Wednesday, 30 August 2017
Tuesday, 29 August 2017
' कल्चर एंड मार्केट मैरेज ' कहा है पूर्णिमा जोशी ने ढोंगवाद के प्रचार को ------ विजय राजबली माथुर
स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
हिंदू की पत्रकार पूर्णिमा जोशी जी ने बड़ी बेबाकी व निष्पक्षता से बताया कि, आज जो ढोंग - पाखंड बढ़ा है उसको बढ़ाने में मीडिया खास तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया - TV चेनल्स आदि का बड़ा योगदान है और ऐसा नब्बे के दशक के बाद नव - उदारीकरण के बाद उसकी स्व्भाविक परिनिति के रूप में हुआ है। बाजारीकरण के इस दौर को उनके द्वारा ' Culture & Market मैरेज ' की संज्ञा दी गई। इसमें TRP, मुनाफा का ध्यान है मानवता और मानवीय मूल्यों का नहीं ------
20 दिसंबर 1991 को प्रदर्शित महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म 'सड़क ' वेश्या वृत्ती के गैर कानूनी कारोबार को उजागर करने और ध्वस्त करने की एक साहसिक प्रेरणा देती है। नायक रवि ( संजय दत्त ) का सहयोग न मिलता तो क्या पूजा ( पूजा भट्ट ) जिसे उसके अपने चाचा ने ही इस नर्क में धकेला था क्या बच सकती थी ? अब से 26 वर्ष पूर्व आई इस फिल्म से जनता ने कोई सबक नहीं लिया और ढोंगियों के फेर में युवतियाँ फँसती रही हैं या उनके रिशतेदारों द्वारा ही फंसाई जाती रही हैं।
राम रहीम मामले में भी साध्वियाँ और उनके परिवार स्वेच्छा से ही फंसे थे। किन्तु साहसी पत्रकार जो शहीद भी हुआ यदि छाप कर सार्वजनिक न करता और जज व CBI अधिकारी साहस न दिखाते तब यह न्याय मिलना संभव न होता ? किन्तु नारीवादी नेत्रियों को पुरुषों को उनका श्रेय देना गवारा न हुआ।
इन सांगठनिक महिलाओं से कहीं ज़्यादा जागरूक और निष्पक्ष है निर्भीक पत्रकार यह युवती :
ये महिला संगठन यदि अब भी जनता को जाग्रत करें और इन ढोंगियों से महिलाओं व युवतियों को बचाएं तो देश व समाज का भला हो सकता है।
'सड़क ' की तरह संदेषपरक फिल्में अब नहीं बन रही हैं तब क्या ये महिला संगठन भी जनता को जाग्रत करने में अक्षम हैं ?
वस्तुतः इन संगठनों के पदाधिकारी साधन - सम्पन्न परिवारों से संबन्धित हैं जिनको गरीब और विप्पन परिवार की महिलाओं व युवतियों से क्या सहानुभूति हो सकती है ? सिवाय अपनी छवी चमकाने के।
यदि सच में ये संगठन खुद जागरूक होते और जनता को जागरूक करने के इच्छुक होते तो सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते और घर - घर जाकर लोगों को पुरोहित वाद के चंगुल से बचने को प्रेरित करते। महिलाओं के दमन के लिए रचे गए पर्वों - बर मावस, करवा चौथ आदि आदि न करने के लिए महिलाओं को समझाते , भागवत आदि सत्संगों के नाम पर व्याप्त लूट से बचने को आगाह करते, मृत्यु - भोज आदि गरीबों को कंगाल बनाने वाली कुरीतियों से बचने को कहते, पंडितों - पुजारियों को दान देने का निषेद्ध करते । लेकिन इन संगठनों पर ब्राह्मण वादी वर्चस्व होने के कारण ये ऐसा न करके मात्र प्रतिकात्मक प्रदर्शन करके अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेते हैं।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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फेसबुक कमेंट्स :
हिंदू की पत्रकार पूर्णिमा जोशी जी ने बड़ी बेबाकी व निष्पक्षता से बताया कि, आज जो ढोंग - पाखंड बढ़ा है उसको बढ़ाने में मीडिया खास तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया - TV चेनल्स आदि का बड़ा योगदान है और ऐसा नब्बे के दशक के बाद नव - उदारीकरण के बाद उसकी स्व्भाविक परिनिति के रूप में हुआ है। बाजारीकरण के इस दौर को उनके द्वारा ' Culture & Market मैरेज ' की संज्ञा दी गई। इसमें TRP, मुनाफा का ध्यान है मानवता और मानवीय मूल्यों का नहीं ------
20 दिसंबर 1991 को प्रदर्शित महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म 'सड़क ' वेश्या वृत्ती के गैर कानूनी कारोबार को उजागर करने और ध्वस्त करने की एक साहसिक प्रेरणा देती है। नायक रवि ( संजय दत्त ) का सहयोग न मिलता तो क्या पूजा ( पूजा भट्ट ) जिसे उसके अपने चाचा ने ही इस नर्क में धकेला था क्या बच सकती थी ? अब से 26 वर्ष पूर्व आई इस फिल्म से जनता ने कोई सबक नहीं लिया और ढोंगियों के फेर में युवतियाँ फँसती रही हैं या उनके रिशतेदारों द्वारा ही फंसाई जाती रही हैं।
राम रहीम मामले में भी साध्वियाँ और उनके परिवार स्वेच्छा से ही फंसे थे। किन्तु साहसी पत्रकार जो शहीद भी हुआ यदि छाप कर सार्वजनिक न करता और जज व CBI अधिकारी साहस न दिखाते तब यह न्याय मिलना संभव न होता ? किन्तु नारीवादी नेत्रियों को पुरुषों को उनका श्रेय देना गवारा न हुआ।
इन सांगठनिक महिलाओं से कहीं ज़्यादा जागरूक और निष्पक्ष है निर्भीक पत्रकार यह युवती :
ये महिला संगठन यदि अब भी जनता को जाग्रत करें और इन ढोंगियों से महिलाओं व युवतियों को बचाएं तो देश व समाज का भला हो सकता है।
'सड़क ' की तरह संदेषपरक फिल्में अब नहीं बन रही हैं तब क्या ये महिला संगठन भी जनता को जाग्रत करने में अक्षम हैं ?
