Monday, 31 December 2018

नितिन गडकरी के वक्तव्यों का अभिप्राय ------ नदीम

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

चीन, तिब्बत और ट्रम्प का यू एस ए ------ सतीश कुमार

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 29 December 2018

तीन तलाक बिल से औरत को क्या मिला ? ------ नाइश हसन

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http://epaper.navbharattimes.com/details/6697-81181-2.html




नाइश हसन
(सामाजिक कार्यकर्ता )
मुस्लिम औरतें तीन तलाक के खिलाफ अपने हक की झंडाबरदारी पूरी हिम्मत से करती आईं हैं। उनकी कड़ी मेहनत से ही यह मुद्दा उच्चतम न्यायालय होता हुआ संसद तक बहस में आ पाया। ऐसा लगा कि लंबा इंतजार पूरा हुआ और अब मुसलमान औरतों को इंसाफ मिल जाएगा। सरकार ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकारों का संरक्षण विधेयक-2017 का मसौदा भी पेश किया, लेकिन अफसोस कि उसमें महिलाओं के सवाल की पूरी तरह से अनदेखी की गई। बिल के केन्द्र से पहली बार और इस बार भी महिला पूरी तरह से गायब है। इसलिए यह अनदेखी पूरी होशोहवास में की गई मालूम पड़ती है। देश में छिड़ी बहस के दौरान मुस्लिम महिलाओं ने अपने बहुत से सुझाव पेश किए थे जिन्हें बिल में शामिल करना जरूरी नहीं समझा गया, यह चिन्ता की बात है। 

जमीनी तजुरबे बताते हैं कि जब भी आदमी तीन तलाक देता है वह औरत को फौरन घर से बेदखल कर देता है। सुझाव यह था कि पति की गैरमौजूदगी में पति के परिवार का कोई भी रिश्तेदार महिला को घर से बेदखल न कर सके इसका प्रावधान भी दर्ज हो, साथ ही जो पति अपनी पत्नी और बच्चों को बिना तलाक दिए, बिना उनका खर्च उठाए छोड़ कर गायब रहते हैं उन्हें भी बिल की गिरफ्त में लाया जाए, उसे भी शामिल नहीं किया गया। पति के जेल जाने के दौरान पत्नी और बच्चों का खर्च कौन उठाएगा इसकी भी गुंजाइश बिल में पेश नहीं की गई। इन प्रावधानों को जोड़े बिना यह बिल औरत को किसी प्रकार का लाभ नहीं पहुंचा पाएगा। औरत पर तिहरा बोझ बढ़ेगा, पति अपनी जमानत के लिए वकील के चक्कर लगाएगा और औरत भरण पोषण के लिए दर-दर भटकेगी। तीन साल की सजा भी अधिक है। यह भी परिवार को बचाने नहीं बरबाद करने के लिए काफी है। इन सब से तो औरत फिर हाशिए पर ढकेली जा रही है उसे कुछ हासिल होता नजर नहीं दिख रहा है। सवाल यह है कि इस बिल से औरत को क्या मिला/ मौलवियों और राजनीतिक दलों से इतर महिलाओं के सवाल को सुना जाना बेहद जरूरी है। 

ऐसा मालूम पड़ता है कि यह बिल पुनः जल्दबाजी में लाकर वोटों की गोलबन्दी और फासिस्ट जातिवादी ताकतों को मजबूत करने का एक प्रयास है । बिल पास होने पर लोकसभा में जयश्रीराम के नारे लगाना इसके राजनीतिक लाभ लेने का संकेत दे रहे हैं, उन्हें औरत की व्यथा से क्या लेना देना। अब भी गुंजाइश बाकी है इस पर पुनर्विचार किया जा सकता है। 
(ये लेखक के निजी विचार हैं)


http://epaper.navbharattimes.com/details/6697-81181-2.html

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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Thursday, 27 December 2018

:बिखराब की ओर एनडीए और टूट की ओर भाजपा ------ डा॰ गिरीश



बिखराब की ओर एनडीए और टूट की ओर भाजपा  :
 अपने घनघोर कट्टरपंथी एजेंडे को जनता पर जबरिया थोपने, 2014 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं से किये वायदों से पूरी तरह मुकरने और काम की जगह थोथी बयानबाजी के चलते राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) और भाजपा के प्रति जनता में भारी आक्रोश पैदा हुआ है। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार और पिछले दिनों हुये लोकसभा और विधानसभा की सीटों के उपचुनावों में उसकी उल्लेखनीय पराजय ने आग में घी का काम किया है। यही वजह है कि आज एनडीए बिखर रहा है और भाजपा कण कण करके टूट रही है। हालात ये हैं कि 2019 के चुनाव आते आते एनडीए के ध्वंसावशेष ही दिखेंगे और भाजपा 2014 के पूर्व की स्थिति में पहुँच जायेगी।

