Saturday, 22 October 2016

सरकार का स्थाईत्व और शपथ - कुंडली ------ विजय राजबली माथुर

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काफी दिनों से अखबारों की सुर्खियों में उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी की अंतर्कलह के तमाम किस्से छप रहे हैं । शपथ - ग्रहण के अगले दिन 16 मार्च 2012 को मैंने उसका विश्लेषण अपने ब्लाग में दिया था उसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है कुछ नई सूचनाओं के साथ । 




Friday, March 16, 2012

ग्रहों के आईने मे अखिलेश सरकार
http://krantiswar.blogspot.in/2012/03/blog-post_16.html



 हम यहाँ आपको अखिलेश यादव जी की शपथ-कुण्डली के आधार पर ग्रह-नक्षत्रो की चाल से अवगत कराएंगे,यह जानते हुये भी कि आप मे से तथाकथित प्रगतिशील और तथाकथित विज्ञानी महानुभाव इसकी कड़ी आलोचना करेंगे।

अखिलेश यादव जी ने लखनऊ मे सुबह 11-30 मिनट पर 'पद एवं गोपनीयता की शपथ' ग्रहण की है। चैत्र कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत 2068,शक संवत 1933  ,गुरुवार,मूल नक्षत्र,साध्य योग एवं कौलव करण मे शपथ ग्रहण हुआ है और उस समय लखनऊ के पूर्वी क्षितिज पर 'वृष' लग्न थी,हालांकि समारोह के मध्य ही मिथुन लग्न भी लग गई और कुछ मंत्रियों का शपथ ग्रहण दूसरी लग्न मे भी हुआ परंतु हम मुख्यमंत्री की शपथ को ही सरकार के भविष्य के लिहाज से लेंगे।

पहले यह देख लें कि मतदान 08 फरवरी से 04 मार्च के मध्य उत्तर प्रदेश मे सम्पन्न हुआ था जिस समय 'शनि'और 'मंगल'वक्री चल रहे थे जिसका परिणाम सचिव,सभासद हेतु आपदा कारक था। 29 तारीख की प्रातः 'शुक्र' मेष राशि मे 'गुरु'के साथ आ गया था जिसका फल सत्ता नायक और सत्ता दल पर भारी था। अतः 06 मार्च को घोषित परिणाम बसपा सरकार के विरुद्ध गया और मायावती जी को पद छोडना पड़ा। किन्तु अखिलेश जी ने मनोनीत होने के बावजूद किसी न किसी बहाने से तुरंत शपथ नहीं ली।

स्थिर लग्न-वृष मे शपथ ग्रहण :

चैत्र कृष्ण सप्तमी =14 मार्च को 'सूर्य' 'मीन राशि' मे प्रवेश कर गया जो दलपति-नायक,राजदूत,राजपत्रित अधिकारियों हेतु शुभ है अतः अखिलेश जी ने 15 मार्च को सुबह स्थिर लग्न-वृष मे शपथ ग्रहण किया। ऊपर उस समय की कुण्डली दी गई है अवलोकन करें। तिथि अष्टमी सर्वथा शुभ तिथि होती है,नक्षत्र-'मूल' का प्रभाव यह होगा कि वह अखिलेश जी को यशस्वी,समाजसेवी,कला और विज्ञान का प्रेमी बना कर साहस,कर्मठता,नेतृत्व शक्ति का धनी और उत्तम विचारो का पोषक भी बनाएगा।

'चंद्रमा' धनु राशि मे होने के कारण हठवादी, चतुर और मधुर-भाषी बनाए रखेगा। गुरुवार का दिन तो शपथ ग्रहण के लिए शुभ होता ही है। 'वृष'लग्न स्थिर होने के कारण सामान्यतः सरकार को 'स्थिर' रखेगी। जन -समाज का स्नेह-भाजन मुख्यमंत्री को बनाने वाली लग्न रहेगी।