वस्तुतः इन संगठनों के पदाधिकारी साधन - सम्पन्न परिवारों से संबन्धित हैं जिनको गरीब और विप्पन परिवार की महिलाओं व युवतियों से क्या सहानुभूति हो सकती है ? सिवाय अपनी छवी चमकाने के।
यदि सच में ये संगठन खुद जागरूक होते और जनता को जागरूक करने के इच्छुक होते तो सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते और घर - घर जाकर लोगों को पुरोहित वाद के चंगुल से बचने को प्रेरित करते। महिलाओं के दमन के लिए रचे गए पर्वों - बर मावस, करवा चौथ आदि आदि न करने के लिए महिलाओं को समझाते , भागवत आदि सत्संगों के नाम पर व्याप्त लूट से बचने को आगाह करते, मृत्यु - भोज आदि गरीबों को कंगाल बनाने वाली कुरीतियों से बचने को कहते, पंडितों - पुजारियों को दान देने का निषेद्ध करते । लेकिन इन संगठनों पर ब्राह्मण वादी वर्चस्व होने के कारण ये ऐसा न करके मात्र प्रतिकात्मक प्रदर्शन करके अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेते हैं।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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फेसबुक कमेंट्स :
Monday, 28 August 2017
सड़क पर भीड़ तंत्र और 'सड़क ' का संदेश ------ विजय राजबली माथुर
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नर - नारी की समानता की आवाज़ उठाने वाली महिला नेत्रियों का एकपक्षीय दृष्टिकोण उजागर :
यदि शहीद पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति अपने अखबार में आवाज़ न उठाते
और यदि CBI अधिकारी दबाव के बावजूद निर्भीकता व निष्पक्षता न बरतते एवं जज साहब भी निर्भीक व निष्पक्ष निर्णय न देते तो साध्वी को न्याय कहाँ से मिलता ? किन्तु इन लोगों के पुरुष होने के कारण पुरुष विरोधी महिला नेत्रियों ने एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा। ऐसी ही नर - नारी समानता समाज को चाहिए क्या ?
20 दिसंबर 1991 को प्रदर्शित महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म 'सड़क ' वेश्या वृत्ती के गैर कानूनी कारोबार को उजागर करने और ध्वस्त करने की एक साहसिक प्रेरणा देती है। नायक रवि ( संजय दत्त ) का सहयोग न मिलता तो क्या पूजा ( पूजा भट्ट ) जिसे उसके अपने चाचा ने ही इस नर्क में धकेला था क्या बच सकती थी ? अब से 26 वर्ष पूर्व आई इस फिल्म से जनता ने कोई सबक नहीं लिया और ढोंगियों के फेर में युवतियाँ फँसती रही हैं या उनके रिशतेदारों द्वारा ही फंसाई जाती रही हैं।
राम रहीम मामले में भी साध्वियाँ और उनके परिवार स्वेच्छा से ही फंसे थे। किन्तु साहसी पत्रकार जो शहीद भी हुआ यदि छाप कर सार्वजनिक न करता और जज व CBI अधिकारी साहस न दिखाते तब यह न्याय मिलना संभव न होता किन्तु नारीवादी नेत्रियों को पुरुषों को उनका श्रेय देना गवारा न हुआ।
ये महिला संगठन यदि अब भी जनता को जाग्रत करें और इन ढोंगियों से महिलाओं व युवतियों को बचाएं तो देश व समाज का भला हो सकता है।
'सड़क ' की तरह संदेषपरक फिल्में अब नहीं बन रही हैं लेकिन मुकेश भट्ट ने इसका सीकवल बनाने की घोषणा की है जिसमें आलिया भट्ट की भूमिका संजय दत्त व पूजा भट्ट की बेटी के रूप मे होगी।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
नर - नारी की समानता की आवाज़ उठाने वाली महिला नेत्रियों का एकपक्षीय दृष्टिकोण उजागर :
यदि शहीद पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति अपने अखबार में आवाज़ न उठाते
और यदि CBI अधिकारी दबाव के बावजूद निर्भीकता व निष्पक्षता न बरतते एवं जज साहब भी निर्भीक व निष्पक्ष निर्णय न देते तो साध्वी को न्याय कहाँ से मिलता ? किन्तु इन लोगों के पुरुष होने के कारण पुरुष विरोधी महिला नेत्रियों ने एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा। ऐसी ही नर - नारी समानता समाज को चाहिए क्या ?
