतल उठाई, शैलेन्द्र जी ने तुरन्त टोक दिया, ‘अरे, न..न..! व्हिस्की में बीयर नहीं डाली जाती।’ और मैं, जो अपनी हीनता-ग्रन्थी से पहले से ही ग्रस्त था, झेंपकर रह गया था। दो-तीन पैग पीने के बाद काशीनाथ सिंह, राजेन्द्र यादव और श्रीलाल शुक्ल के बीच जो ‘नानवेज डायलाग’ शुरु हुआ, और जिस तरह काशीनाथ सिंह ने मुद्राजी की चांद बजाई और जिस तरह श्रीलाल शुक्ल आज की प्रख्यात, और तब की उदीयमान कथा लेखिका से बार-बार गले मिलने की स्थिति में पहुँच रहे थे, और किस तरह शशिभूषण द्विवेदी एक ग्लैमरस युवा लेखिका पर बाग-बाग हुए जा रहे थे, यह सब देखना मेरे लिए सचमुच एक नया अनुभव था। लेकिन मुद्राजी इस फूहड़पन का अपनी मुस्कान के साथ आनन्द ले रहे थे। अपनी चांद बजाए जाने पर भी वह मुस्करा ही रहे थे। पीना उनकी कमजोरी थी, पर बहकना उनकी आदत में शुमार नहीं था।
इस पहली मुलाकात में उनसे कुछ खास बातचीत नहीं हो सकी थी। हाँ, उनका टेलीफोन नम्बर और घर का पता मैंने जरूर ले लिया था। अब मैं फोन पर उनसे बात कर लेता था। बहुत से विषयों पर उनसे चर्चा भी फोन पर हो जाती थी। मेरा लखनऊ आना लगा ही रहता था, जब भी आता और मेरे पास समय रहता तो मैं राजेन्द्र नगर में राजवैद्य माताप्रसाद सागर से जरूर मिलता था। लखनऊ में गर्दिश के दिनों में मेरे शरणदाताओं में भी वह प्रमुख थे। एक दिन वैद्य जी से ही मैंने दुर्विजय गंज का रास्ता पूछा, तो बोले, रानीगंज के चैराहे से बाएं मुड़ जाना, सीधे उनके घर पर ही पहुँच जाओगे। और, सचमुच, मैं उसी रास्ते से मुद्रा जी के घर पहुँच गया। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं था, और लैंडलाइन फोन वैद्य जी के घर पर भी नहीं था, इसलिए उन्हें पूर्व सूचना देने या उनसे समय लेने का अवसर नहीं था। मैंने घर के बाहर लगी घण्टी बजाई। खिड़की में से एक युवा चेहरा नजर आया, पूछा, कौन? मैंने अपना परिचय दिया, और कुछ क्षण बाद दाहिनी तरफ के एक कमरे में मुझे बैठा दिया गया। कमरा बहुत साधारण था। दीवाल पर एक चित्र टंगा था, जिसमें दो विपरीत लिंगी छोटे बच्चे आपस में किस कर रहे थे। एकाध पेंटिंग भी थी। बैठने के लिए कुछ कुर्सियां और बीच में एक मेज थी। वह किधर से भी स्टडी रूम नहीं था, इसलिए कि उसमें कुछ किताबें आदि नहीं थीं। उसी समय मुद्रा जी ने कमरे में प्रवेश किया, कैसे हो कंवल? 
मैंने कहा, ‘जी ठीक हूँ।’ 
फिर बोले, ‘अरे तुम तो मेरे प्रिय लेखक हो, सारे दलित लेखकों में।’
‘यह तो आपका बड़प्पन है।’ मैंने कहा था।
मैंने कहा, मैंने सुना है कि हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष के लिए आपका नाम गया है। सुनकर उपेक्षा से बोले, ‘मैं अगर जाऊॅंगा, तो नाटक अकादमी में जाऊॅंगा, इस वाहियात जगह क्यों जाऊॅंगा?’
इसके बाद दलित राजनीति पर चर्चा छिड़ गई। वह चर्चा आंबेडकर के पूना पैक्ट और भगत सिंह से होती हुई आज के कम्युनिस्टों तक चली गई। उन्होंने कांशीराम को बहुजन नायक माना, पर मायावती की तीखी आलोचना की। उन्होंने भारतीय इतिहासकारों, खासकर कम्युनिस्ट इतिहासकारों की भी आलोचना की, जिन्होंने उस सम्पूर्ण स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की उपेक्षा की, जो फुले और आंबेडकर ने बहुजनों की मुक्ति के लिए लड़ा था। उनका कहना था कि इतिहास के इतने महत्वपूर्ण पक्ष को नकारने का एक ही मललब है कि ये सारे कम्युनिस्ट लेखक अपनी मानसिकता में ब्राह्मणवादी थे। उनके विचारों को सुनते हुए समय का पता ही नहीं चला, घड़ी देखी, तो एक घण्टा होने वाला था। उसी समय मैंने उनसे विदा ली।
इसके बाद तो उनसे मिलने के अनगिनत अवसर मिले। कई बार तो कथाक्रम के ही आयोजनों में मिलना हुआ। कथाक्रम 2014 के आयोजन में वे अस्वस्थ चल रहे थे, स्वयं से न खड़े हो सकते थे, और न चल सकते थे। लेकिन इसके बावजूद वे उसमें शामिल हुए थे। उन्होंने अपने वक्तव्य के आरम्भ में जो कहा था, वह बहुत मार्मिक है-‘मैं जब यहाँ आने के लिए तैयार हुआ, तो पोती बोली, आप को जो बोलना है, उसे बोल दीजिए, मैं लिख देती हूँ। उसे वहाँ भिजवा दीजिए, वहाँ कोई पढ़ देगा। मैंने कहा, नहीं! वहाँ जाने का मतलब सिर्फ बोलना ही नहीं है, लोगों को सुनना और लोगों से मिलना-जुलना भी होता है। और, मैं चला आया।’ सभागार में तालियां बजीं, और बजनी ही चाहिए थीं, क्योंकि उन्होंने साहित्यिक आयोजनों के महत्व और उनकी अर्थवत्ता को रेखांकित किया था। 
उनके साथ उसी अवसर की एक तस्वीर मेरे मोबाईल में कैद है, जिसमें सभागार में अग्रिम पंक्ति में वे मेरे साथ बैठे हुए हैं। इस तस्वीर को एक लेखक मित्र ने अपने मोबाइल से खींचकर मुझे मेल किया था। उस मित्र का नाम अब याद नहीं आ रहा है। जब हम बैठे थे, तो उन्हें पेशाब लगा। मुझसे बोले, ‘वह कहाँ है, जो मेरे साथ आया था? मैंने कहा, मैं नहीं जानता, पर आप मुझे बताइए, क्या करना है?’ उन्होंने कहा, ‘बाथरूम जाना है।’ मैंने तुरन्त उन्हें उठाया, और उनका हाथ पकड़कर उन्हें टायलेट ले गया। उस समय मैंने जाना कि रोग और बुढ़ापा आदमी को कितना बेबस बना देता है! 