शपथ-ग्रहण के समय 'शुक्र' की महादशा मे 'शुक्र' की ही अंतर दशा थी जो अभी 08 जून 2015 तक चलेगी जो सरकार के लिए शुभता प्रदान करती रहेगी। शपथ-कुण्डली का दूसरा भाव (जो जनता तथा राज्य कृपा का भाव है ) तथा पंचम भाव ( जो लोकतन्त्र का है )का स्वामी होकर बुध एकादश भाव मे सूर्य के साथ है। अतः बुद्धिमानी द्वारा हानि पर नियंत्रण पाने की क्षमता बनी रहेगी।

सरकार के स्थाईत्व हेतु शुभ नहीं :

तीसरा भाव पराक्रम और जनमत का है जिसका स्वामी होकर चंद्रमा अष्टम भाव मे चला गया है जो सरकार के स्थाईत्व हेतु शुभ नहीं है।

सातवें भाव (जो सहयोगियों,राजनीतिक साथियों एवं पार्टी नेतृत्व का है )का स्वामी मंगल चतुर्थ भाव (जो लोकप्रियता व मान-सम्मान का है )मे सूर्य की राशि मे स्थित है । यह स्थिति शत्रु बढ़ाने वाली है इसी के साथ-साथ सातवें भाव मे मंगल की राशि मे 'राहू' स्थित है जो कलह के योग उत्पन्न कर रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के मध्य काल तक पार्टी मे अंदरूनी कलह-क्लेश और टकराव बढ़ जाएँगे। ये परिस्थितियाँ पार्टी को दो-फाड़ करने और सरकार गिराने तक भी जा सकती हैं। निश्चय ही विरोधी दल तो ऐसा ही चाहेंगे भी।

लेकिन 09 जून 2015 से प्रारम्भ शुक्र मे सूर्य की अंतर दशा और फिर 09 जून 2016 से प्रारम्भ चंद्र की अंतर दशाओं के भी शुभ रहने एवं शपथ ग्रहण के दिन गुरुवार ,मूल नक्षत्र,और चंद्रमा के गुरु की धनु राशि मे होने तथा तिथि अष्टमी रहने के कारण अखिलेश जी अपनी कुशाग्र बुद्धि से सभी समस्याओं का निदान करने मे सफल रहेंगे ऐसी संभावनाएं मौजूद हैं और सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकेगी ऐसी हम आशा करते हैं ।
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अभी सरकारी पार्टी के समक्ष बार - बार जो संकट दिखाई दे रहे हैं उनका एक बड़ा कारण अखिलेश जी द्वारा 5 कालीदास मार्ग के सरकारी निवास में 'रविवार ' के दिन 'गृह - प्रवेश ' करना भी है। जिस किसी ने भी उनको इस हेतु रविवार का दिन सुझाया उसको उनका हितैषी नहीं कहा जा सकता है। 'वास्तु - शास्त्र ' के अनुसार रविवार व मंगलवार के दिन तथा नवमी तिथि समेत कुछ तिथियों पर गृह प्रवेश का निषेद्ध् किया गया है अतः ऐसा सुझाव वास्तु शास्त्र के नियमों का उल्लंघन था जिसका असर पार्टी की अंदरूनी टकराहट के रूप में दिखाई दे रहा है। अखिलेश जी को तुरुप का पत्ता खूब ठोंक बजा कर ही चलना होगा, वैसे शपथ ग्रहण उनके अनुकूल है। 
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बहुत से लोगों का यह मत है कि, अखिलेश सरकार को लेकर हो रही बातें उनके अपने परिवार या पार्टी का आंतरिक मामला हैं। चूंकि सरकार किसी एक परिवार के लिए या सिर्फ एक ही पार्टी के लोगों के लिए नहीं होती है उसे सारी जनता को देखना होता है। इसलिए इन बातों को पार्टी या परिवार की निजी बातें कह कर छोड़ देना बुद्धिमानी नहीं है। 
वर्तमान संकट तब शुरू हुआ जब मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव को पूर्व अनुमति लिए बगैर व्यापारियों / उद्योगपतियों की एक निजी पार्टी में शामिल होने के कारण हटा दिया था। बदले में उनकी पार्टी ने उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया था।इतना ही नहीं उनके नज़दीकियों को भी पदों से हटा दिया और कुछ को पार्टी से ही हटा दिया था। इससे सरकार के मुखिया की स्वतन्त्रता पर प्रश्न - चिन्ह लगता है और बाहरी व्यापारिक हस्तक्षेप की पुष्टि भी होती है। यह हस्तक्षेप अलोकतांत्रिक  गतिविधियों का प्रतीक है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि, फासिस्ट संगठन केंद्र सरकार की गतिविधियों में हस्तक्षेप करता है। यह प्रक्रिया संविधान व जनतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। अतः जनतंत्र व संविधान के पक्षधरों को इस समय उत्तर - प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव को नैतिक समर्थन  अवश्य ही प्रदान करना चाहिए। 

