*ये दोनों लेखक महोदय जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं वे भाजपा को पुन : सत्तासीन देखना चाहते हैं। ** वास्तविकता तो यह है कि , राहुल कांग्रेस जो इन्दिरा जी के समय 1980 से ही संघ के निकट रही है अपने खुद के दम पर पूर्ण बहुमत लाने की स्थिति में नहीं है इसीलिए पी चिदंबरम ने सुझाव दिया है कि , जहां जो क्षेत्रीय दल प्रभावी है उसे आगे रख कर कांग्रेस उसे समर्थन दे और लोकसभा में भाजपा को बहुमत न मिलने दे। इस दिशा में चर्चायेँ चल भी रही हैं। ***कुछ विद्वान वास्तविकता से आँखें मूँद कर दिवा - स्वप्न लोक में विचरण करते हुये जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु वैसा होगा नहीं और जनता जन - विरोधी मोदी सरकार को आगामी चुनावों में उखाड़ फेंकेगी। **** विपक्ष को यह देखना होगा कि सिर्फ भाजपा को हराने से देश का भला नहीं हो सकता उनको संघ को परास्त करने हेतु बुद्धि - चातुर्य संजोना होगा तभी देश का भला कर पाएंगे। राहुल कांग्रेस को भी संघ के चंगुल से निकालना विपक्ष का लक्ष्य होना चाहिए। स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
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ये दोनों लेखक महोदय जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं वे भाजपा को पुन : सत्तासीन देखना चाहते हैं। ' (ब )' के लेखक इसलिए चिंतित हैं कि , संघ के कार्यकर्ता मोदी - शाह के नेतृत्व वाली भाजपा से असंतुष्ट हैं। लेकिन उनको उम्मीद है कि उनके पास मोदी को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। शायद इनको यह याद नहीं रहा कि, 1980 में इन्दिरा जी व 1985 में राजीव जी की कांग्रेस को संघ ने वोट देकर भारी बहुमत से जिताया और भाजपा को हराया था। इसी प्रकार दिल्ली में AAP को जिताया व BJP को हराया था। वस्तुतः संघ भाजपा पर नहीं भाजपा संघ पर निर्भर है। जबकि संघ अपना दायरा बढ़ाने के लिए दूसरे दलों में भी घुसपैठ करता जा रहा है। उसका लक्ष्य सत्ता और विपक्ष दोनों को अपनी मुट्ठी में रखना है। मोदी - शाह ने संघ को ही अपनी मुट्ठी में समेटना चाहा जिस कारण संघ ने अपने कार्यकर्ताओं के जरिये उनको संदेश दिलवा दिया है। यदि भाजपा को बहुमत मिलता है तब इस जोड़ी को हटाया नहीं जा सकेगा इसलिए संघ आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को शिकस्त दिलवाएगा। विपक्ष को यह भ्रम रहेगा कि ऐसा उनकी एकता से संभव हुआ है जबकि संघ और मजबूत होता जाएगा। पूर्व राष्ट्रपति महोदय को रणनीति के तहत ही नागपुर बुलाया गया था बिलावजह नहीं। '(आ )' के लेखक कीचिंता यह है कि, वह कांग्रेस व विपक्षी दलों को अक्षम समझ रहे हैं। दोनों लेख जनता के मध्य भ्रम फैलाने का काम करने वाले हैं। वास्तविकता तो यह है कि , राहुल कांग्रेस जो इन्दिरा जी के समय 1980 से ही संघ के निकट रही है अपने खुद के दम पर पूर्ण बहुमत लाने की स्थिति में नहीं है इसीलिए पी चिदंबरम ने सुझाव दिया है कि , जहां जो क्षेत्रीय दल प्रभावी है उसे आगे रख कर कांग्रेस उसे समर्थन दे और लोकसभा में भाजपा को बहुमत न मिलने दे। इस दिशा में चर्चायेँ चल भी रही हैं।
