Friday, 21 November 2014

राजनीति में अंध-भक्ति खतरनाक होती है -----कँवल भारती

20-11-2014 · Edited
राजनीति में अंध-भक्ति खतरनाक होती है
(कँवल भारती)
फेसबुक मित्र पवन कुमार ने मेरे इनबॉक्स में मुझसे पूछा है कि-- “सर, मोदी के बढ़ते रथ को रोकने के लिये हमारे विश्लेषक व लेखक कोई कदम उठा रहे है या नहीं ? बहन जी ने तो मिशन की गति ही रोक दी.”
मैं इसका क्या जवाब दूं? यह सवाल तो पवन कुमार को उन दलित चिंतकों से पूछना चाहिए, जिन्होनें कांशीराम और मायावती की चापलूसी करने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे, जो मायावती को दलितों की जिन्दा देवी कहते थे, जिनके लिए वे सिर्फ पूजा की वस्तु हैं और जिन्होने यह कभी नहीं सोचा कि वे क्या कर रही हैं और दलितों को कहाँ ले जा रही हैं? अगर मेरे जैसे कुछ लोगों ने मायावती के नेतृत्व पर सवाल उठाया, तो हमें उनहोंने समाज का गद्दार और ब्राह्मणों का दलाल कहा.
अभी हमारे एक मित्र, जो एक पत्रिका भी निकालते हैं, लखनऊ में ‘कथाक्रम’ के बाद मुझसे मिलने लखनऊ विश्वविद्यालय के गेस्टहाउस में आये थे. उन्होंने मायावती की अंधी भक्ति में अपनी पत्रिका को बसपा का पोस्टर बना दिया था. इससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ. उन्होंने भी मुझसे यही सवाल पूछा, जो पवन कुमार ने पूछा है. मैं तो इस मौके की तलाश में ही था. सो, मैंने कहा, “अगर आप जैसे बुद्धिजीवियों ने अपनी चापलूसी की भूमिका नहीं निभाई होती, एक आलोचक की भूमिका निभाई होती, तो आज मोदी को लेकर आप इतने परेशान नहीं होते, पर आप तो उन्हें अपना आराध्य माने हुए थे”.
यह सिर्फ उन्हीं की बात नहीं है, हमारे एक दलित लेखक ने तो बाकायदा किताब ही लिख दी—‘मायावती जिन्दा देवी’. ऐसे ही लोगों ने मायावती को यह एहसास कराया कि सब कुछ हरा-हरा है, कहीं भी कुछ सूखा नहीं है. वे कहीं कुछ गलत नहीं कर रही हैं. कब और कैसे बसपा का हाथी गणेश बन गया, इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. जब कांशीराम ने सपा-बसपा गठबंधन तोड़कर पहली बार भाजपा से हाथ मिलाया और मायावती को मुख्यमंत्री बनाया, तो दलितों ने जश्न मनाया था. दलित बुद्धिजीवियों ने कसीदे पढ़े थे, यहाँ तक कहा गया कि दलित-ब्राह्मण की एकता से समाज बदलेगा. किसी ने भी इस पर सवाल खड़े नहीं किये, किसी ने भी इसके दूरगामी परिणाम पर विचार नहीं किया. जब दूसरी बार उन्होंने फिर से भाजपा से हाथ मिलाकर सरकार बनाई, तब भी उन दलित बुद्धिजीवियों ने जश्न मनाया. तीसरी बार जब बसपा को पूर्ण बहुमत मिला, तो उसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया. किसी ने उसे इस नजरिये से नहीं देखने की कोशिश नहीं की कि वह ब्राह्मण की अवसरवादिता थी, जिसे मायावती के सहारे सत्ता में आना था. अगर वह सोशल इंजीनियरिंग थी, तो लोकसभा-2014 के चुनावों में बसपा का सूपड़ा क्यों साफ़ हो गया? अगर सोशल इंजीनियरिंग नाम की कोई चीज है, तो वह ‘बहुजन’ की अवधारणा को कायम रखने और मजबूत करने में होनी चाहिए थी, लेकिन मायावती ने उसी को अपनी तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग में ध्वस्त कर दिया.
यहाँ मैं कहना चाहता हूँ कि दलित बुद्धिजीवी सवाल क्यों नहीं उठाते? जब पहली बार कांशीराम ने भाजपा से हाथ मिलाया था, तो उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया? जब कांशीराम ने भाजपा को असाम्प्रदायिक और राष्ट्रवादी पार्टी बताया था, तो उन्होंने उस पर सवाल क्यों नहीं खड़े किये? जब मायावती 2000 में नरेंद्र मोदी के लिए वोट मांगने गुजरात गयीं थीं, तो उन्होंने उन्हें कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया? जब यह सब उन्होंने नहीं किया, तो अब मायावती के पतन पर हाय-हाय क्यों की जा रही है? मैं अपने से एक उदाहरण देता हूँ, जब मैंने आज़म खां के जुल्म के खिलाफ कांग्रेस का दामन थामा था, तो देश भर में मेरे खिलाफ विरोध का माहौल बना था, मेरे बहुत करीबी मित्र भी मेरे खिलाफ हो गये थे, यहाँ तक कि मेरे पक्ष में हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले एक सीनियर अधिवक्ता ने भी बहस नहीं की थी, क्योंकि वे मेरे कांग्रेस में जाने से नाराज हो गये थे. इसे कहते हैं विरोध. और मैंने कुछ ही समय बाद कांग्रेस छोड़ दी थी, जबकि मैं कांग्रेस का मेंबर तक नहीं बना था. अगर इसी तरह का दबाव दलित बुद्धिजीवियों और दलितों ने मायावती पर बनाया होता तो आज बहुजन राजनीति की इतनी दुर्गति नहीं होती कि जहाँ से हम चले थे, लौट कर वहीँ आ गये. कहीं पहुंचे ही नहीं.

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