तेलगू देशम पार्टी ने तो एनडीए को पहले ही तलाक देदिया था तो आतंकवाद से निपटने में असफलता के चलते बदनामी झेल रही भाजपा ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी से खुद ही हाथ छुड़ा लिया। अब एनडीए के आधा दर्जन से अधिक घटक दल खुल कर विद्रोह पथ पर हैं तो अन्य कई के अंदर अंदर आग सुलग रही है। उनका धैर्य कब जबाव दे जाएगा और विलगाव के स्वर कब फूट पड़ेंगे कहा नहीं जासकता।

यूपी के फूलपुर और गोरखपुर के लोकसभा उपचुनावों से शुरू हुयी और कैराना में परवान चढ़ी  विपक्षी एकता ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि साल का अन्त आते आते एनडीए के विखराव की आधारशिला तैयार होगयी। इन चुनावों में सपा, बसपा और रालोद ने वामपंथी दलों के सहयोग से तीनों प्रतिष्ठापूर्ण सीटें जीत लीं। इस जीत ने विपक्ष और जनता में आत्मविश्वास जगाया कि भाजपा को हराया जासकता है। तीन हिन्दी भाषी राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथ से निकल जाने पर तो यह आत्मविश्वास हिलोरें लेने लगा। सत्तापक्ष की हताशा के चलते एक के बाद एक सहयोगी दल के असंतोष से एनडीए दरकने लगा। भाजपा एक मजबूत पार्टी से मजबूर पार्टी की स्थिति में आगयी। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा और असुरक्षा की भावना के चलते भाजपा से भी लोग किनारा करने लगे।

बिहार की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी साढ़े चार साल तक सत्ता में साथ निभाने के बाद एनडीए को छोड़ कर संप्रग का हिस्सा बन गयी। उसने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने पिछड़ों और गरीबों के लिये कोई काम नहीं किया।

कार्पोरेट्स नियंत्रित आज की राजनीति में विचार और सिध्दांत की जगह चुनावों में जीत हार और सत्ता प्राप्ति की संभावना पार्टियों के बीच हाथ मिलाने का आधार बनते हैं। जब तक ये संभावनायें भाजपा के पास थीं, पार्टियों का प्रवाह भाजपा की ओर था। 2014 में मोदी लहर में जिनको जीत और सत्ता दिख रही थी वे साथ आये, उनको लाभ मिला। पर आज हालात बदल गये हैं और इस प्रवाह की दिशा भी बदल चुकी है।

केन्द्र सरकार के शासन के साड़े चार सालों के दलितों के साथ भारी अन्याय हुआ है। इससे वे उद्वेलित और आंदोलित हैं। इससे विचलित बिहार के दुसाधों के आधार वाली पार्टी लोजपा भी असुरक्षित समझने लगी। उसके नेताओं ने ताबड़तोड़ बयानबाजी कर भाजपा को बैक फुट पर लादिया। गत लोकसभा चुनावों में बिहार में 30 सीटें लड़ कर 22 सीटें जीतने वाली भाजपा को मात्र 17 सीटों पर संतोष करना पड़ा। उसे जीती हुयी पांच सीटों की कुर्बानी लोजपा और जदयू के लिये करनी पड़ी। एक राज्यसभा सीट भी लोजपा को देनी पड़ी।

राजनीति के पर्यवेक्षक अभी भी इसे स्थायी समाधान नहीं, “पैच अप” मान रहे हैं। यदि भाजपा ने साख बचाने की गरज से मंदिर निर्माण के लिये अध्यादेश लाने की कोशिश की तो दोनों की राहें जुदा होसकतीं हैं। क्योंकि दोनों के जनाधार के समक्ष मंदिर नहीं, किसान- कामगारों की दयनीय स्थिति का मुद्दा प्रमुख है। नीतीश कुमार कह भी चुके हैं कि राम मंदिर का मुद्दा सहमति या अदालत से हल होगा।

महाराष्ट्र में भाजपा की पुश्तैनी सहयोगी रही शिवसेना भी आँखें तरेर रही है। वह लगातार भाजपा को कठघरे में खड़ा कर रही है। इसके सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने तो यहाँ तक कह डाला कि 'दिन बदल रहे हैं, चौकीदार ही अब चोरी कर रहे हैं।' राफेल विमान सौदे में घोटाले को भी वे उजागर कर रहे हैं।

सुभासपा के नेता और योगी सरकार में काबीना मंत्री श्री ओमप्रकाश राजभर राज्य सरकार के गठन के दिन से ही उस पर खुले हमले बोल रहे हैं। सुभासपा ने अब भाजपा के केंद्रीय नेत्रत्व पर भी हल्ला  बोल दिया है। वह आरक्षण को तीन भागों में बांटने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन कर रही है। भाजपा की हिम्मत नहीं कि उसे बाहर का रास्ता दिखा सके।