20 दिसंबर 1991 को प्रदर्शित महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म 'सड़क ' वेश्या वृत्ती के गैर कानूनी कारोबार को उजागर करने और ध्वस्त करने की एक साहसिक प्रेरणा देती है। नायक रवि ( संजय दत्त ) का सहयोग न मिलता तो क्या पूजा ( पूजा भट्ट ) जिसे उसके अपने चाचा ने ही इस नर्क में धकेला था क्या बच सकती थी ? अब से 26 वर्ष पूर्व आई इस फिल्म से जनता ने कोई सबक नहीं लिया और ढोंगियों के फेर में युवतियाँ फँसती रही हैं या उनके रिशतेदारों द्वारा ही फंसाई जाती रही हैं।
राम रहीम मामले में भी साध्वियाँ और उनके परिवार स्वेच्छा से ही फंसे थे। किन्तु साहसी पत्रकार जो शहीद भी हुआ यदि छाप कर सार्वजनिक न करता और जज व CBI अधिकारी साहस न दिखाते तब यह न्याय मिलना संभव न होता किन्तु नारीवादी नेत्रियों को पुरुषों को उनका श्रेय देना गवारा न हुआ।
ये महिला संगठन यदि अब भी जनता को जाग्रत करें और इन ढोंगियों से महिलाओं व युवतियों को बचाएं तो देश व समाज का भला हो सकता है।
'सड़क ' की तरह संदेषपरक फिल्में अब नहीं बन रही हैं लेकिन मुकेश भट्ट ने इसका सीकवल बनाने की घोषणा की है जिसमें आलिया भट्ट की भूमिका संजय दत्त व पूजा भट्ट की बेटी के रूप मे होगी।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Monday, 21 August 2017
साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना क्यों फल-फूल रही है ? ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी
Jagadishwar Chaturvedi
21-08-2017
शिक्षा में साम्प्रदायिकता और स्टीरियोटाइप :
आप देश में कहीं पर भी जाइए आपको विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षकों में एक बड़ा तबक़ा मिलेगा जो सहज और स्वाभाविक तौर पर साम्प्रदायिकचेतना और जातिचेतना संपन्न है । स्थानीय तौर पर अनेक मसलों पर ये लोग साम्प्रदायिक या जातिवादी नजरिए से सोचते हैं । इस तरह की चेतना कांग्रेस के जमाने में भी थी और आज भी है।लेकिन भाजपा-आरएसएस का प्रचार यह है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षकों में वामदलों का , वाम विचारधारा का वर्चस्व है।आरएसएस का यह प्रचार एकदम निराधार और सफेद झूठ है।मैं जब पढता था तब और जब पढाने लगा तब भी अधिकांश शिक्षकों में साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना के मैंने जेएनयू से लेकर कलकत्ता विश्वविद्यालय तक साक्षात दर्शन किए हैं।सवाल यह है शिक्षकों में यह चेतना कहाँ से आती है? हम अपनी शिक्षा और शिक्षकों को साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना से मुक्त क्यों नहीं कर पाए ? असल में हमारी शिक्षा परिवर्तन विरोधी है , परिवर्तनकामी को शिक्षा में शक की नजर से देखते हैं।
एक अन्य बुनियादी सवाल यह है कि क्या हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज तर्क और विवेक के आधार पर चल रहे हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से चल रहे हैं ? शिक्षक अपने विद्यार्थियों को तर्क,विवेक और वैज्ञानिक नजरिए से पढाते हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से पढाते हैं? अंदर की हकीकत यह है कि हम अपने विद्यार्थी को स्टीरियोटाइप पद्धति से पढाते हैं।वास्तविकता यह है कि हमारे विकास और परिवर्तन की गारंटी स्टीरियोटाइप नजरिया नहीं है। हमें यदि बदलना है और नया समाज बनाना है तो तर्क और विवेक के आधार पर चीजों को देखने,समझने और परखने के संस्कार पैदा करने होंगे।ये चीजें ही शिक्षा की सार्थकता की गारंटी हैं।
विश्वविद्यालय और कॉलेज का नाम आते ही पहला शब्द ज़ेहन में आता है वह है ज्ञान या नॉलेज।सवाल यह है हम ज्ञान कैसे अर्जित करते हैं ? ज्ञान कैसे संप्रेषित करते हैं ? जानना या खोज की भूख पैदा करना बेहद जरुरी है लेकिन हमारा समूचा पठन -पाठन ज्ञान की भूख पैदा नहीं करता,खोज की इच्छा पैदा नहीं करता इसके विपरीत हमने यह मान लिया है कि हमें किसी तरह डिग्री हासिल करनी है, नौकरी हासिल करनी है और इसके लिए जितना जरुरी है उतना ही पढो, रट लो और फिर काम पर निकल लो! यानी ज्ञान के साथ हमने प्रयोजनमूलक संबंध बनाया है ज्ञानकेन्द्रित संबंध नहीं बनाया है।शिक्षा में प्रयोजनमूलक दृष्टि हमें पुराने संस्कारों ,मूल्यों और संबंधों से मुक्त करने में मदद नहीं करती यही वजह है कि हम जैसे पढने आते हैं डिग्री पाने के बाद भी वैसे ही बने रहते हैं। यही दशा शिक्षकों की भी है। वे शिक्षित होकर भी अवैज्ञानिक बातें करते हैं, तर्कहीन और अविवेकपूर्ण बातें करते हैं ,अपरिवर्तित बने रहते हैं।