2014 में भाजपा के बहुमत में कांग्रेस से गए सौ से अधिक सांसदों का योगदान था यदि वे वापिस लौट लें तो भाजपा वैसे भी बहुमत नहीं प्राप्त कर सकती है। इस दिशा में भी संजय गांधी का परिवार मददगार हो सकता है । कुछ विद्वान वास्तविकता से आँखें मूँद कर दिवा - स्वप्न लोक में विचरण करते हुये जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु वैसा होगा नहीं और जनता जन - विरोधी मोदी सरकार को आगामी चुनावों में उखाड़ फेंकेगी। विपक्ष को यह देखना होगा कि सिर्फ भाजपा को हराने से देश का भला नहीं हो सकता उनको संघ को परास्त करने हेतु बुद्धि - चातुर्य संजोना होगा तभी देश का भला कर पाएंगे। राहुल कांग्रेस को भी संघ के चंगुल से निकालना विपक्ष का लक्ष्य होना चाहिए। संकलन-विजय राजबली माथुर
20-07-2018 सामाजिक न्याय के संघर्ष का राजनीतिक पराभव और इसके नेताओं की प्रतिबद्धताओं का नैतिक विचलन 20वीं और 21वीं सदी के संक्रमण काल की ऐसी उल्लेखनीय घटना है जिसे इतिहास रेखांकित करेगा। इस पराभव और विचलन ने बहुसंख्यक आबादी के संघर्षों को दिशाहीन कर दिया और ऐसी सत्ता-संरचना को मजबूती दी जिसके खिलाफ लड़ने के लिए ही इसका उद्भव हुआ था। 1990 के दशक में सामाजिक न्याय की लड़ाई एक नए दौर में पहुंची और सत्ता की राजनीति में दलित-पिछड़ों की बढ़ती भागीदारी ने एक नई राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया। निस्संदेह...यह नए भारत का उदय था। जातीय धरातल पर राजनीतिक शक्तियों का यह हस्तांतरण भारतीय सामाजिक इतिहास का बेहद महत्वपूर्ण अध्याय साबित हुआ। कई नेता उभरे जो खुदमुख्तार और कद्दावर राजनीतिक शख्सियत बन गए और जिनके हर भाषण में सामाजिक न्याय के लिये प्रतिबद्धता की गूंज सुनाई देती रही। यही प्रतिबद्धता उनकी राजनीतिक पूंजी भी बनी और उनके समर्थकों के एकनिष्ठ समर्थन का आधार भी। लेकिन, देश और दुनिया के बदलते हालातों ने इन नेताओं के वैचारिक भटकाव और अपने समर्थक समूहों के व्यापक हितों के प्रति विचलन को उजागर करने में अधिक देर नहीं लगाई। राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर हावी होती कारपोरेट संस्कृति के सामने ये नेता मजबूती के साथ खड़े तो नहीं ही रह सके, बल्कि नीति नियामक संरचना के समक्ष अनेक मायनों में इन्होंने आत्मसमर्पण भी कर दिया। अंततः सामाजिक न्याय का ऐतिहासिक संघर्ष अस्मितावादी राजनीति के दायरे में सीमित होकर रह गया और इस संघर्ष के अग्रणी योद्धाओं को सत्ता-संरचना ने अपने में समाविष्ट कर इनके तेज को हर लिया। 1990 के दशक में भारत में दो बातें एक साथ शुरू हुईं। आर्थिक सुधारों के नाम पर व्यवस्था के कारपोरेटीकरण की शुरुआत और दूसरी, सामाजिक न्याय की शक्तियों का बढ़ता राजनीतिक प्रभाव। ये दोनों प्रवृत्तियां सैद्धांतिक तौर पर एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं और एक के सशक्त होने पर दूसरे का प्रभावहीन होना तय था। दिलचस्प यह कि दोनों को ही "युग की मांग" भी कहा गया। नवउदारवादी सत्ता-संरचना की विशेषता है कि यह अत्यंत लचीली होती है और प्रतिरोधी शक्तियों को निस्तेज कर आत्मसात करने में इसके लिये न जाति मायने रखती है न धर्म, न कोई सामाजिक सोपान। यही वह सत्ता-संरचना है जो वास्तविक अर्थों में धर्म और जाति निरपेक्ष है। धर्म और जाति इनके लिये टूल हैं और राजनीतिक धरातल पर धार्मिक या जातीय मसीहाओं को इस्तेमाल कर लेने में इन्हें महारत हासिल