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04-10-2016 
23-10-2016 

Friday, 21 October 2016

जाऊंगा ख़ाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जाएगा : अशफाकुल्लाह खां ------ ध्रुव गुप्त





Dhruv Gupt
हमारा क्या है अगर हम रहें, रहें न रहें !
काकोरी के शहीद अशफाकुल्लाह खां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी सेनानी और 'हसरत' उपनाम से उर्दू के अज़ीम शायर थे। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक ने अपनी किशोरावस्था में अपने ही शहर के क्रांतिकारी शायर राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होकर अपना जीवन वतन की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया था। वे क्रांतिकारियों के उस जत्थे के सदस्य बने जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल शामिल थे। चौरी चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के फ़ैसले से इस जत्थे को बेहद पीड़ा हुई। 8 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में इस क्रांतिकारी जत्थे की एक अहम बैठक हुई जिसमें अपने अभियान हेतु हथियार खरीदने के लिए ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनी। उनका मानना था कि यह वह धन अंग्रेजों का नहीं था, अंग्रेजों ने उसे भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफाकउल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ क्रांतिकारियों के दल ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूट लिया। अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी षड्यंत्र के नाम से प्रसिद्द इस कांड में गिरफ्तारी के बाद जेल में अशफ़ाक़ को यातनाएं देकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिशें हुईं। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ भी नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने कहा था - 'तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब नहीं दबा सकते। अब हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा। अपने दोस्तों के ख़िलाफ़ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।'
अंततः संक्षिप्त ट्रायल के बाद अशफ़ाक, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को चार साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई। अशफ़ाक को 19 दिसंबर, 1927 की सुबह फैज़ाबाद जेल में फांसी दी गई। फांसी के पहले अशफाक ने वजू कर कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और ख़ुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। वहां मौज़ूद जेल के अधिकारियों से यह कहने के बाद कि 'मेरे हाथ इन्सानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इन्साफ़ होगा।', उन्होंने अपने हाथों फांसी का फंदा अपने गले में डाला और झूल गए। यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफ़ाक़ को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी एक नज़्म के साथ !
जाऊंगा ख़ाली हाथ मगर, 
यह दर्द साथ ही जाएगा 
जाने किस दिन हिंदोस्तान 
आज़ाद वतन कहलाएगा
बिस्मिल हिन्दू हैं, कहते हैं 
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं 
पर मज़हब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की 
बात नहीं कर पाता हूं
हां ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !

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Sunday, 16 October 2016

मानवों के कार्य-व्यवहार से प्रकृति में उथल-पुथल : भगदड़ ------ विजय राजबली माथुर

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 कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के। 

प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है।...................किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। .............क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।





 नई दुनिया छोड़ कर जब डॉ राजेन्द्र माथुर साहब  ने नवभारत टाईम्स के प्रधान संपादक का दायित्व ले लिया था तब एक सम्पादकीय लेख में उन्होने पर्यावरण के संबंध में चेतावनी दी थी कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो अगले बीस वर्षों में देश की जलवायु बदल जाएगी।उनकी चेतावनी से समाज  कुछ भी नहीं बदला बल्कि  पर्यावरण -प्रदूषण पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया है। नदियां अब नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं।  अति वर्षा,अति सूखा, अति शीत,भू-स्खलन,बाढ़ आदि प्रकोप जीवनचर्या का अंग बन चुके हैं। 'गंगा की सफाई' के लिए स्वामी निगमानंद का बलिदान हो चुका है और अब इज़राईल की दिलचस्पी गंगा की सफाई में है।