असली शिक्षा वह है जो मनुष्य को बदले, मनुष्य के अंदर बैठे पशुबोध को नष्ट करे। लेकिन वास्तविकता यह है कि हम न तो बदलते हैं और न हमारे अंदर का पशुबोध मरता है बल्कि शिक्षित होने के बाद यह प्रबल और शक्तिशाली हो जाता है।यथास्थिति बनी रहती है और इसे बनाने में स्टीरियोटाइप पठन-पाठन की केन्द्रीय भूमिका है।यही वह बुनियादी जगह है जहाँ पर साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना फल-फूल रही है।
साभार:
https://www.facebook.com/jagadishwar9/posts/1751594058202627
Thursday, 17 August 2017
Saturday, 12 August 2017
..... पर मैं फिर भी कहूंगी और आपको सुनना पड़ेगा! ------ अल्का प्रकाश
यह उन सभी लोगों (अधिकांश पुरुषों, कुछ स्त्रियों) के लिए है जो सामाजिक रूप से अपनी स्त्री-पक्षधर पहचान निर्मित करने के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन असल ज़िन्दगी में साथी कवयित्रियों, लेखिकाओं, अध्यापिकाओं, कर्मचारियों, छात्राओं या किसी स्त्री के चरित्रहनन करने से लेकर अन्य घटिया हरकतों में शामिल रहते हैं, और जब-तब स्त्रियों पर हमले कर इसे अपनी कुंठा शांत करने का जरिया बना लिए हैं .
Alka Prakash
12-08-2017
कुछस्त्रीविरोधीस्वरोंकाअचानकस्त्रीवादीहोजाना -________________________________________
हिंसाएं इन दिनों शग़ल बन चुकी है और हत्याएँ एक ख़ास तरह का मनोरंजन। विमर्श को सजावटी सामान बना दिया गया है और विचार प्रसाधन की तरह प्रयोग में लाये जा रहे हैं। आधुनिकता मुक्ति का स्वांग रच रही है और प्रगतिशीलता अब एक घोषित अपराध है। आलोचनाएँ कौतुक बन चुकी हैं जहां भाषा की लगाम थामकर शब्दों को नचाया जा रहा। ऐसे में कूड़े के ढेर समान कुछ झूठे लोग मिथ्या-आरोपों को कवच बनाकर साफ-सुथरे दिखने और सच्चे होने की कोशिश में लगे हैं। अफवाहों को उन्होंने रोज़गार बना लिया है और स्त्री-निंदा को अपने मनोरोग की दवा। कुंठाओं में बजबजाते ये बीमार और misogynist लोग किसी स्त्री की प्रतिभा, सफलता और खुशियों से सबसे अधिक असुरक्षित महसूस करते हैं और निराश होते हैं। तो इनके पास अंतिम अस्त्र मात्र चरित्रहनन बचता है और पूरी बेहयाई और मनोयोग के साथ वे ऐसे नीच कर्म करते हैं। ये स्त्रीद्वेषी ही हमारे असली दुश्मन हैं जो कि अक्सर बहुत चालाकी से खुद को स्त्री-पक्षधर दिखाते हुए छिपे रहते हैं। क्या कुछ कहूँ, कितना कहूँ! बात वही निकलेगी न कि "मैं सच कहूंगी और फिर भी हार जाऊंगी"..... पर मैं फिर भी कहूंगी और आपको सुनना पड़ेगा!
आप दोगले लोग जो एक स्त्री के अपमान के विरोध में सार्वजनिक रूप से अपनी पक्षधरता दिखा वाहवाही लूटते हैं वहीं दूसरी स्त्रियों के बारे में बनाई गई अफवाहों पर सहज विश्वास कर उसे फैलाने में अपना भरसक योगदान देते हैं। आप जो बिना किसी तथ्य-प्रमाण के किसी सम्मानित स्त्री पर भ्रष्ट का ठप्पा लगाकर अपने मित्रों को उससेे बचकर रहने और संवाद न करने की हिदायत देते फिरते हैं। आप लोग जो प्रशंसा को रणनीति की तरह बरतते हैं और कार्यालयों, कार्यक्रमों या गोष्ठियों में सम्मुख उपस्थित किसी स्त्री की योग्यता बखानते हुए या संवाद करते हुए चाय-कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ उसे पूरा गटक जाते हैं और इस बात से अनजान रहते हैं कि वह सब कुछ देख-समझ पा रही। आप जिनके लिए किसी स्त्री को मंचों पर बैठते देखना और बोलते हुए सुनना एक अजूबी और दुखद घटना सदृश लगती है। और आख़िर में आप लोग भी जो संवेदनशील कवि-आलोचक-छात्र-साहित्यप्रेमी के रूप में किसी स्त्री के बारे में की जा रही ऐसी मसालेदार मनगढ़ंत बातों के सहज-सुलभ-मुफ़्त भोज में शामिल होते हुए अपनी नैतिकता को मेज़पोश बना और अपने विवेक की रूमाल से हाथ साफ कर उन बेसिरपैर की बातों का विरोध दर्ज़ करने के बजाय बाक़ायदा चटखारे लेते हुए खीसें निपोरते हैं!