जातीय पहचान और सामाजिक न्याय के प्रश्न पर क्षेत्रीय पार्टियों का अभ्युदय हुआ था। भाजपा और संघ का हिन्दुत्वनामी कट्टरपंथ क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाओं को रौंद रहा है। अतएव एनडीए के घटक अपना दल को भी अपना अस्तित्व खतरे में नजर आरहा है। इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने प्रदेश सरकार पर सम्मान न देने का आरोप लगाया। उन्होने कहाकि ‘मौजूदा हालात में सोचना पड़ेगा कि जहां सम्मान न हो, स्वाभिमान न हो, वहां क्यों रहें? उन्होने केन्द्र में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल की अनदेखी का आरोप भी लगाया और सभी विकल्प खुले रखने का संकेत दिया। उल्लेखनीय है कि अपना दल ने पांच साल में यह पहला बड़ा हमला बोला है।

पंजाब में अकाली दल ने आँखें दिखाना शुरू कर दीं हैं तो तमिलनाड्डु में भाजपा खोखली होचुकी एआईएडीएमके की बैसाखियों पर निर्भर है। पूर्वोत्तर में विपरीतधर्मी पार्टियों के साथ हनीमून के दौर से गुजर रही भाजपा से उनका कब तलाक होजायेगा कोई नहीं जानता।

एनडीए ही नहीं 2019 में पुनर्वास की चिन्ता में डूबी भाजपा भी आंतरिक विघटन की पीड़ा से गुजर रही है। एक एक कर सहयोगी दल भाजपा से छिटक रहे हैं। इससे भाजपा में छटपटाहट है। कर्नाटक में जीत के जादुयी आंकड़े से दूर रही भाजपा के पांच राज्यों में चुनावी हार से कार्यकर्ताओं का मनोबल और भी टूटा है। वे अब मोदी के करिश्मे और संघ की दानवी ताकत पर भरोसा नहीं कर पारहे हैं। हार की ज़िम्मेदारी तय न करने पर भी सवाल उठ रहे हैं। श्री नितिन गडकरी ने इशारों इशारों में नरेन्द्र मोदी और अमितशाह पर सवाल उठाया कि ‘सफलता के कई पिता होते हैं पर असफलता अनाथ होती है। कामयाब होने पर उसका श्रेय लेने को कई लोग दौड़े चले आते हैं, पर नाकाम होने पर लोग एक दूसरे पर अंगुलियां उठाते हैं।‘

जहाज डूबने को होता है तो चूहे भी उसे छोड़ कर भागने लगते हैं। पाला बदलने का दौर शुरू होगया है। हर दिन किसी न किसी भाजपाई के पार्टी छोड़ने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। 40 से 50 फीसदी सांसदों की टिकिटें काटने की भाजपा की योजना है। टिकिट गँवाने वाले ये सांसद क्या गुल खिलायेंगे, सहज अनुमान लगाया जासकता है।

कार्पोरेट्स को लाभ पहुंचाने और किसान कामगारों की उपेक्षा के चलते समस्याओं का अंबार लग गया है और पीड़ित तबके उनसे जूझ रहे हैं। हाल ही में देश के कई कोनों और राजधानी में किसानों ने बड़ी संख्या में एकत्रित हो हुंकार भरी है। देश के व्यापकतम मजदूर तबके 8 व 9 जनवरी को हड़ताल पर जाने वाले हैं। शिक्षक, बैंक कर्मी, व्यापारी, दलित, पिछड़े और महिलाएं सभी आंदोलनरत हैं। जमीनी स्तर पर वंचित और उपेक्षित तबकों की हलचल जिस तेजी से बड़ रही है उसी तेजी से संघ और भाजपा की बेचैनी बड़ रही है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि साढ़े चार साल में पहली बार भाजपा नेताओं की सभाओं में लोग प्रतिरोध जता रहे हैं। एक ओर लोग ‘मन्दिर नहीं तो वोट नहीं’ जैसे नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर महंगाई भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से आजिज़ युवक सभाओं में पत्थरबाजी कर रहे हैं।

दशहरे पर अपने भाषण में मन्दिर राग छेड़ने वाले संघ प्रमुख पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से उसकी निस्सारिता को समझ चुके हैं। परन्तु अन्य कोई विकल्प सामने न देख संघ “मन्दिर शरणम गच्छामि” के उद्घोष को मजबूर है। गंगा, गाय, नामों के बदलने और मूर्तियों के निर्माण से भी हानि की भरपाई हो नहीं पारही है। ऐसे में न्यायालय से मन्दिर- मस्जिद प्रकरण पर जल्द फैसला आता न देख विश्वसनीयता की रक्षा के लिए केन्द्र सरकार मन्दिर निर्माण के लिये अध्यादेश ला सकती है।