अन्तिम बार मेरा उनसे मिलना 23 अगस्त 2015 को उमा राय प्रेक्षागार, लखनऊ में हुआ था, जहाँ वे भगवानस्वरूप कटियार द्वारा सम्पादित ‘रामस्वरूप वर्मा समग्र’ के लोकार्पण के आयोजन में मुख्य वक्ता के रूप में आए थे। संयोग से वहाँ भी मुझे उनके ही साथ बैठने का सुयोग मिला था। उस समय उनका स्वास्थ्य मुझे पहले से भी ज्यादा खराब लग रहा था। उन्हें तब बोलने में भी कठिनाई हो रही थी। लेकिन इसके बावजूद वे वहाँ रामस्वरूप वर्मा के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए आए थे। उनका यही गुण हम जैसे लोगों को, जो थोड़ी सी तकलीफ में भी आराम करना पसन्द करते हैं, बहुत प्रेरणा देता है। इस अवसर पर मुद्रा जी ने रामस्वरूप वर्मा के बारे में बोलते हुए कुछ बेबाक टिप्पणियां कीं थीं, जिन पर चर्चा बेहद जरूरी थी, पर हुई नहीं। उन्होंने कहा था-वह अपने दौर के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्होंने राजनीति के साथ-साथ दलित-पिछड़ी जातियों को ब्राह्मणवाद के खिलाफ जगाने का काम किया। उस दौर में उन्होंने जिस अर्जक वैचारिकी को स्थापित करने का आन्दोलन खड़ा किया, वह आगे स्थिर नहीं रह सका, क्यों? जिस विचारधारा की आज सबसे ज्यादा जरूरत है, वह उन्होंने दी, पर वह जीवित क्यों नहीं रही? कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार स्वयं वर्मा जी भी थे।’ लेकिन इस बात को वे खुलकर नहीं कह सके थे। इसका कारण या तो उनकी अस्वस्थता थी या फिर वे रामस्वरूप वर्मा के भक्तों को नाराज नहीं करना चाहते थे, जिनका आचरण उनकी वैचारिकी के ठीक विपरीत था। कार्यक्रम के बाद मैंने अपनी शंका उन पर प्रकट की, तो उनका दर्द छलक आया था। मुद्रा जी इस बात को लेकर दुखी थे कि दलित-पिछड़ी जातियाॅं उसी ब्राह्मणवाद को अपने कंधों पर ढो रही हैं, जिसका आजीवन विरोध वर्मा जी ने किया था। 
मुद्रा जी से एक अचानक मुलाकात इलाहाबाद में लालबहादुर वर्मा जी के आवास पर हुई थी, जिसका वर्ष याद नहीं आ रहा है, पर, वह इक्कीसवीं सदी का आरम्भिक वर्ष हो सकता है। वह मुलाकात दो मायने में महत्वपूर्ण थी, एक, इसलिए कि वहीं पहली दफा सुभाष गताड़े, विकास राय और रवीन्द्र कालिया से मिलना हुआ था, और, दो, इसलिए कि मुझे मुद्रा जी और कालिया जी के बीच चल रही बातचीत में, जिसमें वे अपनी अन्तरंग यादें साझा कर रहे थे, मुझे साक्षी बनने का अवसर मिला था। उनकी वे सादें बहुत दिलचस्प थीं, इसलिए बीच-बीच में हॅंसी के ठहाके भी लग रहे थे। वहाँ हम सभी समान विचारधारा के लोग थे, पर इसके बावजूद, मुद्रा जी समकालीन वामपंथ के आलोचक थे। उनकी आलोचना के केन्द्र में वह वामपंथ था, जो जातिचेतना से लड़ना नहीं चाहता था। एक प्रसंग में उन्होंने इस विचार को वहाँ भी पूरी शिद्दत से रखा था, जिसे मैं देख रहा था कि विकास जी ने उनके विचार को किसी उदाहरण से आगे बढ़ाया था। 
यह वह दौर था, जब मुद्रा जी ‘राष्ट्रीय सहारा’ में अपने नियमित स्तम्भ-लेखन से दलित-पिछड़े वर्गों के हीरो बने हुए थे। वे आंबेडकर और फुले की विचारधारा को अपने लेखन से निरन्तर धार दे रहे थे। उन्होंने चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, ललईसिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा के रिक्त स्थान को बहुत जल्दी भर दिया था। वे दलित वर्गों के आदर्श बन गए थे, और उस मुकाम पर पहुँच गए थे, जहाँ कोई दलित लेखक भी आज तक नहीं पहुंचा। यह उन्होंने ही हिन्दी जगत को बताया था कि अवसर मिलने पर चाण्डाल जाति में जन्मे रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविख्यात कवि बने, और हेला यानी भंगी जाति में जन्मे बिस्मिल्लाह खां विश्व के मशहूर शहनाई वादक बने। इसलिए यह मामूली घटना नहीं है कि लखनऊ की एक संस्था (विश्व शूद्र सभा) ने उन्हें ‘शूद्राचार्य’ की उपाधि दी थी। यह गौरव फिर किसी दूसरे लेखक को हासिल नहीं हुआ। यह अलग बात है कि हिन्दी जगत में इसकी बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई थी, और वे रातोंरात ‘जातिवादी’ करार दे दिए गए थे। लेकिन वे नहीं जानते थे कि यही ‘जातिवाद’ दलित वर्गों को ‘उत्तिष्ठित और जागृत’ कर रहा था। 
वे हिन्दी साहित्य के उन आलोचकों में थे, जिन्होंने आलोचना के मठ तोड़े थे, और साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया था। इसी पुनर्मूल्यांकन में उन्होंने प्रेमचन्द को दलितविरोधी कहा था। उन्होंने यहाँ तक कहा कि प्रेमचन्द आज होते, तो दलित उन्हें जिन्दा जला देते। उनके इस विचार की अत्यन्त तीखी आलोचना हुई। वीरेन्द्र यादव ने उनके विरुद्ध ‘तद्भव’ में लम्बा लेख लिखा। सम्भवतः उसी समय दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. सोहनपाल सुमनाक्षर ने प्रेमचन्द के उपन्यास ‘रंगभूमि’ को जलाने का अभियान शुरु किया था। इस प्रश्न पर मैं मुद्राजी से पूरी तरह सहमत नहीं था, और प्रेमचन्द के साहित्य जलाना तो हद दर्जे की मूर्खता ही थी।
मुद्रा जी का पूर्व नाम चाहे जो रहा हो, और चाहे वे किसी भी वर्ण या जाति के रहे हों, पर बहुजन समाज ने उन्हें अपना आदर्श मान लिया था। यह इसी का परिणाम था कि मऊ की ‘चमार समाज परिषद’ के मुखिया पी. डी. टण्डन ने उन्हें अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में बतौर मुख्य अतिथि आमन्त्रित किया था। यह अधिवेशन 9 अप्रैल 2006 को मऊ में दाढ़ी चक्की, आंबेडकर पार्क में हुआ था। संयोग से विशिष्ट अतिथि के रूप में मैं भी उसमें उपस्थित था। उनके साथ इस मौके की मुलाकात मेरी सबसे यादगार मुलाकात है। लखनऊ से 8 अप्रैल को हम दोनों को एक ही ट्रेन से मऊ नाथभंजन जाना था। यहाँ मैं उनकी सादगी और आम आदमी की प्रवृति का जिक्र करना चाहूँगा, जिसने मुझे बौना बना दिया था। वह गरमी की संध्या थी। प्लेटफार्म पर मैं उनका इन्तजार कर रहा था, पर वे कहीं दिखाई नहीं दे तहे थे। ट्रेन आई, और मैं अपने आरक्षित दूसरे दरजे के वातानुकूलित कोच में बैठ गया, तब मैंने उन्हें फोन किया, (उस वक्त तक वे मोबाईल फोन रखने लगे थे), पूछा कि आप कहाँ हैं? उनका जवाब था, ‘मैं ट्रेन में हूँ।’ मैंने कहा, ‘पूरे डिब्बे में मैंने देख लिया, आप यहाँ तो नहीं हैं।’ क्योंकि मैं एसी कोच में ही उनके होने की अपेक्षा कर रहा था, और उस ट्रेन में एसी का एक ही डिब्बा था। वे बोले, ‘मैं स्लीपर क्लास में हूँ।’ मैं सन्न रह गया। उनसे कोच नम्बर पूछकर तुरन्त उनसे मिलने गया। मैं अपनी बर्थ पर खिड़की के पास बैठे हुए पसीने-पसीने हो रहे थे। मैं स्तब्ध था। इतना महान लेख इस अंधेरे कोच में गरमी में बैठा है। मैंने उनसे एसी कोच में चलने की प्रार्थना की कि ‘आप मेरे साथ चलें, मैं सारी व्यवस्था करा दूंगा।’ पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। बोले, ‘मैं ठीक हूँ।’ 