हालांकि प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता की आड़ में बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली तबका 'ज्योतिष' की कड़ी निंदा व आलोचना करता है। परंतु ज्योतिष=ज्योति +ईश अर्थात ज्ञान -प्रकाश देने वाला विज्ञान। जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मानव समेत सभी प्राणियों व वनस्पतियों पर पड़ता है उसी प्रकार मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र भी प्रभावित होते हैं। इसे एक छोटे उदाहरण से यों समझें:
एक बाल्टी पानी में एक गिट्टी उछाल दें तो हमें तरंगें दीखती हैं परंतु वही गिट्टी नदी या समुद्र में डालने पर हमें तरंगें नहीं दीखती हैं परंतु बनती तो हैं। वैसे ही मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र प्रभावित होते हैं। जिसका पता प्रकृति में होने वाली उथल-पुथल से चलता है। कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के। 
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है। धर्म= मानव जीवन और मानव समाज को  धारण करने हेतु  जो आवश्यक है  जैसे कि ,'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये -यही धर्म है। परंतु 'एथीस्टवाद' के कारण इसे नकार दिया जाता है और ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती है जबकि वह तो व्यापारियों/उद्योगपतियों द्वारा जनता की लूट व शोषण के उपबन्ध हैं। किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। 

कुछ अति प्रगतिशील वैज्ञानिक 'ग्रह-नक्षत्रों'के प्रभाव को ही नहीं मानते हैं वैसे लोगों की मूर्खता के ही परिणाम हैं विभिन्न प्राकृतिक-प्रकोप। 


यदि ग्रह-नक्षत्रों का प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है तो वहीं प्राणियों का सामूहिक प्रभाव भी ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है। एक बाल्टी में पानी भर कर उसमें गिट्टी फेंकेंगे तो 'तरंगे'दिखाई देंगी। यदि एक तालाब में उसी गिट्टी को डालेंगे तो हल्की तरंग मालुम पड़ सकती है किन्तु नदी या समुद्र में उसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा परंतु 'तरंग' निर्मित अवश्य होगी । इसी प्रकार  सीधे-सीधी तौर पर मानवीय व्यवहारों का प्रभाव ग्रहों या नक्षत्रों पर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता उसका एहसास तभी होता है जब प्रकृति दंडित करती है जैसे-उत्तराखंड त्रासदी,नर्मदा मंदिर ,कुम्भ और अब वाराणासी की भगदड़ आदि , क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 15 October 2016

देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है ------ ध्रुव गुप्त /प्रशासन का रवैया क्षोभपूर्ण ------ मधुवन दत्त चतुर्वेदी

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Dhruv Gupt

हमीं से मोहब्बत, हमीं से लड़ाई ! : 
अभी-अभी बृन्दावन में आयोजित नास्तिकों के सम्मेलन और वहां के कुछ धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद आस्तिकता बनाम नास्तिकता का विवाद एक बार फिर विमर्श के केंद्र में है। यह विवाद हमारे देश में हमेशा से चला आ रहा है। प्राचीन भारत में नास्तिकता के सबसे बड़े पैरोकार ऋषि चार्वाक थे जिन्होंने तर्क सहित किसी दैवी सत्ता, स्वर्ग-नरक और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। बौद्ध धर्म ने भी किसी पारलौकिक सत्ता का उल्लेख नहीं किया, लेकिन उसकी निर्वाण की परिकल्पना में मृत्यु के बाद किसी न किसी रूप में जीवन की उपस्थिति का स्वीकार अवश्य है। सच तो यह है कि मनुष्य द्वारा ईश्वर और विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक देवी-देवताओं के आविष्कार के पूर्व समूची मानवता नास्तिक ही थी। आप इसे अच्छी कह लीजिए या बुरी, ईश्वर की खोज दुनिया को मानसिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रभावित करने वाली सबसे प्रमुख खोज थी। तबसे हर दौर में कुछ लोग या कोई न कोई विचारधारा ईश्वर की परिकल्पना का निषेध और प्रतिकार करती रही है। विज्ञान भी किसी पारलौकिक सत्ता के अस्तित्व से इनकार करता है। इसके बावज़ूद आस्तिकता की अवधारणा के पीछे कुछ तो ऐसा है कि आज वैज्ञानिक कहे जाने वाली इक्कीसवी सदी में भी देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है। शायद जीवन की कठोर परिस्थितियों में अपने से इतर समूची सृष्टि के प्रति करुणा, दया, प्रेम, क्षमा और वात्सल्य से भरी किसी नियामक सत्ता पर भरोसा बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी ऐसे लोगों को जीने का संबल देती रही है। जीवन की परिस्थितियां जितनी जटिल होंगी सर टिकाने लायक किसी अभौतिक सत्ता की ज़रुरत उतनी ही बढ़ेगी। आप इसे अंधविश्वास, अफीम या यथास्थिति का स्वीकार कह लीजिए, लेकिन अगर यह भावनात्मक संबल और उम्मीद भी लोगों से छिन जाय बहुत से लोगों के पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता न बचेगा।