तब शायद अनजान बने रहकर आप सभी किसी स्त्री के संघर्ष की, हिम्मत की, ईमानदार कोशिशों की, सपनों की और सम्भावनाओं की हत्या कर रहे होते हैं जो जीवन भर लिख-पढ़ कर अपना बहुत कुछ दांव पर लगाकर घर की चौखट से बाहर खुद को पहचान दिलाने और अपनी सार्थकता सिद्ध करने निकल सकी है।
आप जो विश्वविद्यालयों, संस्थानों और अकादमियों में बैठे हुए हैं, आप जो नामी प्रोफ़ेसर्स हैं, आप जो प्रतिष्ठित आलोचक हैं, आप जो साहित्य जगत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर और नई संभावनाएं हैं.. आपसे अनुरोध है कि भाषा में अपने श्रम की बहुमूल्य पूंजी लगाकर शब्दों से धंधा कराना यथाशीघ्र बंद करिए! आप भाषा की खोल में विचारों का खून पीते भेड़िये हैं। आपसे जो उम्मीदें हैं, जिस कार्य के लिए लाखों की भीड़ में से केवल आप चुने गए हैं, मंचों पर और लेखन में जो विचार पॉलिटिकली करेक्ट होने के लिए आप स्थापित करते फिर रहे हैं, उसे जीवन में भी उतारिए! सब कुछ हो जाने और पा लेने से पहले एक मनुष्य बनिए। वरना आपके पाप का घड़ा भरता ही जा रहा है और जब वह फूटेगा तो आपको हमेशा सिर-माथे पर लगाए रहने वाले लोग भी गंदगी की तरह साफ़ कर किनारे फेंक देंगे और साहित्य-समाज में आपको नकली लेखक मानते हुए एक दिन आपका सारा लिखा हुआ विमर्श भाषा में साजिश करार दिया जाएगा! आपकी कायराना हरकतों से कोई स्त्री दुखी हो सकती है, मानसिक रूप से उत्पीड़ित हो सकती है पर हार नहीं मान सकती, हतोत्साहित नहीं हो सकती। वह आपके हर उस हमले का जवाब देगी जो उसकी हत्या के लिए या उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित करने के घृणित उद्देश्य के साथ आप उस पर किये जा रहे हैं। आपके उपहास करने से वह लिखना बंद नहीं करेगी, आप और आप जैसों के गीदड़-समूह के भय से वह घर से बाहर निकलना बंद नहीं करेगी, आपकी बनाई अफवाहों से वह कार्यालयों और संस्थाओं में काम करना बंद नहीं कर देगी। वह आपसे लड़ेगी, आपको आईना दिखाती रहेगी, आपकी पहचान उजागर करती रहेगी और यही आपकी हार होगी।
लेखिका :
(ये बातें आज ऐसी ही लिख देने की इच्छा हुई जो बहुत दिनों से उपेक्षित की जा रही थीं कि दुष्टों से उलझ कर अपना चैन न छिने और कार्यक्षमता प्रभावित न हो, पर शायद इसे बहुत पहले साझा कर दिया जाना चाहिए था। इसका संबंध किसी एक व्यक्ति या किसी चर्चित प्रकरण से नहीं है। यह उन सभी लोगों (अधिकांश पुरुषों, कुछ स्त्रियों) के लिए है जो सामाजिक रूप से अपनी स्त्री-पक्षधर पहचान निर्मित करने के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन असल ज़िन्दगी में साथी कवयित्रियों, लेखिकाओं, अध्यापिकाओं, कर्मचारियों, छात्राओं या किसी स्त्री के चरित्रहनन करने से लेकर अन्य घटिया हरकतों में शामिल रहते हैं, और जब-तब स्त्रियों पर हमले कर इसे अपनी कुंठा शांत करने का जरिया बना लिए हैं )
साभार :
https://www.facebook.com/alka.prakash.94/posts/1493688234052482
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Tuesday, 8 August 2017
'न डरूँगी, न झुकुंगी, अंत तक लड़ूँगी ' ------ वर्णिका कुंडु
स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
N B T , Lko., 08-08-2017, page --- 13 :
सुभाष बराला मुख्यमंत्री का पद हथियाने की फिराक में ------ - महेंद्र नारायण सिंह यादव
हरियाणा भाजपा अध्यक्ष का बेटा छेड़खानी में गिरफ्तार :
Sat, Aug 5, 2017 2:36 PM
हरियाणा भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सुभाष बराला का बेटा विकास बराला एक लड़की के साथ छेड़छाड़ के मामले में गिरफ्तार हुआ है। बिगड़ैल बेटा विकास अपने गुंडे साथियों के साथ चंडीगढ़ सेक्टर 7 से एक लड़की का पीछा कर रहा था और उसे कई बार रोकने की कोशिश की। पीड़िता ने पुलिस कंट्रोल रूम पर फोन से शिकायत की।
शिकायत के बाद पुलिस ने विकास और उसके साथियों को शराब के नशे में धुत पाया और सबको गिरफ्तार कर लिया। चंडीगढ़ सेक्टर 26 पुलिस थाने में विकास के खिलाफ छेड़छाड़ करने और शराब पीकर गाड़ी चलाने का मामला दर्ज किया गया है। बताया जा रहा है कि पीड़ित लड़की आईएएस अधिकारी की बेटी है।