‘पर क्यों?’, मैंने पूछा। 
उन्होंने अपने सामने बैठे व्यक्ति की तरफ देखकर कहा, ‘इन्हीं को मुझे ले जाने की जिम्मदारी सौंपी गई है। इन्हें इसी श्रेणी के टिकट मिले हैं। अब इन्हीं के साथ जाना है और इन्हीं के साथ आना है।’ 
दूसरे दिन भोर में ट्रेन मऊ पहुंची। शाम को कार्यक्रम था। हजारों की भीड़ थी, जो मुद्राजी को सुनने आई थी। उस दिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिवस भी था। मुद्रा जी ने राहुल जी के प्रति अपने उदगार प्रकट करते हुए वेद, स्मृतियों, पुराणों और अन्य शास्त्रों से हवाले देकर भारतीय समाज व्यवस्था का जो ब्राह्मणवादी चरित्र उजागर किया, उसे जनता ने मन्त्रमुग्ध होकर सुना। उनके मुख से इतना धाराप्रवाह और विचारोत्तेजक भाषण सुनना स्वयं मेरे लिए भी नया अनुभव था। 
दूसरे दिन रात में सम्भवतः 9 बजे की टेªन से हमें वापिस जाना था। रात के भोजन से निवृत्त होकर हम समय से स्टेशन पहुँच गए थे। लेकिन टेªन पांच घण्टे के विलम्ब से दो बजे के भी बाद आई। प्लेटफार्म पर शायद बिजली नहीं थी, इसलिए पंखे भी नहीं चल रहे थे। विकट गरमी और मच्छरों से बचने के लिए हमने वह पांच घण्टे प्लेटफार्म पर ही, कभी बैठकर, तो कभी टहलते हुए, गुजारे थे। उस रात प्लेटफार्म पर टहलते हुए हमारे बीच बहुत सी साहित्यिक और राजनीतिक बातों के अलावा घर-परिवार की बातें भी हुई थीं। उस समय तक मैं उनकी पुस्तक ‘धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ’ को पढ़ चुका था। मैंने उनसे पूछा, ‘आपकी आर्य-थियरी सबसे अलग है। आपने लिखा है कि भारत में केवल ब्राह्मण बाहर से आया है, और वह यहाँ घुलमिल कर रहने के लिए नहीं आया। इसीलिए उसने अपनी अलगाववादी व्यवस्था स्थापित की और अपनी पृथक पहचान बनाकर रहता है। लेकिन, डा. आंबेडकर की थियरी बिल्कुल अलग है। वह आर्य को भारत का ही मूलनिवासी माने हैं। क्या उनसे इतिहास को समझने में भूल हुई थी?’ उन्होंने बेहिचक कहा था, ‘हाँ, आंबेडकर से भूल हुई थी।’
अप्रैल, 2011 में, मैंने मुद्रा जी को अपनी पुस्तक ‘स्वामी अछूतानन्दजी ‘हरिहर’ और हिन्दी नवजागरण’ भेजी थी। उन्होंने इसकी चर्चा राष्ट्रीय सहारा में 3 जुलाई 2011 के अपने स्तम्भ में की। इस समीक्षा को पढ़कर धर्मवीर आग-बबूला हो गए थे, जिसके जवाब में उन्होंने एक लम्बा खत मुद्राजी को भेजा था। खैर, मैं उस अंश को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, जो यह था-‘हिन्दी में हाल में एक महत्वपूर्ण दलित विचारक कंवल भारती की एक किताब आई है ‘स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ और हिन्दी नवजागरण’। मगर ज्यादा बड़ी बात यह है कि जहाँ भारतेन्दु जैसे लेखक हिन्दी में एंलाइटेनमेंट के अग्रदूत मानकर पूजे जा रहे हैं, वहीं कंवल ने ज्ञानोदय की वास्तविक प्रतिभाओं में से एक अछूतानन्द ‘हरिहर’ के जीवन, कृतित्व और विचारों पर एक व्यवस्थित और गवेषणात्मक किताब लिखी है, जिसमें ‘हरिहर’ जी का अन्य हिन्दी लेखकों और विचारकों से तुलनात्मक अध्ययन है। इस पुस्तक का यह तुलनात्मक भाग चकित करने की हद तक संतुलित और विचार गहन है। इसमें धर्मवीर की तरह दुर्भाषा का नाहक इस्तेमाल नहीं है। कंवल जानते हैं कि आलोचना तभी प्रभावी होती है, ज बवह गाली-गलौंच से बचती है।’ 
एक और अविस्मरणीय घटना है। यह घटना 2005 की है। दलित शोध संस्थान की ओर से रामपुर में एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। माता प्रसाद जी की स्वीकृति मिल गई थी, पर संस्थान के अध्यक्ष धीरज शील का मुद्रा जी से सम्पर्क नहीं हो पा रहा था। मैंने मुद्राजी को फोन किया और रामपुर में सेमिनार करने की सूचना देते हुए उसमें उन्हें आने का निवेदन किया। उनकी तबीयत तब भी खराब चल रही थी। बोले, ‘कंवल! तबीयत ठीक नहीं चल रही है। पर खैर! तुम्हारे शहर में जरूर आऊॅंगा।’ उनकी स्वीकृति मिलते ही मैंने उन्हें एसी द्वितीय श्रेणी के रिटर्न टिकिट भेज दिए। निश्चित तारीख पर वे और माता प्रसाद जी दोनों सुबह ही रामपुर आ गए। पर, दस बजे के बाद से जो आँधी-तूफान और उसके बाद मूसलाधार बारिश शुरु हुई, तो उसने थमने का नाम नहीं लिया। ऐसे में न श्रोता आए, और न सेमिनार हो सका। मुद्रा जी का दोपहर का खाना और पीना धीरज शील के घर पर रखा गया था। आँधी-तूफान और बारिश में उन्हें शहर में भी कहीं ले जाना सम्भव नहीं था। उसी दिन, उनकी शाम की टेªन से वापसी थी, अतः, हमने भारी मन से दोनों विभूतियों को विदा किया। मुद्रा जी का मैं आभार ही व्यक्त कर सका था कि अपनी अस्वस्थता में भी उन्होंने मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया था। ऐसे थे मुद्रा जी। 
19 जून 2016
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Thursday, 16 June 2016