इस अध्यादेश का हश्र क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा पर एनडीए को खंड खंड करने और भाजपा के विघटन के लिये यह काफी होगा । भाजपा के गैर संघी लोगों को अब यह राह स्वीकार्य नहीं।   

डा॰ गिरीश

27- 12- 2018  
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जनसंघ के माध्यम से आर एस एस भारत में भी यू एस ए व यू के की भांति दो पार्टी पद्धति की वकालत करता रहा है। 1980 के लोकसभा चुनावों में आर एस एस ने नवगठित भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था। इन्दिरा जी की उस सरकार को पूर्ण हिन्दू बहुमत से बनी सरकार की संज्ञा दी गई थी। 1985 में राजीव गांधी को भी आर एस एस का समर्थन मिला था और इसी लिए 1989 में उनके द्वारा अयोध्या के विववादित ढांचे का ताला खुलवाया गया था। 1998 से 2004 तक के भाजपा शासन में प्रशासन,सेना,पुलिस,खुफिया एजेंसियों में आर एस एस के लोगों की भरपूर घुसपैठ करा दी गई थी। 1977 की मोरारजी सरकार के समय भी विदेश और संचार मंत्रालयों में आर एस एस के लोग दाखिल कराये जा चुके थे। 
2014 से अब तक शिक्षा संस्थाओं, संवैधानिक संस्थाओं समेत लगभग पूरी सरकारी मशीनरी में आर एस एस के लोग बैठाये जा चुके हैं। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि, पी एम भाजपा का है या कांग्रेस का या किसी अन्य दल का। मोदी - शाह की जोड़ी न सिर्फ भाजपा संगठन पर मनमाने तरीके से काबिज थी बल्कि आर एस एस को भी काबू करने की कोशिशों में लगी थी इसी वजह से आर एस एस को उनका विरोध कराना पड़ रहा है क्योंकि भाजपा को बहुमत मिलने की दशा में इस जोड़ी को हटाना संभव नहीं होगा बल्कि यह आर एस एस को भी कब्जा लेगी। 2013 में कोलकाता में घोषित योजना से ( जिसके अनुसार दस वर्ष मोदी को पी एम रहना था और फिर योगी को बनाया जाना था ) हट कर आर एस एस अब राहुल कांग्रेस को गोपनीय समर्थन दे रहा है जिससे भाजपा विरोधी सरकार 2019 में सत्तारूढ़ होने से मोदी - शाह जोड़ी से संघ को छुटकारा मिल जाये। संघ अब सत्ता और विपक्ष दोनों को अपने अनुसार चलाना चाहता है। 

संघ विरोधियों विशेषकर साम्यवादियों व वामपंथियों को संघ की इस चाल को समझते हुये तीसरा मोर्चा के माध्यम से स्वम्य  को मजबूत करना चाहिए।
------ विजय राजबली माथुर  
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Monday, 24 December 2018

बेढब बनारसी का 74 वर्ष पुराना व्यंग्य आज भी चस्पा होता है

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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 20 December 2018

कष्ट में डेयरी किसान ------ भारत डोगरा

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 19 December 2018

यू पी में कांग्रेसविहीन गठबंधन की संभावना ------ नदीम

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नई दिल्ली: पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा किए गए शानदार प्रदर्शन से हर तरफ यह कयास लगाए जा रहें थे कि उत्तर प्रदेश में बनने वाले महागठबंधन में उसकी दावेदारी मजबूत हो गई है. लेकिन ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है.


बता दें कि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए बनने वाले गठबंधन से कांग्रेस को बाहर करने का विचार बना लिया है. ये ही नहीं दोनों ही पार्टी में सीटों के बंटवारे का फ़ॉर्मूला लगभग तय माना जा रहा है. बताया जा रहा है कि इसका औपचारिक ऐलान बसपा सुप्रीमो मायावती के बर्थडे यानी 15 जनवरी के दिन किया जा सकता है.

सीट बंटवारे के इस फ़ॉर्मूले पर दोनों ही पार्टियों के नेताओं में आपसी सहमती :
आपको बता दें कि सीटों के बंटवारे के जिस फ़ॉर्मूले पर हामी बन पाई है उसके अनुसार इस गठबंधन में अजीत सिंह की रालोद को भी शामिल किया जा सकता है. लोकसभा चुनाव में भाजपा सरकार को सत्ता से हटाने के लिए बसपा 38, सपा 37 और रालोद तीन सीटों से चुनावी रण में उतर सकती है. ये ही नहीं सपा अपने कोटे की कुछ सीटें भी अन्य छोटी पार्टी जैसे निषाद पार्टी और पीस पार्टी को दे सकती है. कहा जा रहा है कि सीट बंटवारे के इस फ़ॉर्मूले पर दोनों ही पार्टियों के नेताओं में आपसी सहमती बन गई है.

