Friday 14 November 2014

इस मुद्दे से जुड़ी गहरी, दीर्घकालिक चुनौतियों एवं कार्यभारों की अनदेखी की जा रही है------- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

  • http://vijaimathur.blogspot.in/2014/11/blog-post_13.html 
    मूल लेख पर आई प्रतिक्रियाओं पर टिप्पणियाँ :
    1 3-11-2014 
  • Kavita Krishnapallavi  चूँकि सामाजिक-सांस्‍कृतिक स्‍तर पर प्रतिक्रियावादी विचारों-संस्‍थाओं और रू‍ढ़ि‍यों का मूलाधार पूँजीवादी आर्थिक ढाँचा है, अत: उस पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे के बदलने तक सामाजिक-सांस्‍कृतिक रूढ़ि‍यों एवं प्रतिगामी विचारों-संस्‍थाओं के विरुद्ध कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए और सारी कोशिशें पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद की स्‍थापना के लिए होनी चाहिए -- यह एक यांत्रिक भौतिकवादी (अधिभूतवादी), आर्थिक नियतत्‍ववादी(इकोनॉमिक डिटर्मिनिस्टिक) या आर्थिक अपचयनवादी (इकोनॉमिक रिडक्‍शनिस्‍ट) दृष्टिकोण है जो मूलाधार और अधिरचना के द्वंद्वात्‍मक सम्‍बन्‍धों को न समझ पाने का नतीजा है। पूँजीवादी आर्थिक मूलाधार को बदलने के लिए भी पहले राजनीतिक अधिरचना के स्‍तर पर ही कार्रवाई करनी होती है यानी पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता का ध्‍वंस करना होता है और इस राजनीतिक कार्रवाई के लिए जनता की चेतना तैयार करने के लिए सामाजिक-सांस्‍कृतिक अधिरचना के धरातल पर लम्‍बी कार्रवाइयों का सिलसिला चलाना होताहै। सर्वहारा वर्ग जब आर्थिक संघर्ष करता है तो वह समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं करता बल्कि पूँजीवादी दायरे के भीतर ही श्रमशक्ति के बेहतर मूल्‍य के लिए संगठित सामूहिक दबाव बनाता है। इस प्रक्रिया में वह संगठित होना सीखता है और धीरे-धीरे पूँजीवादी व्‍यवस्‍था की सीमाओं को पहचानने लगता है। लेकिन महज आर्थिक संघर्ष से वह समाजवाद के लक्ष्‍य के लिए लड़ने को तैयार नहीं होता, समाजवाद के लिए संघर्ष के विचार को मज़दूर आंदोलन में सचेतन प्रयासों से डालना पड़ता है। इसके लिए सांस्‍कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक धरातल पर शिक्षा और प्रचार की कार्रवाइयों के साथ ही मज़दूर वर्ग को राजनीतिक माँगों के लिए संघर्ष में उतारना होता है। बुर्जुआ जनवादी दायरे के भीतर ही अपने जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष जन समुदाय द्वारा समाजवाद के लिए संघर्ष की तैयारी की अनिवार्य पहली मंजिल है। जैसाकि लेनिन ने कहा था, ''... जनवाद की समस्‍या का मार्क्‍सवादी हल यह है कि अपना वर्ग संघर्ष चलाने वाला सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग का तख्‍ता उलट देने की तैयारी करने और अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ सभी जनवादी संस्‍थाओं और आकांक्षाओं का इस्‍तेमाल करे'' (प. कीयेव्‍स्‍की को जवाब, 'मज़दूर आंदोलन में जड़सूत्रवाद और संकीर्णतावाद का विरोध', पृ.82) पूँजीवाद की प्रकृति अन्‍तर्विरोधी होती है। वह स्‍वयं ही जनवादी मूल्‍यों, आकांक्षाओं, संस्‍थाओं को जन्‍म देता है (स्‍वयं ही जनवादी चेतना की जमीन तैयार करता है) और फिर न केवल उन्‍हें एक भ्रम में तबदील कर देता है, बल्कि उन्‍हें दबाने कुचलने का भी काम करता है। मज़दूर वर्ग और आम जन समुदाय इन जनवादी आकांक्षाओं-अधिकारों के लिए ही लड़ने से शुरुआत करते हैं और समाजवाद के लिए लड़ने की चेतना हासिल करने की मंजिल तक की यात्रा करते हैं।......................................