समस्या ड्रग्स नहीं, बेरोजगारी है ------ हिमांशु, एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू

किसानी से पलायन की प्रक्रिया ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें कृषक समुदाय लगातार खेती का काम छोड़ता जा रहा है, और अब तक ऐसे बहुत थोड़े से कृषक मजदूर अपने लिए दिहाड़ी का काम जुटा पाए हैं। ज्यादातर कृषक जातियां व समूह अब भी दैनिक मजदूरी के अनिच्छुक हैं, और गैर-कृषि क्षेत्र में उन्हें कोई काम मिल नहीं पा रहा है। लेकिन यह अकेले पंजाब की समस्या नहीं है।
पंजाब में भले ही इसका एक विकृत नतीजा देखने को मिल रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि पूरे देश के कृषक जाति-वर्ग के लिए अपने नौजवानों को कृषि-कर्म से जोड़े रखना मुश्किल हो रहा है। बदल रही आर्थिक स्थिति और रोजगार के अवसरों की कमी अराजकता के हालात की ओर बढ़ रही है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अभियान इसी के उदाहरण हैं। हरियाणा में जाटों, गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों की सरकारी नौकरियों में कोटा की मांग दरअसल कृषि क्षेत्र में घटते मुनाफे और रोजगार के सिमटते अवसरों को ही प्रतिबिंबित करती हैं। इनमें से ज्यादातर राज्य गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के मौके पैदा करने में नाकाम हैं, बावजूद इसके कि इनकी आर्थिक विकास दर में बढ़ोतरी जारी है।