राहुल के उम्मीदावर पद को लेकर सपा अध्यक्ष अखिलेश की न :

कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को गठबंधन का पीएम चेहरा मानने से अखिलेश यादव ने साफ इंकार कर दिया है. अखिलेश का कहना है कि महागठबंधन को लेकर सिर्फ बात चल रहीं है. शरद पवार, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू जैसे अन्य लोग भी इसकी कोशिश कर चुके है. ये जरूरी नहीं की सभी दलों के लोग एक ही नाम पर सहमत हों. फिलाहल महागठबंधन ने अभी कोई मूर्त रूप नहीं लिया है तो राहुल को पीएम कैंडिडेट बताने का प्रस्ताव  नहीं है.

बसपा सुप्रीमो मायावती का जन्मदिवस होगा खास 
बता दें कि मायावती का जन्मदिन लोकसभा चुनाव के लिहाज से काफी मुख्य साबित हो सकता है. मायावती का जन्मदिन 15 जनवरी को उस दिन गठबंधन का ऐलान किया जा सकता है. बसपा मायावती के जन्मदिवस को कल्याणकारी दिवस के रूप में मना सकती है.



https://news4social.com/no-coalition-for-congress-in-sp-and-bsp-for-seat-sharing-formula/

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 7 December 2018

हिंसा भड़काने का षड्यंत्र विफल रहा ------ अवधेश कुमार

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 6 December 2018

इंस्पेक्टर सुबोध की शहादत और बुलंद शहर

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लखनऊ में सीएम योगी आदित्यनाथ ने बुलंदशहर भीड़ हिंसा में शहीद इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के परिवार से मुलाकात की। सीएम योगी से शहीद इंस्पेक्टर की पत्नी रजनी, उनके बेटे श्रेय और अभिषेक ने सीएम योगी के सामने अपना दर्द बयां किया। मुलाकात के दौरान सीएम योगी ने परिवार को सख्त कार्रवाई का आश्वासन देते हुए कहा, “कोई इस गलतफहमी में होगा कि वह बच जाएगा, तो सवाल ही नहीं उठता। हमारी तीन-तीन टीमें वहां काम कर रही हैं।” इस दौरान सीएम के अलावा मंत्री अतुल गर्ग और डीजीपी ओमप्रकाश सिंह भी वहां मौजूद रहे।यूपी के डीजीपी ओपी सिंह ने कहा, “दोनों बच्चे पढ़ाई में काफी होशियार हैं इसलिए पढ़ाई का सारा खर्चा सरकार उठाएगी, हम चाहेंगे की अपने पिता की तरह दोनों बच्चे यूपी पुलिस का नाम रोशन करें। बैंक से परिवार ने जो लोन लिया है, वह सरकार चुकाएगी। परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी।”इस मुलाकात से पहले सुबोध कुमार सिंह की पत्नी ने कहा था, “मेरे पति को अक्सर धमकियां मिलती रहती थीं। वह अखलाक केस की जांच कर रहे थे इसलिए उन पर हमला हुआ था। यह एक सोची समझी-साजिश थी।” वहीं सुबोध कुमार सिंह की बहन ने भी पुलिस पर सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा था कि उनके भाई को पुलिस ने मिलकर मरवाया। उन्होंने कहा था, “यह पुलिस की साजिश है। मेरे भाई अखलाक केस की जांच कर रहे थे इसलिए उन्हें मारा गया है। मुझे अफसोस है कि सीएम या किसी भी जनप्रतिनिधि ने हमारे परिवार से संपर्क करने की कोशिश नहीं की है।”इससे पहले बुधवार को प्रभारी मंत्री अतुल गर्ग इंस्पेक्टर सुबोध के पैतृक गांव पहुंचे थे, उन्होंने सीएम के संदेश के साथ 40 लाख रुपए का चेक सुबोध की पत्नी को दिया था। सीएम योगी ने तीन दिसंबर को शहीद इंस्पेक्टर सुबोध की पत्नी को 40 लाख रुपए और माता-पिता को 10 लाख रुपए आर्थिक सहायता देने का एलान किया था।
बता दें कि सोमवार को बुलंदशहर के चिंगरावटी पुलिस चौकी पर भीड़ की हिंसा के बाद इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने बुलंदशहर के स्याना में सोमवार को हुई हिंसा और हत्या के मामलों में अब तक कुल 27 नामजद और 60 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है। इस मामले में पुलिस ने बजरंग दल के जिला संयोजक योगेश राज को एफआईआर में मुख्य आरोपी बनाया है। हालांकि पुलिस तीन दिन बीत जाने के बाद भी उसे गिरफ्तार नहीं कर पाई है।
https://www.navjivanindia.com/news/family-of-inspector-subodh-singh-met-chief-minister-yogi-adityanath-in-lucknow?utm_source=one-signal&utm_medium=push-notification
   संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 5 December 2018