दुनिया में जो दस प्रतिशत लोग ख़ुद को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी ऐसे हार्डकोर नास्तिकों की संख्या एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं है जो अपनी अनास्था के साथ तमाम तर्क सहित मजबूती से टिके हुए हैं। इस दस प्रतिशत में निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें ठीक-ठीक पता नहीं कि वे वस्तुतः आस्तिक हैं अथवा नास्तिक। ये विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते वे ऐसे लोग हैं जिनकी आस्तिकता भी संदिग्ध है और नास्तिकता भी। इनकी ईश्वर के बारे में सोचने या जानने में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन मन के किसी कोने में छुपा हुआ एक डर भी है कि अगर सचमुच कोई ईश्वर हुआ तो जीते जी या मरने के बाद उनकी क्या गति होगी। उनका मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्च में भरोसा नहीं है, लेकिन किसी भी धर्म के पूजा-स्थल से गुज़रते हुए ऐसे लोगों के सर स्वतः झुक जाते हैं। पूजा-पाठ और कर्मकांड में आस्था न होते हुए भी वे शादी-ब्याह, श्राद्ध आदि के पारिवारिक आयोजनों में भागीदारी कर लेते हैं। जो धार्मिक रूढ़ियों का प्रखर विरोध भी करते हैं और छिपाकर कपड़ों के नीचे जनेऊ भी धारण करते हैं। सामने खड़ी किसी मुसीबत को देखकर इनके मुंह से 'हे विज्ञान', 'हे मार्क्स' या 'हे तर्कशास्त्र' की जगह 'हे भगवान' 'ओह गॉड' या 'या अल्लाह' ही निकलता है। लब्बोलुबाब यह कि आस्तिकता की जड़ें हमारे भीतर बहुत गहरी हैं। आस्तिकों और दुविधाग्रस्त लोगों में तो है ही, नास्तिकों में कुछ ज्यादा ही गहरी है। इतनी गहरी कि उन्हें चीख-चीखकर और मजमें जुटाकर इसकी घोषणा करनी पड़ती है। जैसे मुहब्बत जितनी गहरी, मुहब्बत के खिलाफ़ अभियान भी उतना ही प्रखर। बहरहाल दुनिया है तो क़िस्म-क़िस्म के वैचारिक द्वंद्व भी रहेंगे। यही दुनिया की खूबसूरती है। सबको अपनी आस्था, अनास्था के साथ जीने का अधिकार है और दोनों की सीमा-रेखा पर खड़े लोगों को इस पूरे संघर्ष का मज़ा लेने का भी।
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वास्तविकता यह है कि, प्रचलित 'आस्तिक ' और 'नास्तिक ' शब्द 'भ्रम ' उत्पन्न करते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार 'आस्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है' और 'नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है' । 
पाखंडी और नास्तिक दोनों संप्रदायों के विद्वान गफलत में जी रहे हैं और मानवता को गुमराह कर रहे हैं।समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
'ईश्वर ' का अर्थ है जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । आज कल पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है । दुनिया से परे जीवन की कल्पना पर इस दुनिया में आग लगाना किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्ता नहीं है। 
(विजय राजबली माथुर ) 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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Thursday, 13 October 2016

फासीवाद के खिलाफ हम सब ------ राकेश (इप्टा )

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Arvind Raj Swarup Cpi added 4 new photos.
Lucknow 13th October 2016.
A few Photos of Protest at Lucknow against the attack of Sanghis on IPTA conference participants at Indore (MP)on 4th October 2016.

