यह एक बहुत बड़ी समस्या है, और अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों से इसका सामना कर रही है।

समस्या ड्रग्स नहीं, बेरोजगारी है
हिमांशु, एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू First Published:15-06-2016 10:12:10 PMLast Updated:15-06-2016 10:12:10 PM

 पंजाब इन दिनों गलत वजहों से सुर्खियों में है। कभी हरित क्रांति का अगुवा रहा यह सूबा आज ड्रग्स की समस्या के कारण चर्चा में है। संभव है कि ड्रग्स की लत के शिकार नौजवानों की संख्या को लेकर अलग-अलग राय हो, मगर इस बात से सभी राजी होंगे कि यह तादाद बहुत बड़ी है और हालात अब संकट के बिंदु तक पहुंच गए हैं। इसीलिए मसला ड्रग्स की लत का दायरा नहीं, बल्कि यह है कि आखिर क्यों पंजाब में नौजवान इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं? इस झुकाव को लेकर कई तरह की सांस्कृतिक व सामाजिक दलीलें दी जाती रही हैं, मगर हकीकत यह है कि वहां की एक के बाद दूसरी सरकार ने इस समस्या को नजरअंदाज किया, बल्कि बहुत मुमकिन है कि सीधे या प्रकारांतर से इसको बढ़ाया ही। फिर भी, यह सिर्फ शासन की विफलता का मसला नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण इलाकों की एक बड़ी समस्या का लक्षण भी है। और वह असली समस्या है बेरोजगारी, पंजाब के नौजवानों के लिए आजीविका के विकल्पों का अभाव।
यह वही पंजाब है, जो कभी अपने उद्यमी किसानों के लिए सराहा जाता था, जिसने 1960 और 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में हरित क्रांति की कामयाबी की शुरुआती कहानियां रचीं। 1980 के दशक के बाद पंजाब देश के सबसे अधिक प्रति-व्यक्ति आय वाले सूबों में शामिल रहा। लेकिन पिछले दो दशकों में यह कृषि विकास दर के मामले में ज्यादातर राज्यों से पिछड़़ता गया है। न सिर्फ तमाम मुख्य फसलों की पैदावार और उत्पादन थम-सा गया है, बल्कि जोत का रकबा कम होने से मुनाफा भी घटता चला गया है। फिर प्राकृतिक संसाधनों की बिगड़ती स्थिति ने भी नौजवानों को किसानी के काम से विमुख किया है। मिट्टी की खराब होती गुणवत्ता और गिरते भूजल-स्तर के कारण खेती करना अब काफी महंगा कार्य हो गया है, और इसके मशीनीकरण के साथ हालात चरम पर पहुंच गए हैं। यंत्रों के कारण मजदूरों का इस्तेमाल काफी कम हो गया है, ऐसे में अब तक कृषि कार्य से रोजगार पा रहे कामगार बेकार हो रहे हैं। पंजाब में कृषि क्षेत्र की बदतर हालत किसानों की खुदकुशी से भी जाहिर होती है।
हालांकि अभी उनकी संख्या कम है, मगर यह एक ऐसा तथ्य है, जिसके बारे में 1990 के दशक के पहले कोई सोच भी नहीं सकता था। पंजाब एक ऐसे राज्य की विफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है, जो शानदार कृषि विकास और उत्पादकता के बावजूद गैर-कृषि क्षेत्र में अपनी तरक्की के नए रास्ते न तलाश सका। इसकी एक वजह यह भी रही कि लुधियाना और दूसरे शहरों के स्थानीय उद्योग खुली व उदार भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य बिठाने में नाकाम रहे, बल्कि राज्य की सरकारों ने भी गैर-कृषि उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहित करने में उदासीनता बरती। कृषि क्षेत्र पर हद से ज्यादा ध्यान देने की वजह से ही राज्य सरकार ने दूसरे क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाओं को नजरअंदाज किया। वह किसानों को मुफ्त बिजली देने और अन्य प्रोत्साहनों में सब्सिडी देने पर धन खर्च करती रही।
हाल के वर्षों में विदेश जाने की रफ्तार भी धीमी पड़ी है और राज्य में रोजगार के वैकल्पिक अवसरों के अभाव में बेरोजगारी की समस्या बद से बदतर होती गई है। आज ऐसे किस्सों व अध्ययनों की भरमार है, जो पंजाब में कृषि क्षेत्र के संकट और नौजवानों में उससे जुड़े रोजगार की समस्या की बात करते हैं। किसानी से पलायन की प्रक्रिया ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें कृषक समुदाय लगातार खेती का काम छोड़ता जा रहा है, और अब तक ऐसे बहुत थोड़े से कृषक मजदूर अपने लिए दिहाड़ी का काम जुटा पाए हैं। ज्यादातर कृषक जातियां व समूह अब भी दैनिक मजदूरी के अनिच्छुक हैं, और गैर-कृषि क्षेत्र में उन्हें कोई काम मिल नहीं पा रहा है। लेकिन यह अकेले पंजाब की समस्या नहीं है।
पंजाब में भले ही इसका एक विकृत नतीजा देखने को मिल रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि पूरे देश के कृषक जाति-वर्ग के लिए अपने नौजवानों को कृषि-कर्म से जोड़े रखना मुश्किल हो रहा है। बदल रही आर्थिक स्थिति और रोजगार के अवसरों की कमी अराजकता के हालात की ओर बढ़ रही है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अभियान इसी के उदाहरण हैं। हरियाणा में जाटों, गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों की सरकारी नौकरियों में कोटा की मांग दरअसल कृषि क्षेत्र में घटते मुनाफे और रोजगार के सिमटते अवसरों को ही प्रतिबिंबित करती हैं। इनमें से ज्यादातर राज्य गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के मौके पैदा करने में नाकाम हैं, बावजूद इसके कि इनकी आर्थिक विकास दर में बढ़ोतरी जारी है।
यह एक बहुत बड़ी समस्या है, और अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों से इसका सामना कर रही है। सच्चाई यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था साल 2004-05 से 2011-12 के बीच हर वर्ष सिर्फ 20 लाख नौकरियां पैदा कर सकी, जबकि यह अवधि उच्च विकास दर वाली रही है। जाहिर है, श्रम बल में शामिल हो रही आबादी के आगे यह संख्या काफी कम है। तब तो और, जब इसी अवधि में साढ़े तीन करोड़ की श्रम शक्ति खेती-किसानी छोड़कर श्रम बाजार में दाखिल हुई हो। रोजगार के अवसरों का सृजन भविष्य में भी अर्थव्यवस्था के आगे एक बड़ी चुनौती बना रहेगा। नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के एक आकलन के मुताबिक, अगले सात साल में लगभग ढाई करोड़ लोग खेती छोड़कर नए रोजगार की होड़ में शामिल होंगे। सरकार को इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए हर वर्ष कम से कम 20 लाख नौकरियां पैदा करनी होंगी। लेकिन इसके उलट स्थिति यह है कि पिछले दो साल में हमारी अर्थव्यवस्था महज सात लाख अवसर ही पैदा कर सकी है, और उनमें से भी आधे मौके अकेले वस्त्र उद्योग के क्षेत्र के हैं।
पंजाब में ड्रग्स की समस्या कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है। मौजूदा सरकार की नाकामी ने यकीनन इस समस्या को और गंभीर बनाया है, पर यह मसला आर्थिक है। यह मुद्दा एक ऐसी रणनीति पर गंभीर बहस की जरूरत बता रहा है, जो न सिर्फ खेती छोड़ने वाले नौजवानों को लाभकारी रोजगार मुहैया कराने में समर्थ हो, बल्कि श्रम-बल का हिस्सा बनने वाले नए युवा-युवतियों की अपेक्षाओं को भी पूरा करती हो।
ड्रग्स की लत का खतरा तो हमारी आर्थिक नीति के गंभीर रोग का लक्षण मात्र है, जो रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में नाकाम रही है। पंजाब जैसी बेचैनी दूसरे सूबों में भी दिखने लगी है और यही वक्त है कि केंद्र सरकार बेरोजगारी की समस्या से निपटने को लेकर एक ठोस रणनीति बनाए। लेकिन अफसोस, समस्या के हल की बात तो दूर, इसकी गंभीरता ही नहीं समझी जा रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार :

http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1--problem-is-not-drugs-problem-is-unemployment-539559.html