शिक्षा और विकलांग बच्चे ------ मोहिनी माथुर


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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

काला धन सफ़ेद करने का खेल नोटबंदी और चुनावी बांड ------ अजेय कुमार

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 2 December 2018

निजता ,स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अतार्किक और अविवेकवादी इस्तेमाल ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी


Jagadishwar Chaturvedi
02-12-2018 
शादी, समाज और नव्य हिन्दुत्व-
भारत का संविधान व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। निजता ,स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अतार्किक और अविवेकवादी इस्तेमाल करने के मामले में हमारे नव्य हिन्दू शिक्षित और अमीर लोग सबसे आगे हैं। ये वे लोग हैं जो समाज में संस्कृति,धर्म और मासकल्चर की दिशा तय करते हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि इन नव्य हिन्दुओं के खिलाफ कहीं पर कोई सांस्कृतिक हस्तक्षेप नजर नहीं आता। अधिकांश बुद्धिजीवियों से लेकर सभी राजनीतिक दलों तक इनको समर्थन और सहयोग प्राप्त है।हम सब लोग जो समाज को बदलने में दिलचस्पी रखते हैं उनका भी बड़ा हिस्सा नव्य –हिन्दुत्व के नव्य सांस्कृतिक दवाबों में जीने, उसे मानने और उनके बताए मार्ग पर चलने लिए अभिशप्त है। हम कभी खुलकर इस तरह के सांस्कृतिक प्रदर्शन और अपव्यय पर बहस नहीं चलाते। इस सबका परिणाम यह निकला है कि सादगी और समानता में एक बैर भाव पैदा हो गया है।
सादगी से शादी करने, बिना तड़क-भड़क और लाखों-करोडों रूपये खर्च करके शादी करने से हम सब लोग परहेज करने की बजाय उसका ही अनुसरण करने लगे हैं। यह सब करके हम सबने अपने घर और मन के अंदर एक नव्य हिन्दू सांस्कृतिक नायक और नव्य हिन्दू संस्कृति को प्रतिष्ठित कर लिया है। हमें भव्य और खर्चीली शादी से प्यार हो गया है, हम उसकी आलोचना करने की बजाय उसका समर्थन करने लगे हैं।
भव्य और महंगी शादी मुकेश अम्बानी के घर हो या किसी मध्यवर्गीय व्यक्ति के घर हो या फिर किसी मार्क्सवादी के घर हो, यह अपने आपमें नव्य हिन्दू संस्कृति के सामने खुला समर्पण है। यह सादगी और समानता के लक्ष्य का विलोम है,यह इस बात का प्रतीक है कि समाज सुधारों की हमने जरूरत से इंकार कर दिया है। हमने संस्कृति को सजाने-संवारने की बजाय,मासकल्चर और नव्य हिदुत्व के दर्शन के सामने आत्म समर्पण कर दिया है। 
जिस तरह फैशन उद्योग अधिनायकवादी ढ़ंग से समाज के साथ पेश आता है और सबको मजबूर करता है और फैशन के दायरे में खींच लेता है, ठीक उसी तरह शादी कैसे करोगे, कितना खर्चा करोगे, आदि सवालों पर विचार करते ही जाने-अनजाने निम्न-मध्यवर्ग, मध्यवर्ग,बुर्जुआजी,सैलीब्रिटी आदि में एक सांस्कृतिक साझा परंपरा नजर आती है।सबमें अधिक से अधिक खर्च करने की होड़ नजर आती है। हम भूल ही जाते हैं कि भारत एक गरीब देश है, इसमें दौलत का किसी भी रूप में प्रदर्शन अंततः सांस्कृतिक और सामाजिक वैषम्य को और भी गहरा बनाता है।सांस्कृतिक खाई को और भी चौड़ा करता है।
सवाल यह है शादी को हम सादगी और कम खर्च में संपन्न क्यों नहीं कर पाते ॽ हम आजतक शादी के खर्चे के सवाल पर शिक्षितों में आम सहमति क्यों नहीं बना पाए हैं ॽ वह कौन सी चीज है जिसने हमें शादी को कम खर्चे और सादगी से करने से रोका हुआ है ॽ शादी में पैसे का अपव्यय, अधिक से अधिक लोगों को खाना खिलाने, महंगे से महंगे उपहार देने,दहेज देने आदि की परंपरा आज भी कायम है। इन परंपराओं को चुनौती देने की न तो वाम को फुर्सत है न दक्षिण को फुर्सत है, न उदारपंथियों को फुर्सत है। सब मस्त हैं शादियां हो रही हैं,नव्य हिन्दुत्व के सांस्कृतिक पैराडाइम का निर्माण करने में ! 