लखनऊ , 13 अक्तूबर 2016 :
आज साँय जी पी ओ पार्क, हजरतगंज स्थित गांधी प्रतिमा पर इंदौर ( म . प्र .) में 'इप्टा  ' के राष्ट्रीय सम्मेलन पर 04 अक्तूबर 2016 को फासिस्टी गुंडों के हमले के खिलाफ विरोध स्वरूप एक धरना - प्रदर्शन का आयोजन किया गया । इसका संचालन इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने किया और इसमें प्रलेस, जलेस, जसम,साझी दुनिया, नीपा रंगमन्डली, अलग दुनिया, कलम सांस्कृतिक मंच, कलम विचार मंच , सेंटर फार आबजेक़टिव रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट, राही मासूम रज़ा एकेडमी, पी यू सी एल, अमित, दस्तक, डी वाई एफ वाई, नौजवानसभा, एस एफ आई, आल इंडिया वर्कर्स काउंसिल, लखनऊ कलेक्टिव आदि संस्थाओं का प्रतिनिधित्व रहा। 

राकेश ने सविस्तार इप्टा के राष्ट्रीय कन्वेन्शन में घटित हादसे का उल्लेख करते हुये कलाकारों और प्रतिनिधियों के संयम व साहस की सराहना की। 


 इप्टा के कलाकारों ने गीतों के माध्यम से फासीवादी ताकतों के विरुद्ध  संघर्ष व जनता की एकजुटता का आह्वान किया। 


इस धरने में बड़ी संख्या में लखनऊ के लेखक कलाकार व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हुये जिनमें वेदा राकेश, अरविंद राज स्वरूप, वीरेंद्र यादव, रूप रेखा वर्मा, ताहिरा हसन, आनंद रमन तिवारी, फूलचंद यादव, सुभाष राय, ओ पी सिन्हा, के के शुक्ल, मोहम्मद ख़ालिक़, मोहम्मद अकरम, विजय राजबली माथुर, मोहम्मद शोएब, मधु गर्ग, कान्ति मिश्रा, आशा मिश्रा, बिपिन मिश्रा, रमेश दीक्षित  आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।  
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आगरा, 13 अक्तूबर 2016  : 


Jyotsna Raghuvanshi


आगरा इप्टा प्रतिरोध दिवस 13अक्तूबर 2016....अभिव्यक्ति की आजादी ...बाधक हो तूफान बवंडर नाटक नहीं रुकेगा...






 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 9 October 2016

यवा व महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का समर्थन ------ प्रदीप घोष


Pradeep Ghosh .



2-4अक्टूबर 2016 इन्दौर में इप्टा का राष्ट्रीय  सम्मेलन। 90 वर्षीय का.पेरीन दाजी ने इप्टा का झंडा फहराकर कार्यक्रम की शुरुआत की। एम एस सैत्थु, आनन्द पटवर्धन, राजन राजन हर सत्र मे न जाने कितने ही बुद्धीजीवी,सामाजिक कार्यकर्ता, सांस्कृतिक कर्मीयों का जमावड़ा व विचारों का आदान प्रदान होता रहा। उ प्र का महामंत्री होने के नाते डेलीगेट शेसन मे मुझे भी वक्ता बनाया गया। मैने जिन बिन्दुओं पर बल दिया :
1) हर सत्र में मंच पर युवा व महिला होनी चाहिए , 
2)क्षेत्रिय भाषा मे 4-5 प्रदेशों का वर्ष भर अलग अलग फेस्टीवल हो जिस्से देश भर मे प्रभाव व सक्रियता बनी रहे। 
3) हमे अपने विषय व शर्तों पर गरान्ट लेना चाहिए। मंत्री अपने जेब से नही देता हमारे टैक्स का पैसा है।  
सत्र के अन्त महामंत्री राकेश व अध्यक्ष रणवीर सिंह जी द्वारा तीनो बातें स्वीकृत कर ली गई। शीतल सठे को सुनना एक उपलब्धि थी।
https://www.facebook.com/pradeep.ghosh.7587/posts/566584150216159