सुभाष बराला का बेटा अपने साथियों समेत रास्ते में उसे उठाने की फिराक में था। पुलिस ने 354 डी के तहत केस दर्ज कर जाँच शुरू कर दी है, लेकिन उस पर कार्रवाई न करने के लिए भाजपा नेताओं का दबाव आना शुरू हो गया है।
आईएएस की बेटी ने बताया कि कि विकास बराला और आशीष कुमार शराब के नशे में धुत थे। वह जब कार से ग्रीन मार्केट से गुजर रही थी तो दोनों ने अपनी कार से उसका पीछा किया, भद्दे कमेंट किए और कई बार गाड़ी पर हाथ मारा।
दोनों आरोपी एलएलबी के छात्र हैं। युवती की शिकायत पर चंडीगढ़ पुलिस ने गत देर रात 12.30 बजे दोनों आरोपियों को हाउसिंग बोर्ड के पास से गिरफ्तार कर लिया। रात को ही दोनों का मेडिकल कराया गया जिसमें उनके शराब के नशे में होने की पुष्टि हुई।
बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला अपने बेटे विकास बराला की गिरफ्तारी के बाद इस मामले पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं। सुभाष बराला भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पसंद पर हरियाणा भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए हैं। कानून और व्यवस्था के मामले में असफलता के आरोप झेल रहे मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की जगह भी वो लेने की कोशिश कर रहे हैं।
सुभाष बराला जहाँ एक ओर मुख्यमंत्री का पद हथियाने की फिराक में बताए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने 23 साल के बेटे विकास को अगला विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार कर रहे हैं। हालाँकि विकास की दिलचस्पी राजनीति से ज्यादा शराब और अय्याशी में ही बताई जाती है।
http://newslive24.in/read/1197
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
N B T , Lko., 08-08-2017, page --- 13 :
सुभाष बराला मुख्यमंत्री का पद हथियाने की फिराक में ------ - महेंद्र नारायण सिंह यादव
हरियाणा भाजपा अध्यक्ष का बेटा छेड़खानी में गिरफ्तार :
Sat, Aug 5, 2017 2:36 PM
- महेंद्र नारायण सिंह यादव-
हरियाणा भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सुभाष बराला का बेटा विकास बराला एक लड़की के साथ छेड़छाड़ के मामले में गिरफ्तार हुआ है। बिगड़ैल बेटा विकास अपने गुंडे साथियों के साथ चंडीगढ़ सेक्टर 7 से एक लड़की का पीछा कर रहा था और उसे कई बार रोकने की कोशिश की। पीड़िता ने पुलिस कंट्रोल रूम पर फोन से शिकायत की।
शिकायत के बाद पुलिस ने विकास और उसके साथियों को शराब के नशे में धुत पाया और सबको गिरफ्तार कर लिया। चंडीगढ़ सेक्टर 26 पुलिस थाने में विकास के खिलाफ छेड़छाड़ करने और शराब पीकर गाड़ी चलाने का मामला दर्ज किया गया है। बताया जा रहा है कि पीड़ित लड़की आईएएस अधिकारी की बेटी है।
सुभाष बराला का बेटा अपने साथियों समेत रास्ते में उसे उठाने की फिराक में था। पुलिस ने 354 डी के तहत केस दर्ज कर जाँच शुरू कर दी है, लेकिन उस पर कार्रवाई न करने के लिए भाजपा नेताओं का दबाव आना शुरू हो गया है।
आईएएस की बेटी ने बताया कि कि विकास बराला और आशीष कुमार शराब के नशे में धुत थे। वह जब कार से ग्रीन मार्केट से गुजर रही थी तो दोनों ने अपनी कार से उसका पीछा किया, भद्दे कमेंट किए और कई बार गाड़ी पर हाथ मारा।
दोनों आरोपी एलएलबी के छात्र हैं। युवती की शिकायत पर चंडीगढ़ पुलिस ने गत देर रात 12.30 बजे दोनों आरोपियों को हाउसिंग बोर्ड के पास से गिरफ्तार कर लिया। रात को ही दोनों का मेडिकल कराया गया जिसमें उनके शराब के नशे में होने की पुष्टि हुई।
बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला अपने बेटे विकास बराला की गिरफ्तारी के बाद इस मामले पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं। सुभाष बराला भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पसंद पर हरियाणा भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए हैं। कानून और व्यवस्था के मामले में असफलता के आरोप झेल रहे मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की जगह भी वो लेने की कोशिश कर रहे हैं।