जो लोग राजनीति में एक-दूसरे के घनघोर विरोधी हैं, वे सांस्कृतिक तौर पर एक ही जमीन पर एक साथ जयकारे लगा रहे हैं,इसने भारत में सांस्कृतिक वैषम्य बढ़ाने में मदद की है। इसने औरत को और भी असहाय बनाया है। दिलचस्प है शादी के महंगे खर्चे के सवाल पर समाज का कोई भी वर्ग और संगठन बहस नहीं करना चाहता,विगत 70 सालों में इसके खिलाफ कभी कोई दिल्ली मार्च नहीं निकाला गया, जबकि प्रतिवर्ष हजारों लड़कियां दहेज हत्या की शिकार हुई हैं।यह आयरनी है किसान-हत्या जिनको नजर आती है और उसके लिए मार्च निकालना सही लगता है , वे संगठन कभी शादी कैसे करोगे, के सवाल पर एक भी मार्च 70 सालों में नहीं निकाल पाए, जबकि किसानों से कई गुना ज्यादा औरतें दहेज हत्या की हर साल शिकार होती हैं। 
लड़की जब दहेज हत्या की शिकार होती है तब कभी-कभार महिला संगठनों की आवाज सुनाई देती है ,यह आवाज हत्या के बाद ही सुनाई देती है। लेकिन दहेज हत्या का सिलसिला तो महंगी शादी और दहेज की मांग के साथ शुरू होता है, उस सबके खिलाफ किसी संगठन के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। कहने का आशय यह कि जिस समाज में हर साल हजारों लड़कियां दहेज के नाम पर मारी जाती हों उस समाज में जब शादी कैसे करें ॽ का सवाल महत्वपूर्ण सवाल नहीं बन पाया है तो क्रांति तो कॉमरेड अभी बहुत दूर है !
महंगी शादी,खर्चीली शादी की बीमारी पूरे समाज में फैली हुई है, उसके खिलाफ व्यवहार में आचरण करने वाले गिनती के लोग हैं, जबकि कहने को यह देश गांधी का देश है, सादगी पसंद देश है,गरीबों का देश है, गरीबी,स्त्री हत्या, दहेज हत्या का प्रतिवाद करने वालों का देश है। लेकिन हममें से अधिकांश लोग कम खर्चे में शादी करने के पक्ष में नहीं हैं, किसी न किसी बहाने अपने शादी के खर्चों को जायज ठहराते रहते हैं। 
कायदे से शादी परंपरागत हो या कानूनी सिविल मैरिज हो, उसमें पांच से ज्यादा लोग नहीं बुलाए जाएं, दावत के नाम पर पांच लोग ही खाएं और जाएं। कोई लेन देन न हो। जब तक समाज इस बात पर एकमत नहीं होता तय मानो समाज में क्रांति नहीं कर सकते। 
शादी कैसे करें, यह सवाल जितना सामाजिक है,उससे अधिक व्यक्तिगत और पारिवारिक भी है। हमने समाज को इस सवाल पर कभी शिक्षित ही नहीं किया। हां, बीच -बीच में विभिन्न समुदायों और जाति समूहों में यह बहस जरूर चली है कि कम से कम कितने बराती आएं, कितनी संख्या में मिठाई बने, आदि। यहां तक कि एकबार इस पर कानून भी बना था। लेकिन शादी कैसे करें , इस सवाल पर किसी भी किस्म की जन-जागृति के काम को प्रधान एजेण्डा नहीं बनाया गया। जिन बातों पर समाज में बहस नहीं हुई,जिन संस्कारों को दुरूस्त करने के बारे में विचार-विनिमय नहीं हुआ, नव्य हिन्दुत्व के सांस्कृतिक हमले वहीं से आ रहे हैं। भव्य शादी और उसके समारोह उसके प्रतीक मात्र हैं,इन सांस्कृतिक रूपों की एक राजनीति भी है जिसका मूलाधार अविवेकवाद है। जो लोग खर्चीली शादी करते हैं वे जाने-अनजाने अविवेकवाद की आग में घी डालने का काम करते हैं। 
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कर्तव्यनिष्ठों की कब तक हत्याएं होती रहेंगी ? ------ एकता जोशी


एकता जोशी 

अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन करने वाले लोगों की कब तक हत्याएं होती रहेंगी ?