  • Kavita Krishnapallavi दो व्‍यक्तियों के बीच प्रेम या रिश्‍तों के मामले में निर्णय की स्‍वतंत्रता समाजवाद का नहीं, बुर्जुआ जनवादी अधिकार का सवाल है। यदि इस अधिकार पर निरंकुश सामाजिक संस्‍थाएँ, नैतिक पुलिसगिरी करने वाले फासिस्‍ट गिरोह और राज्‍यतंत्र किसी किस्‍म की पाबंदी लगाते हैं, तो हर कीमत पर इस पाबंदी का विरोध करना जनवादी अधिकार की एक ऐसी लड़ाई है, जिससे कोई कम्‍युनिस्‍ट कत्‍तई मुँह नहीं मोड़ सकता। यदि हम समाज में जनवाद की संस्‍कृति, आचार और विचारों की स्‍वीकार्यता के लिए नहीं लड़ेंगे तो समाजवाद की संस्‍कृति और विचारों के लिए लड़ने के लिए जनता को भला क्‍या तैयार कर पायेंगे? मेरी आपत्ति सिर्फ इस बात पर है कि सांस्‍कृतिक-वैचारिक महत्‍व के इस अहम मुद्दे को व्‍यापक सामाजिक-सांस्‍कृतिक आंदोलन का एजेण्‍डा बनाने के बजाय मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी प्रतीकात्‍मक विरोध का अनुष्‍ठान बना दिया जा रहा है तथा इस मुद्दे से जुड़ी गहरी, दीर्घकालिक चुनौतियों एवं कार्यभारों की अनदेखी की जा रही है।
    दो व्‍यक्तियों के बीच प्रेम के मामले में निर्णय की आजादी पर यदि सामाजिक संस्‍थाएँ, राजनीतिक गिरोह या राज्‍यसत्‍ता किसी तरह की पाबंदी लगाते हैं तो यह निजी दायरे का मुद्दा न रहकर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्‍न बन जाता है। निजी आजादी पर कोई भी प्रतिबंध यदि सार्विक प्रश्‍न बन जाता है तो वह सामाजिक-राजनीतिक प्रश्‍न बन जाता है। यही नहीं, मान लीजिए कि किसी एक परिवार में एक व्‍यक्ति पत्‍नी को पीटता है या बाप बेटी को मनमर्जी से जीवन-साथी चुनने से रोकता है तो समाज को इस मामले में हस्‍तक्षेप का अधिकार है। निजी और सार्वजनिक के मामले में उसतरह भेद नहीं किया जा सकता, जैसे आप कर रहे हैं। जहाँ दो नागरिक 'इन्‍वॉल्‍व' हैं, वह मसला भी तभी तक निजी है जबतक परस्‍पर विवाद या बलप्रयोग न हो। और जहाँ दो व्‍यक्तियों के 'इन्‍वॉल्‍वमेण्‍ट' में किसी भी तीसरी शक्ति की बलात् दखलंदाजी है, वह तो निजी मामला हो ही नहीं सकता। वैसे भी मार्क्‍सवाद व्‍यक्ति की निजी आजादी और वैयक्तिकता पर अपने जन्‍मकाल से ही ('1844 की दार्शनिक और आर्थिक पाण्‍डुलिपियाँ' और 'ग्रुंड्रिस्‍से') पूरा बल देता रहा है और इसकी लड़ाई की प्रक्रिया को ऐतिहासिक तौर पर जनसमुदाय की मुक्ति की लड़ाई की प्रक्रिया से द्वंद्वात्‍मकत: जुड़ा हुआ मानता रहा है।
    पूँजीवाद केवल पिछड़ी प्रतिगामी संस्‍कृति, संस्‍थाओं और चेतना को जन्‍म देता है, यह भी एक यांत्रिक,आधिभौतिक समझ है। पूँजीवाद की प्रकृति अन्‍तरविरोधी होती है। एक ओर वह जनवादी आकांक्षाओं, मूल्‍यों, संस्‍थाओं के फलने-फूलने की जमीन अपनी स्‍वयंस्‍फूर्त आंतरिक गति से पैदा करता है, दूसरी ओर इन्‍हें रस्‍मी बना देने और दबाने-कुचलने की सतत् कोशिशें करता रहता है। संकटग्रस्‍त पूँजीवाद निरंकुशता और फासीवादी मूल्‍यों-संस्‍थाओं को भी स्‍वयंस्‍फूर्त गति से पैदा करता है और सचेतन बढ़ावा भी देता है। उस समय जनवादी मूल्‍यों-संस्‍थाओं का स्‍पेस सिकुड़ता जाता है, लेकिन जनता की जनवादी आकांक्षाएँ बनी रहती हैं और जनवाद के स्‍पेस के संकुचन के विरुद्ध उसे संगठित करने की वस्‍तुगत जमीन तैयार रहती है। जनवाद की यह लड़ाई जनता की चेतना को उन्‍नत करती है और आगे समाजवाद की लड़ाई के लिए उसे तैयार करती है।...........................