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 7 June 2016

जो हल जोतै खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी ------- घाघ कविराय द्वारा ध्रुव गुप्त




Dhruv Gupt
07 जून 2016  
एक थे जनकवि घाघ !
बिहार और उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक लोकप्रिय जनकवियों में कवि घाघ का नाम सर्वोपरि है। सम्राट अकबर के समकालीन घाघ एक अनुभवी किसान और व्यावहारिक कृषि वैज्ञानिक थे। सदियों पहले जब टीवी या रेडियो नहीं हुआ करते थे और न सरकारी मौसम विभाग, तब किसान-कवि घाघ की कहावतें खेतिहर समाज का पथप्रदर्शन करती थी। खेती को उत्तम पेशा मानने वाले घाघ की यह कहावत देखिए - 'उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी, भीख निदान।' घाघ के गहन कृषि-ज्ञान का परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। माना जाता है कि खेती और मौसम के बारे में कृषि वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियां झूठी साबित हो सकती है, घाघ की कहावतें नहीं। कन्नौज के पास चौधरीसराय नामक ग्राम के रहने वाले घाघ के ज्ञान से प्रसन्न होकर सम्राट अकबर ने उन्हें सरायघाघ बसाने की आज्ञा दी थी। यह जगह कन्नौज से एक मील दक्षिण स्थित है। घाघ की लिखी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनकी वाणी कहावतों के रूप में लोक में बिखरी हुई है। उनकी कहावतों को अनेक लोगों ने संग्रहित किया है। इनमें हिंदुस्तानी एकेडेमी द्वारा 1931 में प्रकाशित रामनरेश त्रिपाठी का 'घाघ और भड्डरी' अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन हैघाघ की कुछ कहावतों की बानगी देखिए !
० दिन में गरमी रात में ओस 
कहे घाघ बरखा सौ कोस !
० खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै। 
० खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
० उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।
० जो हल जोतै खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी। 
० गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।
० सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।
० गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।
० वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा। 
० छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई। 
० सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी 
जो पचास का सौ न तुलै, देव घाघ को गारी। 
० सावन मास बहे पुरवइया 
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।
० रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय 
कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।
० पुरुवा रोपे पूर किसान
आधा खखड़ी आधा धान।
० पूस मास दसमी अंधियारी
बदली घोर होय अधिकारी।
० सावन बदि दसमी के दिवसे
भरे मेघ चारो दिसि बरसे।
० पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।
०सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।
० रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।
० भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।

साभार :


https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1065123706897560&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=3


Monday, 6 June 2016

यूपी में वह कौन बड़ा साहेब है, जो नहीं चाहता था कि तीस्ता सीतलवाड़ लखनऊ में रहें? ------ हस्तक्षेप







क्या अखिलेश सरकार नहीं चाहती तीस्ता सीतलवाड़ लखनऊ में रहें? :
नई दिल्ली। क्या उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और केंद्र की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के बीच कोई गुपचुप समझौता हो चुका है? ऐसी कोई आधिकारिक सूचना तो नहीं है, लेकिन उप्र की अखिलेश सरकार की कार्यप्रणाली संकेत दे रही है कि सपा-भाजपाके बीच अंदरूनी तौर पर खिचड़ी पक चुकी है और अगर ऐसा नहीं है तो माना जा सकता है कि अफसरशाही पर संघी कब्जा हो चुका है और अखिलेश यादव केवल संवैधानिक तौर पर मुख्यमंत्री रह गए हैं व अफसरशाही नागपुर मुख्यालय से निर्देश ले रही है।

आतंकवाद के आरोपों से निचली अदालत द्वारा बरी किए गए मुस्लिम युवकों के मामले में सपा सरकार द्वारा उच्च अदालत में फैसले के खिलाफ अपील करने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को लखनऊ में न ठहरने देने का सनसनीखेज मामला सामने आया है, जिसने अखिलेश सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर सवालिया निशान लगाए हैं। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर पूरी घटना का ब्यौरा प्रस्तुत किया है, जो निम्नवत् है।

अमित शाह और ऐसे ही लोग अगर चलकर कभी गुजरात दंगों के कारण जेल गए, तो तीस्ता सीतलवाड़ को शुक्रिया कहिएगा। संविधान और कानून की हिफाजत के लिए वे सारे खतरे उठा रही हैं। केस नतीजे तक पहुंचे, इसके लिए वे जुटी हैं।

अखिलेश यादव जी से भी एक निवेदन है। पिछले दिनों तीस्ता और मैं लखनऊ लिटरेचर फेस्टिवल में हिस्सा लेने लखनऊ गए थे। तीस्ता की सरकारी गेस्ट हाउस में बुकिंग थी। वहां अफसरों ने बताया कि हाई लेवल से बुकिंग कैंसिल कर दी गई है। इसके बाद तीस्ता को जिन बड़े होटलों में ठहराने की कोशिश की गई, सबने नाम सुनते ही कहा कि किसी बड़े साहब ने मना किया है।

तीस्ता को जान पर खतरे की वजह से सुप्रीम कोर्ट से सुरक्षा मिली हुई है। साथ में गार्ड चलते हैं। उन्हें सुरक्षित जगह पर रहना पड़ता है। लेकिन उस दिन उन्हें जोखिम उठाकर एक सामान्य होटल में ठहरना पड़ा।

तीस्ता सुरक्षा की हाई कैटेगरी में हैं। उनकी मूवमेंट राज्य सरकार और लोकल पुलिस के संज्ञान में होती है। राज्य सरकार आसानी से जांच करा सकती है।