हमारे देश के नागरिकों को भारत के संविधान में सभी प्रकार के अधिकार मिले हुए हैं और इन अधिकारों के साथ साथ उनके कर्तव्य भी निर्धारित किये गए हैं लेकिन विडंबना यह है कि बहुत से लोग हैं जो कि अपने अधिकारों की बात तो करते हैं लेकिन अपने कर्तव्यों को याद तक नहीं करते हैं और दुख इस बात का है कि जो लोग अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाते हैं उन्हें पुरस्कार देना तो दूर की बात है बल्कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है।

देश के तकरीबन सभी जागरूक नागरिकों को अच्छी तरह मालूम है कि नरेन्द्र दाभोलकर एक ऐसी शख्सियत थी जो कि अंधविश्वास एवं पाखण्डों के बारे में अपने बौद्धिक एवं तार्किक तरीके से लोगों को समझाते थे एवं इसके लिए बहुत से अन्य लोगों को भी तैयार कर चुके थे बल्कि एक संगठन भी इस काम को अंजाम देने के लिए खड़ा कर चुके थे।
सच कहें तो नरेंद्र दाभोलकर देश के नागरिकों को ज्ञान विज्ञान के द्वारा अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने का काम कर एक जागरूक व्यक्ति होने के कर्तव्य को भलीभाँति निभा रहे थे लेकिन बड़े दुख की बात है कि 20 अगस्त 2013 को पुणे में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई ।

नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद में उनके साथी गोविंद पानसरे ने उनके काम को रूकने नहीं दिया बल्कि निरंतर जारी रखा, लेकिन बड़े दुख की बात है कि 16 फरवरी 2015 को उनकी भी गोली मारकर हत्या कर दी गई।

नरेंद्र दाभोलकर के राह पर चलने वाले तर्कवादी लेखक एम एम कलबुर्गी ने भी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था बल्कि 77 वर्ष का यह बुजुर्ग अपनी कलम से समाज में जागरूकता पैदा करने में जुटा हुआ था लेकिन अफसोस है कि 30 अगस्त 2015 को इनकी भी गोली मारकर हत्या कर दी गई।

हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रोहित वेमुला का नाम कौन नहीं जानता है उसका दोष यही था कि वह बहुजन महापुरुषों की विचारधारा की चर्चा अपने साथियों से करता था और इसके लिए हॉस्टल में छोटी छोटी सभा भी करने लगा था जिससे बहुत से शोधकर्ताओं को तथागत बुद्ध, कबीर ,रैदास, ज्योतिराव फुले, बाबा साहेब अंबेडकर एवं कांशीराम जी की बातें भली भांति समझ में आने लगी थी लेकिन दुख इस बात का है कि मनुवादी सरकार के केंद्रीय मंत्री एवं सांसद के दवाब से उन्हें भी 17 जनवरी 2016 को मौत के मुंह में धकेल दिया गया।

विशेष CBI अदालत के जज बी एच लोया के नाम से भी आप सब वाकिब होंगे वे भी तो अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन ही कर रहे थे लेकिन 1 दिसंबर 2014 को उन्हें भी तड़ीपार गुंडे बदमाशों ने सदा के लिए अपने रास्ते से हटा दिया।

पत्रकार गोरी लंकेश भी मीडिया में पत्रकार होने का अपना कर्तव्य ही तो निभा रही थी लेकिन सनातन संस्था नहीं चाहती थी कि वह अंधविश्वास के खिलाफ कलम चलाये इसलिए 5 सितंबर 2017 को उसकी भी गोली मारकर हत्या करवा दी गई।

सबसे बड़ी दुखदाई बात यह है कि अभी तक इनमें से किसी के भी हत्यारे को या तो पकड़ा ही नहीं गया और यदि कोई पकड़ा भी है तो उसे अभी तक आरोपी तक नहीं बनाया गया है।

जज बी एच लोया की मौत का मामला तो कुछ अजीब तरीके का बनता जा रहा है सुनवाई के लिए जिस भी जज को लगाया जाता है वह तड़ीपार गुंडों के डर से अपने आपको इस केस से अलग कर लेता है।

इन घटनाओं से साबित होता है कि अंधविश्वास एवं पाखण्डवाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले बहुजन समाज के महापुरुषों की हत्या की जो बातें हम लोग अभी तक सुनते रहे हैं वे बिलकुल 16 आना सही हैं।

अब विचार करने वाली बात यह है कि अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन करने वाले लोगों को कब तक मौत के घाट उतारा जाता रहेगा और कब तक शोषित बहुजन मूलनिवासी समाज को अंधविश्वास एवं पाखण्डों में उलझाकर रखा जायेगा और हम सब कब तक ये सब चुपचाप देखते रहेंगे ?
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