है। दशक बीतते-बीतते सामाजिक न्याय का संघर्ष अपनी वैचारिकता खोने लगा और अंततः जातीय कोलाहल में बदल गया। जितनी जातियां उतने नेता। हर जाति के अलग-अलग नेता, जो असल में नेता नहीं वोटों के ठेकेदार बने और बड़ी तबीयत से नवउदारवादी सत्ता-संरचना ने इन ठेकदारों के माध्यम से दलित-पिछड़ा राजनीति को नियंत्रित करना शुरु किया। सामाजिक न्याय के योद्धाओं का सत्ता-संरचना में फिट हो जाना इस संघर्ष की धार के कुंद हो जाने का सबसे बड़ा कारण बना। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि संघर्ष को वैकल्पिक नेता नहीं मिले। कोई भी संघर्ष जब विचारधारा आधारित होता है तो एक नेता के विचलन के बाद उसका स्थान दूसरा ले लेता है और मुहिम जारी रहती है। लेकिन, यह संघर्ष बहुत हदों तक अपनी वैचारिक जमीन खो चुका था। इसके नेता "राजनीतिक बाबा" में बदल चुके थे और उनके हित उनके समर्थक समूहों के हितों के साथ न होकर सत्ता-संरचना के हितों के साथ जुड़ गए। अपने "बाबाडम" को निष्कंटक बनाए रखने के लिये उन्होंने अपने आसपास परिवार और अन्य खास लोगों का सुरक्षा घेरा बनाया और निर्णय प्रक्रिया को इसी घेरे में कैद कर लिया। नतीजा...सामाजिक न्याय से जुड़े मौलिक सवाल नेपथ्य में जाने लगे और कृत्रिम सवालों को कोलाहल का रूप देकर भ्रम की संरचना निर्मित की जाने लगी। भूमि सुधार के बिना सामाजिक न्याय की बातें करना बेमानी है। लेकिन, इस मुद्दे को योजनाबद्ध तरीके से कभी उभरने ही नहीं दिया गया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के 52 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। ये लोग कौन हैं और इतिहास की किन तर्कहीन प्रक्रियाओं ने इन्हें भूमिहीन रहने दिया, ये सवाल सामाजिक न्याय के संघर्ष के घोषणापत्र में सबसे पहला होना चाहिए था। शिक्षा के निजीकरण का उग्र विरोध किये बिना उन लोगों के हितों की सुरक्षा की ही नहीं जा सकती जो सामाजिक न्याय के दायरे में हैं। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा तक बहुसंख्यक आबादी की पहुंच को अवरुध्द कर उन्हें हाशिये पर छोड़ देना प्रभु वर्ग की ऐसी सुनियोजित साजिश है जिसके खिलाफ राजनीतिक मैदानों में कहीं कोई प्रभावी आवाज नहीं सुनाई दे रही। यह सामाजिक न्याय के संघर्ष की प्रत्यक्ष पराजय है। हजारों वर्षों से शिक्षा तंत्र की मुख्यधारा से बहिष्कृत समुदायों को लोकतांत्रिक भारत में अवसरों की समानता के संवैधानिक अधिकारों के तहत जो अवसर मिल सकते थे , उन्हें बेदर्दी से खुलेआम छीना जा रहा है और मान लिया गया है कि यही उभरते हुए नए भारत का स्वीकृत कंसेप्ट है। संसाधनों के निवेश की प्राथमिकताएं, स्वास्थ्य संबंधी नीतियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिनकी ओर व्यवस्था के बढ़ते कदम सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का प्रत्यक्ष हनन करते हैं। लेकिन... जिस संघर्ष की उठती हुई लपटें सत्ता-संरचना के निर्वात शीत और स्याह अंधेरे में गुम होती जाएं उसकी तपिश को तो अप्रभावी हो ही जाना है। निर्मम और स्वार्थी कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना को सबसे प्रखर चुनौती भारत का दलित-पिछड़ा समुदाय ही दे सकता था। लेकिन...एक संघर्ष यात्रा आधी राह में ही भटक चुकी है। इसने प्रतीक के कुछ चमकते कंगूरे तो खड़े किए, लेकिन सतह के घने होते अंधेरे से जूझने में नाकाम रही। https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/1722321161209123 ********************************************* Facebook Comments :