यूपी में वह कौन बड़ा साहेब है, जो नहीं चाहता था कि तीस्ता सीतलवाड़ लखनऊ में रहें?
http://www.hastakshep.com/hindi-news/2016/06/05/do-akhilesh-government-not-want-to-stay-teesta-setalvad-in-lucknow#.V1O7UJF9601

Sunday, 5 June 2016

सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों की मिलीभगत का परिणाम है मथुरा में हथियारों का जखीरा ------ रिहाई मंच

Rihai Manch : For Resistance Against Repression
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मथुरा समेत पूरे सूबे में सत्ता सरंक्षण में पल रहे हैं हिंसक संगठन- रिहाई मंच
हथियारों और विस्फोटकों का इतना बड़ा जखीरा बिना सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों के मिलीभगत के बगैर सम्भव नहीं
सैन्य प्रशिक्षण देने वाले संगठनों पर लगे पाबंदी

लखनऊ 4 जून 2016। रिहाई मंच ने मथुरा में हुए हत्याकांड की सीबीआई जांच कराने की मांग करते हुए कहा है कि इतने बड़े पैमाने पर असलहों और विस्फोटकों का जखीरा बिना राजनीतिक संरक्षण के इकठ्ठा नहीं किया जा सकता था। मंच ने सवाल किया कि जो आईबी बिना सबूतों के किसी नासिर को 23 साल जेल में सड़ाकर जिंदा लाश बना देती है उसे क्या इस बात की जानकारी नहीं थी कि जवाहरबाग में जमा दहशतगर्द उनके पुलिसिया अमले पर हमला कर देंगे। मंच जल्द ही मथुरा का दौरा करेगा। 

रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि मथुरा समेत पूरे सूबे में जिस तरीके से लगातार कहीं फैजाबाद और नोएडा में बजरंग दल तो वाराणसी में दुर्गा वाहिनी के सैन्य प्रशिक्षण कैंप चल रहे हैं वो यह साफ करते हैं कि सूबे में आतंरिक अशांति के लिए सरकार संरक्षण में प्रयोजित तरीके से षड़यंत्र रचा जा रहा है। उन्होंने कहा कि जिस तरीके से मथुरा में भारी पैमाने पर असलहे और विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया वह सामान्य घटना नहीं है। इस घटना ने खुफिया एजेंसियों की नाकामी नहीं बल्कि उनकी संलिप्तता को पुख्ता किया है। उन्होंने सवाल किया कि यह कैसे सम्भव हो जाता है कि किसी बेगुनाह दाढ़ी-टोपी वाले मुस्लिम को आईएस और लश्कर ए तैयबा से उसका लिंक बता करके पकड़वाने वाली खुफिया एजेंसियां यह पता नहीं कर पाईं कि जवाहर बाग में हथियारों और विस्फोटकों का इतना बड़ा जखीरा कैसे इकठ्ठा हो गया। उन्होंने कहा कि ठीक इसी तरह गाजियाबाद के डासना में हिंदू स्वाभिमान संगठन के लोग पिस्तौल, राइफल, बंदूक जैसे हथियारों की ट्रेनिंग आठ-आठ साल के हिंदू बच्चों को दे रहे थे उस पर आज तक खुफिया-सुरक्षा एजेंसियां और सरकार चुप है। जिस तरह से मथुरा हिंसा में रामवृक्ष यादव को सत्ता द्वारा संरक्षण दिया जाना कहा जा रहा है ठीक इसी तरह हिंदू स्वाभिमान संगठन के स्वामी जी उर्फ दीपक त्यागी कभी सपा के यूथ विंग के प्रमुख सदस्य रह चुके हैं इसलिए उनके खिलाफ सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। ठीक इसी तरह पश्चिमी यूपी में मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा में सक्रिय संघ शक्ति हो या फिर संगीत सोम जिन्होंने फर्जी वीडियो वायरल कर मुसलमानों का जनसंहार कराया उसपर खुफिया एजेंसियों को कोई जानकारी नहीं रहती है। पर वहीं खुफिया बिना किसी सबूत के ही राहत शिविरों में जेहादी आतंकियों की सक्रियता के झूठे दावे करके बेगुनाहों को फंसाने में लग जाते हैं। 

लखनऊ रिहाई मंच नेता शकील कुरैशी ने कहा कि मई माह में आजमगढ़ के खुदादादपुर में हुई सांप्रदायिक हिंसा में हिंदू महिलाओं द्वारा राहगीर मुस्लिम महिलाओं पर न सिर्फ हमला किया गया बल्कि उनके जेवरात छीने गए तो वहीं मथुरा में महिलाओं द्वारा फायरिंग व वाराणसी में दुर्गा वाहिनी द्वारा महिलाओं को हथियारों की ट्रेनिंग यह घटनाएं अलग-अलग हो सकती हैं पर इनका मकसद हिंसा है। उन्होंने कहा कि जिस तरीके से मथुरा में कब्जा हटाने के मामले में सेना तक की मदद लेने की बात सामने आ रही है उससे साफ है कि स्थिति भयावह थी और सरकार में या तो निपटने की क्षमता नहीं थी   या फिर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने का राजनीतिक साहस नहीं दिखा पाई। 

रिहाई मंच ने कहा है कि मथुरा काफी संवेदनशील जगह है ऐसे में इस पूरे मामले में खुफिया विभाग की भूमिका की जांच होनी चाहिए। वहीं जातिवादी व सांप्रदायिक वोटों की खातिर जिन देशद्रोहियों को सरकार पाल रही है वह देश के नागरिकों के हित में नहीं है। ऐसे में मथुरा से सबक लेते हुए प्रदेश में बजरंगदल समेत अनेकों संगठनों द्वारा जो संचालित प्रशिक्षण केन्द्र हैं उन पर तत्काल कार्रवाई करते हुए इन संगठनों पर प्रतिबंध लगाया जाए। 

द्वारा जारी- 
शाहनवाज आलम
(प्रवक्ता, रिहाई मंच) 
09415254919

Thursday, 2 June 2016

होनहाऱ बिरवान के चिकने पात ------ अनिल यादव अयोध्या

किंजल सिंह , IAS



 ·

 