सुभाष बराला जहाँ एक ओर मुख्यमंत्री का पद हथियाने की फिराक में बताए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने 23 साल के बेटे विकास को अगला विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार कर रहे हैं। हालाँकि विकास की दिलचस्पी राजनीति से ज्यादा शराब और अय्याशी में ही बताई जाती है।
http://newslive24.in/read/1197
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Sunday, 6 August 2017
मुगलों को छोड़िये, दीनदयाल की मौत/हत्या का राज़फाश करिये! ------ नवेंदु कुमार
जनसंघ के अध्यक्ष रहे बड़े नेता बलराज मधोक ने ये इशारा कर तब सनसनी फैला दी थी कि पंडित जी की हत्या के पीछे पार्टी के ही कुछ बड़े नेताओं के हाथ हो सकते हैं।..................उनकी मौत की गुत्थी उन्हीं की पार्टी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार और उसके अपराजेय मुखिया क्यों नहीं सुलझा रहे। सारी फाइलें और समस्त जांच एजेंसियां उनके पास ही तो हैं। तो फिर ये कैसा खेल है कि जहां, जिस रेलवे स्टेशन मुगलसराय पर मरे उनके नेता, उसके नाम बदलने की तो बड़ी बेचैनी है, इस बात की बेचैनी क्यों नहीं कि पंडित दीनदयाल की हत्या/मौत का पर्दाफ़ाश किया जाय? ............ मुगलसराय का नाम बदलने की ही इतनी जल्दी क्यों है? जहां मरे/मारे गये पंडित दीनदयाल उसी जगह का नाम उनके नाम पर क्यों रहे? जिस मथुरा के पैतृक स्थान नंगला चंद्रभान के पंडित जी वाशिंदा थे, उस मथुरा का नाम क्यों नहीं बदला जाय, मुगलसराय का ही क्यों? जिस जयपुर के धनकिया रेलवे स्टेशन वाले ननिहाल में दीनदयाल उपाध्याय जन्मे, उस धनकिया स्टेशन का नाम बदलने से पंडित जी की आत्मा खुश नहीं होगी!
Navendu Kumar
०५-०८-२०१७
मुगलसराय का नाम बदल से क्या होगा, पहले पंडित जी की मौत की गुत्थी सुलझाओ!
स्टेशन का नाम बदलने से क्या दीनदयाल उपाध्याय और उनके परिवार को न्याय मिल जाएगा ? बहुत बड़े राष्ट्रनायक थे पं.दीनदयाल उपाध्याय, इतने बड़े कि उन्हें पूरा देश अब तक नहीं जान पाया। कैसे जीये, क्या किये, ये तो बीजेपी और संघ वाले बता रहे लेकिन कैसे मरे, मरे कि मार डाले गए ये उनके नेता नहीं बता रहे। जबकि स्व.दीनदयाल जी के परिवार और संघ पार्टी के सभी वरिष्ठ व बुजुर्ग नेताओं और राष्ट्रभक्तों को पता है कि दीनदयाल उपाध्याय की मौत एक मिस्ट्री है। मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर हुई उनकी संदिग्ध मौत को सिर्फ़ रहस्यमय ही नहीं माना गया बल्कि उनकी नियोजित हत्या किये जाने तक कि बात चली....चर्चा में आई।
बड़ी और चौंकाने वाली बात तो ये कि जनसंघ के अध्यक्ष रहे बड़े नेता बलराज मधोक ने ये इशारा कर तब सनसनी फैला दी थी कि पंडित जी की हत्या के पीछे पार्टी के ही कुछ बड़े नेताओं के हाथ हो सकते हैं। पंडित दीनदयाल जो सीधे गुरु गोलवलकर से जुड़े हुए थे और उनकर बेहद विश्वासपात्र थे। 'गुरुजी' ने ही उन्हें जनसंघ के अध्यक्ष की कमान सौंपी थी। इससे संघ के कई नेता उदासीन भी थे। जिनका कद संघ संगठन में कद्दावर था।
तब ये सवाल भी बहुत जोर पकड़ा था कि उपाध्याय की मौत/हत्या से संगठन में किसको बड़ा लाभ मिला, कौन लोग लाभान्वित हुए? उनके परिजन ये भी बताते रहे कि पंडित जी ने उन्हें बताया भी था कि उनको तरह-तरह की धमकियां मिल रही हैं। तब अटल बिहारी वाजपेयी पंडित जी के सचिव हुआ करते थे। उनके हवाले से भी ये बात आई कि हां, धमकी मिलती थी। उनकी मौत के बाद भी ज़ुबान बंद रखने की धमकी भी क्योंआती रही?
10 फरवरी 1968 की रात को पंडित दीनदयाल लखनऊ से सियालदह-पठानकोट एक्सप्रेस में सवार हो पटना किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे। फर्स्ट क्लास की बोगी में वे सवार थे। सुबह 11 फरवरी को मृतावस्था में वे मुगलसराय स्टेशन के दक्षिणी यार्ड में पाये गये। उनका शव सही सलामत ही था। हाईलाइट ये कि उनके हाथ में उंगलियों से फंसा एक पांच रुपये का नोट था! कहानी ये कही गयी और शोर ये मचाया गया कि ट्रेन की बोगी से वे गिर पड़े होंगें। वे वहां मरे या मारे गये जहां उन्हें कोई नहीं जानता था। खास बात ये भी कि उनके सचिव अटल जी भी इस सफर में उनके साथ नहीं थे। स्टेशन के प्लेटफार्म पर लाश लावारिस रखी हुई थी। इसी बीच उन्हें एक व्यक्ति ने देखा और कहा कि ये तो पंडित जी हैं!