जो समाज अपने विश्वविद्यालयों को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में तब्दील कर देता है वह अपने बौद्धिक पतन की राह तो खोलता ही है, नैतिक पतन की ओर भी बढ़ता है। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में 'आइडियाज ' जन्म लेते हैं जिनका अंतिम उद्देश्य व्यवसाय को बढ़ाना ही हो सकता है, जबकि विश्वविद्यालय स्वतंत्र चिंतन और ज्ञान के केंद्र होते हैं। जब किसी विश्वविद्यालय को व्यवसाय के सिद्धांतों के अनुसार चलाने की कोशिशें होती हैं तो फिर मुनाफा उनका पहला लक्ष्य होता है और चिंतन पक्ष कमजोर हो जाता है। मुनाफा की संस्कृति में बौद्धिक और वैचारिक उत्कर्ष की कल्पना करना व्यर्थ है। वहां नैतिकता के नए मानक तय होते हैं जिनका संबंध 'मनुष्यता' नामक शब्द से सबसे कम होता है। तंत्र से जुड़े हर अंग, चाहे वे शिक्षक हों, छात्र हों, कर्मचारी हों या फिर कुलपति ही क्यों न हों, सबकी परिभाषाएं बदल जाती हैं, उनके आपसी संबंधों का स्वरूप बदल जाता है। आप भारत के अधिकांश निजी विश्वविद्यालयों को देखें। इनके द्वारा संचालित कोर्सेज की पड़ताल करें, इनके परिसरों की संस्कृति का विश्लेषण करें। आपको कहीं से ये विश्वविद्यालय नहीं लगेंगे, बल्कि लकदक मॉल लगेंगे। कुलपति की जगह 'सी ई ओ' टाइप का कोई व्यक्ति मिलेगा जिसकी पहली चिंता ऐसे कोर्सेज को प्रमुखता देने की होगी जिनमें अधिक नामांकन, प्रकारान्तर से अधिक मुनाफा की संभावना हो। आप अगर इस बात की कल्पना करते हैं कि यहां समाज विज्ञान और मानविकी जैसे विषयों में उत्कृष्ट शोध होते होंगे या हो सकते हैं , तो यह आपका भ्रम साबित होगा। मुनाफा की संस्कृति में संचालित संस्थानों में मनुष्यता के उत्थान आधारित शोध होने का कोई मतलब नहीं बनता। समाज विज्ञान और मानविकी संबंधी अध्ययन और शोध मनुष्यता के उन्नयन के लिये आवश्यक हैं, व्यवस्था को अधिकाधिक मानवीय बनाने के लिये आवश्यक हैं। कोई व्यवसायी इसके लिये कुछ दान तो दे सकता है लेकिन इसे अपनी जिम्मेदारी नहीं मान सकता। यह जिम्मेदारी तो सरकारों की है जिससे वे मुंह मोड़ रही हैं। सरकारें अब सैद्धांतिक रूप से ही जनता की प्रतिनिधि रह गई हैं, व्यावहारिक रूप से वे कारपोरेट की प्रतिनिधि मात्र रह गई हैं। कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना का एक पालतू सा कम्पोनेंट...'सरकार '। इतिहास के किसी दौर में सत्ताएं इस कदर पूंजी संचालित नहीं रहीं। भारत इस मायने में अनूठा है कि यहां उच्च शिक्षा के निजी संस्थान संचालित करने वालों की नैतिकता निम्नतम स्तरों पर है। आप यहां के निजी संस्थानों की तुलना यूरोप या अमेरिका से नहीं कर सकते। वहां फीस स्ट्रक्चर चाहे जो हो, शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाता। जबकि, भारत के अधिकतर निजी संस्थानों में शैक्षणिक गुणवत्ता पर ध्यान देने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं की जाती। ये डिग्री और डिप्लोमा बेचने वाली दुकानें हैं, जिनसे निकल कर अधिकांश डिग्रीधारी रोजगार के बाजार में किसी लायक नहीं पाए जाते। 