  • Kavita Krishnapallavi (पिछले कमेंट से आगे)बात को दूसरे तरीके से समझने की कोशिश करें। मार्क्‍स ने सिर्फ यह कहा था कि किसी भी सामाजिक ढाँचे में शासक वर्ग के विचार, संस्‍कृति और मूल्‍य ही प्रभुत्‍वशील होते हैं, उन्‍होंने यह नहीं कहा था कि किसी सामाजिक ढाँचे में एकमात्र शासकवर्गीय विचारों-मूल्‍यों-संस्‍कृति का ही अस्तित्‍व होता है। पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में पूँजीवादी (और उसके द्वारा सहयोजित, उत्‍सादित प्राक् पूँजीवादी) मूल्‍य, संस्‍कृति और संस्‍थाएँ प्रभुत्‍वशील स्थिति में होती हैं, लेकिन उनके साथ ही सर्वहारा मूल्‍य, संस्‍कृति और संस्‍थाएँ भी पैदा होकर लगातार विकासमान रहती हैं और प्रभुत्‍वशील पूँजीवादी संस्‍कृति एवं संस्‍थाओं के विरुद्ध टकराती रहती हैं। 'वर्चस्‍व' ('हेजेमनी') की अवधारणा निरूपित करते हुए अन्‍तोनियो ग्राम्‍शी ने इस प्रश्‍न पर काफी विस्‍तार से चर्चा की है। शासक वर्ग की सांस्‍कृतिक-वैचारिक 'हेजेमनी' के विरुद्ध वर्गों के बीच के सुदीर्घ 'पोजीशनल वारफेयर' में लगातार खंदकों और बंकरों की मोर्चेबन्‍दी जैसी लड़ाई चलती रहती है। अत: यह बेहद भोंड़ी अधिभूतवादी समझ है कि समाजवादी मूल्‍यों, आचार और संस्‍कृति की स्‍थापना हम समाजवाद आने के बाद कर लेंगे (या तब वह स्‍वत: हो जायेगी),फिलहाल हमें समाजवाद के लिए लड़ना चाहिए, और यह कि, पूँजीवाद के रहते पूँजीवादी बुराइयाँ ही छाई रहेंगी, अत: उनके विरुद्ध लड़ना बेमानी है। सच यह है कि वर्ग संघर्ष के वैचारिक-सांस्‍कृतिक मोर्चे के बगैर समाजवाद की राजनीतिक-आर्थिक लड़ाई के लिए जनचेतना तैयार ही नहीं की जा सकती। सही है कि पूँजीवादी समाज में शासक वर्ग के मूल्‍यों-संस्‍थाओं-संस्‍कृति का ही वर्चस्‍व होगा, पर उस वर्चस्‍व को कमजोर करने का संघर्ष लगातार जारी रहेगा तभी पूँजीवाद के ध्‍वंस के लिए जनचेतना तैयार की जा सकेगी। सांस्‍कृतिक क्रांति एक अनवरत जारी प्रक्रिया है, जो क्रांतिपूर्व काल में भी जारी रहती है, राज्‍य सत्‍ता पर सर्वहारा वर्ग के कब्‍जे के बाद उसका रूप बदल जाता है, रणनीति और आम रणकौशल बदल जाते हैं, कार्रवाई के नारे बदल जाते हैं।
    (समाप्‍त)

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