Thursday, 6 October 2016

लड़ना आसान होता है; ज़रूरत शांति के प्रयास की है - एम एस सथ्यु




 लड़ना आसान होता है; ज़रूरत शांति के प्रयास की है - एम एस सथ्यु

भारतीय जन नाट्य संघ के तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का शुभारंभ ‘गर्म हवा’ जैसी कालजयी फिल्म के निर्देशक श्री एम एस सथ्यु द्वारा इप्टा के ध्वज वंदना से हुई। ध्वजारोहण में उनके साथ थे कॉमरेड पेरीन दाजी, प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन और इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश। ध्वजारोहण के बाद इप्टा अशोक नगर ईकाई, म.प्र और बिहार इकाई ने मिलकर शैलेंद्र द्वारा लिखित मशहूर जनगीत ‘तू ज़िंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर’ प्रस्तुत किया। इस मौके पर कॉमरेड पेरीन दाजी ने एम एस सथ्यु का स्वागत किया। इंदौर में उनकी उपस्थिति को गौरवपूर्ण बताया। ध्वज वंदना के बाद पुस्तक एवं पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन अंजन श्रीवास्तव ने किया।

2 अक्टूबर से 4 अक्टूबर तक चलनेवाले भारतीय जन नाट्य संघ के इस तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का विधिवत उद्घाटन आनंद मोहन माथुर सभागार में एम एस सथ्यु की अध्यक्षता में हुआ। मंच पर उपस्थित कलाकारों, लेखकों एवं रंगकर्मियों में थे ख्यात डाक्यूमेंट्री फिल्मकार आनंद पटवर्धन, इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह, उपाध्यक्ष अंजन श्रीवास्तव, राजेन्द्र राजन, राकेश, कॉमरेड पेरीन दाजी, नरहरि पटेल, वसंत शिंत्रे और मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया। मंच में उपस्थित लोगों के अतिरिक्त सभागार में देश के 25 राज्यों के लगभग 800 सौ रंगकर्मियों-संस्कृति कर्मियों के अलावा सैकड़ों की संख्या में लेखक, पत्रकार, कलाकार एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

अपने स्वागत भाषण में राकेश ने कहा इप्टा मोहब्बत की बात करती है। चार्ली चैप्लिन ने कहा था कि कला, कलाकार द्वारा जनता को लिखा गया प्रेमपत्र है। हम इसमें यह जोड़ते हैं कि इप्टा समय आने पर जनता की ओर से शासकों को अभियोग पत्र भी भेजती है। इप्टा के 75 साल पूरे हो रहे हैं। इसका नामकरण मशहूर वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया था। हम युद्ध के विरोध में तब भी थे और आज भी हैं। हम शांति के पक्षधर हैं। राकेश ने एम एम कलबुर्गी समेत दिवंगत अन्य विभूतियों को श्रद्धांजलि अर्पित की। इप्टा बेगूसराय के पुराने साथी कन्हैया कुमार सहित सभी संघर्षशील साथियों के प्रति समर्थन व्यक्त किया। विभिन्न संगठनों एवं साथियों द्वारा प्राप्त ग्रीटिंग तथा शुभकामना संदेशों का उल्लेख किय़ा।