'एसोचैम' (Associated Chambers of Commerce and Industry of India) जब यह घोषित करता है कि भारत के 75 प्रतिशत से अधिक तकनीकी ग्रेजुएट्स रोजगार के लायक नहीं, तो यह विश्लेषित करने की जरूरत है कि इनमें से कितने ग्रेजुएट्स निजी संस्थानों से निकले हैं और कितने सरकारी संस्थानों से। आश्चर्य नहीं कि इन 'बेकार' ग्रेजुएट्स में अधिकतर निजी संस्थानों से ही निकले हुए युवा हैं। तरह तरह की मनमानी फीस वसूल कर ये निजी संस्थान जब युवाओं को बिना गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के, महज कागजी डिग्री देकर रोजगार के बाजार में एड़ियां रगड़ने को भेजते हैं तो उन संस्थानों की कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जाती। हर तरह से चले जाते हैं वे युवा, जिन्हें "राष्ट्र का भविष्य" कहते नेतागण थकते नहीं। तो...देश और समाज के भविष्य को निजी पूंजी के हाथों शोषित और छले जाने को विवश करती यह व्यवस्था कैसे भविष्य का निर्माण कर रही है, इस पर विमर्श होना चाहिये। शिक्षा मनुष्यता और सभ्यता की विकास यात्रा का सबसे अहम सोपान है, लेकिन जब शिक्षा ही बाजार के हवाले कर दी जाए तो सभ्यता और मनुष्यता, दोनों का आहत होना तय है। बाजार मूलतः मनुष्यता विरोधी होता है क्योंकि मुनाफा की संस्कृति में मनुष्यता पनप ही नहीं सकती। देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों को 'स्वायत्तता' देने का जो स्वांग रचा जा रहा है, वह और कुछ नहीं, उच्च शिक्षा को अधिकाधिक बाजार के हवाले करने की कारपोरेट हितैषी योजना ही है। अभी तो शुरुआत है। देखते जाइये, धीरे-धीरे पूरा तंत्र बाजार के हवाले होगा और देश की 90 प्रतिशत आबादी के लिये गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा महज सपना रह जाएगी। कारपोरेट कम्पनियों में तब्दील विश्वविद्यालय न समाज के चिंतन को नई दिशा दे सकते हैं न आने वाली पीढ़ियों के बौद्धिक उत्कर्ष को नए धरातल दे सकते हैं। मुनाफा की संस्कृति में बंधती शिक्षा-संरचना समाज को नैतिक रूप से पतनोन्मुख ही करेगी। इस भूल में न रहें कि अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध हावर्ड और येल जैसे विश्वविद्यालय या ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड जैसे संस्थान निजी संस्थान हैं। निश्चय ही ये सरकारी नहीं हैं, लेकिन इनकी संरचना ऐसी है कि इन्हें भारत के निजी विश्वविद्यालयों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इन्होंने अपने देश का मान पूरी दुनिया में ऊंचा किया है और शोध एवं चिंतन के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित किये हैं। शैक्षणिक उत्कृष्टता के मानकों को नए धरातल देते ये संस्थान मुनाफा की संस्कृति से तो कतई संचालित नहीं हैं। जाहिर है, उन संस्थानों का उदाहरण देकर हम भारत में उच्च शिक्षा को बाजार के हवाले करने का समर्थन नहीं कर सकते। जो कदम जन विरोधी हैं वे सर्वथा त्याज्य हैं और उनका सशक्त प्रतिरोध होना चाहिये। भारत के अधिकांश निजी संस्थान छात्रों को ग्राहक बनाते हैं और शिक्षकों को दलाल। शोषित दोनों होते हैं और मालामाल सिर्फ वह व्यवसायी होता है जिसकी पूंजी लगी है। हमारे देश के नियामक तंत्र