बहरहाल, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत विवाद का कारण तो बनी ही। विवाद आज भी है। संघ संगठन के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने तो तभी साफ कह दिया था कि उनकी मौत एक सोची-समझी राजनीतिक हत्या है। उनके पास कुछ खास लोगों के पाखंड और भेद के सबूत थे। राष्ट्रभक्ति और सम्प्रदायिकता के असली-नकली चेहरों की फाइलें थीं। ये आशंका उनके परिवार वालों ने भी जताई थी। वहीं डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ये कहते रहे कि उनकी हत्या कांग्रेस ने करवाई, क्योंकि जनसंघ को वे विपक्ष की बड़ी पार्टी बना रहे थे। 1967 के आम चुनाव में उन्होंने अपनी ताक़त दिखा दी थी।
हत्या/मौत के इन विवादों के बीच कांग्रेस की सरकार ने जांच बैठवा दी। कई स्तर की जांच चली। 1969 में संसद में सभी दलों के सांसदों की मांग पर वाई बी चंद्रचूड़ की अधयक्षता में विशेष जांच आयोग बना। पर राज़ है कि फिर भी नहीं खुला। सीबीआइ जांच भी बैठी। सीबीआइ सिर्फ दो लोगों राम अवध-भरत लाल को पकड़ सकी। कहा गया कि वे चोर थे और डिब्बे में सामान चुराने घुसे थे। अदालत से वे बाद में इस मामले में छूट भी गए। पंडित जी का परिवार, उनकी एक भतीजी मधु शर्मा तो आज भी यही मांग कर रही है कि उनकी मौत/हत्या की गुत्थी सरकार सुलझाए।
पंडित दीनदयाल पार्टी और संघ के बड़े नेता थे उनकी मौत की गुत्थी उन्हीं की पार्टी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार और उसके अपराजेय मुखिया क्यों नहीं सुलझा रहे। सारी फाइलें और समस्त जांच एजेंसियां उनके पास ही तो हैं। तो फिर ये कैसा खेल है कि जहां, जिस रेलवे स्टेशन मुगलसराय पर मरे उनके नेता, उसके नाम बदलने की तो बड़ी बेचैनी है, इस बात की बेचैनी क्यों नहीं कि पंडित दीनदयाल की हत्या/मौत का पर्दाफ़ाश किया जाय?
मालूम हो कि श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही पंडित दीनदयाल के परिजन, उनकी भतीजी मधु शर्मा वगैरह पीएम से मिले थे। उनके साथ डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी भी थे। उन सबने मोदी जी से यही मांग की कि पंडित जी की मौत की फाइलें खुलवाइए। नयी जांच बैठवाइए। पंडित जी की रहस्यमय मौत एक समर्पित संघ कार्यकर्ता और एक दार्शनिक नेता की हुई एक राजनीतिक हत्या है। हमें आपसे बहुत ही आस है!
सवाल ये कि तीन साल बीत गये उस आस और मुलाक़ात के। इस बीच कोई आहट भी न मिली पंडित दीनदयाल के परिवार और देश को कि फ़ाइल कोई खुली भी है या खोली जाएगी अथवा नहीं। इस राजनीतिक हत्या पर संघ-बीजेपी की मोदी सरकार की इच्छाशक्ति जागी है या जागेगी अथवा नहीं। बलराज मधोक ने आखिर क्यों खुद के संगठन और कुछ बड़े नेताओं की ओर उंगली उठाई? ये ठीक नहीं कि मूल सवालों के सार्थक खोजबीन और समाधान निकालने के बजाय कोई सरकार स्टेशन का नाम बदलने का लॉलीपॉप थमाए और इस बहस में उलझा कर सब कुछ पहले की तरह हवा कर दे। कांग्रेस की सरकार ने बहुत कुछ किया तो सही। ग़लत दिशा में किया, सही किया ये गुण-दोष भी जांचे न बीजेपी सरकार, क्यों कोई दिक्कत है?
एक बात ये भी समझ में नहीं आ रही कि मुगलसराय का नाम बदलने की ही इतनी जल्दी क्यों है? जहां मरे/मारे गये पंडित दीनदयाल उसी जगह का नाम उनके नाम पर क्यों रहे? जिस मथुरा के पैतृक स्थान नंगला चंद्रभान के पंडित जी वाशिंदा थे, उस मथुरा का नाम क्यों नहीं बदला जाय, मुगलसराय का ही क्यों? जिस जयपुर के धनकिया रेलवे स्टेशन वाले ननिहाल में दीनदयाल उपाध्याय जन्मे, उस धनकिया स्टेशन का नाम बदलने से पंडित जी की आत्मा खुश नहीं होगी! मुगलों को छोड़िये, दीनदयाल की मौत/हत्या का राज़फाश करिये!
साभार :
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