सत्र की अध्यक्षता कर रहे एम एस सथ्यु ने मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य और हमारी चुनौतियाँ विषय पर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा यह तय करना मुश्किल होता है कि किस भाषा में बात करें। मैं कन्नड़ हूँ यहाँ भारत के सभी भाषा भाषी लोग मौजूद हैं। अपने आत्मीय लहजे में सथ्यु ने दक्षिण भारतीय भाषाओं समेत हिंदी और अंग्रेज़ी में सभी का अभिवादन किया। उन्होंने कहा मै अनेक रंग संगठनों से होता हुआ 1965 में इप्टा में शामिल हुआ। लड़ना बहुत आसान होता है। लोगों से शांतिपूर्ण व्यवहार करना कठिन होता है। तकनीकि प्रगति इतनी हो चुकी है कि घर बैठे बम फेंके जा सकते हैं लेकिन शांति के प्रयास काफ़ी कठिन हैं। युद्ध के मौके पिछली सरकारों के पास भी थे। लेकिन उन्होंने हमले नहीं किये। लेकिन यह सरकार युद्ध कर रही है। आज की सरकार कम्युनल है। राहुल गांधी मोदी का युद्ध के विषय में समर्थन कर बचकानी बात कर रहे हैं। यह कांग्रेस का पक्ष नहीं राहुल गांधी की अपरिपक्वता है। मेरे विचार से सर्जिकल ऑपरेशन भारत के लिए शर्मनाक है। भारत का भरोसा आक्रमण पर नहीं होना चाहिए। कलाकार के रूप में हमें सांप्रदायिकता, चरमपंथ आदि से मुकाबला करना है। हमारे लिए धर्म, जाति और द्रोणाचार्य सभी गैरज़रूरी हैं। लाल, क्रांति का रंग है। हमे प्रिय है। हम लोकतंत्र के पक्षकार हैं। हमें आज द्रोणाचार्य नहीं चाहिए। हम लोकतांत्रिक उम्मीद के लोग हैं। रंगमंच दुमिया नहीं बदल सकता। वह लोगों को उत्प्रेरित कर उन्हें एक्टिव बनाता है। स्वीकार और निर्णय तक पहुँचाता है। मैं खुद को कलाकार मानता हूँ। मुझे बहुत खुशी होगी अगर मैं अगली बार अपना नाटक लेकर आऊँ।

प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन ने कहा भारत की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से कम कमाती है। हमारा देश वित्तीय पूँजी का गुलाम हो चुका है। दूसरी दुनिया बनाने की लड़ाई अब तक बाकी है। भारतीय लोकतंत्र और विचारों की स्वतंत्रता खतरे में है। लेखकों को गुमराह किया जा रहा है उन्हें तोड़ा जा रहा है लेकिन हम टूटने भटकनेवाले नहीं निदान करनेवाले लोग हैं।

राजेन्द्र राजन के वक्तव्य के बाद इप्टा अशोक नगर के कलाकारों ने बामिक जौनपुरी का लिखा जनगीत ‘रात के समंदर में गम की नाव चलती है’ प्रस्तुत किया।

कॉमरेड शमीम फैज़ी ने कॉमरेड एबी बर्धन को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कहा वर्धन कल्चर, आर्ट, राजनीति और आंदोलनों से समान रूप से जुड़े थे। उनकी लिखी किताब फाइनांस कैपिटल आज टेक्स्ट बुक की तरह है। वे आयडियोलाग की तरह थे।

इस अवसर पर आनंद पटवर्धन की कॉमरेड ए बी वर्धन के अयोध्या भाषण पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई गयी। इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय महा सचिव कवि-कथाकार-रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी पर आधारित एक फिल्म ‘सीप का मोती’ का प्रदर्शन भी किया गया। कवि और अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने फैज़ की नज़्म 'लाजिम है कि हम भी देखेंगे' सुनायी। महाराष्ट्र के अंध विश्वास निर्मूलन समिति के कलाकारों ने सुकरात, तुकाराम और नरेन्द्र दाभोलकर एवं गोविंद पानसरे पर केन्द्रित नाटक की प्रस्तुति दी।

अंत में कॉमरेड विनीत तिवारी ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि रोहित वेमुला की हत्या सांस्थानिक थी। एम एम कलबुर्गी की हत्या से हम अब तक नहीं उबरे है। कलबुर्गी कन्नड़ के 1400 साल के इतिहास में सबसे विपुल लेखन करनेवाले साथी रहे हैं। उन्हें याद करने के साथ साथ हम अपनी लड़ाइयों और एकता के लिए प्रतिबद्ध हैं। सत्र का संचालन अरविंद पोरवाल ने किया।

साभार :
https://www.facebook.com/shashi.bhooshan.35/posts/1467367616612963