के भ्रष्टाचार और खोखलेपन के जीते-जागते सबूत हजारों की संख्या में देश भर में फैले निजी शिक्षक प्रशिक्षण कालेज, मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज आदि हैं जो आवश्यक अर्हताएं पूरी किये बिना संचालित हैं और अधकचरे ग्रेजुएट्स की भरमार पैदा कर रहे हैं। वैसे भी, हम अमेरिका और अन्य विकसित यूरोपीय देशों के उदाहरण पर नहीं चल सकते। वहां का जीवन स्तर, लोगों की आमदनी का स्तर, नियामक तंत्रों की सजगता आदि की कोई तुलना हमारे देश की स्थितियों से नहीं की जा सकती। हम भारत हैं और हमें भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ही चलना होगा। वरना...विश्वगुरु बनने का भ्रामक सपना देखते देखते हम बौद्धिक और नैतिक रूप से पतनोन्मुख पीढ़ियों का अभिशाप झेलने को विवश होंगे। साभार : https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/1720124231428816 *************************************** Facebook comments :
05-07-2018 सरकार पर बाज़ार वाद का दबाव :- कांग्रेस प्रवक्ता पर की गई अभद्र टिप्पणी के कारण उठाये गए सख्त कदम और उनके पीछे के दबावों पर एक विश्लेषण। * फेसबुक तथा ट्वीटर सभी को निशुल्क अपने विचार व्यक्त करने एवं अनजान लोगों से जुड़ने की सुविधा उपलब्ध कराता है। *फिर भी अथाह आय करता है जो विज्ञापनों के माध्यम से होती हैं। *सामान्यता 30 से 40 आयुवर्ग के व्यक्ति ही अधिकतम खरीददारी करते हैं तो उनके द्वारा विज्ञापन देखना एवम प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध रहना ही आय का साधन है। *गत कुछ समय से गालीबाजो/ट्रोल्स के कारण प्रबुद्ध वर्ग fb से विदा लेता जा रहा था और निम्न आयवर्ग के बच्चों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। *fb से ट्वीटर की ओर गया हुआ ट्रेफ़िक जब कम्पनियों की चिंता का कारण बनना शुरू हुआ तो भारत सरकार पर असहिष्णुता के आरोप लगने शुरू हो गए जो अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि चिंताजनक रूप से खराब कर रहे थे। *हम सभी जानते है कि दोनों सोशल मीडिया कम्पनियों की मालकियत किस देश की है एवम मोदी सरकार किस दबाव में काम करती हैं। *ऐसे में सरकार के पास कोई और चारा नहीं रहा कि सायबर ट्रोल्स के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करे। *कुछ अच्छा लिखने वालों की गैर मौजूदगी पर कम्पनियों की तुरन्त निगाह रहती हैं। ऐसे में यदि आने वाले समय में कथित आईटी सेल के अपने ही लोगो के विरुद्ध सरकार कार्यवाही करने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। ◆उदाहरण के लिए रवीश कुमार के प्राइम टाइम में सबसे अधिक सरकार की ही आलोचना होती हैं लेकिन सबसे अधिक विज्ञापन पतञ्जलि के ही होते है। क्योकि सरकार और पूंजीपति किसी के नही केवल अपने हितों के लिए होते है तो ऐसा तो होना ही था ! बाज़ार से बिगाड़ कर तो हज़ूर की भी हिम्मत नहीं है जो दो कदम चल सके◆ साभार : https://www.facebook.com/photo.php?fbid=241155223338127&set=a.200468104073506.1073741829.100023309529257&type=3
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आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता था जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता था ::