फ़ैज़ाबाद की डीएम किंजल सिंह और उनके परिवार की कहानी बहुत ही भावुक और दर्दनाक है। किंजल सिंह 2008 में आईएएस में चयनित हुईं थी। आज उनकी पहचान एक तेज़-तर्रार अफ़सर के रूप में होती है। उनके काम करने के तरीके से जिले में अपराध करने वालों के पसीने छूटते हैं। लेकिन उनके लिए इस मुकाम तक पहुंचना बिल्कुल भी आसान नही था

किंजल सिंह मात्र 6 महीने की थी जब उनके पुलिस अफ़सर पिता की हत्या पुलिस वालों ने ही कर दी थी।

आज देश में बहुत सी महिला आईएएस हैं। लेकिन वो किंजल सिंह नहीं है। उनमें बचपन से ही हर परिस्थितियों से लड़ने की ताक़त थी। 1982 में पिता के.पी सिंह की एक फ़र्ज़ी एनकाउंटर में हत्या कर दी गयी थी। तब के पी सिंह, गोंडा के डीएसपी थे। अकेली विधवा माँ विभा सिंह ने ही किंजल और बहन प्रांजल सिंह की परवरिश की। उन्हे पढ़ाया-लिखाया और आइएएस बनाया। यही नही करीब 31 साल बाद आख़िर किंजल अपने पिता को इंसाफ़ दिलाने में सफल हुई। उनके पिता के हत्यारें आज सलाखों के पीछे हैं। लेकिन क्या एक विधवा माँ और दो मासूम बहनों के लिए यह आसान था

मुझे मत मारो मेरी दो बेटियां हैं

किंजल के पिता के आख़िरी शब्द थे कि ‘मुझे मत मारो मेरी छोटी बेटी है’। वो ज़रूर उस वक़्त अपनी चिंता छोड़ कर अपनी जान से प्यारी नन्ही परी का ख्याल कर रहे होंगे। किंजल की छोटी बहन प्रांजल उस समय गर्भ में थी। शायद अगर आज वह ज़िंदा होते तो उन्हे ज़रूर गर्व होता कि उनके घर बेटियों ने नहीं बल्कि दो शेरनियों ने जन्म लिया है।

बचपन जहाँ बच्चों के लिए सपने संजोने का पड़ाव होता है। वहीं इतनी छोटी उम्र में ही किंजल अपनी माँ के साथ पिता के क़ातिलों को सज़ा दिलाने के लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने लगी। हालाँकि उस नन्ही बच्ची को यह अंदाज़ा नही था कि आख़िर वो वहाँ क्यों आती हैं। लेकिन वक़्त ने धीरे-धीरे उन्हे यह एहसास करा दिया कि उनके सिर से पिता का साया उठ चुका है।

इंसाफ़ दिलाने के संघर्ष में जब माँ हार गयी कैंसर से जंग

प्रारंभिक शिक्षा बनारस से पूरी करने के बाद, माँ के सपने को पूरा करने के लिए किंजल ने दिल्ली का रुख किया तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। बच्ची का साहस भी ऐसा था कि छोटे से जनपद से दिल्ली जैसी नगरी में आकर पूरी दिल्ली यूनिवर्सिटी में टॉप किया वो भी एक बार नहीं बल्कि दो बार। किंजल ने 60 कॉलेजेस को टॉप करके गोल्ड मैडल जीता 

कहते हैं ना वक़्त की मार सबसे बुरी होती है। जब ऐसा महसूस हो रहा था कि सबकुछ सुधरने वाला है, तो जैसे उनके जीवन में दुखो का पहाड़ टूट पड़ा। माँ को कैंसर हो गया था। एकतरफ सुबह माँ की देख-रेख तथा उसके बाद कॉलेज। लेकिन किंजल कभी टूटी नहीं लेकिन ऊपर वाला भी किंजल का इम्तिहान लेने से पीछे नहीं रहा, परीक्षा से कुछ दिन पहले ही माताजी का देहांत हो गया।

शायद ऊपर वाले को भी नहीं मालूम होगा कि ये बच्ची कितनी बहादुर है तभी तो दिन में माँ का अंतिम संस्कार करके, शाम में हॉस्टल पहुंचकर रात में पढाई करके सुबह परीक्षा देना शायद ही किसी इंसान के बस की बात हो। पर जब परिणाम सामने आया तो करिश्मा हुआ। इस बच्ची ने यूनिवर्सिटी टॉप किया और स्वर्ण पदक जीता

माँ का आइएएस बनने का सपना पूरा किया बेटियों ने

किंजल बताती हैं कि कॉलेज में जब त्योहारों के समय सारा हॉस्टल खाली हो जाता था तो हम दोनों बहने एक दूसरे की शक्ति बनकर पढ़ने के लिए प्रेरित करती थी। फिर जो हुआ उसका गवाह सारा देश बना, 2008 में जब परिणाम घोषित हुआ तो संघर्ष की जीत हुई और दो सगी बहनों ने आइएएस की परीक्षा अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण कर अपनी माँ का सपना साकार किया।

किंजल जहाँ आईएएस की मेरिट सूची में 25 वें स्थान पर रही तो प्रांजल ने 252वें रैंक लाकर यह उपलब्धि हासिल की पर अफ़सोस उस वक़्त उनके पास खुशियाँ बांटने के लिए कोई नही था। किंजल कहती हैं:

“बहुत से ऐसे लम्हे आए जिन्हें हम अपने पिता के साथ बांटना चाहते थे। जब हम दोनों बहनों का एक साथ आईएएस में चयन हुआ तो उस खुशी को बांटने के लिए न तो हमारे पिता थे और न ही हमारी मां।”

किंजल अपनी माँ को अपनी प्रेरणा बताती हैं। दरअसल उनके पिता केपी सिंह का जिस समय कत्ल हुआ था उस समय उन्होने आइएएस की परीक्षा पास कर ली थी और वे इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थे। पर उनकी मौत के साथ उनका यह सपना अधूरा रह गया और इसी सपने को विधवा माँ ने अपनी दोनो बेटियों में देखा। दोनो बेटियों ने खूब मेहनत की और इस सपने को पूरा करके दिखाया।

एक कहावत है कि “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” यानि देर से मिला न्याय न मिलने के बराबर है। जाहिर है हर किसी में किंजल जैसा जुझारूपन नहीं होता और न ही उतनी सघन प्रेरणा होती है ।
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